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________________ 98 जैनविद्या-12 रात्तउ-लाल, रक्त । 13 ह-ौर, अरु। 18 रूक्खउ-रुक्ष, रूखा। 14 रूपकर-आकार। 15 रे-अरे । 1, 17 लो-लोभ, लालच । 6 लउ-लो, लगन। 19 लावइ–लगाता है । 19, 20 लीजइ-ग्रहण की जाती है । 17 लीपइ-लिपता है । 5 लेय-लेकर, धारण कर । 16 लोकसिखरि-लोक शिखर पर । 10 ल्हउडउ-ल्होडा, लघु, छोटा । 9 वंण्णु-वर्ण, रंग । 6 वंधइ-बंधता है । 16 वटइ-खण्डित होता है । 2 वडउ-बड़ा । 9 वरणासयति-वनस्पति । 15 वधा-बाधित । 9 वस्तु-वस्तु, पदार्थ । 17 वहुकउ-बहुकायिक, बहुप्रदेशी । 12 वहुविह-बहुविध । 16 वाई-हवा । 15 वाडि-आग । 15 विगति-गतिहीन । 12 विढवइ-झगड़ा करता है, अलग होता है । 4 विणु-बिना । 17 विभाइ-विभाव । 12, 13 विसाउ-खेद । 7 वीसगुण निवसहि-बीस गुणों वाला । 12 संपज्जइ-सम्पन्न किया जाता है । 2 संवर-संवर । 18 संसार-जगत् । 1 संसारी-संसारी। 5
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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