________________
जैनविद्या-12
35
प्रारण
वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमाङ गोपाङगनामोदयापेक्षिणात्मना उदस्यमानः कोष्ठयो वायुरुच्छ वासलक्षणः प्राण इत्युच्यते । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा प्रांगोपांग नामकर्म के उदय की अपेक्षा रखनेवाला आत्मा कोष्ठगत जिस वायु को बाहर निकालता है, उच्छ्वासलक्षणा उस वायु को प्राण कहते हैं । (5.19 ) प्रपान
तेनैवात्मना बाह्यो वायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निःश्वासलक्षणोऽपान इत्याख्यायते-वही आत्मा बाहरी जिस वायु को भीतर करता है, निःश्वासलक्षणा उस वायु को अपान कहते हैं । (5.19)
सुख-दुःख
सदसवेद्योदयेऽन्तरङ गहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमानः प्रीतिपरितापरूपः परिणामः सुखदुःखमित्याख्यायते । साता और असाता रूप अन्तरङ्ग हेतु के रहते हुए बाह्य द्रव्यादि के परिपाक के निमित्त से जो प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं, वे सुख और दुःख कहे जाते हैं । (5.20) जीवित
भवधारणकारणायुराख्यकर्मोदयाद् भवस्थितिमादधानस्य जीवस्य पूर्वोक्त प्राणापानक्रियाविशेषाव्युच्छेदो जीवितमित्युच्यते-पर्याय के धारण करने में कारणभूत आयुकर्म के उदय से भवस्थिति को धारण करनेवाले जीव के पूर्वोक्त, प्राण और अपान रूप क्रियाविशेष का विच्छेद नहीं होना जीवित है । (5.20) वर्तना
वृत्तेणिजन्तात्कर्मणि भावे वा युति स्त्रीलिङ्गे वर्तनेति भवति । वय॑ते वर्तनमानं वा वर्तना । णिजन्त “वर्त" धातु से कर्म या भाव में युट् प्रत्यय करने पर स्त्रीलिङ्ग में वर्तना शब्द बनता है जिसकी व्युत्पत्ति 'वर्त्यते' या 'वर्तनमात्रम्' होती है । (5.22)
परिणाम
__द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्ति धर्मान्तरोपजननरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामःएक धर्म की निवृत्ति करके दूसरे धर्म के पैदा करने रूप और परिस्पन्द से रहित द्रव्य की जो पर्याय है, उसे परिणाम कहते हैं। (5.22) किया
क्रिया परिस्पन्दात्मिका-द्रव्य में जो परिस्पन्दरूप परिणमन होता है, उसे क्रिया कहते हैं । (5.22)
. प्रदेशमात्रमाविस्पर्शादिपर्यायप्रसवसामर्थ्यनाण्यन्ते शब्द्यन्त इत्यणवः-एक प्रदेश में