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जैनविद्या-12
_ 'इष्टोपदेश' 'हितोपदेश' की तरह की गुरु-शिष्य के संवाद के रूप में उपन्यस्त हुआ है । आचार्य देवनन्दी व्रतों को मूल्य देते हुए कहते हैं कि मोक्षमागियों को अव्रतों के माध्यम से नरक-पद प्राप्त करने के वनिस्पत व्रतों के माध्यम से देव-पद प्राप्त कर लेना कहीं अच्छा है। जैसे, धूप में बैठकर दुःख से समय बिताने की अपेक्षा छाया का सुख लेना कहीं अच्छा है।
आचार्य की इस बात पर उनका शिष्य शंका करता है कि आपके इस कथन से तो सर्व-साधारण सुखार्थी जनों का आत्मानुराग के प्रति आकर्षण होने की अपेक्षा व्रतों की ओर झुकाव हो जायेगा। शिष्य की इस शंका के समाधान में आचार्य दृष्टान्त के आधार पर कहते हैं कि जो आत्मभाव या आत्मशक्ति मोक्ष दे सकती है, उसके लिए स्वर्ग कोई बड़ी दूर की बात नहीं है । जो भारवाही अपने भार को दो कोस तक ढो ले जा सकता है उसके लिए प्राधा कोस भार ढोना क्या दुःख की बात होगी ? आत्मध्यान या आत्मचिन्तन के साथ-साथ व्रताचरण भी अनिवार्य है । साध्य-रूप मुक्ति की प्राप्ति के क्रम में आत्मध्यान से उपार्जित पुण्य की सहायता से साधन-रूप मुक्ति (स्वर्ग चक्रवर्ती आदि का भोग) मिल जाय, तो वह जीवों के लिए काम्य होना चाहिए (द्र पद्य-सं. 3-4)।
इस प्रकार, प्राचार्य ने जब प्रात्मशक्ति को स्वर्ग-सुख का कारण बता दिया, तब शिष्य ने कुतूहलवश स्वर्ग जानेवालों के फल की जिज्ञासा की। प्राचार्य ने कहा
हृषीकजमनातङ्क दीर्घकालोपलालितम् ।
नाके नाकोकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव ॥ (पद्य-सं. 5) अर्थात् स्वर्ग में निवास करनेवाले जीवों को स्वर्ग में वैसा ही सुख मिलता है जैसा कि स्वर्ग में रहनेवाले जीवों (देवों) को अर्थात् स्वर्गवासी देवों का सुख ऐसा अनुपमेय होता है कि वैसा कोई दूसरा सुख सम्भव ही नहीं है क्योंकि वह सुख (स्वर्गीय सुख) इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले आतंक (रोगभय) से रहित और दीर्घकाल तक बना रहनेवाला होता है।
यहाँ 'नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकोकसामिव' में आचार्य जी द्वारा की गई न-न, क-क और स-स व्यंजनों के अनेकधा सकृत्साम्य से 'छेकानुप्रास' जैसे शब्दालंकार और उपमान एवं उपमेय के अभेद से उत्पन्न 'अनन्वय' जैसे अर्थालंकार की योजना सातिशय हृदयावर्जक है । दर्शन और काव्य का यह मणिप्रवाल-संयोग अवश्य ही अपूर्व है ।
उपदेश की बातें यदि दृष्टान्तों के द्वारा कही जाती हैं तो वे अधिक प्रभावशाली होती हैं । इसीलिए आचार्य देवनन्दी ने प्रायः अपने पूरे उपदेशों में प्रसंगानुसार दृष्टान्त-शैली का ही आश्रय लिया है । आचार्य ने जब यह कहा कि सुख और दुःख वासनामात्र या विभ्रमजन्य संस्कार हैं, तो शिष्य ने पूछा कि सुख-दुःख लोगों को उसी रूप में क्यों नहीं अनुभव होते । बहुधा ऐसा देखा गया है कि लोग कमनीय कामिनी आदि के दुःख परिणामी भोग को ही वास्तविक सुख मान बैठते हैं । प्राचार्य ने दृष्टान्त सहित उत्तर दिया
मोहने संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि । मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ॥ (पद्य-सं. 7)