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________________ जैनविद्या - 12 द्रव्य के कार्य के व्यापार में कर्तृरूप या करणरूप कारण मूल उपादान द्रव्य का स्वचतुष्टय ही कार्यकारी है । roदवियेर दवियस्स रग कीरs गुरण प्पादो । अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य का कोई भी कार्य कर्तृरूप से या कररणरूप से करने का सामर्थ्य अन्य द्रव्य में नहीं है । यह वस्तुतत्त्व का कार्य-कारण भाव का मूल सिद्धान्त है । इस प्रकार वस्तु स्वातंत्र्य का सिद्धान्त उद्घोषित करना यही जैनदर्शन के अनेकान्त शासन का अनुपम वैशिष्ट्य है । यः परिणमति स कर्ता, परिणामो यो भवेत् तु तत्कर्म । जो स्वयं परिणमता है वही उस परिणाम का (कार्य का ) कर्ता होता है और जिस परिणाम से परिणमता है वही उसका परिणाम कर्म होता है । इस प्रकार कार्य-कारण भाव अभिन्न एक द्रव्य और उसके परिरणमन कार्य के साथ ही माना गया है। प्रश्न – मोक्षशास्त्र में धर्म-अधर्म, आकाश - काल द्रव्य के लक्षण करते हुए धर्म द्रव्य को जीव - पुद्गल के गति हेतु लक्षण, अधर्म द्रव्य को स्थिति हेतु लक्षरण कहा है। आकाश द्रव्य को सब द्रव्यों का अवगाहन हेतु लक्षण, कहा है । काल द्रव्य को वर्तना हेतु कहा है । उत्तर – ये सब लक्षण प्रसद्भूत व्यवहार नय से कहे हैं । वास्तव में एक द्रव्य दूसरे द्रब्य का कोई उपकार - अपकार - सहकार नहीं कर सकता । प्राचार्य पूज्यपाद इष्टोपदेश में कहते हैं— परोपकृतिमुत्सृज्य भव । स्वोपकारपरो उपकुर्वन् परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ।। 32 परद्रव्य पर उपकार करने के विकल्प को छोड़कर अपनी श्रात्मा पर उपकार करने का प्रयत्न कर । दृश्यमान जगत् पर उपकार करने का विकल्प करनेवाला अज्ञानी है । संपूर्ण जगत् शरीरादि परद्रव्य के उपकार में ही निरंतर उद्यत रहते हैं । ग्रपनी आत्मा के उपकार की किसी को चिंता नहीं । यह अज्ञानी जीव एकभव के शरीर सुख के लिए आगे अनन्त भवों में दुःख का कारण पाप बंध करता है । यदि इस जीव ने इस भव में ग्रात्मा का उपकार करने का प्रयत्न किया तो अगले अनन्त भवों का बेड़ा पार हो जाता है, इस तत्त्वज्ञान की अज्ञानी जीव को खबर नहीं । इसी प्रकार जैनदर्शन का दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अहिंसा है— हिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं । नसा यत्रारंभोऽस्त्यरण रपि च यत्राश्रमविधौ । ततस्तत् सिद्ध्यर्थ परम करुणा ग्रन्थमुभयं । भवनिवात्याक्षीत् न च विकृतवेषोपधिरतः ॥ अहिंसा यह जगत् के प्राणी मात्र का परम ब्रह्म है। जहां प्रणु मात्र भी प्रारंभ परिग्रह की मूर्च्छा - अभिलाषा रहती है वहां अहिंसा धर्म का सर्वांगपूर्ण पालन नहीं बन सकता ।
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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