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देवनन्दि पूज्यपाद का सर्जना- संसार
-डा. प्रादित्य प्रचण्डिया
साहित्य की प्राणदायिनी शक्ति का स्रोत साहित्यकार के व्यक्तित्व में निहित है । साहित्य का मूल्य साहित्यकार के आत्म की महत्ता और अभिव्यक्ति की सम्पूर्णता एवं सच्चाई के अनुपात से ही प्रांकना आवश्यक है । कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन त्रय व्यक्तित्वों के समवाय का नाम है ।
आचार्य गुणनंदि विद्वन्मान्य पूज्यपाद के व्याकरण सूत्रों का प्राधेय लेकर 'जनेन्द्र प्रक्रिया' के 'मंगलाचरण' में गुणानुवाद करते हुए कहते हैं
नमः श्री पूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् ।
यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत्क्वचित् ॥ अर्थात् जिन्होंने लक्षण-शास्त्र की रचना की है, मैं उन आचार्य पूज्यपाद को प्रणाम करता हूँ। उनके इस लक्षण-शास्त्र की महत्ता इसी से स्पष्ट है कि जो इसमें है वह अन्यत्र भी है
और जो इसमें नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है । देवताओं के द्वारा पूजित होने से पूज्यपाद कहलानेवाले जिनेन्द्रबुद्धि देवनंदि की ज्ञानगरिमा और उनके साहित्य की महत्ता धनंजय, वादिराज आदि प्राचार्यों द्वारा मुखरित हुई है। ईसा सन् की षष्ठ शती के ब्राह्मण कुल में जन्मे और बाद में नाग द्वारा मेंढ़क निगलने और मेंढ़क के तड़पने को देखकर विरक्त हो दिगम्बर दीक्षाधारी आचार्य देवनंदि पूज्यपाद का साहित्य-सर्जना-संसार आध्यात्मिक-दार्शनिक महत्ता का प्रागार है । पूज्यपाद-प्रणीत रचनाओं का विवरण-विवेचन प्रस्तुत करना हमें यहाँ अभीप्सित है