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________________ जैन विद्या-12 भी संबंध नहीं है । इसलिए अध्यात्म भाषा से निमित्ताधीन दृष्टि जो वस्तु-विज्ञान के अभाव में सामान्य जनों के द्वारा दी जाती है, को हटाने के लिए निमित्तभूत परद्रव्य को सर्वथा अकिचित्कर कहा है। "अन्यत् निमित्तमात्रं तु गतेधर्मास्तिकायवत् । जिस प्रकार धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल द्रव्य की गति-क्रिया में उदासीन निमित्त कहा जाता है, जिस प्रकार पानी गतिमान न होते हुए भी मछली के लिए गमनक्रिया का आधार कहा जाता है, धर्म द्रव्य के बिना जीव और पुद्गल की तथा बिना पानी के मछली की गमनक्रिया नहीं हो सकती परन्तु उनकी गति-क्रिया में धर्म द्रव्य या पानी का कुछ भी कर्तृ-करण रूप कार्य-कारण भाव नहीं है । रेल की पट्टी रेल को गमन करने के लिए आधारभूत साधन है तथापि रेल की गमनक्रिया में वह रेल पट्टी कर्तृ-करण रूप से कुछ भी कार्यकारी नहीं है । -यद्यपि अमूर्त अरूपी धर्म द्रव्य के अस्तित्व का बोध कराने के लिए आगम में धर्म द्रव्य का लक्षण गतिहेतुत्व कहा गया है परन्तु वह कथन उपचार से निमित्त-मात्र कहा गया है। वास्तव में वह धर्म द्रव्य का कार्य नहीं है । धर्मद्रव्य अपने अस्तित्व में केवल आधार-रूप निमित्त-मात्र कारण कहा जाता है । परमार्थ से कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य का उपकार, अपकार, सहकार करने में समर्श नहीं है, ऐसा वस्तुनिष्ठ स्वभाव सिद्धान्त है । ___"अण्णदवियस्स अण्णदवियेण न कीरइ गुण प्पादो। अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य के साथ अत्यंत प्रभाव होने से कुछ भी कार्य कारण भार नहीं है । सब पदार्थ अपने-अपने स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव इन स्वचतुष्टय के मर्यादा में अपना परिणमन कार्य करते हैं। प्रत्येक वस्तु का परिणमन अपनी स्वद्रव्य के शक्ति सामर्थ्य से, अपनी स्वक्षेत्र की मर्यादा में, अपने नियत क्रमबद्ध स्वकाल में, अपने नियत स्व-भाव पुरुषार्थ से होता है, ऐसा वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त है । जगत् की कोई भी शक्ति 'इंदो वा जिरिंणदो वा तं चाले, णो सक्को' उस परिणमन को इंद्र अथवा सर्वशक्तिमान् जिनेंद्र भी पलटाने को समर्थ नहीं है । इस वस्तु सिद्धान्त के विज्ञान से ज्ञानी पुरुष को आकस्मिक भय नहीं रहता है । ज्ञानी को इस वस्तु-सिद्धान्त का ज्ञान यदभावि न तद् भावि, भावि चेन्न तदन्यथा । जो नहीं होने वाला है वह कदापि नहीं होता है तथा जो होनहार है वह अन्यथा नहीं हो सकता है। इस वस्तु-विज्ञान से ज्ञानी शांत-भाव से वर्तमान कितने भी दुर्धर प्रसंग हों, उपसर्ग हों, परिषह हों उनको सहन करता है ।
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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