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________________ प्रास्ताविक इस जड़ और चेतनमयी जगत् के पदार्थों को देखकर प्रत्यक्ष और परोक्ष में घटनेवाली घटनाओं का अवलोकन कर, श्रवण कर, हित और अहित का मूल्यांकन कर अन्तस् में उनसे उत्पन्न अनुभूतियों को साहित्यकार अपनी सृजन-प्रतिभा और अभिव्यक्ति की क्षमता के अनुसार शब्दायित करता है, रूपायित करता है। ऐसे सुसाहित्य का सृजन साहित्यसाधना के साथ-साथ प्रात्मसाधना में भी सहायक होता है, समर्थ होता है। लोककल्याणकारी, हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करनेवाली भावनाओं के साथ शब्दों का चयन, रमणीयता व लालित्य भी साहित्य के लिए परम आवश्यक है। उदाहरणार्थ “शुष्कः काष्ठः तिष्ठत्यग्रे" तथा "नीरसतरुरिह विलसति पुरतः” ये दोनों ही वाक्य एक ही भाव व अर्थ का प्रतिपादन करते हैं, फिर भी प्रथम वाक्य साहित्यिक नहीं कहा जा सकता है। आचार्य पूज्यपाद ऐसे ही रससिद्ध साहित्यकार थे जिनके लिए कहा गया है-नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् । ---- प्राज यद्यपि उनका भौतिक शरीर हमारे समक्ष नहीं है तथापि उन्होंने जो अपूर्व साहित्य का सृजन किया है उससे उनकी साहित्यरूपी काया प्रेरणा और मार्गदर्शन के लिए हमारे सामने जीवन्त खड़ी है । ___ जिस प्रकार प्राचार्य कुन्दकुन्द प्राकृत भाषा के बहुश्रुत विद्वान् थे उसी प्रकार प्राचार्य पूज्यपाद अपरनाम देवनंदि, जिनेन्द्रबुद्धि, यशः कीति, यशोनंदि संस्कृत भाषा के तलस्पर्शी अध्येता थे। दर्शन, तर्क, आयुर्वेद और साहित्य में उनकी अबाध गति थी। श्रवणबेलगोल के शिलालेख सं. 40 में उनके संबंध में उल्लेख है यो देवनंदि प्रथमामिधानो, बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभि-यंत्पूजितं पादयुगं यदीयं ।। माचार्य कुन्दकुन्द सम्बन्धी श्लोक की एक पंक्ति भी इस प्रकार है-- 'तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनंदी प्रथमाभिधानः' अन्य किसी प्राचार्य के नाम के साथ 'प्रथम' शब्द का प्रयोग देखने में नहीं आया। इस ही शिलालेख के निम्न श्लोक से यह भी विदित होता है कि वे जिनदर्शनार्य विदेहक्षेत्र गए थे और वे मौषधऋद्धि के धारी थे--
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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