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जैनविद्या-12
पृथिवीकायिक
__पृथिवीकायोऽस्यास्तीति पृथिवीकायिक:-जिस जीव के पृथिवीरूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते हैं । (2 13) पृथिवीजीव
समवाप्तपृथिवीकायनामकर्मोदय: कार्मणकाययोगस्थो यो न तावत्पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति स पृथिवीजीव:-यह जीव पृथिवीरूप शरीर के सम्बन्ध से युक्त है । कार्मणकाययोग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथिवी को कायरूप से ग्रहण नही किया है तब तक वह पृथिवीजीव कहलाता है । (2.13) निर्वृत्ति
निर्वर्त्यते इति निर्वृत्तिः । केन निर्वय॑ते ? कर्मणा-रचना का नाम निर्वृत्ति है । यह रचना कौन करता है ? कर्म । (2.17) प्राभ्यन्तरनिर्वृत्ति
उत्सेधांगुलासंख्येयभागप्रतिमात्र शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थिातानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वृत्तिः-उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियों के आकाररूप से अवस्थित शुद्ध प्रात्मप्रदेशों की रचना को प्राभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं । (2.17)
बाह्यनिर्वृत्ति
___तेष्वात्मप्रेदशेष्विन्द्रियव्यपदेशमाक्षुः यः प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः सा बाह्या निर्वृत्तिः- इन्द्रिय नाम वाले उन्हीं प्रात्मप्रदेशों में प्रतिनियत आकाररूप
और नामकर्म के उदय से अवस्था को प्राप्त जो पुद्गलप्रचय होता है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं । (2.17)
उपकरण
येन निवृत्त रुपकारः क्रियते तदुपकरणम्-जो निर्वृत्ति का उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं । (2.18) लब्धि
लब्धनं लब्धिः । का पुनरसौ ? ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः-लब्धि शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-प्राप्त होना । शंका-लब्धि किसे कहते ? ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं । (2.18) उपयोग
यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते तन्निमित्त प्रात्मनः परिणाम उपयोगः-जिसके संसर्ग से प्रात्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना करने के लिए उद्यत होता है तन्निमित्तक आत्मा के परिणाम को उपयोग कहते हैं । (2.18)