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________________ जैनविद्या-12 41 __ जैनेन्द्र व्याकरण--'मुग्धबोध' के कर्ता पं. बोपदेव ने आठ प्राचीन वैयाकरणों के साथ जैनेन्द्र के नाम से प्राचार्य पूज्यपाद की संस्तुति की है इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥ 'जैनेन्द्र व्याकरण' प्राचार्य पूज्यपाद की सबसे महनीय कृति है । यही कारण है कि वे वैयाकरणों में जैनेन्द्र के नाम से अभिहित हुए। जैनेन्द्र व्याकरण के दो पाठ-वर्तमान में जैनेन्द्र व्याकरण के दो पाठ उपलब्ध होते हैं-उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय । दोनों पाठों पर पृथक्-पृथक् वृत्तियाँ भी उपलब्ध उत्तर भारतीय पाठ के अनुसार जैनेन्द्र व्याकरण के 3063 सूत्र हैं जिन पर प्राचार्य अभयनन्दी कृत 'महावृत्ति' उपलब्ध है। दक्षिण भारतीय पाठ के अनुसार उसमें 3695 (प्रत्याहार सूत्रों को लेकर 3708) सूत्र हैं । इस पर सोमदेव मूरि-कृत 'शब्दार्णव-चन्द्रिका' और गुणनन्दी-कृत 'प्रक्रिया' उपलब्ध हैं। इस पाठ में 645 सूत्र अधिक होने के अतिरिक्त शेष 3063 सूत्र भी पूर्णतया एक जैसे नहीं हैं । संज्ञाओं में भी भिन्नता है । इतना होने पर भी दोनों में पर्याप्त समानता है । । पं. नाथूराम प्रेमी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पूज्यपाद देवनन्दी का बनाया हुमा सूत्रपाठ वही है जिस पर प्राचार्य प्रभयनन्दी ने महावृत्ति लिखी है। 6 विषयवस्तु-जैनेन्द्र व्याकरण के पाँच अध्याय हैं, इस कारण उसे 'अष्टाध्यायो' के अनुकरण पर 'पञ्चाध्यायी' भी कहा जाता है प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं और प्रत्येक पाद में अनेक सूत्र । ये सब पाणिनि की अष्टाध्यायी के अनुकरण पर हैं। जैनेन्द्र व्याकरण का प्रथम सूत्र 'सिद्धिरनेकान्तात्' अर्थात्-शब्द की सिद्धि अनेकान्त से होती है, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसकी व्याख्या करते हुए सोमदेव सूरि ने 'शब्दार्णवचन्द्रिका' में जो कुछ भी कहा है उसका भाव यह है कि शब्दों की सिद्धि और ज्ञप्ति अनेकान्त का आश्रय लेने से होती है, क्योंकि शब्द, अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व और विशेषण-विशेष्य धर्मों को लिए हुए होते हैं। इस सूत्र का अधिकार इस शास्त्र की परिसमाप्ति तक जानना चाहिए । जैनेन्द्र व्याकरण का संज्ञा प्रकरण सांकेतिक है। इसमें धातु, प्रत्यय, प्रातिपदिक, विभक्ति, समास आदि महासंज्ञाओं के लिए बीजगणित जैसी अतिसंक्षिप्त संज्ञाएँ हैं । इस व्याकरण में सन्धि के सूत्र चतुर्थ एवं पंचम अध्याय में हैं। इनमें तुगागम, यणसन्धि, अयादि सन्धि आदि का विधान है । पूज्यपाद का यह प्रकरण पाणिनि के समान होने पर भी प्रक्रिया की दृष्टि से सरल है। जनेन्द्र व्याकरण की सन्धि सम्बन्धी तीन विशेषताएँ हैं-लाघव, अधिकार सूत्रों द्वारा अनुबन्धों की व्यवस्था तथा उदाहरणों का बाहुल्य । चतुर्थ-पंचम शताब्दी में प्रयुक्त होनेवाली
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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