________________
जनविद्या-12
अर्थात् मोह से आच्छादित ज्ञान वास्तविक स्वरूप को वैसे ही नहीं जान पाता है जैसे मद पैदा करनेवाले कोदों के खाने से मत्त आदमी पदार्थों के वास्तविक रूप को ठीक-ठीक नहीं जान पाता।
यद्यपि शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्र आदि सर्वथा विपरीत स्वभाववाले होते हैं, पर मोहपाश में आबद्ध मूढ प्राणी को ये सभी प्रात्मवत् और अनुकूल स्वभाववाले प्रतीत होते हैं । (पद्य-सं. 8)
दुःख से अर्जनीय और सतत असुरक्षा की भावना से युक्त एवं नश्वर धन आदि को अपना मानकर सुखी होने वाला व्यक्ति उस ज्वरग्रस्त रोगी के समान है जो घी पीकर अपने को स्वस्थ मानने की मूर्खता करता है । (पद्य-सं. 13)
प्राचार्य पूज्यपाद निर्धनता-निवारण एवं पूर्वोपार्जित पाप के क्षय के लिए पात्रदान, देवपूजा आदि को निरर्थक मानते हैं। उन्होंने लिखा है
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः सच्चिनोति यः ।
स्वशरीरं स पङ्कन स्नास्यामीति विलिम्पति ॥ (पद्य-सं. 16) अर्थात्, जो निर्धन ऐसा विचार करे कि पात्रदान, देवपूजा आदि त्यागकर्म से श्रेय:प्राप्ति होगी और पूर्वोपार्जित अपुण्य का क्षय होगा, तो वह बाद में स्नान कर लूंगा, ऐसा सोचकर अपने शरीर पर कीचड़ मलता है ।
प्राचार्य पूज्यपाद कहते हैं—यह बात प्रसिद्ध है कि जिसके पास जो होता है, वह वही देता है । अज्ञानियों की संगति अज्ञानता देती है और ज्ञानियों की संगति ज्ञान प्रदान करती है । इसलिए, लोगों को चाहिए कि वे बराबर ज्ञानियों की संगति करें । (पद्य-सं. 23)
योगपरायण योगी सदेह होकर भी विदेह हो जाता है। इसीलिए, ध्यान की स्थिति में वह, 'यह क्या है ? कैसा है ? किसका है ? क्यों है ? कहाँ है ?' इत्यादि विकल्पों से मुक्त होकर अपनी शारीरिक अस्मिता को भी भूल जाता है । वह निरन्तर अध्यात्म में रमते हुए अननुभूत और अनास्वादित अानन्द की अनुभूति में मग्न रहता है, आत्माराम हो जाता है । उसे अध्मात्म के अतिरिक्त दूसरी जगह प्रवृत्ति ही नहीं होती (पद्य-सं. 42-43) । निश्चय ही, जिस व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रानन्द की उपलब्धि हो जाती है वह पुनः भौतिक आनन्द की ओर आकृष्ट नहीं होता।
इस प्रकार, 'इष्टोपदेश' में प्राचार्य देवनन्दी ने जीव (आत्मा) और पुद्गल (शरीर) को सर्वथा एक दूसरे से भिन्न माना है । जो योगी ऐसी दिव्यानुभूति की स्थिति में पहुंच जाता है उसे शारीरिक या भौतिक चिन्ता कभी बाधित नहीं करती। अन्त में, आचार्य पूज्यपाद का यही निष्कर्ष वाक्य भी है कि पुद्गल और जीव की भिन्नता के ज्ञान का उपदेश ही प्राचार्यों का धर्म है । यही तत्त्वसंग्रह है । उससे भिन्न इस सन्दर्भ में जो कुछ भी कहा जाता है, सब इसी तत्त्व का विस्तार है । मूल श्लोक इस प्रकार है