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जनविद्या-12
एक बार मेरा नौका विहार के लिए जाना हुआ। चांदनी रात थी। जलाशय का जल चांद-तारों के प्रतिबिम्ब को और भी अधिक आकर्षित कर रहा था । नाव में आधी दर्जन सवारियां सैर के लिए पहिले ही बैठी थीं। सारे यात्री नाव की 'डेक' पर बैठे थे । मैं भी एक जगह बनाकर जा बैठा। एक लड़की भी उसमें बैठी थी। वह सरोवर के जल को बार-बार अपने हाथों में लेती थी, उलीचती थी। कभी-कभी अपने हाथों को जल में लहराती थी। अचानक वह लड़की नाव से उस जलाशय में गिर गई। लोग अवाक् थे, भला लड़की को कैसे बचाया जाय ? सोचने/चिल्लाने लगे। किसी की हिम्मत न थी कि जलाशय में कूदकर उसे बचा लाय। लड़की का पिता बेचैन था। उसने बेसब्र हो कहा, 'लड़की को जो भी कूदकर बचा लायेगा, उसे मैं मुंहमाँगा इनाम दूंगा। तभी एक युवक गहरे जलाशय में कूद पड़ा। कुछ देर के बाद वह येन-केन-प्रकारेण उस लड़की को बचा लाया। वह कांप रहा था। उधर लोगों में गहरी प्रसन्नता थी । तभी लड़की के पिता ने रुपयों से भरी थैली उस युवक को पुरस्कार के बदले दे दी। युवक क्रोध से पागल हो रहा था। उसने थैली को एक जगह रखते हुए कहा, 'पहिले यह बतानो, नाव में से धक्का किसने दिया था ? न जाने किस पुण्य से मैं बच गया। तुम लोगों ने तो मुझे मार ही डाला था।' लोग वहाँ खड़े अवाक् से उस युवक को देख रहे थे।
इस पूरी घटना में दो बातें स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती हैं। एक-धक्के का दिया जाना और दूसरा व्यक्ति का जलाशय में कूदना। धक्का दिया जाना, यह तो निमित्त है, सहारा है, माध्यम है। किन्तु, जो दूसरा कारण है कूदना, वही महत्त्वपूर्ण है। निमित्त तो कोई भी बन सकता है किन्तु गहरे में तो स्वयं को ही जाना पड़ेगा। स्वयं ऊपर उठना होगा । घातिया/अधातिया कर्मों का नाश तो स्वयं ही करना होगा। आचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित साहित्य में इसी तरह की युग चेतना प्रायः देखने को मिलती है । एक स्थान पर उन्होंने आत्मा के कल्याणार्थ उपाय निम्न सूत्र में दर्शाया है :
निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रमुख्ययः ।।
परमेष्ठी परात्मेति धरमात्मेश्वरो जिनः ॥ (समाधिशतक) इसी प्रकार, अपरिग्रह की महनीयता पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है। आवश्यकता से अधिक का संग्रह दुःख का कारण माना है इसलिए त्याग की स्थिति का उद्बोधन निम्न श्लोक में इन्होंने किया है :
त्यागे दाने बहिमूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित् ।
नान्तर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मन :॥ (समाधिशतक) इसी प्रकार एक स्थान पर उन्होंने षट् आवश्यक कर्मों को लोकजीवन में जीवनयापन के लिए आवश्यक बताया है। इसके प्रयोग से लोकजीवन में व्यक्ति आत्मविकास की ओर अग्रसर हो सकता है । ये षट् आवश्यक गुण निम्न चार्ट में उल्लिखित किये गये हैं