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________________ जैनविद्या-12 57 हुए जब साधक अद्वै तात्माह' इस निर्विकल्प स्वसंवेदन की स्थिति में पहुंचता है तो उसे ध्यान की सिद्धि होती है। महर्षि देवनन्दि भावमन की चञ्चलता दूर करने हेतु मन को एक के अर्थात् अपने आत्मा के सामने समर्पित करने की सलाह देते हैं क्योंकि जब तक तात्त्विक चिन्तन द्वारा बुद्धि पर अंकित भोगविलासितामय या पुण्यादि को धर्म मानने जैसे संस्कारों को अप्रभावी नहीं किया जाता तब तक भावमन की चञ्चलता समाप्त नहीं की जा सकती अतः ध्यान की विधि में अग्रसर होने हेतु तत्त्वचिन्तन के सोपान का सहारा अवश्य लेना चाहिए । शास्त्राभ्यास और गुरु के उपदेशामृत प्रसाद से विवेक-ख्याति अर्थात् भेदविज्ञान की कला में निपुणता हासिल हो जाए तो तत्त्वचिन्तन के द्वार खुल जाते हैं । ध्यान की चरम स्थिति में पहुँचने की अभिलाषा बढ़ जाती है। अधिक क्या कहें, पुरुषार्थ सही दिशा में और सच्चा होने लगता है । तत्त्वचिन्तन की महिमा अपरम्पार है । तत्त्वचिन्तन से ही आत्मा में ऐसा अपूर्व बल स्फुरित होता है जिसके सहारे अनंतानंत कर्मों के उदयस्वरूप घटाटोप में भी साधक विचलित नहीं होता तथा मन वचन काय की इस अविचलित परिस्थिति में अर्थात् वर्तमान ज्ञान की एकाग्र दशा में कर्म क्षीण होने लगते हैं । तत्त्वचिन्तन ही वह प्रकाश-स्तम्भ है जिसके आलोक में हम आज के भौतिकता-बहुल सुविधाभोगी जीवन में अपने सात्विक, तात्त्विक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को खोज सकते हैं । यह विश्वास कर सकते हैं कि जब तक हम अविवेकी रहकर शरीरादि पुद्गल को सहेजेंगे, उसका अभिनंदन करेंगे तब तक वह हमें चतुर्गति में भटकाता रहेगा ।8 इस खोज और विश्वास का फल यह होगा कि हम ममत्व भाव या अज्ञानवश शरीरादि में दी गई मात्मत्व बुद्धि छोड़कर अपने आपको शुद्ध-बुद्ध निर्मम योगीन्द्रगोचर अर्थात् स्वसंवेदन से साध्य-तत्व मानते हुए सभी संयोगज भावों को भी पर-पौद्गलिक मान लेंगे । तथा यह अनुभव करेंगे कि जो भी आत्मा से भिन्न है वह पर है और उससे दुःख ही होता है अपना प्रात्मा ही मेरा है और उससे सुख होता है ।10 महर्षि देवनन्दि लिखते हैं कि ममतासहित अर्थात् रागी द्वेषी जीव बंधता है, दुःखी होता है और ममतारहित अर्थात् रागादिशून्य ज्ञानी ध्यानी जीव मुक्त होता है, सुखी होता है अतः हमें निर्मम बन ज्ञानी ध्यानी होने का प्रयत्न करना चाहिए ।11 ___ एतदर्थ जीव को यह सोचना चाहिए कि अब तक मैंने देहादिक के सम्बन्ध में ममत्व बुद्धि करके अनंत क्लेश भोगे हैं अतः अब मन-वचन-कर्म से इस अनिष्टकारी ममत्व भाव को छोड़ता हूँ ।12 अब न मुझे मृत्यु का भय है और न ही व्याधि की व्यथा । न मैं बालक हूँ, न युवा, और न ही वृद्ध । ये तीनों अवस्थायें तो शरीर की हैं शरीर पौद्गलिक है,13 जिसमें मृत्यु और व्याधि संभव है। मैं तो निर्भय निरामय चेतन तत्त्व हूँ जिसमें न मृत्यु का प्रवेश है और न ही व्यथा का।
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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