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जनविद्या-12
___ दशभक्ति-जैनागम में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, प्राचार्य, पंचगुरु, तीर्थ कर, शांति, समाधि, निर्वाण, नंदीश्वर, चैत्य नामक भक्ति के द्वादश भेद हैं । पूज्यपाद की 'दशभक्ति में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, निर्वाण और नंदीश्वर भक्तियों का उल्लेख है। काव्य-दृष्टि से यह रचना सरसता और गम्भीरता से अभिमंडित है । रचनारम्भ में नवपद्यों में सिद्ध-भक्ति का विवेचन है । पूज्यपाद का कहना है कि अष्ट कर्मों की विनष्टि से शुद्ध प्रात्मा की प्राप्ति होना सिद्धि है। सिद्ध भक्ति के प्रभाव से साधक को सिद्ध-पद की प्राप्ति सम्भव है । अन्य भक्तियों में नामानुसार विषय का प्रवर्तन हुआ है ।
जन्माभिषेक-श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में पूज्यपाद की रचनाओं में जन्माभिषेक का भी उल्लेख मिलता है (जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या 40, पृष्ठ 55, पद्य 11)। डॉ. नेमीचन्द्र ज्योतिषाचार्य “तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा" खण्ड-2, पृष्ठ 225 पर कहते हैं-वर्तमान में एक 'जन्माभिषेक' मुद्रित उपलब्ध है। इसे पूज्यपाद द्वारा रचित होना चाहिए । 'जन्माभिषेक' इस रचना में प्रवाह और अभिव्यक्ति में प्रौढ़ता का समावेश है।
तत्वार्थवृत्ति-'तत्वार्थसूत्र' पर गद्य में लिखित 'तत्वार्थवत्ति' महनीय कृति है । इसमें सूत्रानुसारी सिद्धान्त के प्रतिपादन के साथ-साथ दार्शनिक विवेचन भी बखूबी हुआ है। यह कृति 'सर्वार्थसिद्धि' संज्ञा से भी अभिहित है । कृति के अन्त में उल्लिखित है
स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायः
जैनेन्द्र-शासन-वरामृत-सारभूता । सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्तनामा
तत्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधा॥ अर्थात् जो आर्य स्वर्ग और मोक्ष सुख के इच्छुक हैं, वे जिनेन्द्र शासनरूपी श्रेष्ठ अमृत से भरी सारभूत और सत्पुरुषों द्वारा प्रदत्त 'सवार्थसिद्धि' इस नाम से प्रख्यात इस तत्वार्थवृत्ति को सतत मनोयोगपूर्वक अवधारण करें । इस वृत्ति में 'तत्वार्थसूत्र' के प्रत्येक सूत्र और उसके प्रत्येक पद का निर्वचन, विवेचन एवं शंका-समाधानपूर्वक व्याख्यान किया गया है । टीका ग्रंथ होते हुए भी कृति में मौलिकता के अभिदर्शन होते हैं । 'मंगलाचरण' के पश्चात् प्रथम सूत्र की व्याख्या प्रारम्भ करते हुए उत्थानिका में उल्लिखित है-किसी निकट भव्य ने एक आश्रम में मुनि-परिषद् के मध्य में स्थित निर्ग्रन्थाचार्य से विनयसहित पूछा-भगवन् ! आत्मा का हित क्या है ? आचार्य ने उत्तर दिया-मोक्ष । भव्य ने पुनः प्रश्न किया-मोक्ष का स्वरूप क्या है और उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ? इसी प्रश्न के उत्तर स्वरूप 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' सूत्र रचा गया है । द्वितीय अध्याय के तृतीय सूत्र की व्याख्या में चारित्रमोहनीय के 'कषायवेदनीय' और 'नोकषायवेदनीय' ये दो भेद बतलाए हैं तथा दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद बतलाए हैं। इन सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है । यह सम्यक्त्व अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मोदय से