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प्रमाण की भाँति ही 'पूज्यपादस्य लक्षणं (व्याकरणं)' कहते हुए उनके जैनेन्द्र व्याकरण को अभूतपूर्व तथा अपने विषय का एकाकी ग्रंथ प्रतिपादित किया है। इस व्याकरण पर उनका स्वयं का न्यास भी था जो अब अनुपलब्ध है।
इनके अतिरिक्त उनकी कई और रचनाएं भी विभिन्न विषयों की थीं जिनमें शान्त्यष्टक को छोड़कर और अनुपलब्ध हैं किन्तु उनके उल्लेख अन्य ग्रंथों में प्राप्य हैं । वे मंत्र-तंत्र, रस और योग विद्या में भी निष्णात थे । चिकित्साग्रंथों में उन द्वारा बताये अनेक रस-संबंधी तथा विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियों से निर्माण-योग्य अनुभूत, प्रभावक तथा मद्यरहित अहिंसक प्रयोगों का वर्णन मिलता है ।
विभिन्न जैन तीर्थंकरों के चिह्नों की परिभाषा भी जैन परम्परानुसार उन्होंने की थी।
तत्वार्थाधिगम (मोक्षशास्त्र) के छठे अध्याय के सूत्र 3 में मन, वचन और काय की शुभ प्रवृत्ति को पुण्यबंध का और अशुभ प्रवृत्ति को पापबंध का कारण बताया है (शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य)। इसमें प्रयुक्त पुण्य शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने प्रतिपादित किया है--'पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेन वा पुण्यम्' अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे प्रात्मा पवित्र होता है वह पुण्य है ।
. सूत्र 12 में भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान, सराग-संयम आदि के योग तथा क्षांति और शौच की पुण्य-प्रवृत्तियों में गणना करते हुए इनको साता-वेदनीय के प्रास्रव का कारण माना है। ये सब प्रवृत्तियां प्राचार्य के जीवन में परिलक्षित होती हैं । वे सच्चे अर्थों में स्व-परहितनिरत पुण्यात्मा/पूतात्मा साधु थे और भव्यात्माओं के लिए तारण-तरण जहाज थे। ऐसे महान् प्राचार्य के व्यक्तित्व और कृतित्व की यत्किञ्चित झांकी इस अंक में प्रस्तुत की गई है । आशा है पाठकों को यह अंक रुचिकर एवं लाभकर होगा ।
इस विशेषांकरूपी उद्यान में प्रारोपणार्थ जाने-माने विद्वानों ने अपने निबंघरूपी पादप हमें भेजे हैं । आवश्यक काट-छांट द्वारा इनको सजा-संवारकर यथास्थान प्रारोपित करने का हमने प्रयास किया है । अपनी रचनाएं भेजकर जो अमूल्य सहयोग उन्होंने हमें प्रदान किया उसके लिए हम भविष्य में भी ऐसे ही सहयोग-प्राप्ति की कामना के साथ उनके आभारी हैं।
' पूर्व अंकों की भांति ही इस अंक में भी अपभ्रंश भाषा की एक 'सप्ततत्त्व' शीर्षक लघु-रचना सानुवाद प्रकाशित है जिसमें सप्ततत्त्वों का निश्चय और व्यवहार नय से लाक्षणिक विवेचन किया गया है । पाठकों के एतद्विषयक ज्ञानवृद्धि में यह सहायक होगी ऐसी आशा है । इस रचना का सम्पादन एवं अनुवाद हमारे संस्थान में कार्यरत विद्वान् श्री भंवरलाल पोल्याका द्वारा किया गया है । इसके लिए हम उनके आभारी हैं ।
इस अंक के संपादन व प्रकाशन में सहयोग के लिए डा. कमलचन्द सोगाणी व श्री भंवरलाल पोल्याका के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। इसके मुद्रण के लिए जर्नल प्रेस भी धन्यवादाह है।
ज्ञानचन्द्र खिन्दूका
संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति