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________________ जनविद्या-12 71 इस रचना का एकमात्र उद्देश्य यह है कि संसारी आत्मा अपने स्वरूप को पहचान कर शरीर, इन्द्रिय एवं सांसारिक अन्य पदार्थों से अपने को भिन्न अनुभव करने लगे। असावधान बना नादान प्राणी विषयभोगों में ही अपने समस्त जीवन को व्यतीत न कर दे, इस दृष्टि से प्राचार्य पूज्यपाद स्वयं ग्रंथान्त में कहते हैं इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान् । मानापमान समतां स्वमताद्वितन्य ॥ मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने वने वा। मुक्तिश्रियं निरूपमामुपयाति भव्यः ।। 51 ॥ "इष्टोपदेश" के सम्यक् प्रवाचन से आत्मा की शक्ति का श्रीवर्धन होता है । स्वात्मानुभूति के आधिक्य के कारण मान-अपमान, लाभ-अलाम, हर्ष-विषाद आदि में समताभाव प्राप्त होता है । संसार की यथार्थ स्थिति का परिज्ञान प्राप्त होने से राग, द्वेष, मोह की परिणति का समापन होता है। इस लघुकायिक रचना में 'समयसार' की गाथाओं का सार गुम्फित है । रचना की शैली सरल, सुबोध और प्रवाहमय है। जैनेन्द्र व्याकरण-श्रवणबेलगोला के अभिलेखों एवं महाकवि धनंजय की नाममाला के निर्देश से जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता पूज्यपाद सिद्ध होते हैं । गुणरत्न महोदधि के कर्ता वर्धमान और हैम शब्दानुशासन के लघुन्यास रचयिता कनकप्रभ 'जनेन्द्र व्याकरण' के प्रणेता का नाम देवनन्दि बताते हैं। अभिलेखों से जैनेन्द्रन्यास के रचनाकार भी पूज्यपाद अवगत होते हैं। पर यह ग्रंथ अभी अनुपलब्ध है। डॉ. नेमीचन्द्र ज्योतिषाचार्य के शब्दों में "व्याकरण के दो सूत्रपाठ उपलब्ध हैं-एक में तीन सहस्र सूत्र हैं और दूसरे में लगभग तीन हजार सात सौ।" पंडित नाथूराम प्रेमी का मानना है कि देवनन्दि या पूज्यपाद का बनाया हुआ सूत्रपाठ वही है, जिस पर अभयनंदि ने अपनी वृत्ति का प्रणयन किया। सिद्धिप्रियस्त्रोत्र-छब्बीस पद्यों की इस प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त रचना में चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति की गई है । विभु वर्द्धमान की स्तुति करते हुए कवि देवनंदि कहते हैं श्री वर्धमान वचसा परमाकरेण रत्नत्रयोत्तमनिधेः परमाकरेण कुर्वन्ति यानि मुनयोजनता हि तानि । वृत्तानि सन्तु सततं जनताहि तानि ॥ 24 ॥ पूज्यपाद ने यहाँ यमकालंकार का प्रयोग कर विभु वर्द्धमान के महत्व को उजागर किया है। तीर्थ कर जननायक होते हैं और वे जनता का कल्याण करने के लिए सर्वथा प्रयत्नशील रहते हैं। इन रचनात्रों के अतिरिक्त पूज्यपाद देवनंदि के वैद्यक सम्बन्धी प्रयोग भी उपलब्ध हैं। जैन सिद्धान्तभवन, आरा से 'वैद्यसार-संग्रह' नामक ग्रंथ में कतिपय प्रयोग प्रकाशित हुए हैं । छन्दशास्त्र से संदर्भित कोई ग्रंथ पूज्यपाद ने रचा था जो अनुपलब्ध है।
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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