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________________ जनविद्या-12 - साहित्य की सार्थकता तभी है जब साहित्यकार अपने मानस की व्यापकता तथा गहराई में मानवजीवन की सम्पूर्णता को संचय कर उसे निज की अनुभूति एवं मावों के पटपाक में परिपाक कर संदर उदघाटन करता है। पूज्यपाद देवनंदि ने अपने साहित्य में जीवन और जगत् के रहस्यों की व्याख्या करते हुए, मानवीय व्यापार के प्रेरक प्रयोजनों और उनके उत्तरदायित्वों की सांगोपांग विवेचना की है। व्यक्तिगत जीवन में कवि पूज्यपाद प्रात्मसंयम और आत्मशुद्धि पर बल देते हुए ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्ति को उदात्त जीवन की भूमिका के लिए आवश्यक मानते हैं । यद्यपि उनकी कविता में काव्यत्व की अपेक्षा दर्शन और अध्यात्म की प्रधानता है तथापि पूज्यपाद ने छायावादी कविता के समान सकल परमात्मा का स्पष्ट चित्रांकन किया है। उनकी काव्यकला द्रष्टव्य है जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारती विभूतयस्तीर्थकृत्तोऽप्यनीहितुः । शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः॥ अर्थात् इच्छारहित होने पर तथा बोलने का प्रयास न करने पर भी जिसकी वाणी की विभूति जगत् को सुख-शान्ति देने में समर्थ है, ऐसे उस अनेक नामधारी सकल परमात्मा अर्हन्त को नमस्कार हो । 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ में निरूपित नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शनों की समीक्षा पूज्यपाद की ज्ञान-गरिमा का परिचायक है । वस्तुतः पूज्यपाद का कवि-रूप उनकी रचनाओं में अध्यात्म, प्राचार, और नीति का प्रतिष्ठापक है । पूज्यपाद देवनंदि के साहित्य का चरम मानदण्ड 'अध्यात्म-रस' ही है जिसकी परिधि में व्यष्टि और समष्टि, सौन्दर्य और उपयोगिता, शाश्वत और सापेक्षिकता का भेद मिट जाता है। " मंगल कलश 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, - अलीगढ़ (उ. प्र.) 202001
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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