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जैनविद्या-12
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जैसे सोना और पत्थर सदा से मिले हुए हैं वैसे ही जीव और कर्म भी सदा से मिले हुए हैं । दोनों में पहले, पीछे या आदि नहीं करना चाहिए। बिना उत्पाद के कोई वस्तु नहीं होती। ।।171
जो अपने को नहीं जानता और जड़ से अजान है उसके इस लोक में प्रास्रव और बंध होता है । जो अपने को जानता है तथा पर को पहचानता है, उसी के संवर होता है और उसी के निर्जरा होती है ।।18।।
___ जो प्रात्मस्वरूपी होकर प्रात्मा से लौ लगाता है वह एरण्ड बीज की तरह कर्मों को झाड़ देता है, वह मनुष्य मुक्तिश्री को प्राप्त कर लेता है। भूतकाल में अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं। ॥19॥
जो मनुष्य इसको पढ़ता है, पढ़ाता है, उसके एक क्षण भी पाप का प्राश्रव नहीं होता। जो मनुष्य सात तत्त्वों में मन लगाता है वह शरीर छोड़कर शिवपुर को प्राप्त करता है । ।।20।।