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________________ श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमौषद्धिः, जीयाद् विदेहजिनदर्शनपूतगात्रः। यत्पादधौतजलसंस्पर्शप्रभावात्, कालायसं किल तदा कनकोचकार । शिलालेख सं. 40 में ही उनके साहित्यिक कर्तृत्व के संबंध में निम्न अंश भी उपलब्ध होता है जैनेन्द्र निजशब्दमागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा, सिद्धान्ते निपुणत्वमुदणकविता जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दः सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदा माख्यातीह स पूज्यपाद मुनिपः पूज्यो मुनीनांगरणः ॥4॥ सूत्र के प्रत्येक पद की जो विस्तृत विवेचना की जाती है उसे वृत्ति कहते हैं । वृत्ति शब्द की यह परिभाषा मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थ सूत्र) की प्राचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित तात्पर्यवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) में पूर्णरूप से घटित होती है। इसमें सूत्रगत प्रत्येक पद के जितने भी अर्थ हो सकते हैं उन सबका प्रश्नोत्तर रूप में तर्कपूर्ण शैली से व्याकरण के नियमों के अनुसार पदच्छेदपूर्वक विवेचन प्रस्तुत करते हुए अपने मंतव्यों की पुष्टि की है। उनकी इस टीका में जैनसिद्धान्त का इतना विपुल ज्ञान भरा पड़ा है कि कोई भी जिज्ञासु केवल इसका अध्ययन करके ही द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग तीनों का विस्तृत ज्ञान अर्जित कर सकता है तथा संस्कृत व्याकरण एवं तर्कशास्त्र का पारंगत विद्वान बन सकता है । आचार्य-पुगव की दूसरी महत्त्वपूर्ण रचना है समाधितन्त्र अपर नाम समाधिशतक ग्रन्थकार ने इसके संबंध में यह संकेत दिया है-- श्रुतेनलिंगेन यात्मशक्ति, समाहितमन्तःकरणेन सम्यक् । समीक्ष्य केवल्यसुखस्पृहाणां, विविक्तमात्मानमथामिधास्ये । अर्थात् मैं इसकी रचना श्रुत, तर्क, आत्मशक्ति और अन्तःकरण को भली प्रकार एकाग्र करके समीक्षापूर्वक अपने अनुभव के आधार पर कैवल्य-सुख की वाञ्छा रखनेवालों के लिए करूंगा। प्राचार्यश्री की तीसरी रचना इष्टोपदेश भी अध्यात्मरस से सराबोर है। कहा जाता है कि प्राचार्यश्री द्वारा संस्कृत में दस भक्तियों की रचना की गई है अब तक की शोध-खोज के अनुसार सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगी, प्राचार्य, निर्वाण और नंदीश्वर ये सात भक्तियां ही उपलब्ध हैं जो सभी भक्तिरसपूरित होने के साथ-साथ उनके स्वरूप. को भी स्पष्ट करती हैं। आप अपने समय के अधिकारी वैयाकरण थे । इन्द्र, चन्द्र, पाणिनी, शाकटायन, आदि महान् व्याकरणवेत्ताओं की श्रेणी में उनकी गणना है। कई प्राचार्यों ने अकलंक के
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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