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________________ जैनविद्या-12 आज का किया हुआ पुरुषार्थ आगे दैव कहा जाता है। इसलिए ज्ञानी वर्तमान पुरुषार्थ में प्रमादी या स्वच्छंदी न होकर अपने प्रात्महित का पुरुषार्थ निरंतर करता रहता वस्तु का प्रत्येक परिणमन अपने नियत क्रमबद्ध स्वकाल में अपने नियत स्वभाव पुरुषार्थ से होता है इसका ज्ञानी को वस्तु विज्ञान होने से ज्ञानी अपने जीवन में अपने आत्महित का कार्य करते हुए निरंतर आनंदमय जीवन का अनुभव करता है । पात्मज्ञानं स्वयं ज्ञानं, ज्ञानात् अन्यत् करोति किम् । परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् । आत्मा स्वयं ज्ञान स्वभाव है। ज्ञान से अन्य कुछ भी कर नहीं सकता। ज्ञान का ज्ञान में रहना ही परम सुख है। ज्ञान के बिना अन्य राग-द्वेष. मोहभाव करना. या शुभ-अशुभ क्रिया में प्रवृत्ति करना व्यवहारीजनों का मोह-अज्ञान है । । जीवराज जैन ग्रंथमाला सन्तोषभवन फलटण गल्ली सोलापूर-413002 तत्त्वसंग्रह जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य, इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः ॥ ५० ॥ जीव अन्य है और पुद्गल अन्य है, यह ही तत्त्व की (सारभूत) बात है । –इष्टोपदेशः प्राचार्य पूज्यपाद
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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