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________________ 20 जैनविद्या-12 यह व्याकरण से सिद्ध किया जाता है तब सम उपसर्गपूर्वक अंच धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर सम्यक् शब्द बनता है । संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति "समंचति इति सम्यक्” इस प्रकार होती है, उसका अर्थ प्रशंसा है । (1.1) सम्यग्ज्ञान येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम्-जिस जिस प्रकार से जीवादिक पदार्थ अवस्थित हैं, उस उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है । (1.1) सम्यकचारित्र संसारकारणनिवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादानक्रियोपरमः सम्यक्चारित्रम्-जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है, उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक्चारित्र कहते हैं । (1.1) दर्शन __ पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्-जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाय या. देखना मात्र दर्शन है । (1.1) ज्ञान जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्ति मात्र वा ज्ञानम्--जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाय या जानना मात्र ज्ञान है । (1.1) चारित्र चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्- जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आचरण किया जाय या आचरण करना मात्र चारित्र है । (1.1) मोक्षमार्ग सर्वकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । तत्प्राप्त्युपायो मार्गः- समस्त कर्मों का जुदा होना मोक्ष है और उसकी प्राप्ति का उपाय मार्ग है (1.1) तत्त्व तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची । कथम् ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्तते । तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थ:तत्त्व शब्द भाव सामान्य का वाचक है, क्योंकि “तत्" यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है, अतः उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहां तत् पद से कोई भी पदार्थ लिया गया है । आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है, उसका उस रूप होना यही यहां तत्त्व शब्द का अर्थ है । (1.2) अर्थ अर्यते इत्यर्थो निश्चीयत इति यावत्-जो निश्चय किया जाता है, वह अर्थ है । (1.2)
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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