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आचार्य पूज्यपाद का युगबोध
-डॉ. संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र'
प्राचार्य पूज्यपाद का जन्म समय पांचवीं शताब्दी का प्रारम्भिक काल माना जा सकता है। ब्र. शीतलप्रसादजी कृत समाधिशतक-टीका में उनका काल संवत् 401 माना गया है । इनका दूसरा नाम नंदी (देवनन्दि ? ) भी था । आपने सर्वार्थसिद्धि, जैनेन्द्र व्याकरण, इष्टोपदेश आदि अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की थी।
प्राणी का अहम उद्देश्य प्रभु को परिणति हुआ करती है। प्राचार्य पूज्यपाद ने अपने साहित्यिक-संसार में प्रात्मोन्नति हेतु अनेकमुखी आयामों का प्रयोग किया है । इनके साहित्य सार को यदि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो वे सर्वथा सार्थक सिद्ध होंगे । इसीलिए यदि उनके साहित्य को युगबोध की संज्ञा दी जाए तो वह गलत न होगी।
___ आज व्यक्ति प्रायः बहुत गहरी नींद में सोया हुआ है । आत्मोन्नति के सारे द्वार वह बंद सा कर चुका है। वह अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को समझ नहीं पाया है। वह अपने स्वार्थ में बहुविध रूप से रच-पच सा गया है। कर्मों की कड़ी या शृंखलाओं में वह अनादि कालों से बंधता ही चला गया है। राग, और द्वेष के मिले-जुले वस्त्रों को उसने पहिन लिया है। वह तमाम जंजालों से धीरे-धीरे स्वतः घिरता ही चला गया है । शायद उसे अपनी इन हो रही कैद के विषय में सुध-बुध नहीं है, ऐसा मान लेना गलत नहीं होगा।
एक घटना स्मरण हो आती है मुझे । शायद इस विषय को समझने में वह कारगर सिद्ध होगी। इसीलिए मैं यहाँ उसका उल्लेख करना चाहूँगा ।