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जैनविद्या-12
तत्त्वार्थ
तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थः । अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदव्यतिरेकात् । तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थ:-यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दो शब्दों के संयोग से तत्त्वार्थ शब्द बना है, जो तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः ऐसा समास करने पर प्राप्त होता है । अथवा भाव द्वारा भाववाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्योंकि भाव भाववाले से अलग नहीं पाया जाता । ऐसी हालत में इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थः तत्त्वार्थः ।' (1.2) जीव
चेतना लक्षणो जीव:-जीव का लक्षण चेतना है । (1.4) मजीव
तद्विपर्ययलक्षणोऽजीव:-जीव से विपरीत लक्षणवाला अजीव है । (1.4) मानव
शुभाशुभकर्मागमद्वाररूप प्रास्रवः--शुभ और अशुभ कर्मों के आने का द्वाररूप प्रास्रव है । (1.4) बन्ध
प्रात्मकर्मणोरन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः-आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है । (1.4) संवर
'प्रास्रवनिरोधलक्षणः संवरः'–आस्रव का रोकना संवर है । (1.4) निर्जरा
एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा-कर्मों का एकदेश क्षय होना निर्जरा है ।(1.4) मोक्ष
कृत्स्नकर्मवियोगलक्षणो मोक्ष:- सब कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष है । (1.4) नाम
अतद्गुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थं पुरुषाकारान्नियुज्यमानं संज्ञाकर्म नाम-गुणरहित वस्तु में व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा को नाम कहते हैं । (1.5) स्थापना
काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना-काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदि में "यह वह है," इस प्रकार स्थापित करने को स्थापना कहते हैं । (1.5) द्रव्य
गुणगुणान्वा द्रुतं गतं गुणैर्दोष्यते गुणान्द्रोष्यतीति वा द्रव्यम्-जो गुणों के द्वारा प्राप्त हुआ था या गुणों को प्राप्त होगा, उसे द्रव्य कहते हैं । (1.5)