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ऋजुमति–
(1.23)
विपुलमति -
विपुलामतिर्यस्य सोऽयं विपुलमतिः - जिसकी मति विपुल है, वह विपुलमति कहलाता है । (1.23) मन:पर्यय
वीर्यान्तरायमन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भादात्मनः परकीयमनः सम्बंधेन लब्धवृत्तिरुपयोगो मन:पर्ययः - वीर्यान्तराय और मन:पर्यय ज्ञानावरण के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के आलम्बन से आत्मा में जो दूसरे के मन के सम्बन्ध' से उपयोग जन्म लेता है, उसे मनःपयर्य ज्ञान कहते हैं । ( 1.23)
विशुद्धि
क्षेत्र
विशुद्धि: प्रसादः - विशुद्धि का अर्थ निर्मलता है । ( 1.25 )
क्षेत्रं यस्थाभावान्प्रतिपद्यते - जितने स्थान में स्थित भावों को जानता है, वह क्षेत्र है । (1.25 )
स्वामी
जैनविद्या - 12
ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयं ऋजुमतिः - जिसकी मति ऋजु हैं, वह ऋजुमति कहलाता है।
-
विषय
नय
स्वामी प्रयोक्ता - स्वामी का अर्थ प्रयोक्ता है । (1.25)
विषयो ज्ञेयः - विषय ज्ञ ेय को कहते हैं । ( 1.25 )
वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रावणप्रवण: प्रयोगो नयः – अनेकान्तात्मक वस्तु से विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं । (1.33)
नैगम
अनभिनिर्वृत्तार्थसंकल्पमात्र ग्राहीनैगमः - प्रनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करनेवाला नय नैगम है । ( 1.33)
संग्रह --
स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्त ग्रहणात्संग्रहः - भेद सहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर समान्य से सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रह नय है । ( 1.33 )
व्यवहार
संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार : - संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थों का विधिपूर्वक प्रवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है । (1.33)