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चिदानंद स्वरूप की उपलब्धि
योगेन,
दृषदः स्वर्णता मता ।
योग्योपादान
द्रव्यादि स्वादि- सम्पत्ता
वात्मनोऽप्यात्मता मता ॥ 2 ॥
दोहा - स्वयं पाषारण सुहेतु से, स्वयं कनक हो जाय । सुद्रव्यादि चारों मिलें, आप शुद्धता थाय ||2||
जैनविद्या - 12
अर्थ – योग्य उपादान के संयोग से पाषाणविशेष जिस प्रकार स्वर्णरूप परिणत हो जाता है वैसे ही यह आत्मा भी सुद्रव्य, सुक्षेत्र प्रादि की प्राप्ति पर ग्रात्मत्व को प्राप्त कर लेता है ।
- पूज्यपाद : इष्टोपदेश