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________________ 26 ऋजुमति– (1.23) विपुलमति - विपुलामतिर्यस्य सोऽयं विपुलमतिः - जिसकी मति विपुल है, वह विपुलमति कहलाता है । (1.23) मन:पर्यय वीर्यान्तरायमन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भादात्मनः परकीयमनः सम्बंधेन लब्धवृत्तिरुपयोगो मन:पर्ययः - वीर्यान्तराय और मन:पर्यय ज्ञानावरण के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के आलम्बन से आत्मा में जो दूसरे के मन के सम्बन्ध' से उपयोग जन्म लेता है, उसे मनःपयर्य ज्ञान कहते हैं । ( 1.23) विशुद्धि क्षेत्र विशुद्धि: प्रसादः - विशुद्धि का अर्थ निर्मलता है । ( 1.25 ) क्षेत्रं यस्थाभावान्प्रतिपद्यते - जितने स्थान में स्थित भावों को जानता है, वह क्षेत्र है । (1.25 ) स्वामी जैनविद्या - 12 ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयं ऋजुमतिः - जिसकी मति ऋजु हैं, वह ऋजुमति कहलाता है। - विषय नय स्वामी प्रयोक्ता - स्वामी का अर्थ प्रयोक्ता है । (1.25) विषयो ज्ञेयः - विषय ज्ञ ेय को कहते हैं । ( 1.25 ) वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रावणप्रवण: प्रयोगो नयः – अनेकान्तात्मक वस्तु से विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं । (1.33) नैगम अनभिनिर्वृत्तार्थसंकल्पमात्र ग्राहीनैगमः - प्रनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करनेवाला नय नैगम है । ( 1.33) संग्रह -- स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्त ग्रहणात्संग्रहः - भेद सहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर समान्य से सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रह नय है । ( 1.33 ) व्यवहार संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार : - संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थों का विधिपूर्वक प्रवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है । (1.33)
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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