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जनविद्या-12
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"वायरणकारि सिरि देवणंदि, जइणेद णामु जडयणदुलक्खु" । किउ जेण पसिधु स वायलक्खु ।
'चंदप्पह चरिउ' (चन्द्रप्रभ चरित्र) की रचना करते हुए भट्टारक यशः कीर्ति (11 वीं सदी) ने श्री पूज्यपाद का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है :
सिरिदेवणंदि मुरिणबहुपहाउ, जसु गामगहरिण गासेउ पाउ ।
जसु पूज्जिय अंबाएई पाय, संमरणमित्ति तक्खणि ण प्राय ॥
महाकवि रइधू ने 'मेहेसर चरिउ' (मेघेश्वर-चरित) सं. 1492 की रचना करते हुए पूज्यपाद (देवनंदी) का उल्लेख निम्न छन्द में किया है
देवणंदिगणि विज्जामंदिर, जेण विहिउ वायरण महाचिरु ।
छंदसण पमाणु पबिसेणे विरयउ पालिय जिणवरसेणें ॥
इन्हीं ने अपने “अरिट्ठणेमि चरिउ" (हरिवंश-पुराण-अरिष्टनेमि चरित) में पूज्यपाद का उल्लेख करते हुए लिखा है :
"देवणंदि वाएसरिभूसिउ, जेहि जइणिंद वायरण पयासिउ" कवि महिन्दु (महाचंद) सं. 1587 ने अपने संतिणाह चरिउ (शांतिनाथ चरित्र) में पूज्यपाद (पादपूज्य-पायपुज्ज) का उल्लेख करते हुए लिखा है :
अकलंक सामि सिरि पायपुज्ज (य) इंदाइमहाकइअट्ठहूय" उपर्युक्त अभिलेखों से सारस्वताचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी की सर्वतोमुखी प्रतिभा का आभास सहज ही ज्ञात हो जाता है । वे पाणिनि से भी अधिक उच्च कोटि के वैय्याकरण थे, उन्होंने जैन संस्कृति और साहित्य को जो कुछ दिया वह अनुपम है, अद्वितीय है ऐसे संतशिरोमणि साहित्यकार को हमारा शत शत वंदन ! शत शत अभिनन्दन !! इति शम् । ।
श्रुति कुटीर 68, विश्वास मार्ग विश्वास नगर, शाहदरा
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