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जनविद्या-12
करनेवाला कदाचित् 'कल्याण-कारक' नाम से एक वैद्यकशास्त्र भी इनकी कृति मानी जाती है और 'जैनाभिषेक' के भी ये रचयिता माने जाते हैं । इन दोनों रचनाओं की भी खोज होना अभी शेष है।
'जनेन्द्र व्याकरण' के अतिरिक्त आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद की अन्य ज्ञात एवं उपलब्ध कृतियाँ हैं—आचार्य उमास्वामि के 'तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र' पर सबसे पहली उपलब्ध, प्रामाणिक एवं विद्वत्तापूर्ण टीका 'सर्वार्थसिद्धि' बहुमूल्य अनुश्रुतियों, विशेषकर भगवान् महावीर के जीवन से सम्बन्धित अनुश्रुतियों, को संरक्षित करनेवाली 'दशभक्त्यादिसंग्रह', 'समाधितंत्र', 'इष्टोपदेश' और 'शान्त्यष्टक' । इन कृतियों से विदित होता है कि ज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर अधिकार रखनेवाले धर्माचार्य देवनन्दि न केवल एक उद्भट विद्वान् और सिद्धहस्त लेखक थे अपितु वे एक महान् योगी, रहस्यवादी और प्रतिभावान् कवि भी थे।
अपनी इस विद्वत्ता, ज्ञान और प्रतिभा के कारण आचार्य देवनन्दि न केवल अपने शिष्यों और अपनी आम्नाय के श्रावकों के अपितु जनसाधारण और अपने समकालीन अनेक शासकों और सामन्तों के श्रद्धास्पद भी बने । दक्षिण' कर्णाटक में तलकाड में पश्चिमी गंगवंशीय सम्राट् अविनीत कोंगिणी ने इन प्राचार्य देवनन्दि को अपने पुत्र एवं युवराज दुविनीत की शिक्षा का भार सौंपा था। अपने पिता के उपरान्त सम्राट बन जाने पर भी दुविनीत का प्राचार्य देवनन्दि से शिष्य-गुरु सम्बन्ध बना रहा। कहा जाता है कि पश्चिमी गंगवंशीय सम्राटों की राजधानी तलकाड के निकट इन आचार्य ने, कदाचित् अपने किस्म का पहला, एक बड़ा विद्याकेन्द्र स्थापित किया था जिसके वे प्रधान थे। इन सन्त-विद्वान् देवनन्दि को अनेक चमत्कारी शक्तियों का धारक भी बताया जाता है और ये आज भी अपनी कृतियों के कारण बड़े सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं ।
इन प्राचार्य देवनन्दि पूज्यपाद और इनके राजवंशीय शिष्य गंगसम्राट् दुविनीत के समय के सम्बन्ध में विद्वानों-इतिहासकारों में मतभेद रहा है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने इस विषय में विभिन्न मतों और साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों का विवेचन अपने ग्रन्थ 'दि जैना सोर्सेज आफ दि हिस्ट्री ऑफ एन्शियेन्ट इण्डिया' के परिच्छेद पाठ में पृष्ठ 155-161 पर किया है ।
पट्टावलियों में देवनन्दि पूज्यपाद का समय विक्रम संवत् 258-308 (अर्थात् ईस्वी सन् 201-251) दिया गया है । जैन परम्परा, साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों ही, देवनन्दि पूज्यपाद को निर्विवाद रूप से प्राचार्य समन्तभद्र (लगभग ईस्वी सन् 120-185) तथा आचार्य प्रकलंक (लगभग ईस्वी सन् 620-675) के मध्य रहा मानती है । पूज्यपाद ने अपने 'जैनेन्द्र' में समन्तभद्र का उल्लेख किया है और उनके 'सर्वार्थसिद्धि' जैसे ग्रन्थों में समन्तभद्र का प्रभाव स्पष्टतया लक्षित होता है। दूसरी ओर, अकलंक ने पूज्यपाद का ससम्मान उल्लेख किया है और अपने ग्रन्थों में उनके 'जैनेन्द्र' से उद्धरण दिये हैं। अपने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' में उन्होंने 'सर्वार्थसिद्धि' का पूर्ण उपयोग किया है ।