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________________ जनविद्या-12 इसलिए जैनधर्म के अनुशासन में अभ्यंतर परिग्रह मोह राग द्वेषादि विकार भाव तथा बहिरंग परिग्रह वस्त्र, धन, धान्य, घर, बाग-बगीचा आदि दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर हे भगवन् ! आपने निग्रंथ जिनलिंग धारण किया । जीओ, और जीने दो। प्राणीमात्र की रक्षा करने का नाम ही अहिंसा नहीं । अहिंसा धर्म की यथार्थ साधना होने के अभ्यंतर परिग्रह राग-द्वेषादि परभाव तथा उनके विषय धन-धान्यादि-बाह्य परिग्रह, इन दोनों के त्याग का नाम ही अहिंसा है । प्रत्येक पदार्थ को अपना स्वतंत्र अस्तित्व, स्वतंत्र परिणमन करने का अधिकार है। उन परपदार्थों का स्वतंत्र अस्तित्व अपहरण कर उन पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना, अपनी इच्छानुसार उनके परिणमन की भावना रखना-इसी को जैनदर्शन हिंसा कहता है । अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ जैनदर्शन के सब आगमों का सार-संक्षेप यही है कि जगत् के जो भी सत्रूप पदार्थ हैं उनको अपना स्वतंत्र अस्तित्व परिणमन करने का अधिकार है। उन पर अतिक्रमण कर उनके स्वतंत्र अस्तित्व का अपहरण कर उन पर रागादि भाव से प्रभुत्व स्थापित करना, उनमें इष्ट अनिष्ट बुद्धि निर्माण कर इष्ट पदार्थों पर राग, प्रेम, लोभ करना तथा अनिष्ट पदार्थों पर द्वेष करना-इसी को जैनदर्शन में हिंसा-अधर्म कहा है। (3) अनेकान्त-जैनदर्शन की तीसरी विशेषता वस्तु के अनेकान्त स्वरूप की मान्यता है। प्रत्येक वस्तु में सामान्य और विशेष दो प्रकार के धर्म पाये जाते हैं। सामान्य धर्म-स्वभाव रूप से, गुण रूप से, अनादि-अनंत शुद्ध एकरूप और अपने सब स्वभाव-विभाव विशेषों में सदा विद्यमान ध्र व पाया जाता है । विशेष धर्म प्रतिसमय परिणमनशील, अनेकरूप, स्वभाव-विभाव रूप पाये जाते हैं । उन्हीं को पर्याय अथवा अवस्थाविशेष कहते हैं। ये अवस्था विशेष जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में उनके परस्पर संयोग-विशेष से विभावरूप परिणाम होते हैं तथा परस्पर संयोग के प्रभाव में, वियोग में अपने-अपने स्वभाव अवस्था-विशेष रूप से परिणमते हैं। वास्तव में उनके विभावअवस्थारूप परिणमन का मूल कारण उनकी वैभाविक शक्ति तथा उस शक्ति का विभाव परिणमन इसे कर्तृकारक या करण-कारक कहा जाता है और वह विभाव परिणमन का विषय अन्य परद्रव्य का संयोग यह निमित्त मात्र कारण कहलाता है । । यद्यपि वस्तु का प्रत्येक विभाव अवस्था रूप परिणमन कार्य अन्य द्रव्य के संयोग के सांनिध्य के बिना नहीं होता, तथापि वह परद्रव्य रूप बाह्य निमित्त केवल कार्य का सूचक चिह्न है । कर्तृकारक या करण-कारक नहीं है । वस्तु का कार्य-कारण भाव अपने-अपने परिणमन कार्य के साथ अभिन्न रूप से, मुख्य रूप से होता है तथा वह परिणमन कार्य किस बाह य परद्रव्य के संयोग में हुआ, इसका ज्ञान कराने के लिए निमित्तभूत पदार्थों को निमित्त कारण रूप से निमित्त प्रधान-व्यवहारनय भाषा से कहा जाता है । वास्तव में कर्तृ-करण रूप से उन बाह्यनिमित्तभूत परपदार्थ के संयोग का या वियोग का उपादान कार्य के साथ कुछ
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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