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________________ 34 जैनविद्या-12 चरमोत्तमदेह ___ उत्तमः उत्कृष्टः । चरम उत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहाः–उत्तमशब्द का अर्थ उत्कृष्ट होता है। जिनका शरीर चरम और उत्तम है वे चरमोत्तम देहवाले कहे जाते हैं । जिनका संसार निकट है अर्थात् उसी भव से मोक्ष को प्राप्त होनेवाले जीव चरमोत्तम देहवाले कहलाते हैं । (2.53) अपवर्त्य बाह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषयशस्त्रादेः सति संनिधाने ह स्वं भवतीत्यपवर्त्यम्उपघात के निमित्त से विष शस्त्रादिक बाह्य निमित्तों के मिलने पर जो आयु घट जाती है वह अपवर्त्य आयु कहलाती है । (2.53) द्रव्य यथास्वं पर्याय यन्ते द्रवन्ति वा तानि द्रव्याणि-जो यथायोग्य अपनी पर्यायों को प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं । (5.2) रूप रूपो मूर्तिरित्यर्थः-रूप और मूर्ति इनका एक अर्थ है । (5.5) मूर्ति रूपादिसंस्थानपरिणामो मूर्ति:--रूपादिक के प्राकार से परिणमन होने को मूर्ति कहते हैं । (5.5) क्रिया उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया-अन्तरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होनेवाली जो पर्याय द्रव्य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने का कारण है, वह क्रिया कहलाती है । (5.6) प्रदेश वक्ष्यमाणलक्षणः परमाणुः स यावति क्षेत्र व्यवतिष्ठते स प्रदेश इति व्यवहि यतेपरमाणु जितने क्षेत्र में रहता है वह प्रदेश है । (5.8) अनन्त __ अविद्यमानोऽन्तो येषां ते अनन्ता:-जिनका अन्त नहीं है, वे अनन्त कहलाते हैं । (5.9) लोक ___ धर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोकः-जहाँ धर्मादिक द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं । (5.17) गति देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः-एक स्थान से दूसरे स्थान के प्राप्त कराने में जो कारण है उसे गति कहते हैं । (5.17)
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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