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________________ जैनविद्या-12 33 प्रौदारिक उदारं स्थूलम् । उदारे भवं उदारं प्रयोजनमस्येति वा औदारिकम्-उदार शब्द से होने रूप अर्थ में या प्रयोजन रूप अर्थ में ठक् प्रत्यय होकर प्रौदारिक बनता है । (2.36) बैंक्रियिक अष्टगुणश्वर्ययोगादनेकाणुमहच्छशीरविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम्-अणिमा आदि पाठ गुणों के ऐश्वर्य के सम्बन्ध से एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकार का शरीर करना विक्रिया है, यह विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है । (2.36) माहारक सूक्ष्मपदार्थनिर्ज्ञानार्थमसंयमपरिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाहि यते निवर्त्यते तदित्याहारकम्-सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान करने के लिए या असंयम को दूर करने की इच्छा से प्रमत्तसंयत जिस शरीर की रचना करता है वह आहारक शरीर है। (2.36) तेजस यत्तेजोनिमित्तं तेजसि वा भवं तत्तैजसम्-जो दीप्ति का कारण है या तेज में उत्पन्न होता है उसे तैजस कहते हैं । (2.36) कार्मण कर्मणां कार्य कार्मणम्-कर्मों का कार्य कार्मण शरीर है । (2.37) प्रदेश ___ प्रदिश्यन्त इति प्रदेशाः परमाणव:-प्रदेश शब्द की व्युत्पत्ति प्रदिश्यन्त होती है इसका अर्थ परमाणु है । (2.38) उपभोग--- इन्द्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोगः-इन्द्रियरूपी नालियों के द्वारा शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं । (2.44) प्रौपपादिक उपपादे भवमोपपादिकम् - जो उपपाद में होता है उसे औपपादिक कहते हैं । (2.46) लब्धि तपोविशेषादृद्धिप्राप्तिर्लब्धि:-तपविशेष से प्राप्त होनेवाली ऋद्धि को लब्धि कहते हैं । (2.46) लब्धिप्रत्यय लब्धिः प्रत्ययः कारणमस्य लब्धिप्रत्ययम्-लब्धि से जो शरीर उत्पन्न होता है वह लब्धिप्रत्यय कहलाता है । (2.46)
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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