________________
64
जैनविद्या-12
रूपक:
___ कवि ने वस्तु के सूक्ष्म स्वरूप का बोध कराने हेतु रूपक का प्रयोग किया है ।
यथा
रागद्वेषद्वयीदीर्घनेत्राऽऽकर्षणकर्मणा ।
अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥11॥ - यह प्राणी राग-द्वेषरूपी लम्बी डोरियों से आकर्षित होकर (खींचा जाने से) कर्मबन्ध करता है । फलस्वरूप संसाररूपी समुद्र में दीर्घकाल तक भ्रमण करता है ।
प्रस्तुत श्लोक में "रागद्वेषद्वयीदीर्धनेत्र" (राग-द्वेषरूपी दो लम्बी डोरी) तथा "संसाराब्धौ" (संसाररूपी समुद्र) दो रूपक आये हैं। ये रूपक क्रमशः रागद्वेष के कारण होने वाले जटिल बन्धन एवं संसार की विशालता की अनुभूति कराने में समर्थ हैं । अर्थान्तरन्यास :
कथन का औचित्य सिद्ध करने के लिए कवि ने अर्थान्तरन्यास का प्रयोग किया है । उदाहरणार्थ
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।
"ददाति यत्तु यस्यास्ति'-सुप्रसिद्धमिदं वचः ॥ 23 ॥ - अज्ञानी (मिथ्याज्ञानी कुगुरु आदि) की सेवा अज्ञान तथा ज्ञानी की उपासना से ज्ञान प्राप्त होता है । ठीक है, जिसके पास जो होता है वह ही उसे देता है।
यहां 'यत्त यस्य अस्ति ददाति' (जिसके पास जो होता है वह उसी को देता है। अर्थान्तरन्यास का प्रयोग है । 'अज्ञानी से अज्ञान तथा ज्ञानी से ज्ञान प्राप्त होता है' इस कथन के औचित्य को अत्यन्त सशक्त रूप से अभिव्यक्त करता है । दृष्टान्त : कवि ने ष्टान्त के द्वारा कथन के औचित्य का प्रतिपादन किया है । यथा
विराधकः कथं हो जनाय परिकुप्यति ।
व्यङ गुलं पातयन्पद्भ्यां स्वयं दंडेन पात्यते ॥ 10 ॥ - अन्य पर उपकार करनेवाला मनुष्य, स्वयं पर अपकार करनेवाले के प्रति क्रोध क्यों करता है ? व्यंगुल को जो व्यक्ति पैरों से पृथ्वी पर गिराता है तो वह स्वयं हाथ में पकड़े डंडे के द्वारा नीचे गिरा दिया जाता है।
प्रस्तुत श्लोक का उत्तरार्ध एक दृष्टान्तात्मक वाक्य है। यह दृष्टान्त 'प्राणी को किये गये कार्य के अनुसार ही फल प्राप्त होता है' भाव को अत्यन्त सफलतापूर्वक अभिव्यंजित करता है। साथ ही अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को द्वष भाव न करने हेतु प्रेरित करता है।