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आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद और उनका समय
- श्री रमाकान्त जैन
____ जैन परम्परा में पूज्यपाद नामधारी अनेक प्राचार्य हुए हैं, किन्तु उनमें सर्वप्रथम और सर्वप्रतिष्ठित नाम है आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद का जो 'पूज्यपाद' नाम से सर्वाधिक विख्यात हैं। जैन साहित्य के आदि प्रस्तोताओं में प्राचार्य समन्तभद्र के उपरान्त देवनन्दि पूज्यपाद की सर्वमहान् प्राचार्य के रूप में गणना है । गद्य और पद्य दोनों में मानरूप से उच्चस्तरीय संस्कृत भाषा में अपने ग्रन्थों का प्रणयन करनेवाले देवनन्दि पूज्यपाद अपने समय में कुन्दकुन्दान्वय के मूलसंघ की नन्दि अपरनाम देशियगण शाखा के प्रधान आचार्य थे । उक्त संघ की पट्टावलियों के अनुसार वे दसवें गुरु थे, उनके पूर्वाचार्य का नाम यशोनन्दि था और उनके उत्तराधिकारी जयनन्दि हुए। पद्मराज और चण्डय्य के कन्नड 'पूज्यपाद-चरिते' (लगभग 1800 ई.) तथा देवचन्द्र की 'राजावलि कथे' (1834 ई.) के अनुसार देवनन्दि का जन्म कर्णाटक में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था और उनके पिता का नाम माधव भट्ट तथा माता का नाम श्रीदेवी था ।
धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त लौकिक विषयों पर बहुमूल्य ग्रन्थों की रचना करनेवाले कदाचित् सर्वप्रथम जैनगुरु देवनन्दि पूज्यपाद थे। वोपदेव ने अपने धातुपाठ में संस्कृत भाषा के जिन आठ श्रेष्ठ शाब्दिकों (व्याकरणाचार्यों, शब्दकोशकारों और व्याकरण ग्रन्थों) का उल्लेख किया है उसमें देवनन्दि पूज्यपाद का 'जैनेन्द्र व्याकरण' भी है । अन्य सात नाम हैंइन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, पिशली, शाकटायन, पाणिनि और अमर । कहा जाता है कि देवनन्दि ने पाणिनि के सूत्रों पर 'शब्दावतार-न्यास' की रचना भी की थी तथा एक 'छन्द शास्त्र' भी रचा था, किन्तु ये दोनों रचनायें सम्प्रति अनुपलब्ध हैं । शालौक्य-तन्त्र अर्थात् सर्जरी का विवेचन