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________________ इष्टोपदेश का उपदेश - श्री श्रीयांसकुमार सिंघई पूज्यपाद नाम से विख्यात महर्षि देवनन्दि ने विक्रम की छठी शताब्दी में भारत भूमि को समलङ्कृत करते हुए अपनी वीतरागी साधना और प्रखर प्रतिभा के सदुपयोग से लोकोपकारी साहित्य का सृजन किया था जो आज भी मुक्तिमार्ग के श्रवबोधन में सयुक्तिक व सार्थक है । सचमुच ही उनका सृजन मुक्तिमणि प्रदीप के समान प्राज भी सचेत सामाजिकों में स्फूर्ति का संचार करता है जिससे वे भौतिक भोगोपभोग सामग्री व संसाधनों की निरर्थकता समझ मुक्ति पुरुषार्थ की चाह करने लगते हैं । महर्षि देवनन्दि की निर्विवाद रचनात्रों - जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि टीका, समाधितंत्र और इष्टोपदेश - से उनके जिस व्यक्तित्व का अनुमान होता है उससे हम उन्हें एक कुशल वैयाकरण, महान् दार्शनिक तथा सिद्धान्तविद् अध्यात्मवेत्ता मान सकते हैं । उनकी रचनाओं की विषयवस्तु, प्रतिपादनशैली, अध्यात्मप्रेरणा आदि हृदयस्थ करने पर सुनिश्चित होता है कि वे प्राचार्य कुन्दकुन्द वाङ् मय से केवल सुपरिचित ही नहीं थे अपितु उन्होंने अपनी वीतरागी साधनासम्पन्न प्रयोगशाला में उसके सर्वस्व का सफल परीक्षण भी किया था । 'इष्टोपदेश' एक अति उपयोगी उपदेशात्मक रचना है । आत्मानुभूति के लिए अपेक्षित पुरुषार्थं, चिन्तन-मनन व आचरण आदि को संकेतित करना इसके उपदेश का सार है । प्रत्येक प्राणी के इष्टप्रयोजन की पूर्ति स्वात्मानुभूति अर्थात् अपने श्रात्मतस्व-चित्स्वरूप के संचेतन से ही संभव होती है । एतदर्थ इसमें जीव अन्य है और शरीरादि पुद्गल अन्य हैं इस विचारानुभूति को ही सम्पूर्ण तत्त्वविचार का सार समझकर तदतिरिक्त अन्य सभी तत्त्वोपदेश को इसका ही विस्तार माना गया 11
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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