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________________ जैनविद्या-12 बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्तों से होता है और चैतन्य का अन्वयी है वह परिणाम उपयोग कहलाता है । (2.8) ज्ञानोपयोग ___साकार ज्ञानम्-साकार ज्ञानोपयोग है । (2.9) दर्शनोपयोग ___अनाकारं दर्शनम् -अनाकार दर्शनोपयोग है । (2.9) संसारी संसारिणः संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः । स एषामस्ति ते–संसरण को संसार कहते है जिसका अर्थ परिवर्तन है । (2.10) भावमन ___ वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षा आत्मनो विशुद्धिर्भावमनः-वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखनेवाली आत्मा की विशुद्धि को भावमन कहते हैं । (2.11) समनस्क मनसा सह वर्तन्त इति समनस्का:-जिन जीवों के मन पाया जाता है वे समनस्क हैं । (2.11) प्रमनस्क न विद्यते मनो येषां त इमे अमनस्का:-जिन जीवों के मन नहीं पाया जाता है वे अमनस्क हैं। वस त्रसनामकर्मोदयवशीकृतास्त्रसा:-जिनके त्रस नामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते स्थावर स्थावरनामकर्मोदयवशवर्तिनः स्थावरा:-जिनके स्थावर नामकर्म का उदय है उन्हें स्थावर कहते हैं । (2.12) पृथिवी अचेतना वैससिकपरिणामनिवृत्ति काठिन्यगुणात्मिका पृथिवी-जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठिन गुणवाली है वह पृथिवी है । (2.13) पृथिवीकाय पृथिवीकायिकजीवपरित्यक्तः पृथिवीकायो मृतमनुष्यादिकायवत्-पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह पृथिवीकाय कहलाता है, यथा-मरे हुए मनुष्य आदि का शरीर । (2.13)
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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