________________
जनविद्या-12
इस प्रकार स्तवन करते ही उनकी दृष्टि निर्मल हो गई।
उन्होंने अपने जीवन में अनेक ग्रंथों की रचना कर दिगंबर जैन साहित्य की महती सेवा की । यथा
1. सर्वार्थ सिद्धि 2. इष्टोपदेश 3. समाधिशतक 4. जैनेन्द्र व्याकरण इत्यादि । इष्टोपदेश नामक ग्रंथ का मंगलाचरण करते हुए वे कहते हैं
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरमावे कृत्स्नकर्मणां ।
तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने । स्वभाव के प्रतिकूल कारण मोह राग द्वेष रूप भावकर्म तथा उनके प्रभाव से ज्ञानावरणादि अष्ट द्रव्यकर्म का अभाव होने पर जिनको स्वयं स्वतःसिद्ध अात्मस्वभाव का प्राश्रय लेने से शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति हुई ऐसे अपने ध्र व ज्ञायक स्वभाव कारण परमात्मा को नमस्कार हो। जैनदर्शन ने स्वावलंबन ही मुक्ति का मार्ग बतलाया है ।
योग्योपादन योगेन दृषदः स्वर्णता मता ।
द्रव्यादि स्वादि संपन्नौ प्रात्मनोऽप्यात्मता मता ॥ सुवर्णपाषाण में अग्नि के संयोग से अपनी उपादान स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र-स्वकाल-स्वभावरूप स्वचतुष्टय संपत्ति के कारण स्वर्णता स्वयं प्रकट होती है। यद्यपि निमित्त प्रधान व्यवहार नय भाषा से अग्नि के संयोग से स्वर्णता पाती है ऐसा कहा जाता है, परन्तु यदि केवल अग्नि का संयोग स्वर्णता पाने का कारण माना जावे तो अन्य पाषाण से भी स्वर्णता प्राप्त होनी चाहिये परन्तु वह असंभव है। इससे सिद्ध होता है कि सुवर्ण पाषाण की स्वद्रव्यादि चतुष्टय रूप योग्यता ही स्वर्णता का मुख्य कारण है। यद्यपि व्यवहार-नय भाषा से कर्मों के अभाव में जीव को मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है ऐसा कहा जाता है, तथापि कर्मों का अभाव प्रात्मा की मोक्षप्राप्ति का मुख्य कारण न होकर उसकी स्वचतुष्टयरूप योग्यता ही आत्मा से परमात्मा बनने का उपाय है ।
पराश्रित व्यवहार नय से देव-शास्त्र-गुरु का उपदेश मोक्षप्राप्ति का कारण कहा जाता है, परन्तु अध्यात्म प्रधान निश्चय नय से प्राचार्य इष्टोपदेश ग्रंथ में कहते हैं
स्वस्मिन सदभिलाषित्वात, अभीष्टज्ञापकत्वतः।
स्वयं हितप्रयोक्तृत्वात्, प्रात्मैव गुरुरात्मनः ॥ 34 ॥ सत् की इष्टाभिलाषा अपने में होती है, इष्ट का ज्ञान आत्मा को ही होता है, और आत्मा स्वयं हितरूप प्रवृत्ति करता है, अर्थात् सत् की इष्ट की रुचि, इष्ट का ज्ञान तथा इष्ट में प्रवृत्ति स्वयं प्रात्मा ही करता है, तीनों कार्य रुचि (श्रद्धा), ज्ञान तथा चारित्रप्रवृत्ति आत्मा में ही होते हैं, इसलिए वास्तव में प्रात्मा ही आत्मा का गुरु है । अन्य देवशास्त्र-गुरु केवल निमित्त मात्र मार्गदर्शक हैं । यहाँ निमित्त और उपादान दोनों के सद्भाव में कार्य होता हुआ देखने से कोई स्थूल दृष्टि -अज्ञानी केवल पराधीन होकर निमित्त को अपने सुख-दुःख का कर्ता