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जैनविद्या 12
ब्रह्मश्रुतसागर ने 'सप्तपरमस्थानव्रतकथा' लिखते हुए पूज्यपाद की स्तुति की है
विद्यानंद्यकलंकार्य पूज्यपादं जिनेश्वरम् । नत्वा ब्रवीम्यहं सप्तपरमस्थान सद्वतम् ॥ व्रतरतिरकलंकः पूज्यपादो मुनीनां,
गुणनिधिरबुधानां बोधिकृत्पद्मनंदी । इन्हीं ने अपनी चन्दनषष्ठी कथा में भी पूज्यपाद का उल्लेख किया है
प्रभाचन्द्रं पूज्यपादं श्री विद्यानंदिनं जिनम् ।
समन्तभद्रं संस्मृत्य वक्ष्ये चन्दनषष्ठिकाम् ॥ इन्हीं की निर्दुखसप्तमी कथा में भी पूज्यपाद का निम्न उल्लेख है
विद्यानंदं प्रभाचन्द्रं पूज्यपादं जिनेश्वरम् ।
नत्वाऽकलंक वावच्मि कथा निर्दु खसप्तमीम् ॥ इन्हींकी श्रावणद्वादशी कथा तथा रत्नत्रय कथा में भी पूज्यपाद का उल्लेख है
पूज्यपाद-प्रभाचन्द्रा कलंक-मुनिमानितम् । नत्वाऽ हन्तं प्रवक्ष्यामि श्रावणद्वादशीविधिम् ॥ विद्यानंदप्रदं पूज्यपादं नत्वा जिनेश्वरम् ।
कथारत्नत्रयस्याहं वक्ष्ये श्रेयोनिधः सताम् ॥ भ. ज्ञानकीति ने अपने “यशोधर चरित्र" में पूज्यपाद की स्तुति की है
समन्तभद्रकविराजमेकं वादीसिंहम् वर पूज्यपादम् ।
भट्टाकलंक जितबौद्धवादं प्रभादिचन्द्रे सुकवि प्रवन्दे ॥ अपभ्रंश भाषा के कवियों ने प्रायः पूज्यपाद की जगह उनके अपरनाम देवनंदी का ही बहुलता से प्रयोग किया है । यहाँ पूज्यपाद संबन्धी कुछ अपभ्रंश कवियों के अभिलेख प्रस्तुत हैं—पं. श्रीचन्द्र (सं.1 1 23) ने अपने रयणकरंडसावयाचार (रत्नकरण्डश्रावकाचार) में अन्य प्राचार्यों के साथ साथ पूज्यपाद (पायपुज्ज-पादपूज्य) का भी उल्लेख किया है यथा -
हरिणंदिमुरिंणदु समंतभदु अकलंक पयो परमय विमदु ।
मुणिन्वइ कुलभूसणु पायपुज्ज तहा विज्जाणंदु प्रणंतविज्जु ॥
धवलकवि (11 वीं सदी का पूर्व) ने अपने "हरिवंसपुराणु" में अपने से पूर्ववर्ती लगभग तेईस कवियों, प्राचार्यों का पुण्यस्मरण करते हुए पूज्यपाद (देवनंदी) का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है :
"देवणंदि बहुगुणजसभूसिउ जे वायरणु जिरिंणदु पयासिउ"
श्री धनपाल कवि (सं. 1454) ने अपने “बाहुवलिदेवचरिउ" नामक ग्रन्थ में पूज्यपाद का उल्लेख करते हुए लिखा है :