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________________ जैनविद्या-12 25 इन्द्रिय इन्दतीति इन्द्र आत्मा । तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरण क्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् ग्रहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिङ्ग तदिन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते । अथवा लीनमर्थं गमयतीति लिङ्गम् । प्रात्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिङ्गमिन्द्रियम् । यथा इह धूमोऽग्नेः । एवमिदं स्पर्शनादि करणं नासति कर्तर्यात्मनि भवितुमर्हतीति ज्ञातुरस्तित्वं गम्यते । अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते तेन सृष्टमिन्द्रियमिति–इन्द्र शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है “इन्दतीति इन्द्रः" जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है, वह इन्द्र है, और इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा है । वह यद्यपि ज्ञ स्वभाव है तो भी मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के रहते हुए स्वयं पदार्थों को जानने में असमर्थ है, अतः उसको पदार्थ के जानने में जो लिङ्ग (निमित्त) होता है, इन्द्र का वह लिङ्ग इन्द्रिय कही जाती है । अथवा जो लीन अर्थात् गूढ़ पदार्थ का ज्ञान कराता है, उसे लिङ्ग कहते हैं । इसके अनुसार इन्द्रिय शब्द का यह अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में लिङ्ग अर्थात् कारण है, उसे इन्द्रिय कहते हैं । जैसे लोक में धूम अग्नि का ज्ञान कराने में कारण होता है इसी प्रकार ये स्पर्शनादिक करण कर्ता प्रात्मा के अभाव में नहीं हो सकते हैं, अतः उनसे ज्ञाता का अस्तित्व जाना जाता है । अथवा इन्द्र शब्द नामकर्म का वाची है । अतः यह अर्थ हुआ कि उससे रची गयी इन्द्रिय है । ( 1.14) प्रनिन्द्रिय अनिन्द्रियं मनः अन्तःकरणमित्यर्थान्तरम्-अनिन्द्रिय, मन और अन्तःकरण ये एकार्थवाची नाम हैं । (1.14) प्रवग्रह विषयविषयिसमनन्तरमाद्य ग्रहणमवग्रहः-विषय और विषयी के सम्बन्ध के बाद होनेवाले प्रथम ग्रहण को अवग्रह कहते हैं । ( 1.15) ईहा अवग्रह गृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकाङ्क्षणमीहा-अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गए पदार्थों में उसके विशेष के जानने की इच्छा ईहा कहलाती है । (1.15) प्रवाय विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः-विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है, उसे अवाय कहते हैं । (1.15) धारणा अवेतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा–जानी हुई वस्तु का जिस कारण कालान्तर में विस्मरण नहीं होता, उसे धारणा कहते हैं । (1.15) भव आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त प्रात्मनः पर्यायो भव:-आयु नाम कर्म के उदय का निमित्त पाकर जो जीव की पर्याय होती है, उसे भव कहते हैं । (1.21)
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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