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________________ सप्ततत्त्व हे जीव ! तू संसार में फिरता फिरता (इसलिए) दुःखी है कि तूने दो का भेद नहीं जाना, जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व को नहीं पहचाना, अरे, (तू) चेतन है, जड़ता छोड़ दे, मान ले ।।1। यह जीव अस्तित्व-वस्तुत्व-संयुक्त है, चेतन है, यही सिद्ध-परमेष्ठि बनता है चेत और कुविचार, कुज्ञान तथा कुदर्शन को छोड़ दे, न तो यह मरता है, न खण्डित होता है और न उत्पन्न होता है ।।2।। यह अखण्ड प्रदेशी है, ज्ञाता है, अलक्ष्य है, अमूर्त है, स्वामी है, ज्ञानमय है, न जलाने से जलता है, न फोड़ने से फूटता है, न काटने से कटता है, न भिदता है, ज्ञानधारी है ।।3।। यह ही कर्ता है, यह ही हर्ता है, यह ही वियोगी है, और यह ही संयोगी है । जो जैसा करता है वह वैसा पाता है और जिसने जैसा किया था वह वैसा ही भोग रहा है ।4।। यह तो संसारी जीव प्रकाशित हुआ । निश्चय है जो परमपद मोक्ष में निवास करता है वह न तो कर्ता है और न वह हर्ता है, वह ज्ञानधारी न लिपता है न क्षीण होता है ।।5।।
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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