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________________ जैनविद्या-12 मति ___इन्द्रियैर्मनसा च यथास्वमर्थो मन्यते अनया मनुते मननमात्र वा मतिः-इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है या मननमात्र मति कहलाता है । (1.9) श्रुत तदावरणक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते अनेन तत् श्रृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतमश्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुनना-मात्र श्रुत कहलाता है । (1.9) अवधि अवाग्धानादवच्छिन्न विषयाद्वा अवधिः-अधिकतर नीचे के विषय को जाननेवाला होने से या परिमित विषयवाला होने से अवधि कहलाता है । (1.9) मनःपर्यय परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते । साहचर्यात्तिस्य पर्ययणं परिगमनं मनःपर्यय:दूसरे के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं । सम्बन्ध से उसका पर्ययण अर्थात् परिगमन करनेवाला ज्ञान मनःपर्यय कहलाता है । (1.9) केवल बाह्य नाभ्यन्तरण च तपसा यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम् । असहायमिति वा-अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और आभ्यन्तर तप के द्वारा मार्ग केवन अर्थात् सेवन करते हैं, वह केवलज्ञान कहलाता है । अथवा असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं । (1.9) उपेक्षा रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा-राग-द्वेषरूप परिणामों का नहीं होना उपेक्षा है । (1.10) प्रमाण प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्-जो अच्छी तरह ज्ञान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह ज्ञान किया जाता है या प्रमितिमात्र (ज्ञानमात्र) प्रमाण है । (1.10) प्रत्यक्ष __ अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा । तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियतं प्रत्यक्षम्-अक्ष, व्याप और ज्ञा धातुयें एकार्थक हैं, इसलिए अक्ष का अर्थ आत्मा होता है । इस प्रकार क्षयोपशमवाले या आवरणरहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादिक की अपेक्षा न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरणरहित आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है । (1.12)
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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