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________________ 48 जैनविद्या-12 प्रपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसम्भवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ (ज्ञानार्णव: 1.15) कहना न होगा कि आचार्य देवनन्दी की रचनाएँ परवर्ती प्रायः सभी श्रेष्ठ रचनाकारों की उपजीव्य रही हैं, इसीलिए उन्होंने उनके पारगामी पाण्डित्य, अन्तःप्रवेशी मनीषा, विस्मयकारिणी सर्वतोमुखी प्रज्ञा एवं प्रतिभा का सादर और साग्रह स्मरण किया है । किंवदन्ती है कि पूज्यपाद स्वामी ने प्रसिद्ध बौद्धतान्त्रिक नागार्जुन को सोना बनानेवाले सिद्धिरस की प्रोषधि (बूटी) की पहचान कराई थी। (द्र. 'तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा' भाग-2, पृ. 221) प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी की प्रामाणिक रचनामों में 'जनेन्द्र महाव्याकरण', 'सर्वार्थसिद्धि', की 'तत्वार्थवृत्ति' टीका, 'समाधिशतक' या 'समाधितन्त्र', 'इष्टोपदेश' तथा 'दशभक्ति' उल्लेख्य हैं । पुण्य श्लोक डॉ. नेमीचन्द शास्त्री ने 'जन्माभिषेक' एवं 'सिद्धिप्रियस्तोत्र' को भी पूज्यपाद की कृतियों में परिगणित किया है (द्र. तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा', भाग-2, पृ. 225 ) । सन् 1954 ई. में बम्बई के परमश्रुत-प्रभावक-मण्डल की श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला में प्रकाशित 'इष्टोपदेश' के प्रथम संस्करण के प्रकाशकीय निवेदन में उल्लेख है कि प्राचार्य पूज्यपाद ने 'शब्दावतारन्यास', 'जैनेन्द्रन्यास', 'सारसंग्रह' और एक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की थी, जो सम्प्रति अनुपलब्ध हैं । इस निबन्ध में 'इष्टोपदेश' पर नातिदीर्घ चर्चा करना मेरा अभीष्ट है । _ 'इष्टोपदेश' को नारायण कवि लिखित प्रसिद्ध 'हितोपदेश' की परम्परा का नव्योभावन (रीहै श) कहना अनुचित नहीं होगा । नामसाम्य तो स्पष्ट ही है । 'हितोपदेश' में बालकों के लिए कथा के छल से नीति की बात कही गई है, तो 'इष्टोपदेश' में घातक कर्मों के तादात्विक प्रानन्द में प्रमत्त बालश्रावकों (प्रज्ञानियों) को प्रत्यक्ष रूप से, बिना किसी कथा के माध्यम से, उपदेश किया गया है। कहना न होगा कि 'इष्टोपदेश' और प्राचार्य कुन्दकुन्द (ई. प्रथमशती) की महत्कृति समयसार' का तुलनात्मक अध्ययन अपने आप में एक सुखद शोध-प्रयत्न होगा। परिग्रह की विभिन्न वृत्तियों में प्राबद्ध मानव निरन्तर आर्तध्यान और रौद्रध्यान में रहता है, फलतः वह प्रत्येक क्षण विषयोन्मुख होकर तनावों में जीने के लिए विवश हो जाता है और विषय-वासना की मृग-मरीचिका में भ्रान्त होकर आत्मशक्ति और आत्मशान्ति के मूल्य को खो बैठता है । कहना न होगा कि आज समग्र मानव जाति आत्मविस्मृत और दिग्भ्रान्त होकर स्वयं अपना ही अवमूल्यन कर रही है । 'इष्टोपदेश' आधुनिक दिशाहारा मानव के लिए उसके सही मार्ग-निर्देशन में समर्थ है, अत: इस ग्रन्थ की आज भी प्रासंगिकता और सम्प्रेषणशीलता अक्षुण्ण बनी हुई है। _ 'इष्टोपदेश' में कुल इक्यावन पद्य हैं और सभी के सभी पद्य बीजात्मक, अतएव भाष्यगर्भा हैं । देखने में छोटा, किन्तु प्रभावकारिता की दृष्टि से व्यापक और गम्भीर । बीज
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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