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जैनविद्या-12
जैनेन्द्र व्याकरण पर रचे गए इतने टीका-ग्रन्थों से इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि यह व्याकरण लगभग एक हजार वर्षों तक लोकप्रिय रहा और इसका प्रचार-प्रसार होता रहा । 11 जैनाचार्यों के व्याकरण संबंधी मतों का उल्लेख
प्राचार्य पूज्यपाद ने जैनेन्द्र व्याकरण में अपने से पूर्ववर्ती छह प्राचार्यों के व्याकरण संबंधी मतों का उल्लेख किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं--1. भूतबलि, 2. श्रीदत्त, 3. यशोभद्र, 4. प्रभाचन्द्र, 5. समन्तभद्र तथा 6. सिद्धसेन ।
इन छह प्राचार्यों में से किसी का भी कोई व्याकरण-ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इतना अवश्य है कि ये प्राचार्य पूज्यपाद से पूर्ववर्ती विश्रुत आचार्य थे । उनके ग्रन्थों में व्याकरण के प्रयोगों का जो वैशिष्ट्य मिलता है वही उनके वैयाकरण होने का प्रमाण है ।
मतों का विवरण इस प्रकार है
भूतबलि-आचार्य भूतबलि के मत का प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है 'राद् भूतबले.' (3/4/83), अर्थात् प्रा. भूतबलि के मत से समा शब्दान्त द्विगु समास में 'ख' प्रत्यय होता है । इससे 'द्धसमिकः' के साथ 'बैसमीनः' प्रयोग भी विकल्प से सिद्ध होगा।
श्रीदत्त-'गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम्' (1/4/34) अर्थात्-प्राचार्य श्रीदत्त के मत के अनुसार गुणहेतुक पञ्चमी विभनि होती है, स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर । इससे 'ज्ञानेन मुक्तः' के साथ 'ज्ञानान्मुक्तः' प्रयोग भी विकल्प से सिद्ध होगा।
यशोभद्र-'कृवृषिमजां यशोभद्रस्य' (2/1/99) अर्थात्-प्राचार्य यशोभद्र के मत से कृ, वृष् और मृज् धातु से 'क्यप्' प्रत्यय होता है। तदनुसार कृत्यम्, वृष्यम् और मृज्यम्-ये वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध होंगे।
प्रभाचन्द्र-'रात्रेः कृति प्रभाच द्रस्य' (4/3/180) अर्थात्-प्रा. प्रभाचन्द्र के मत से रात्रि पद के उपपद रहते हुए कृदन्त प्रत्यय के पश्चात् 'मुम्' का आगम होता है। तदनुसार 'रात्रिचरः' वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध होगा।
समन्तभद्र-'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' (5/4/140) अर्थात्-‘झयो हः; 'शश्छोटि', 'हलो यमा यमि खम्' तथा 'झरो झरि स्वे'-ये चार सूत्र प्रा. समन्तभद्र के मत से कहे गए हैं । तदनुसार क्रमशः, सुवाग्धसति (ह को पूर्वसवर्ण), षट्छयामा (श् के स्थान पर छ), शय्या (संयोग से प्राप्त तीसरे यकार का लोप), तथा भित्ताम् (तीसरे तकार का लोप ) ये चार वैकल्पिक कार्य प्रा. समन्तभद्र के मत से होते हैं ।
सिद्धसेन–'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' (5/1/7) अर्थात्-प्राचार्य सिद्धसेन के मत से, विद् धातु से परे झ् प्रत्यय के स्थान में आदेशभूत 'अत्' को 'रूट्' का पागम होता है । यथासंविद्रते । 12