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जैनविद्या-12
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धर्म, अधर्म और काल ये तीनों (द्रव्य) काय (बहुप्रदेशी) नहीं हैं, शुद्धस्वभावस्वरूपी तथा स्वभावगुणवाले हैं। श्रुतज्ञ पुद्गल को शक्तिस्वभावी, बीसगुणोंवाला, गतिहीन, विभावी एवं गलनशील कहते हैं ।।12।।
विशेष—यहाँ धर्म और अधर्म से तात्पर्य पुण्य-पाप से नहीं है । जैनदर्शन में इस नाम से दो स्वतन्त्र द्रव्य हैं जो जीव और पुद्गल की गति और स्थिति में क्रमशः उदासीन रूप से कारण हैं।
लाल, पीला, काला, हरा और श्वेत तथा गंध (दुर्गन्ध) एवं सुगंध ये उस (पुद्गल) के विभाव गुण हैं। कड़वा, मीठा, तीखा, खारा और खट्टा इनको भी परमाणु की पर्याय जानो ।।13।।
गर्म, ठण्डा, हल्का, मारी, कठोर, कोमल, रूखा और चिकना ये सब भी परमाणु की पर्यायें ही जानना चाहिए । जो चार प्रकार की गतियों में गमन करता है उसे चेतन का दोष जानना चाहिए ।।1411
जो उद्योत और अंधेरा दिखाई देता है अथवा श्वासोच्छवास, छाया, आकार, सब प्रकार की वनस्पति, पृथ्वी, पानी, अनाज, हवा, और माग इन सब में जड़ता है ।।15।।
जैसे राजा धनुष से हाथी को जीत लेता है वैसे ही कोई भी (अथवा कृश शरीर हो तो भी) चेतन योगी होकर प्रयत्नपूर्वक जितेन्द्रिय हो सकता है । जो चेतन है वह अचेतन नहीं होता, शरीर धारण कर अनेक प्रकार के पुद्गलों से बंधता है ।।16।।