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________________ जनविद्या-12 45 जैनेन्द्र व्याकरण का महत्त्व एवं उसका संस्कृत व्याकरण शास्त्र को योगदान ___ आचार्य पूज्यपाद का स्मरण करते हुए, हरिवंशपुराण के रचयिता प्राचार्य जिनसेन ने उनकी वाणी की वन्दना इस प्रकार की है इन्द्रचन्द्रार्क जैनेन्द्र व्याडि व्याकरणक्षिणः । देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरःकथम् ॥ 13 अर्थात्-इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरण का अवलोकन करनेवाली देववन्द्य देवनन्दी प्राचार्य की वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है, अर्थात् सर्वतोभावेन वन्दनीय है । संस्कृत साहित्य में पाणिनि की अष्टाध्यायी, व्याकरण शास्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं सांगीण विवेचन है। पाणिनि ने संस्कृत साहित्य का जो स्वरूप स्थिर किया उसी का विकास अनेक वृत्ति, वार्तिक, भाष्य, न्यास, टीका, प्रक्रिया आदि के रूप में वर्तमान काल तक होता आया है। किन्तु पाणिनि के अतिरिक्त उन्हीं की निर्धारित पद्धति पर भी व्याकरण ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है । जैनेन्द्र व्याकरण उसकी पहली कड़ी है । __ जैनेन्द्र व्याकरण की रचना से पूर्व प्राचार्य पूज्यपाद ने पाणिनि व्याकरण पर 'शब्दावतारन्यास' की रचना की थी, जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं है । 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' के लेखक, प्रसिद्ध भारतीय विद्याविद् डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'जैनेन्द्र-महावृत्ति' की भूमिका में जैन व्याकरण के अध्ययन एवं जैनेन्द्र व्याकरण के अवदान की विस्तार से चर्चा की है। 14 वे लिखते हैं-जैनेन्द्र व्याकरण ने भोज के सरस्वतीकण्ठाभरण को छोड़कर अपने आपको पाणिनीय सूत्रों के सबसे निकट रखा। किसी भी व्याकरण के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैनेन्द्र ने पाणिनि की सामग्री की प्रायः अविकल रक्षा की है । केवल स्वर और वैदिक प्रकरणों को अपने युग के लिए आवश्यक न जानकर उन्होंने छोड़ दिया था । जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता ने पाणिनीय-गणपाठ की बहुत सावधानी से रक्षा की। जैनेन्द्र व्याकरण की प्रवृत्ति पाणिनि-सामग्री के निराकरण में नहीं, वरन् उसके अधिक से अधिक संरक्षण में देखी जाती है। कात्यायन के वार्तिक और पतञ्जलि के भाष्य की दृष्टयों में जो नए-नए रूप सिद्ध किए गए थे उन्हें देवनन्दी ने सूत्रों में अपना लिया। इसलिए भी यह व्याकरण अपने समय में विशेष लोकप्रिय हुआ होगा। इसमें सन्देह नहीं कि प्राचार्य पूज्यपाद, पाणिनि-व्याकरण, कात्यायन के वार्तिक और पतञ्जलि के भाष्य के पूर्ण मर्मज्ञ थे, एवं जैनधर्म और दर्शन पर भी उनका असामान्य अधिकार था । वे गुप्तयुग के प्रतिभाशाली महान् साहित्यकार थे जिनका तत्कालीन प्रभाव कोङ्कण नरेशों पर था, किन्तु कालान्तर में वे सारे देश की विभूति बन गए। __ उपर्युक्त कथन से यह बात असंदिग्ध रूप से स्पष्ट हो जाती है कि प्राचीनकाल में सुदीर्घ समय तक पाणिनि-व्याकरण के साथ जैनेन्द्र-व्याकरण भी, भारतीय-साहित्य परम्परा
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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