Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . CADAN त्र ALSNRN FRNA PRON MAG 4 BS TA८ वीजापुरना शा. मूळचंद सरूपचंदना पुण्यार्थे. जैनतत्त्वसार. ( गूजराती भाषांतर साथैः ) प्राकृत भारत का orward पुस्तक क्रमांक ... प्रसिद्ध कर्ता, श्री जैन आत्मानंद सभा. 1726 35/ ALO भावनगर. अमदावादमां " सीटी प्रेस" मा छाप्यो. OSHOG S वीर संवत् २४३६. आत्म संवत् १४. MINS NOR JAPAN FDAI विक्र GRON V (सर्व हक्क स्वाधीन.) A S Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACKNOW सुज्ञ वाचको ! अमारा जीवनना आधार परमपवित्र परमपूज्य विश्वविख्यात श्रीजैनधर्मप्रभाव स्वर्गस्थ महात्मा श्रीविजयानंद सूरीश्वरजी - श्री आत्मारामजी महाराजजी साहेबना परोपकारपरायण शिष्य प्रवर्तक महामुनि श्री कांतिविजयजी महाराजजीनी आज्ञानुसार आ ग्रंथने संशोधी भाषान्तर साथ तैयार करी आपनार अमारा विद्वान् मित्र वैद्यराज मगनलाल भाइ चुनीलाल वडोदरावाळा छे अने महाराजजीए पोते विद्वत्ता भरेलो उपोद्घात लख्योछे, तेथी आपनी सर्वे प्रकारनी जिज्ञासा पूरी थाय तेम छे. मादे अमो अहीं ते उपकारी मुनिमहाराजनो अने वैद्यराजनो त्रिकरणयोगे उपकार मानवानी फरज ज बजावीए छीए. पण ते सिवाय बीजो एक खुलासों करवानी जरुर जणायछे, आ ग्रंथनुं मूल तथा भाषान्तर छपाववानो तमाम खर्च वीजापुरवासी धर्मात्मा शा. मूलचंद सरूपचंदना मृत्युपत्रना आधारे तेमना ट्रस्टी - ओ शा. सूरचंद सरूपचंद तथा दलीचंद रवचंद एमणे अने एकळा भाषांतरनी वधारे नकलो छपाववानो खर्च वडोदरावासी धर्मबंधुओ झवेरी छोटालालभाई लालचंद परभुदास तथा गोकळभाइ दुल्लभदास एमणे आपने अपने अत्यंत आभारी कर्या छे. तेमनी एवी उदारताथी आ उपयोगी ग्रंथ विना मूल्ये पण आप - वानी अनुकुलता थइछे. तेम छतां अमे तेमनी ज इच्छानुसार जे नामनी वेचाणकिंमत राखी छे तेथी मळतो लाभ आवां उपयोगी पुस्तक छपाववाना काममां ज वपराशे अने तेथी थती पुण्यपरंपराना भागी पण तेओज थशे. अलम्. श्री जैन आत्मानंद सभा. , - प्रस्तावना: भावनगर. पौपदि ५. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) उपोद्घात. अध्यात्मशास्त्रसम्भूतसन्तोषसुखशालिनः । गणयन्ति न राजानं न श्रीदं नापि वासवम् ।। श्री न्यायाचार्य यशोविजयजी, आ असार संसारमहोदधिमा जन्ममरणादिक अत्युग्र कष्टोथी मुक्त थवा माटे अनाथ आत्माओ अनेक उपायो शोधेछे. सत्य धर्म माटे अनेक कल्पनाओ करेछे, सूर्यातापनाओ सहेछे. जडभत थड इंद्रियोने दमेछे, एकांत स्थलोमा रमेछे, नीरस भोजनो जमेछे, क्रोधमानमायालोभादिक आत्मशत्रुओथी वेगळा रहेQ गमेछे, नम्रतादि गुणगणेकरी गुणिजनोने नमेछे, प्राणियोना माणोने प्रपात करतां देखी कमकमेछे अने अनेक प्रकारनां योगसाधनो करवा माटे रसाल भूतलोमां भमेछे. परंतु जे अध्यात्मशाखना अमृतांजन विना निरंजनपदाववोध करवा धारेछे ते समल नेत्राए निर्मल सूर्याववोध करवा विचारेछे. "आत्मनि अधिकृत्य अध्या त्मम् " ए वचनथी जेमा आत्मसंबंधी अधिकार-विचार होय तेने अध्यात्मशास्त्र कहेवू योग्य छे, अध्येतव्यं तदध्यात्मशास्त्रं भाव्यं पुन:पुनः। अनुष्ठेयस्तदर्थश्च देयो योग्यस्य कस्यचित् ॥ एवा अध्यात्मशास्त्रनुं अध्ययन करवू, वारंवार तेनी भावना भाववी-ते संबंधी विचार करवो अने तेनो अनुष्ठानमां-वर्तनमा मकवा लायक अर्थ कोइ योग्य होय तेने आपवो-वताववो. अर्थात आत्मतत्व अने अनात्मतत्त्वनो विचार करवो. आत्मसंबंधी ज्ञान संप्राप्त करवू. अनात्म-जड संबंधी ज्ञान संपादन करवू. ए वे पदा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ोनो भेद शुं छे ते विषे सविस्तार ज्ञानप्रकाश करवो. ए प्रकाश पण स्वपरबोधक होवो इष्ट छे. औपचारिकमात्रथी साफल्य मानवं ते कल्पनामात्रथी भले रहो पण ते तत्त्वतः अंधकारने प्रभाकरकरनिकर मानवा समान छे. अध्यात्मज्ञानोदय थाय त्यारे आत्मा प्रत्येक प्राणिना प्राणोने पोताना प्राण समान जाणे. विषयाधीन थइ अन्य प्राणियोना प्राणोनो विनिपात न करे एटलुंज नहि पण अज्ञानजनकल्पित धर्मकृत्योने पण न माने. अहिंसासम्भवो धर्मः स हिंसातः कथं भवेत् । न तोयजानि पद्मानि जायन्ते जातवेदसः॥ विचार करो के जळथी थवावाळां कमळो अग्निथी थतां नथी तो अहिंसाथी थनारो धर्म प्राणिहिंसाथी केम थाय ? __ पापहेतुर्वधः पापं कथं छेत्तुमलं भवेत् । . मृत्युहेतुः कालकूटं जीविताय न जायते ॥ पापर्नु कारण वध छे ते पाप छेदवा कम समर्थ थाय? मरणकारण कालकूट जीवित माटे थाय ज नहि. जो धर्मबतिथी जीवहिंसा करता आत्मा अनंतसंसारी थाय तो विषयाधीन था करतां अनंतसंसारी थवामां कोण ना कही शके ? अध्यात्मज्ञानी मिथ्याभाषक पण न होय. एकत्र सत्यजं पापं पापं निःशेषमन्यतः । द्वयोस्तुलाविधृतयोस्तत्रायमतिरिच्यते ॥ एक बाजु असत्य बोलवाथी पाप थयुं ते अने बीजी वाजु बीजां संपूर्ण पापो ए बेनी तुलना करीए तो असत्यजनित पाप ज विशेष थाय. अध्यात्मज्ञानी लोभाधीन थइ परकीय वस्तु लेवा पणन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) धारे. परं स्वं तस्करो गृहन् वधवन्धादि नेक्षते ए वचनथी परधन ग्रहण करणार तस्कर गणाय तो अध्यात्मज्ञानीथी ते केम धाय ? तेमज अध्यात्मज्ञानी नाम धरावी स्त्रीव्व थाय तो तेने शी उपमा आपवी ? यदेवांगं कुत्सनीयं गोपनीयं च योषिताम् । तत्रैव हि जनो रज्यत् केनान्येव विरज्यताम् ॥ स्त्रीनुं जे अंग कुत्सनीय अने गोपनीय छे तेमां पण जे बाल जीव लुब्ध थाय ते शेनाथी विरक्त थाय ? नीचमां नीच चर्मचोरी उपर नजर नाखी नारीनयनानंदी यह भटकतो फरे - कुध्यानमां मग्न थइ अध्यात्मज्ञानी कहेवडावे तेने होळीना महाराजा जेवा महाराजा विना वीजुं शुं कहेनुं ? तथा योगमरन महात्माओ धन, धान्य, स्वर्ण, रजत, वस्त्र, पात्र, दास, दासी, स्त्री, हस्ति अने अश्व ए आदिक वाह्य परिग्रहो तथा राग, द्वेष, कपाय, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, वेद, मिथ्याल ए आदि आंतर परिग्रहो जे अध्यात्मज्ञानना शत्रुओ छे तेनो संचय केम करे ? यदीच्छसि सुखं धर्म मुक्तिसाम्राज्यमेव च । तदा परपरीहारादेकामाशां वशीकुरु ॥ आशैव राक्षसी पुंसामाचैव विपमञ्जरी । आशैव जीर्णमदिरा धिगाशा सर्वदोषः ॥ जो सुखनी, धर्मनी अने मुक्तिसाम्राज्यनी इच्छा होयतो पदाथनी आशामात्रनो त्याग कर. आशा पुरुषोनो नाश करनारी राक्षसोछे. आशा विषमंजरी छे. आशा जीर्ण मदिराछे, सर्व दोपोनी भूमिका आशाछे. माटे आशानो त्याग करे त्यारे ज अध्यात्मT सनाथी वासित आत्मा स्तुति करवा योग्य थाय. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) ते धन्याः पुण्यभाजस्ते तैस्तीर्णः क्लेशसागरः । जगत्संमोहजननी यैराशाशीर्विषी जिता ॥ धन्यछे ते पुण्यात्माओने जेमणे जगत्ने संमोह करनारी आशा रूप सर्पिणीने वश करीछे. जे नाममात्र अध्यात्मवादियो आशाधीन थइ धनवंतोनी आगळ दीनता भरेला शब्दो वोले, खुशी करवामाटे गीतनृत्यादि करे अने एवी एवी विडंबनाओ करे तेमने अध्यात्मशास्त्रनुं परिणाम के थयुं समजनुं ? तथाविध योगि महाशयो क्रोधाग्निने पण शांत करे. क्रोधानल शांत न करे तो कोटि वर्षना तपसी थया क्षणमात्रमा लपसी गया एना जेवी गति थाय. क्रोधात्मा पोतानोज नाश करेछे तेम नथी पण परनो पण नाश करेछे, प्रशमरसनिमग्न महायोगी श्रीमहावीरप्रभु म्लेच्छादिकोना घोर उपसर्गो थया तोपण शांत रसथी चलायमान थया नहोता, तेज स्मरवा अने वंदना योग्य छे. अध्यात्मीथी जातिकुलादिनो मद पण न थाय. थाय तो नीच जातिकुलादिमां जाय. मायाजंजाळसां पण न बंधाय. जो जाळमां बंधाय तो अधोगतिमां ज जबुं थाय. लोभाजगरना मुखमां पण न जाय. जाय तो लोभाजगर अधुरो नहि मुकतां आखो ज गळी जाय. ए चार कषायो महा चंडाळो छे तेमनाथी उत्तम योगात्माओए वेगळा रहेवुं श्रेयस्कर छे. तथा राग, द्वेष, क्लेश, अभ्याख्यान, पिशुनता, रत्यरति, परपरिवाद, मायामृषावाद अने मिथ्यात्वशल्य ए पातकोथी निर्वृत्तियो शांतात्मा भने अवश्य होवी जोइए. पापनुं मुख्य साधन इंद्रियोनुं प्रबळ छे. इंद्रियाधीन यह भक्ष्याभक्ष्य, पेयाय अने गम्यागम्यनो विचार पण जो राखे नहि ते आप ज विचार करो के अध्यात्मवादियोनी पंक्तिनी पताका थइ शके ? अध्यात्मपदपंक्ति लेनार महापुरुषो उपर कहेलां कृत्योनी छायाना निवासी पण ना थाय अने संसारदशाथी विरक्त दशायां ज निरंतर ध्यान राखे, जेमके, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ संसारनी आपदाओ क्यांक्यांथी आवी पडेछे ? काळना मुखयंत्रमां भचडाइ कोइ अवसर जीवडाजता रहेवाना छे. वज्रशरीरियो नष्ट थइ गया तो मारा जेवा पामरो काळवायुना सपाटामां उडी जतां रजकणवत् दर्शन पण नहि थाय, मंत्रतंत्रभैपज्यादि साधनो जीव फावे तेटलां करे पण अंतसमये अनाधार आत्माने आधारभूत नहि ज थाय. भले सुरासुर हो के महाराजा हो. तेमनी रक्षामाटे रक्षकशतको, कुटुंवशतको, वैद्यशतको, वज्रतल भूमिशतको अने अपारपरिवारशतको तत्पर हो. परंतु अशरण आत्माओ भूतबलिवत् भूतलभोग थया विना रहेशे ज नहि. अध्यात्मवादियोमा केटलाक तो नामना ज अध्यात्मवादियो, केटलाक स्थापनामात्र अध्यात्मवादियो अने केटलाक अध्यात्मज्ञानोपयोगशून्य मात्र द्रव्य-शब्दोनो वकवा करनारा द्रव्याध्यात्मवादियो होयछे. जेम नाटकाचार्यों नाना प्रकारना वेपो भनवी स्वार्थ साधे तेम द्रव्याध्यात्मवादियो अनेक चेष्टाओ-इंद्रियनिरुंधनादि वैराग्यजनक आकारो, छटाबंध वचनधाराओ अने योगाभ्यासमचारो करी स्वार्थ साधवा एटले के परधन ते स्वधन केवी रीते थाय तेना उपायो शोधवा अने अनेक प्रकारनां सांसारिक सुखनां साधनो भेगां करवा सांसारिकोने पण न शोभे तेवां कृत्यो धर्मसाधनना नामे करी भक्तलोकोना तनमनधनने स्वाधीन करी लेछे. ते लोकापवादनो भय पण मानता नथी अने संत, महंत, महाराज, स्वामी, पूज्य, आचार्य इत्यादि पदारोहण करी कार्य साधेछे. वळी केटलाक संसार-गृहस्थवासमा रही परमगुरु तरीके पूज्यकोटि . धारण करी भोळी प्रकृतिना भव्यात्माओने भोळवी तेमनां तनमनधन आचार्यार्पण करावी सांसारिक साधनो भक्तो करतां पण अधिक भेगां करी भक्तोने दासत्वकोटिमां नाखी अध्यात्मवादि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) योमा आगेवान थइ बेसेछे पण समाधिना साधनो भूली असमाधिनां साधनो सेवेछे. सुरसरूपगंधस्पशवालां फळपाकमिष्टान्नादि भोजनसामग्रीना भोग भोगवेछ, मनोहर पुष्पहारकलगीअतरवगैरेनी सुंगधिमां-गरक थइ जायछे, शृंगाररससार कामोद्दीपक रागरागणीना श्रवणमां लीन थइ जायछे, सुंदर स्त्रीओना हावभावकटाक्षरूप रंगनाट्यकलादिनिहाळवामां मस्त बनी तेमना अंगअनंगविलासनी फांसीमां फसाइ जायछे अने पुत्रपौत्रादि संतति परिवार तथा तेमना लग्नमहोत्सवादि जोइ ते दिवसोने धन्य-कृतार्थ-महानंददायी मानेछे. अर्थात् मनोराज उपर विजय नहि मेळवतां इंद्रियोने वश पडी पोते अकृत्योमा प्रवृत्त थइ स्वभक्तोने पण तेवा अकार्यमा जोडी स्वपरहित माने-मनावे छे. ते पण द्रव्याध्यात्मवादियोनी राजिमां मूकवा लायक छे. तेवा बनावटी अध्यात्मवादियोनां भणेलां-रचेलां शास्त्रो पण शस्त्ररूप थइ खपरनो नाश करनारां थइ जायछे. जो द्रव्याध्यात्मवादियो तत्त्वांध थइ एम कहे के अमारा पण अंतःकरणमां तत्तज्ञानरूपी सूर्यनो उदय थयोछे तो तेमनां नेत्रो, पूर्वमहर्षिनी ज्ञानांजनशलाकाथी उन्मीलन करवं. ते ज्ञानरूपी अंजनशलाका केवी छे ? तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥ अध्यात्मज्ञाननो उदय थाय तो रागादिगण-विषयांधता केम रहे ? सूर्योदय थाय तो अंधकार केम रहे ? अंधकार रहे तो सूर्योदय शेनो ? विषयांधता रहे तो अध्यात्मज्ञानोदय शेनो ? तेम होय तो सर्व विषयांधो तत्वज्ञो थइ वेसे. भावाध्यात्मवादियो विषयकषायथी मन दूर राखी निरंतर वैराग्यभावनाओ भावेछे. जेमके, दीपाग्निमां पतंग जंतुओ वळी मरेछे. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) भ्रमरा सुगंधने आधीन थह मरेछे. मृगो पारधीनी वांसली प्रमुखना मधुर शब्दश्रवणने आधीन थइ मरेछे. मत्सो रसनाधीन थइ मरेछे, हस्तियो स्पर्शेद्रिय वश पडवाथी मरेछे. जो ए प्रत्येक प्राणी एक एक इंद्रियविपयथी मरेछे तो जे मनुष्यो पांचे इंद्रियोने वश थइ पडेला छे ते अनाथोनी शी गति ? जो पंचेंद्रियोनो अधीश्वर मन वश न थाय तो समाधिधारक शी रीते थवाय ? माटे हे चेतन ! जो उभयलोकनुं हित करयुं होय तो मनने तथा इंद्रियोने वश कर. इंद्रियोने भोग आपवाथी शरीर पुष्ट थशे ते पण हितकारी छे एम कदापि ना जाण. आत्माने ते अहितकारी थशे एटलुंज नहि पण पुष्टिकारक पदार्थो शरीरना संबंधमां आववाथी अपवित्र थड़ जशे . शरीरनुं चामई, मांस, चरबी, हाड अने रक्त वगेरे कंड पण काममां न लागतां पड्युं रहे तो मनुष्यो दुर्गंधना भयथी मुखनासिका उपर कपडुं नाखी नासानास करेछे. मूत्र, पुरीप, थुंक, नासिकामळ अने चर्मखंड वगेरेने हाथ अडके तो वारंवार जलादि लेइ धोवा पडे छे. एवा अपवित्र शरीरनो अंते दाह करवामां आवे छे एटले ते अपवित्र शरीरनो अंते तो नाश थइ जशे. माटे सुन्न पुरुष भाडानी वस्तुनो सार लेइले तेम आ शरीरवडे संयमक्रिया, परोपकार, दान, शील, तप, शुभाव्यवसाय, ज्ञानाभ्यास अने योगाभ्यास करी मारो आत्मा परमानंदपदस्थ थाय तो सर्व साधनो सफल थयां मानुं. एवी एवी शुभ भावना भावी आत्महितकारी संयमसाधनो करवामां ज प्रमाणिक अध्यात्मज्ञानीओ सदा तत्पर रहेछे. " अध्यात्मविद्या ने अध्यात्मवादियोना संबंधमां अत्र आटलो लांबो प्रस्ताव करवानुं प्रयोजन ए छे के प्रस्तुत ग्रंथ अध्यात्म - आत्मज्ञानना विपयतुं प्रतिपादन करवावाळो छे, तेनो आशय शीघ्र व्यानमां वेसे प्रस्तुत ग्रंथनां १ जैन Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) तत्त्वसार, २ जीवकर्मविचार अने ३ सूरचंद्रमनःस्थिरीकार एवां त्रण अभिधान-नाम राखवामां आवेलां छे ते शुं सूचवे छे ? रागद्वेषादि दोषो उपर जित मेळवनार जिन (तीर्थकर-परमेश्वर ) ना दर्शनमां जीव (आत्मा), अजीव (कर्मादि), पुण्य, पाप, बंध अने मोक्ष वगेरे तत्त्वोनो विस्तारथी विचार करेलो छे. ते सामान्य लोकने प्रतिबोध करवाना हेतुथी लोकप्रसिद्ध दृष्टांतो साथे साररूपे आ लघु ग्रंथमां आपेलो छे. तेथी जेमप्रथम नाम सार्थक समजायछे तेम वीजानो अर्थ पण स्पष्ट समजायछे अने त्रीजा नाममा ग्रंथकानुं पोतानुं नाम सूचित थवानी साथे अध्यात्मसंबंध विशेषतः व्यंजित थायछे. सूर एटले सूर्यनाडी, चंद्र एटले चंद्रनाडी अने मनः एटले मध्य-सुषुम्णा नाडी जेमा वायुनो संचार करवाथी मननी स्थिरताथाय छे. तेमना स्थिरीकार एटले सूर्यादि नाडीओनी स्थिरता *अथवा सूरचंद्रना अने बीजाना मननी स्थिरता-समाधि माटे आ ग्रंथ रचवामां आव्योछे. योगस्य हेतुर्मनसः समाधिः मननी समाधि ए योग-अध्यात्मनो हेतु छे माटे आ ग्रंथ अध्यात्मशास्त्रनी कोटिमां ज मूकवा लायक छे. ग्रंथारंभे निकटोपकारी योगीश्वर श्रीवर्धमान महावीरस्वामीने नमस्काररूप मंगल करी किञ्चिद्विचारं स्वविदे समूहे ए वाक्यथी वस्तुनिर्देश करवामां आव्योछे के आत्मज्ञान माटे किंचित् विचार दीवुछ एटलं ज नहि पण स्थळे स्थळे ए विपय उपर भार मूकी लक्ष खेंचवामां आव्युंछे. * तेनासुको वाचकमुरचन्द्रनामा रसजाफलमित्थमिच्छता । ग्रन्थोऽभितोऽग्रन्थि मया स्वकीयान्यदीयचेतःस्थिरतोपसम्पदे ॥ २१ अ, २१ श्लो. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) तत्सेधने साधुगृहस्थमुख्पैरात्माववोधे परियत्न एष्यः। १६ अ. ३३ श्लो. ते (निराकारमा चित्तनी स्थिरता) साधवाने साधु अने गृहस्थ प्रमुखोएं आत्माववोध-आत्मज्ञानमा समस्तप्रकारे यन्न करवो. यदात्मबोधान्न परोऽस्ति सिद्धये हेतुस्ततोऽत्रैव यतध्वमध्वनि, २० अ. २२ श्लो. सिद्धि-मुक्ति माटे आत्मबोधधी अन्य हेतु नथी माटे एज मार्गमां-आत्मज्ञानमा प्रयत्न करो. वळी ज्ञानमात्रथी नहि पण साये चारित्र-क्रियानुं आराधन करवायी ज मोक्षनी प्राप्ति थायछे अने त्यारे ज आत्मज्ञान प्रकट थयु एम समजाय एवो प्रघोप करवा पण चुक्या नथी. इत्यादिका ये भगवद्गुणौघाः शास्त्रेषु दृष्टा अथ तान्प्रकल्प्य। मुमुक्षवोऽसी अपि शक्तियोग्यमादृत्य सिध्यन्त्यपिते क्रमेण ॥ १६ अ. १७ श्लो. इत्यादि प्रकारे जे गुणो सिद्धभगवंतमा होवानु शास्त्रोमां जोवामां आवेछे ते गुणोने मुमुक्षुओ धारीने यथाशक्ति आदरी क्रमे करी सिद्ध थायछे. यावत्कषायान्विषयान्निषेवते संसार एवैष निगद्य आत्मा। एतद्विमुक्तोऽजनि यावदात्मावबोधयुग्मोक्ष इतीहितोऽयम् ॥ २० अ. १७ श्लो. ज्यांसुधी कषाय अने विषयो, सेवन करे त्यांसुधी आ आत्मा संसारमा ज छे अने आत्मज्ञान थयाथी ज्यारे कषाय तथा विषयथी मुक्त थाय त्यारे तेज मोक्षमा छे एम विचारवं. कषाय अने विषयथी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मुक्त थवानुं क्यारे बने के ज्यारे मनने वश करवामां आव्यु होय. ते सिद्धांत पण मुक्तिमार्ग बतावतां स्पष्टताथी निवेदन कर्योछे, सर्वस्य चैतस्य मनोनिरोधो हेतुस्ततोऽत्रैव रमध्वमध्वनि । २० अ. ३२ श्लो. ए सर्वनो हेतु मनोनिरोध छे माटे एज मार्गमा रमण करो. हवे आ ग्रंथमां अध्यात्मने लगता कया कया प्रश्नो विषे विचार कोछे ते माटे विषयोनी अनुक्रमणिका जोवानी सूचना करीने ए विषयनं विशेष विवरण करवावाळा सूत्र-सिद्धांत तेमज सम्मतितकें, तत्त्वार्थ, कर्मप्रकृति, योगदृष्टि अने योगशास्त्र वगेरे अनेक महान् ग्रंथो छतां आ ग्रंथ रचवामां कौए केवा संजोगोमा प्रवृत्ति करी अने ए पोते कोण हता ते संबंधी वाचकोनी आकांक्षा पुरी पाडवा मादे अत्र *एकवीसमा अधिकारनो आवश्यक तेदलो अनुवाद ज करवानं योग्य धारुंछु. "आ विचारने पुरातन मुनियो ग्रंथोमां अतीव विस्तारथी ग्रंथन करी गयाछे. परंतु तेमां आ युगना अल्प बुद्धिवाळा आत्माओनी मति प्रसार थाय तेम नथी. जीव अने कर्म संबंधी आ ग्रंथमां आपेला प्रश्नो कोइ शैवे मने अति आग्रहथी कर्या हता अने श्री जिनेश्वर भगवंतना मतनी अवहेलना न थाय एम विचारीने में ए प्रकारे अजाण छतां ए धृष्टताथी शीघ्र उत्तर आप्या हता. जेम जेम तेणे हृदयमा तर्क उठवाथी सहसा प्रश्नो कर्या हता तेम तेम में तेनुं कहे आगळ करीने जैन तरीके उत्तर आप्या हता. ए प्रश्नोना उत्तर केवल लौकिक उक्तिमां-व्यवहारमा प्रसिद्ध छे तेवा आप्या हता.पुराण * आ अविकारमांना विषयनो अहीं उल्लेख थवाथी भाषांतरमा ते लीयो नथी. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) - प्राचीन शास्त्रोमां जेमनी बुद्धि प्रवेश करी शके तेवी होय ते ए विषयमां पुरातन युक्तिनो आदर करो. पण आ विचारमां मारो गोचर - विषय नथी एटलं ज नहि पण विद्वानो ए एमां मुझाय तेम छे, केवलि विना सर्व श्रुत-सिद्धांतने जोनारा प्रकट थाय तो ते पण ए कहेवाने समर्थ न थाय. माटे आ मारुं साहस जोड़ने दक्षोए हसवं नहि. शुंवाळकने समुद्रनुं प्रमाण पूछवामां आवे तो ते पोतानी बुद्धिथी हाथवडे न बतावे ? अथवा अल्प बुद्धिवालाने माटे एमां शासन-बोध छे माठे ए शास्त्र ज हो, जे उक्ति प्रत्युक्ति अने निर्युक्तिथी युक्त होय तेने विद्वानो शास्त्र कछे. आ मारो उयम आस्तिकोने अने नास्तिकोने आनंद आपवा माटे छे ते आस्तिकोमां आस्तिकता गुणनो प्रसार करीने अने नास्तिकोमां नास्तिकता गुणनो अपसार- नाश करीने सर्व सफल थाओ ! आ विचारने लांवा वखत सुधी वारंवार जणावतां वादथी, कदाग्रहथी अथवा भ्रम - संभ्रमथी जे का न्यूनाधिक कहेवायुं होय तेथी मने जे दुष्कृत - पाप लाग्युं होय ते तत्त्वतः -खरेखरी रीते मिथ्या हो ! ए प्रमाणे में मननी समाधि माटे यथामति जैनतत्त्वसार स्मृतिमां आण्योछे, अत्र जे कंइ उत्सूत्र थइ गयुं होय ते सुविशुद्ध बुद्धिवाळाए विशोधी लेबुं. श्री जिनेश्वर भगवंतना वचनोमा ए प्रकारे श्रद्धानो प्रसार करावता में जे धर्म उपार्जन कर्योछे तेवडे समस्त जन कर्मरहित - सिद्धना जेवा सुखी थाओ ! " उत्तमोत्तम खरतर गण- ( गच्छ ) ने धारण करनार युगवर श्रीजिनराजसूरिना साम्राज्यमां तेमना पट्टाचार्य महान् श्रीजिनसागरसूरि विद्यमान छतां + अमरसर नामे उत्तम नगरमां श्रीशीतल + अमरसर ए पंजावमां सीखधर्मानुयायीओनुं पवित्र स्थान छे. त्यां एक जैन चैत्य - मंदिर छे. तेमां मूलनायक भगवान् हाल वीजा छे, प्रथम श्रीशीतलनाथजी मूलनायक हुता ते बाजूए पधरावेला छे, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) नाथनुं सान्निध्य प्राप्त करीने सूरचंद्रे सुज्ञान माटे आ समर्थ ग्रंथनुं ग्रंथन कर्युछे . १६७९ वर्षे आश्विन पूर्णिमाए बुधवारे विजययोगे आ प्रश्नोत्तरथी अलंकृत अमल - पवित्र ग्रंथ उत्तम पद्मवल्लभगणिना साहाय्यथी अर्हत्परमात्माना प्रसादरूपश्रीनी प्राप्तिमाटे में वाचकउपाध्याय *सूरचंद्र विबुधे पूर्ण कर्यो. " आ ग्रंथनी प्रतिलिपि - नकल मने एक भक्त श्रवक तरफथी भेट दाखल मळेली छे. ते ११ पत्रात्मक छे. पत्रनी लंबाई १० इंच अने पोळा ४ || इंच छे. पत्रनी दरेक बाजुए १६ थी २१ पंक्ति मूल ग्रंथनी छे. दर पंक्तिमा ५७ थी ७५ अक्षरो छे. उपरनीचे केटलाक उपयोगी पर्यायो आपेला छे. ते एटला तो सूक्ष्म अक्षरे लखेला छे के कोइ कोइ पंक्तिमा १४१ अक्षरो समावी दीधाछे. अक्षरो मनोहर पण महेनत आपे तेवा छे. ग्रंथ संपूर्ण कर्या पछी “ लिखितश्च सं. १७१० वर्षे दिल्ली महानगरे पं० रविवर्धनगणिना स्ववाचनकृते " ए प्रमाणे लखेलुं छे. केटलाए भंडारो जोया पण *सूरचंद्रवाचके पोतानी पट्टावली नीचे प्रमाणे आपलीछे. ( खरतर गच्छनी बृहत शाखामां . ) जिनभद्रसूरि. 1 मेरुसुंदर पाठक. १ हर्ष - २ प्रिय पाठक. १ चारित्र - २ उदय वाचक. वीरकलश. 1 सूरचंद्रवाचक पद्मवल्लभगणि. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोइ ठेकाणे आ ग्रंथ जोवामां आव्यो नथी. तेथी तेनी वह नकलो थइ होय एम लागतुं नथी. विक्रम संवत् १९६३ ना वर्षमा हुं विहार करतो करतो वडोदरा नजीकना छाणी गामे गयो हतो. त्यां मुश्रावक वैद्यराज मगनलालभाइ चुनीलाल वडोदरावाळा मारी पासे आव्या हता. तेमनी नजरे ए ग्रंथ पडतां ज तेमनायां ज्ञानभक्ति उत्पन्न थवानी साथे ग्रंथनी काव्यरचना साधारण अने क्वचित् दोपित पण छतां तेमांना दृष्टांतो वगेरे आधुनिक केळवणी पामेला लोकोने उपकारक थाय तेवां लागवाथी अति प्रसन्नता पण थइ हती. जो आ ग्रंथ भापांतर सहित छपाइ बहार पडतां तेनी वाणी रसिक अने भव्यात्माओने उपकार थाय तो मारी ज्ञानभक्ति सफल थाय एवा सरळ भावथी तनमनथी तेमणे खरेखरी महेनत करी मुद्रणार्थे स्वहस्ते तेनी नकल उतारी लीधी अने ते एक ज ग्रंथना आधारे संशोधी तेनो आशय लेइने रसत्यागरूप बाह्य अने अभ्यंतर तपना प्रभावे गूजराती भाषामा अनुवाद पण तैयार को. मारी इच्छानुसार ते बन्ने भावनगरस्थ श्रीजैनआत्मानंद सभाने प्रसिद्ध करवा माटे अपर्ण कयो जे प्रसिद्ध थयेलां जोइ मने अत्यानंद थायछे. थोडां वर्ष उपर नेकनामदार महाराजा श्रीमंत सयाजीराव गायकवाडनी आज्ञानुसार ते महाशय तरफथी कुमारपालप्रबंधनुं गूजराती भाषांतर थयुं हतुं. ते ग्रंथ जैन तेमज अन्य जनोने लाभकारी थयेलो छे तेवीज रीते आ ग्रंथ पण विश्वने लाभ कारी थाओ! श्रीमङ्गलमस्तु ! विहार स्थल-वडोदरा, । मार्गशीर्ष वदि१० गुरुवार. मुनि कांतिविजय. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B ( १७ ) अनुक्रमणिका. विषय. मंगल तथा वस्तुनिर्देश. आत्मानुं लक्षण. कर्मोनुं लक्षण. जीव अनंत ने तेमना पृथिव्यादि भेद. जीव करतां कर्म अनंत गुणां इत्यादि. जीव अने कर्मनो अनादि संबंध. जीवनुं कर्मथी मुक्त थj. जीवनुं शुभाशुभ कर्म ग्रहण कर. जीवनुं ज्ञानविना पण कर्मने ग्रहण करवुं जीवनुं इंद्रियो तथा हस्तादि विना अधिकार श्लोक. भाषांतरपृष्ठ, १ १ १ कर्मने ग्रहण कर. जीवने लागेलां कर्मोनुं नहि देखावबुं. जीवकर्मन आधाराधेय भाव. - सिद्धोनुं कर्मने नहि ग्रहण कर. सिद्धोने इंद्रियादि विना अनंत सुख. सिद्धोनुं कर्म ग्रहण करवाना स्वभावने मुक्तिमार्गनुं सदा वहेतुं छतां संसारनुं भव्य शुन्य नहि थवं. १ १ परब्रह्मनुं स्वरूप. परब्रह्म की सृष्टिनी रचना अने तेमां १ १ १ ३ ४-६ inew の ु १ २ २ ९-११ छोडी देवु. ६ १-११ ३ १-२८ ३ २९-३३ ४ १-१० १-९ ५ १०-१७ ७ १-१२ ሪ १-७ ज मलयतुं नहि घटवुं. ८ ८-३७ १ ३ ३ ६ ७-१० १० ११ १२ १२-१३ १४-१५ १६ १७ १७-२० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०-२१ २१-२२ २२-२३ २४ २४-२५ (१८) इश्वरनी मायाथी जगत्नी रचनानुं नहि घटवू. ८ ३८-४७ स्वतः इश्वरथकी जीवोना सृष्टिसंहारनुं नहि घट. ८ ४८-६१ जीवने कर्मथी सुखदुःख वगेरे थवा छतां परमेश्वरमा कर्ता तरीके आरोप. ८ ६२-६९ ब्रह्मनुं स्वरुप ९ ? जगत्तुं कालादि पंचसमवायथी उत्पन्न थर्बु अने प्रलय थवो. ९ २-३ ब्रह्मनु ब्रह्ममां लीन थर्बु अने ज्योतिर्नु ज्योतिमां मळी जवू. ९ ४-७ ब्रह्म-सिद्धने संकडाश नहि पडवी. ९ ८-११ निगोदिया जीवोतुं अनंत काळ निगोदमां ज दुःखी रहे वगेरे. १० १-१३ निगोद जीवोनुं नहि देखावतुं. १० १४-२० निगोदादि जीवोनुं आहार करता छतां भारे न थg. १० २१-२४ निगोद जीवोनुं अनंत काळ दुःखी रहे । तेवां कर्मने बांधवू. १० २५-३७ निगोद जीवोनुं मन विना पण कर्मने वांधवू. १० ३८-४१ सर्व विश्व निगोदना जीवोथो परिपूर्ण । छतां तेमां वीजा द्रव्योनु समावg - अने अवकाशनुं रहे. ११ १--८ ___ २७ २४-२९ २२ ३० Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ ३१-३२ ३२-३४ ३४-३५ जीवने सुख दुःख आपनार तरीके कर्म विना बीजानुं न होवू. भाग्य स्वभाव वगेरे नामोथी कर्मन ज प्रतिपादन. १२ १--५ कोइनी पण प्रेरणा विना जीवने स्वस्वरूप योग्य फळ पमाडवानो कर्मनो स्वभाव. जगतनुं स्वरूप. १२ ६-११ को जड छतां द्रव्यक्षेत्रकाळभावनी अनिवार्य शक्तिथी प्रेराइ तेमनुं प्रकट थg. १२ १२-४० कमेने उदयमांआववानाभांगा-प्रकार.१२ ४१-५१ कर्मनी भुक्त, भोग्य अने भुज्यमान अवस्था. १२ ५२-६० मात्र इंदिय प्रत्यक्षने मानवामां दोष. १३ १-२५ परोक्षने पण मानवानी जरुर. १४ १-१९ चेष्टाधी पण नदेखाय ते मानवा बावत.१४ १९-३३ नहि देखाता स्वर्गादि मानवा बाबत. १५ १-१२ स्वर्गमोक्षादिनांसाधन. सिद्धना गुणोने __ यथाशक्ति सेववाथी सिद्धिन थq. १६ १-१९ गृहस्योए द्रव्यधर्म सेववानी अने व्यवहार साचववानी जरुर. आत्मज्ञान परम धर्म. १६ २०-३७ परमेश्वरनी प्रतिमाना पूजनधी पुण्यनो संभव. १७ १-२३ नीरागी अने निःस्पृहीनी सेवायी परमार्थनी सिद्धि. १७ २४-२५ ३५-३६ ३७-३९ ४०-४१ ४२-४३ ४४-४५ ४६-४७ ४७-४९ ५०-५२ ५२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ५३-५४ ५४ ५५-५६ ( २० ) भतिमा अर्जीव छतां पुण्यनी सिद्धि. १७ २६-२८ प्रमाणिक -पंचे स्थापली वस्तुनी विशेष मान्यता. १७ २९-३७ परमेश्वर निराकार छतां तेनी मूर्ति केवी रीते थाय ? १७ ३८-४१ निराकारनी पण स्थापना अने तेनी पूजाथी लाभ. १८ १-१९ प्रतिमा पूजानुं फल प्रायः तृत अहीं नहि मळवानुं कारण. १९ १-२० परमेश्वरना नामस्मरणनी पग जरुर. १९ २१-२९ आत्मज्ञानथी ज-केवल राजयोगथी मुक्तिनुं थq. ए विषयमां वैष्णवादि सर्वना कथननी एकवाक्यतानी घटना.२० १-२२ मुक्तिनो सर्व दर्शनने अनुसरतो मार्ग. २० २३--३५ सिद्धमां निष्क्रियता. २० ३६-३९ मनोनिरोध-योगना मार्गमां, रमण - करवानो उपदेश. २० ३९ ५७-५९ ५९-६० ६१-६३ ६४-६६ ६६ ६६ *उपर जणावेला सर्व विषयोनं अा ग्रंथमा प्रश्नोत्तररूपे लोकप्रसिद्ध दृष्टांतो आपीने निरूपण करवामां आव्युंछे. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्त्वसार श्रीगुरुभ्यो नमः संशुद्धसिद्धान्तमधीशमिद्धं श्रीवर्धमानं प्रणिपत्य सत्यम् । कर्मात्मपृच्छोत्तरदानपूर्व किञ्चिद्विचारं स्वविदे समूहे ॥ १ ॥ आत्मायमार्याः किल कीदृशोऽस्ति नित्यो विर्भुश्वेतनवानरुपी | 1 १ निर्दोषम् । २ अतिशयैदतं । ३ स्वज्ञानायं । ४ विचारयामि । ५ यद्यप्यात्मा द्रव्यास्तिकनयान्नित्यः पर्यायास्तिकनयादनित्यो देवाद्यन्यतरव्यपदेशलाभात् । परमिह तु सकर्माकर्मकरूप सर्वजीवद्रव्यग्रहणोपयोगान्नित्यत्वेन ग्रहणं । ६ व्यापकः केवलिसमुद्घातादौ सर्वकोकाकाशव्यापकत्वात् अन्यथा तु स्वकायमात्र व्याप्तत्वादपि विभुः । • चेतनापि द्वेधा सावरणनिरावरणभेदात् । सावरणज्ञानं यथासम्भवं केवलादर्वा गन्यत्सर्वं । केवलज्ञानं हि निरावरणं । इह हि चेतनामात्रग्रहणात्सर्वजीवसम्बन्धिज्ञानं गृह्यते तेन सर्वमपि जीवद्रव्यं चेतनवदिति चेतनावान् जीव उच्यते । ८ रूपं सततमस्यास्तीति रूपी सर्वोऽपि धर्मा पदार्थः । न रूपी अरूपी अपुद्गलधर्मा जीवः । यद्यपि मैनसकार्मणशरीरसङ्गतो जीवः सातिशयज्ञानवतां रूपितया प्रत्यक्षस्तथापि चर्मचक्षुषां निरतिशय मानवतामव्यभवाभाप्तयाऽरूपीत्युच्यते । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा च कर्माणि तु कीदृशानि जडानि रूपीणि चयाचयीनि ॥२॥ जीवाः पृथिव्यादिमसूक्ष्मवृद्धनिगोदभिन्ना हि भवन्त्यनन्ताः। नानाविधावाप्तसजातियोनिभिन्नाः समस्ताः किल केवलीक्ष्याः॥ ३ ॥ कर्माणि तेभ्यो यदनन्तकानि समग्रलोकाम्बरसंस्थितानि । घनं किमङ्गयेकतरप्रदेशे ऽप्यनन्तसङ्खयानि शुभाशुभानि ।। ४ ।। अनन्तसङ्ख्याः किल कर्मवंगणा जीवप्रदेशे परिकल्प्य ऐकके । शुभाशुभाः केवलदृष्टिदृष्टा मुक्ता अमूभ्यः खलु ते हि सिद्धाः ॥ ५॥ ९ पुरणगलनस्वभावानि । १० जीवाः कथम्भूताः । पृथिवी आदिमादिर्येषां ते पृथिव्यादिमाः पटकायिकास्ते च ते सूक्ष्माश्च वृद्धाश्च ते ' तथा । विशेषणविशेष्यभावस्य विवक्षानिवन्धनत्वात् सूक्ष्मद्धशन्दयोविशेष्यतयोपादानेन परनिपातो ऽतः पृथिव्यादयो द्विधा सूक्ष्मा वादराश्च । निगोदा हि निगोदसज्ञावंतस्तेऽपि सूक्ष्मा वादराश्च । तैर्भेईभिन्ना येते तथा । यद्वात्र सूक्ष्मद्धशब्दौ पृथिव्यादिमनिगोदशब्दयोरन्तरस्थिती डमरुकमणिवत् पृथिव्यादिषु निगोदेषु योज्यौ । ११ एकस्य जीवस्यासङ्घयाताः तेषामेकस्मिन्नपि मनोवुद्धया परिकल्प्ये. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) अतस्तु कर्माणि समग्रलोकाकाशश्रितानीह निरन्तराणि । तेनैव जीवा हि भवन्ति कर्मावृता वसूनीव मृदाबिलानि ॥६॥ कथं विभो कर्मण आत्मनश्च योगोऽयमेषो ऽजनि भिन्नजात्योः । अनादिसंसिद्ध इहोच्यते यो हेमाश्मनोर्वारणिचित्रभान्वोः ॥ ७ ॥ दुग्धाज्ययोर्वा युगपद्भवो ऽस्त्ययं यथा पुनः पावकसूर्यकान्तयोः । सुधासुधीभृच्छिलयोः सहोत्थितः प्रदेवेऽनन्तकर्मवर्गणाः सन्तीति । १२ वसूनि स्वर्णानि रत्नानि वा । यथा खन्यादौ वर्णानि रत्नानि वा समुत्पद्यमानानि मृदा मृत्तिकया सा व्याप्तानीवच्छन्नानीव समुत्पद्यन्ते तथा जीवा अपि संसारस्था कमाता एव भवन्तीति सम्बन्धः । १३ जीवानामरूपित्वात् कर्मा सापित्वात् भिन्ना जातिः स्वभावः सत्ता वा ययोस्तो भिन्नजाती तयोः संयोगोऽनादिससिद्धः अनाद्युत्पन्न इत्यर्थः । १४ कयोरिव हेमाश्ममोरेव स्वर्णपाषाणयोरिव सतेजस्कानस्तेजस्कयोरथवा इतरद्धयोरयवा गुरुलचोरयवा स्निग्धास्निग्धयोरित्यादिभिः प्रकारभिन्नजात्यारेनउत्तरेपामपि पदार्थानां यथासम्भवं भिन्नजातित्वं खयमं । १५ प . Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) कर्तुर्गुणानामथ कर्तृवादिनाम् ॥ ८॥ कर्मात्मनोरेवमनादिसिद्धो योगोऽस्त्ययं केवलिनः समूचुः । अस्यापि भेदो विदितस्तथाविधान सामय्ययोगात्कनकाश्मनोरिव ॥ ९ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सूरचन्द्रमनःस्थिरीकारे जीवकर्मस्वभावोक्तिलेशः प्रथमोऽधिकारः ।। न्द्रकान्तयोः । १६ ये तु जगतः सकत्र्तृत्वमाहुस्तेषां कर्तृवादिना मते पथा कर्तुर्गुणानां च सत्त्वादीनां मिथः सम्बन्धो ऽनादिसांसद्धः।न हि निर्गुणः कर्ती जगत्करणे समर्थो भावतुमर्हति फत्तुनःक्रियत्तानिरञ्जनत्वात् सगुणत्वं न स्यात् तदभावे च कर्तुत्व न सम्भवतीति; एवमपि न वक्तुं शक्यं यत्कत्ता साष्टकमाण प्रवृत्तः सगुणो ऽन्यया निर्गणः एवमुच्यमाने सात करनेकस्वभावत्वादानत्यत्वं तथा तु कनु भावः स्यात्, इदं तु कनुवादनां न मत; तन्मते घ कत्तार सगुणतं निर्गुणत्वं च-द्वयमाप चक्तव्य यथा निरञ्जने नि:क्रिय कत्तार सगुणवमन्तलीनं तयात्मन्याप कमसयोगः । १७ एवं हेम पश्चात्पाषाणोऽधवा पूर्व पाषाणः प्रवासवर्ण इत्यादिको भेदः क्वाप न वक्तुं शक्यः योरपि समसमय एव सम्बन्धस्ततोऽयमेषु वस्तुप अनादिससिदो यथा सम्बन्धः तथा जीवक्रमणाराप अनादिसांसद्धः सम्बन्धः झते-मिभजात्योरपि स्वयंभाव्यः । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) द्वितीयोऽधिकारः तादृक्स्वभावानियतर्भविष्यत्-- कालाच्छुभाशोभनभुक्तिहेतोः । जीवस्तु कर्माणि समाददीत शुभाशुभानीह पुरःस्थितानि ॥१॥ कर्माणि योगीन्द्र जडानि सन्ति ... तानि स्वयं नायितुं क्षमन्ते । . • आत्मा तु बुद्धः स्वयमेव जानन् कर्माण्यशस्तानि कथं हि लाति ॥ २॥ को नाम विद्वानशुभं हि वस्तु । गृहाति मत्वा किल यः स्वतन्त्रः । , - १८ जीवकर्मणोरनादित्वादयमनादिसिद्धः संयोगः तथापि धुरा जानि कानिचित्कर्माणि कृषयात कानिचिन्नवानि गृह्णाति इति सम्बन्धेनायातोऽयं द्वितीयः कर्मग्रहणाधिकार उच्यते । ताइक्वभागात इत्यादि । जीवः पुरस्थितानि यथायोग प्राप्तानि शुभाशुभानि - माणि समाददीत दीयादिति तत्र हेतुत्रयमाह । ताहगिति जीवस्य कर्म ग्रहणस्वभावात् पुनश्च नियतेरवश्यंभावात् नियतिभगवती वलीय. सी इत्युक्तेः तादृशात् भाविनः कालात् । चकाराकरणमत्र त्रयाणामप्येपां समुदितानामसद्भावादेकीभाव एवातः पारमादभेद एवेति नर. कारः । कोसादस्मादाप हेतुत्रयादाऐ । शुभाशो० मुखदुःखभोगकारणतः । अत एव नियतिस्वभावकालैः प्रैय्यं यादृशानि कर्माणि पुरतः Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) सत्यं विजानन्नपि भवितादृक्कालादिनोदादशुभं हि लाति ॥ ३ ॥ तथा हि कविद्धवानपीह खादेद्भविष्यन्नियतिप्रणुन्नः । खलं विबोधन्नपि मोदकादिस्वादिष्टवस्तूनि यतः स्वतन्त्रः ॥ ४ ॥ अनन्यमार्गश्च तथैव कश्चित् स्थानं निजेष्टं प्रयियासुराशु | प्रापितानि तादृशानि गृह्णातीति पारवश्यं जीवस्य जैनैर्व्यज्यते । तथा चोच्यते तादृशा जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः । सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता । इदं हि शास्त्रं प्रायः पृच्छकशेवाभिप्रायमाश्रित्योक्तमस्ति । शैवा हि जैनानिति वदन्ति । भो जैनाचार्याः जीवोऽयं सुखैषी सन् शुभानि कर्माणि जानन् गृह्णातु परमसौ दुःखद्वेषी सन् अशुभानि कर्माणि कथं गृह्णाति । अतो शुभानि कर्माणि ग्रहीतुमनिच्छतोऽस्य कश्चिदीश्वरादिरशुभकर्मग्रहणे प्रेरको वाच्यो यथा सबै भवन्मतं समञ्जसं स्यादिति पृच्छन्तं शैवजनं समधिगम्य जानतोऽपि जीवस्य कादि विनैव शुभकर्मग्रहणवदशुभकर्मग्रहणं वर्तते इति निगदन् जैनाचार्यः शैवादिकं प्रत्युत्तरयति सत्यं विजानभित्यारभ्या नवमकाव्यपूर्वार्धपर्यन्तग्रन्थेनेत्यादि स्वयं ज्ञेयं । १९ कालो सहाय नियs पुव्वकयं पुरिस कारणे पंच । समवाए सम्मन्तं एगंते होइ मिच्छन्तं ॥ भाविनः भविष्यतो ये तादृशाः सुखदुख हेतवः कालादयः एंव तेषां नोदः प्रेरणं तस्मात् । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) शुभाशुभान्स्थानभरान्विजानन् ... .. विलङ्घते स्वीयपदाप्तिनोदात् ॥ ५ ॥ तथा च चौराः परदारगा अपि । व्यापारिणो दर्शनिनो द्विजास्तथा । विदन्त एते हि तथाविधायतेः ।। शुभाशुभं कर्म समाचरन्ति ॥ ६॥ . भिक्षुस्तथा बन्दि ऋषिश्च भिक्षां स्निग्धां च सेक्षां परिबुध्य भुङ्क्ते । शूरस्तथा युद्धगतो ऽवगच्छन् शत्रूनशāश्च निहन्ति रोधे ॥ ७ ॥ रोगी यथा वा निजरोगशान्ति-- मिच्छन्नपथ्यं ह्यपि सेवते ऽसौ। रोगामि तत्ववशादपायं जानन्स्वयम्भाविनमात्मगामिनम् ॥ ८॥ एवं हि काण्यमान्विलाति २० स्वकीयस्थानकमाप्तिप्रेरणात् । २१ तथाविधशुभाशुभहेतु भविष्यकालात् । २२ वन्दी शब्दस्य इ कृत्यक् इति पाणिनीयसूत्रेण पक्षे कृतहस्वस्य पाठः । २३ ऋपिस्तु तत्ववित् योगविदिति । २४ स्निग्धामर्थात स्वादिष्टां मृष्टां सरसामितियावत् । २५ रूमामुक्तविपरीता स्वस्मिनरुचितां स्वप्रकृतितो भिन्नरूपामिति । २६ ज्ञात्वा । २७ रोधे गढरोधादिके । २८ पारवशात् । २९ कष्टं । ३० जीवः । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.) शुभाशुभानि प्रविदन्नवश्यम् । जीवस्य कर्मग्रहणे स्वभावो ज्ञानं विनाप्यस्ति निदर्शनं यत् ।। ९ ।। यथैव लोके किल चुम्बको ऽप्ययं संयोजकैोजितमंजसा भृशम् । सोरं तथा ऽसारमयो विचारितं गृङ्गाति येनाव्यवधानमात्मनः ॥ १० ॥ कालात्मभाव्यादिनियोजितान्यहो स्वभावशक्तेश्च शुभाशुमानि यत् । कर्माणि सामीप्यसमाश्रितान्यय-- : मात्मापि गृह्णाति तथाविचारितम् ॥ ११ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे संरचन्द्रमनःस्थिरीकारे जीवस्य शुभाशुभकर्मग्रहणोक्तिलेशो द्वितीयो ऽधिकारः ।। - ३१ ज्ञानं विनापि जैनाभिप्रायेण जीवस्य ग्रहणस्वभावोऽस्ति अब दृष्टान्तो यथा लोके किलेत्यादि । ३२ कोई कान्तविद्युत्सारादि । ३३ . मुण्डादि । ३४ येन सारेण लोहेनाथवासारणलोहेन सहात्मनः स्म स्याव्यवधानं अन्तरं नास्ति । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) तृतीयो ऽधिकारः स्वामिन्ननाकारतया हि जीवो निरिन्द्रियः केन च लाति कर्म । निरक्ष्य पूर्वं तत औत्मलेयं पण्यादिना न्याददते पुमांसः ॥ १ ॥ आत्मा तु नेहकू, घटते न चैतत् सत्यं, विनापीन्द्रियतो ऽप्यथात्मा । भव्याश्रितं कर्म समाददीत शक्तेः स्वभावाच्च शृणु स्वरूपम् ॥ २ ॥ यथेन्द्रियाकारविवर्जितोऽयं ૩૯ कर्ता शृणोत्येव निजाङ्गजापम् । भक्तं निरीक्ष्याथ विलाति पूजां पाणिं विना चोद्धरतीह भक्तान् ॥ ३ ॥ पापं हरत्याशु कृतं स्वकैर्यदनन्तशक्तेः सहजात्तथात्मा । ३५ आत्मना लेयं ग्राह्यं यद्वस्तु स्यात्तद्वस्तु पाण्यादिना नियत माददते इत्यर्थः । ३६ करादिना । ३७ गृह्णन्ति । ३८ भविष्यत्कालभोगार्ह भवितव्यताश्रितं । ३९ अयमिति कर्तृवादिलोकप्रसिद्धः कर्ता । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 넣 १० ) लोके यथा वा गुर्डेको रसस्यै सिद्धो निरीक्ष्येन्द्रियपाणिमुक्तः ॥ ४ ॥ दुग्धादिपायी पुनीरशोपी स शब्दवेधी बलशुक्रदश्र | सूतोऽपि चैतत्कुरुते निरक्षो जीवस्तु शक्तो न करोति किं किम् ॥ ५ ॥ वनस्पतीनामपि वा यथार्हति यन्नालिकेर्य्यादिषु दृश्यतेऽपि च । या घनं किं किल वस्तु सर्वं सङ्गृह्य नीरं स्वयमार्दितं स्यात् ॥ ६ ॥ न चेति वाच्यं पयसोऽस्ति शक्तिस्तने यभिचारितास्ति । न भेदनं मुगशिलासु तदत् धान्येऽम्भसः किं कटुक न भेद्याः ॥ ७ ॥ सिद्धं तथेदं ग्रहणीयमेव वस्त्वत्र यस्यास्ति तदेव लाति । ४० गुटिका । ४१ पारदस्य । ४२ आहारः । ४३ वनस्पतीनामपि पाण्यादि विनैवाहारग्रहणं दृश्यते तच लाङ्गल्यादिषु गृहीतमपि समीक्ष्यते तन्मूले जलसेचनात्तत्फले नलाधानं प्रत्यक्षतयोपादीयते : ४४. करडूकणाः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) ४७ किं चुम्बको लोहमथोज्झ्य धातूनन्यांश्च गृह्णाति तथास्वभावात् ॥ ८ ॥ अप्येवमात्मा परपुलोत्करान् विहाय गृह्णाति हि कर्मपुद्गलान् । यादृक्ष यादृक्ष भविष्यदार्येति तादृक्षसम्प्रेरणपारवश्यतः ॥ ९ ॥ सुप्तो यथा वा किल कश्चिदङ्गभृत् स्वमान् प्रपश्यन् कुरुते समः क्रियाः । नोइन्द्रियेणैव न तत्र किञ्चनेन्द्रियप्राणमहो प्रवर्तते ॥ १० ॥ जीवस्तथा कर्मभरं हि लाति स्वनो भ्रमोऽयं ननु मैवमाख्यः । महत्तमे तस्य फले च दृष्टे मा ब्रूहि यत्स्वयं स्मरत्यहो ॥ ११ ॥ यथा गृहीतं न हि कर्म से स्मरेत् न स्मर्यते प्रायश एव दृष्टः । 1 ܂ ४५ कर्मणः सकाशात् भिन्नान् पुगलसमूहान विहाय कर्म पुन| हान् गृह्णाति । ४६ उत्तरकालः । ४७ सर्वाः । ४८ मनसा । ४९ बुद्धी•न्द्रियक्रियेन्द्रियलक्षणेन्द्रियद्वयवलं विना मनो नास्तीति । बुद्धीन्द्रियाणे स्पर्शनादिपञ्च । क्रियेन्द्रियाणि करपादादिपश्च । ५० स्वमस्य. ११ स्वमदर्शको नरः । ५२ कर्मग्राहको जीवः । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) स्वप्नस्तथा कर्मभरोऽपि चात्तैः कश्चित्स्मरेत् स्वप्नमिमं यथेक्षितम् ॥ १२ ॥ कर्म स्मरेत् ज्ञानविशेषतस्तथा प्रधानपुंसेक्षित एव यत् । स्वप्नो यथार्थः फलतीह नूनं तथैव कर्मामिदं कृतार्थम् ॥ १३ ॥ स्यादङ्गिनः संशय एव नात्र व्यर्थीभवत्स्वप्नभरस्य जन्तोः । स्वप्नो यथा केवलिनस्तथास्ति कर्मग्रहस्तत्क्षणनाशतो यत् ॥ १४ ॥ तथा निजात्मन्यपि पश्यतोऽत्र सम्मील्य चेतः परिकल्प्य सुस्थम् । उत्पत्तिकालादवसानसीमामात्मा सृजेत्कार्मणैतैजसाभ्याम् ।। १५ ।। गर्भस्थितः शुक्ररजोन्तरागतो यथोचिताहारविधानतो द्रुतम् । धातूंश्च सर्वानपि सर्वथा स्वयमात्मा विधत्तेऽत्र विनाक्षवीर्यतः ॥ १६ ॥ ५३ गृहीतः । ५४ यथा वा चौरादिकः कश्चिदपराधी बन्धनं प्राप्तो निजा चरितचौर्यादि स्मरति ज्ञानादेव साधुरपि पूजां प्राप्तः स्वशुभाचारं स्मरति ज्ञानात् । ५५शरीराभ्यां । ५६ वीर्यरक्तमध्यं । ६७इन्द्रियवळाद्विनापि । 1 * Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) गर्भात्कृते जन्मनि सर्वदैव गृह्णन् किलाहारमथोपलब्धम् । ततस्ततस्तत्परिणामतः स्वयं धात्वादि संपाद्य करोति पुष्टिम् ॥ १७ ॥ तथाति रोमभिरादधद्यकः खलं परित्यज्य रसान समाश्रयेत् । पुनः पुनः प्रोज्झति तन्मलं बलात् दधजःसात्विकतामसान गुणान् ॥ १८ ॥ सज्ज्ञानविज्ञानकषायकामान हिताहिताचारविचारविद्याः। रोगान समाधीश्च दधान एवमास्ते कंथ सक्रिय एष देहे ॥ १९ ॥ किं देहमध्येऽस्य करोन्द्रियादिकं समस्ति येनैव करोति तादृशम् । . विवेचनं प्राप्य च वस्तु तादृशं प्राप्तावधिर्याति गृहेश्वरो यथा ॥ २० ॥ यदीदृशोऽपोद्गलिकोऽप्यमूर्ती ५८ तस्मात्तस्मात्तस्याहारस्य विपाकवशात् इत्यर्थः । ५९ देहवहिग्यमानावयवरूपरोमगणैराकृष्य । ६. राजस । ६१ पाणीन्द्रियादिना । ६२ पृथकरणं१६३ आहारादि । ६४ पूर्णकालः । ६५ पौलस्वगावात् । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निराकृतिः सक्रिय एष जीवः। देहस्य मध्ये स्थित एव सर्वमङ्गं परिव्याप्य करोति कृत्यम् ॥ २१ ॥ द्रव्याणि रूपीणिं गुरुणि तद्वत् सूक्ष्माणि वा लाति पुरान्तरामुमान् । कर्माणि तत् सूक्ष्मतमानि नो कथं गृहात्ययं तैजसकामणाङ्गतः ॥ २२ ॥ जीवः पुनारूपकरादिवर्जित ईदृग्वपूरुपि कथं प्रवर्तयेत् । आहारपानादिक इन्द्रियार्थके शुभाशुभारम्मककर्मणीह ॥ २३ ॥ चेदिन्द्रियैः पाणिमुखरथाङ्गैः समाः क्रियाः स्युभविनं विनैव । तदा समस्ताः कुणपैरजन्तुकैः क्रियाः क्रियन्ते न कथं करेन्द्रियैः ।। २४ ।। सिद्धं तथैतद्यदर्शस्तशस्तं सक्रिय इत्यचिन्त्यशक्तिरयं जीवः । ६६ किं किंकत्यं करोतीत्याह । गुरूणि द्रव्याणि आहारपानादीनि । ६८ सूक्ष्माणि रागदेषादीनि । ६९ देहमध्यजीवः । ७० हस्तादिकैः। ७१ अवयवः । ७२ भवोऽस्यास्तीति भवी जीवस्तं । ७३ मृतकैः । ७४ अलस्तं फलायमत्सरनिन्दाद्रोहशोकमाहादिकं कर्म तथा मल्लोजाना Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) कर्मात्मनैव क्रियते न चाङ्गैः। अरूपिणा रूपि ततश्च कर्म सूक्ष्मं कथं नाम न गृह्यते तत् ॥ २५॥ ध्यानी पुनर्बाह्यगतेन्द्रियैर्विना करोति कर्माणि यथेप्सितानि यत् । जिहां विना ध्यायति मानसं जपं शृणोति तं तं 8वसी ऋते तदा ॥ २६ ॥ विना जलैः पुष्पफलैश्च दीपैः सद्भावपूजां सफलीकरोति । ध्यात्वाऽथ ब्रह्मापि च ब्रह्मवादी न ब्रह्मतामेष लभहिना खैः ॥ २७ ॥ जीवोऽयमेवं करणैः करादिभिविनैव कर्माणि समाश्रयत्यलम् । अचिन्त्यशक्त्या नियतिस्वभावकालेश्व जात्या च कृतप्रणोदः ॥ २८ ॥ कर्माणि जीवैकतरप्रदेशे ऽप्यनन्तसङ्ग्यानि भवन्ति चेत्तदा । कथं न दृश्यानि हि तानि पिण्डी भूतानि दृष्टया निगदन्तु कोविदाः ॥ २९ ॥ दि वा कर्म, शस्तं च कर्म ज्ञानादिरसग्रहणध्यानादिसम्पादनगुणग्रहणभगवत्स्मरणायनेकं । ७५ अङ्गैः कर्णादिकेन्द्रियरूपैः पाणिपादादिकैश्वावयवैरिति । ७६ जापादिकं आरम्भ । ७७ तस्मिन्जापसमये अन्तरात्मनैव श्रवसी कर्णादि विनैव शृणोत्ययमात्मा । ७८ एष ब्रसवादी ब्रह्मध्याता। ७९ इन्द्रियैः । ८० नथाविधनरजन्मादिना। ८१ प्रेरणः। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) सत्यं कृतिन् सूक्ष्मतमानि तानि पश्यन्ति नो चर्मदृशो हि मादृशाः । ज्ञानी तु सज्ज्ञानदेशो भृशोदया-त्पश्येद्यथाचैव निदर्शनं शृणु ॥ ३० ॥ पात्रे च वस्त्रादिपु गन्धपुद्गलाः सौगन्ध्यदौर्ग व्यवतो हि वस्तुनः । ज्ञेया न ते तेन हि पिण्डभावं गता अपीक्ष्या नयनादिभिस्तु ॥ ३१ ॥ ज्ञानेन जानात्ययमेवमेतं कर्मोचयं जीवगतं तु केवली | तथा पुनः सिद्धरसान्निपीतं स्वर्णादि नो तत्र दृशाभिदृश्यते ॥ ३२ ॥ यदा तु कचिद्रससिद्धयोगी कर्पे तन्न तस्य सत्ता | एवं हि कर्माण्यपि जीवगानि ज्ञानी विजानाति न चापरो ऽत्र ॥ ३३ ॥ इति जैनतत्वसारे जीवकर्मविचारे सुरचन्द्रमनः स्थिरीकारे मूर्तस्याप्यात्मनो मूर्तकर्मग्रहणतत्पिण्डादर्शननिरूपणोक्तिलेशस्तृतीयो ऽधिकारः ॥ ८२ दृष्टेः । ८३ यदि सुगन्धदुर्गन्धपुद्गलाः पुद्गलात्मके पात्रादिके वस्तुनि स्थिता न दृश्यास्तर्हि अपुगलात्मके आत्मनि अतिसूक्ष्माः कर्मपुङ्गलाः कथं दृश्याः इत्यर्थः । ८४ अयं प्रसिया सर्वविज्ञातः केवली । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) अथ चतुर्थोऽधिकारः कर्माणि मूर्त्तान्य(मानमूर्तः साकृत्य॑नाकृत्यभियुक्तिरेषा । न्याय्या कथं येन हि वस्तु भिन्न नाधारकाधेयकतां लभेत ॥१॥ आकर्ण्यतामुत्तरमस्य विज्ञाः कर्मस्वभावादथ जीवशक्तेः। गुणाश्रयो द्रव्यमिति प्रवादीत् संसारिजीवस्य गुणस्तु कर्म ॥२॥ यहा हि ये केचन विश्वमेतत् सकर्तृकं प्राहुरहो समस्तम् । कल्पान्तकाले महति प्रवृत्ते भाव्येव लीनं खलु विष्णुनानि ॥ ३॥ .८५ जीवः । ८६ साकारनिराकार । ८७ मूर्तीमूर्त्तत्वभेदेन भिन्नमपरजातीयं । ८८ ततोऽमूर्तीरूपाधारआत्मा मूर्त्तानां रूपिणां कमणां कथमाधेयभावं धार्यतां प्रामोतीति पृच्छकाशयः । ८९ प्रसिद्धो वादः प्रकृष्टो वा वादः प्रवादः बहुतरतार्किकजनोक्तिस्तस्मात् यथा हि सिद्धात्मनः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि गुणाः सिद्धस्यापि जीवद्रव्यत्वात् तथा संसारिजीवस्य सकर्मणः कर्म गुणः स्यात् जीवद्रव्यत्वात् । ९० महामलये।९१ भावि भविष्यति । ९२ लीनं स्थायि । ९३ कर्तरि । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) तदा यथा भूतगणा गुणाश्च स्थास्यन्ति लीना ननु कर्तृनाम्नि । यदा नभोऽमूर्त्तमिदं गुरोर्लघोमूर्तस्य चौमूर्तिमतो निरन्तरम् ॥ ४ ॥ अर्थस्य सर्वस्यं यथा विचक्षणा आधारमाख्यन्नविनश्वरं महत् । कथं तथात्मैप न रूपवानपि रूपीणि सर्वाणि वहत्यनारतम् ॥ ५॥ मिथ्यात्वदृष्टिभ्रमकर्ममत्सराः कपायकन्दर्पकला गुणास्त्रयः । क्रियाः समग्रा विषया अनेकथा किं किं न धत्तेऽत्र वपुर्गतोऽव्ययम् ॥ ६॥ मावोच एतद्धि शरीरजा गुणा अमी यतोऽस्मिन् गतपंचके घने । दृश्यन्त एते न हि केचनाश्रिता ९४ विष्णुनाम्नि ब्रह्मनान्नि वा । ९५ गुरोगरिष्टस्य धराधरकारस्कराम्भोधिरूपरूपिद्रव्यस्य । ९६ लषिष्टस्य घनवाततनुवातपरमाणुन सरेवर्कतूलादिरूपरूपिसूक्ष्मद्रव्यस्य । ९७ मूर्तस्य सर्वरूपिद्रव्यस्य । ९८ अमूर्तस्य-सिद्धधर्माधर्मास्तिकायादेः । ९९ द्रव्यस्य । १०० सर्वस्य द्रव्यस्य सर्वस्य धर्माधर्मजीवपुद्गलास्तिकायलक्षणस्य । १ द्रव्याणि २ वस्तूनि । ३ पुरुषत्रीसम्बन्धिसर्वकलामीलने १३६ कला भवन्ति । ४ सत्वादयः। ५ आत्मा । ६ शरीरे । ७ गुणाः । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) स्ततो वपुर्गा न गुणास्तु जीवगाः ॥ ७ ॥ संदृश्यमानं पुनरीदृशं वपुरदृश्य एवैष भवी दधाति चेत् । अरूपिरूपिढयसङ्गमो ह्यसौ विचार्यमाणः कुरुते न कौतुकम् ॥ ८॥ कर्पूरहिङ्ग्यादिकसुष्टुदुष्टुवस्तूत्थगन्धा गगनं श्रिता यथा । तिष्ठन्ति यावस्थिति तबदेव भोः कर्माणि जीवं परिवत्य सन्ति ॥ ९ ॥ इत्यादिभिष्टनिदर्शनैस्तथागुणात्मकैः कर्मभिरेष आत्मकः।। आश्रीयते निर्गुणकोऽपि निश्चितमात्मा ततः कर्मचितो भैवी भवेत् ।। १० ।। इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सूरचन्द्रमनःस्थिरीकारे मू"मूर्तयोः कर्मात्मनोराधाराधेयभावसम्बन्धोक्ति लेशश्चतुर्थोऽधिकारः॥ . ८ अरूपी जीवः रूपीणि देहतदाश्रिताङ्गकर्मक्रियादीनि शोषपोषस्निग्धरुक्षादिदेहधर्मा वा तेषां यद्वयं यमलं तम्य सङ्गमः । सम्बन्धः । ९ यावत्कालं यस्य यादृशी स्थितिवर्तनं स्थितिकालमित्यर्थः । १० आश्रित्य । ११ दृष्टान्तः । १२ स्वरूपैः । १३ युक्तः। १४ कर्मयुक्तो भवी संसारी भवेत् कर्गमुक्तस्तु तद्व्यतिरिक्तः सिद्धो भवेदिति व्यतिरेकद्वारेण पूरणीयं । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) पञ्चमोऽधिकारः चेदश्रियाश्रेयकभाव एवं सिद्धोऽस्ति कर्मात्मकयोवश्यम् । जीवास्तु सिद्धा अपि सन्त्यनन्तचतुष्टयेद्धाः परमेष्ठिसञ्ज्ञाः ॥ १॥ पृच्छामि पूज्याः खलु तर्हि सिद्धात्मानो न कर्माणि समाददन्ते । कथं तदेषामपि सौख्यसत्त्वाल्लातां मुकर्माणि निषेधकः कः ॥ २॥ सत्यं यतस्तै सकार्मणाख्यशरीरयोगस्य विनाशभावः। . - १५ आधाराधेयभावः । १६ अनन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तसुखानन्तवीर्यलक्षणानन्तचतुष्टयेनेद्धाः दीप्ताः प्रसिद्धा वा । १७ परमे पदेतिष्ठन्तीति परमेष्ठिनः सैव सञ्ज्ञा येषां ते तथा । १८ समाददन्ते ६ समापूर्वो ददिरयं भौवादिकः गृह्णन्तीति । १९ तत्तस्मात्कारणात् एषां सिद्धजीवानामपि कर्माणि गृह्णतास् । २० गृह्णताम् । २१ तेन तैजसकार्मणलक्षणकर्मग्रहणयोग्यशरीराभावेन शोभनकर्मणां ग्रहणस्या योगादसम्बन्धादभावादित्यर्थः सिद्धात्मानो न कर्माणि लान्तीत्युत्तरसूत्रेण सम्वन्धः एवं सर्वैरपि हेतुभिर्वाक्यपरिसमाप्तिः कर्त्तव्येति । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) सुकर्मणां तेन गृहीत्ययोगाज्ज्योतिश्चिदानन्दभैरैश्च तृप्त्याः ॥ ३ ॥ सुखासुखप्रापणहेतुकालप्रयोक्त्रभावादथ निष्क्रियत्वात् । याप्यनन्तानि मुखानि तेपां २ ૨૨ कर्माणि सान्तानि भवन्त्यमूनि ॥ ४ ॥ इतीव तत्सौख्यभरस्य कर्म हेतुर्भवन्नो यदतुल्यमानात् । इत्यादिकैर्हेतुभिरेव सिद्धामनन कर्माणि हि लान्ति नित्याः ॥ ५ ॥ लोके यथा क्षुत्तृषया विमुक्तात्मनः सुतृप्तस्य न तृप्तिकालम् । जितेन्द्रियस्याप्यथ योगिनोऽपि तुष्टस्य किञ्चिद्ग्रहणे न वाञ्छा ॥ ६ ॥ यद्वा न पात्रे परिमाति किञ्चित् पूर्णे तथा सिद्धिगता हि सिद्धाः । सदा चिदानंदसुधाप्रपूर्णा गृह्णन्ति नो किञ्चिदपीह कर्म ॥ ७ ॥ २२ सिद्धजीवानां । २३ तेषां सिद्धात्मनां यदनन्तं सौख्यं तद्भरस्य । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) तथा च सिद्धेषु मुखं यदस्ति तदेवकर्मयजं वदन्ति । तत्कर्म हेतुर्न हि सिद्धसौख्ये यत्कर्म सान्तं सुखमेप्वनन्तम् ॥ ८ ॥ यविश्ववृत्तान्तसमुत्थनृत्तप्रेक्षाप्रसूतं सुखमाश्रितानाम् । सिद्धात्मनां नित्यमुखं प्रवर्तते यथा नृणामद्भुतनृत्यदर्शिनाम् ॥ ९ ॥ सिद्धेषु पूज्या न किल क्रियेन्द्रियं बुद्धीन्द्रियं नो न च किञ्चनाङ्गम् । अनन्तसौख्यं कथमाप्यते हैर्यज्ज्ञानमेतेप तदेव सौख्यम् ॥ १० ॥ यथेह लोके किल कश्चिदङ्गी ज्वरादिवाधाविधुरैः कदाचित् । निद्रां प्रकुर्वनिति तज्जनैस्तु सुखं करोत्येष न बोधनीयः ।। ११ ।। इत्युच्यते तस्य न तंत्र किंञ्चि २४ तत् मुखं सातासातवेढलीयद्वयकर्मक्षयनाशभवं । *तस्मात्कार-. णात् । २५ दर्शन । २६ पीडितः । २७ तस्य निद्राणनरस्य तदीयस्वकवन्धुजनैः । २८ जागरणीयः । २९ निद्रावस्थायां । ३० इन्द्रियसुखं ! Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) च्छ्रोतः सुखं नापि क्रिया निरीक्ष्यते । तथापि सुप्तस्य नरस्य सौख्यं वाच्यं यथा स्याद् भुवि तदेव ॥ १२ ॥ ३२. जाग्रत्सु सिद्धेषु सदैव सौख्यं विनेन्द्रियैद्वैतसमुत्थभोगस् । aar हि योगी निजकात्मवोधमृतं पिवन्नस्मि मुखीति मन्ता ॥ १३ ॥ तथा च कोऽपीह मुनिर्यथोक्तः सन्तुष्टिपुष्ट विजितेन्द्रियार्थः । अन्येन पुंसा परिपृच्छयते चेत् वंशोऽसीति सुखी स जल्पेत् ॥ १४ ॥ तस्मिन् क्षणे तस्य न कोऽपि वस्तुनः स्पर्शः सैंतो नैव च भुक्तियुक्तिः । गन्धग्रहो नो न च दृक्ती तदा न पाणिपादादिभवा कियापि च ।। १५ ।। तथापि सन्तोषवताहमस्मि ३१ क्रिया करपादादिसमुद्भूता । ३२ ज्ञानवत् । ३३ क्रियेन्द्रियबुद्धीन्द्रिययुग्मोत्पन्नभोगं विनैव । ३४ ज्ञान । ३५ सुखी वा दुःखी वा च कीदृशोऽसीति पृष्ठे । ३६ उत्तमस्य । ३७ न च तदा सत उत्तमस्य वस्तुनः किञ्चिद्दर्शनं न च श्रवणमित्यर्थः । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ), सुखीति भूयः प्रतिगद्यते ऽतः। तज्ज्ञानसौख्यं हि स एव वेत्ति न ज्ञानहीनो गदितं समर्थः ॥ १६ ॥ इत्थं हि सिद्धेषु विनेन्द्रियार्थेस्तथा क्रियाभिः सुखमस्त्यनन्तम् । त एव तत्सौख्यभरं विदन्त्यपि ज्ञानी न शक्तो वदितुं यतोऽसमम् ॥ १७ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सूरचन्द्रमनःस्थिरीकारे सिद्धात्मनः कर्मानादानोक्तिलेशः पञ्चमो ऽधिकारः ॥ ३८ भृशं । ३९ वुद्धीन्द्रियक्रियेन्द्रियसमुत्पनगोचरैर्विना । ४० क्रियाभिः मनोवाकायजनिताभिर्विनाइत्यर्थः। ४१ ते एव सिद्धा एव । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) अथ षष्ठो अधिकारः जीवस्य कर्मग्रहणे स्वभावस्तदा स मौलं सहजं विहाय । कर्मग्रहाख्यं कथमेष सिद्धो भवेदिचारः पस्पिव्यतां भोः ॥ १॥ कर्मात्मनोर्यद्यपि मौलसंङ्गस्तथापि सामय्यतथोपलम्मात् । कर्मग्रहं प्रोज्य शिवं समेतः सिद्धो भवेदत्र निदर्शनं यत् ॥ २॥ सूते यथा चञ्चलतास्वभावो । मौलस्तथाग्न्यस्थिरभावसज्ञः। यदा तु तादृक्परिकर्मणा कृतस्तदा स्थिरो वह्निगतश्च तिष्ठेत् ॥ ३॥ यथा पुनदाहकतागुणो ऽमावस्ति स्वभावो न तु मूलजातः । अस्यापि नाशोऽस्ति तथाप्रयोगात् ४२ कर्मग्रहणस्वरूपं । ४३ अनादिसम्वन्धः । ४४ तथा प्रकारसामग्रीमापणात् । ४५ गतः। ४६ तादृशभावानाभिविहितः । ४७ तद्वीर्योपघातकारिसामग्रीसम्बन्धात् । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) सैन्तं सैंतीं नैव दहेकदापि ॥ ४ ॥ बद्धो यथाप्येष च मन्त्रयोगात् तथौषधीभिर्न दहेविशन्तं । अनन्तमनि च चकोरकं तथा वह्निदेहेनो विगतस्वभावः ॥ ५॥ तथाभ्रकं हेम च रत्नकम्बलं सिद्धं च सूतं न दहेद्रुताशनः । तदा तु या दाहकता विभावसौ मौली बजेक्वाथ निगद्यतामिति ॥ ६ ॥ यश्चुम्बकग्रावणि लोहग्राही स्वभाव आस्ते सहजः सको ऽस्ति । तस्मिन्मृते वेतरयोगयुक्ते ऽपेतीथमतेष्वपि कर्मयोगः ॥ ७ ॥ बीजंतथाङ्करभवं दधाति मौलात्स्वभावादविकारि यावत् । तस्मिंस्तु दग्धे न किलाङ्करोद्भव ४८ संन्त साधु सत्यवादिनं । ४९ सती शीलवतवीं सीतादिकां । ५० अग्नौ । ५१ हादिपाठात न पूर्वस्य दीघः । ५२ सहोत्पन्नः । ५३ मृते अग्निना भस्मीभूते ऽथवान्यौपधादिना तदर्पहारिणा संयुक्ते। ५४ यातीत्यर्थः । ५५ सिद्धेषु । ५६ धान्यादि । ५७ उत्पत्तिं । ५८ उत्पत्तिः। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) एवं तु सिद्धेषु च कर्मबन्धः ॥ ८ ॥ वायोस्तथा चञ्चलतास्वभावो यो वर्तमानः सहजः समस्ति । खेलस्य मध्ये पवने निरुद्धे कथं प्रयात्येष चलस्वभावः ॥ ९ ॥ आहारमुख्याः सहजाश्चतस्रः सञ्ज्ञा इमाः प्रोज्झ्य शुकादयो मी | सिद्धाः प्रसिद्धाः परब्रह्मरूपाः जातास्ततो ऽपैति निजस्वभावः ॥ १० ॥ इत्यादिदृष्टान्तभरैः स्वभावो मौलो यथा याति तथैव जन्तोः । कर्मग्रहो ऽयं सहजः प्रयाति सिद्धत्वमाप्तस्य किमत्र चित्रं ॥ ११ ॥ इति जैनतत्वसारे जीवकर्मविचारे सुरचन्द्रमनः स्थिरीकारे सिद्धात्मनः कर्मग्रहणनिराकरणोक्तिलेशः षष्टोऽधिकारः ॥ ५९ खलस्य दृप्त्यां । ६० शुकादयः शैवशासनमसिद्धाः । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) अथ सप्तमो ऽधिकारः प्रश्नस्तथैकः परिपृच्छ्यते सकौ सिद्धान्समाश्रित्य निजो पलब्धये । सर्वज्ञवाक्यात्किल युक्तिमार्गको वहन् सदास्ते करकस्य नालवत् ॥ १ ॥ नो पूर्व मुक्तिरस कदापि संसार रूपोऽपि च भव्यशून्यः । परस्परद्वेपिवचोविलासै र्न सङ्गतं मङ्गति वाक्यमेतत् ॥ २ ॥ न हि व्यलीकं भो ऽस्त्यदः परं न चित्ते ऽल्पधियामभिव्रजेत् । Stars लौकिको यं शृण्वतां श्रोतृनृणां मनः स्थिरं ॥ ३ ॥ सिद्धालयः स्यालर्वणोदसोदरः ६१ स्वकीयज्ञानार्थं । ६२ प्रशंसायां प्रसिद्धौवा स्वार्थे वा क प्रत्ययः । ६३ मागि गतौ भौवादिको गत्यर्थः गच्छति । ६४ आप्त । ६५ दृष्टान्तं । ६६ लवणोदः लवणसमुद्रः तस्य सोदर इव भ्राता इव यः सः लवणोदसोदरः सोदरशब्दो ऽत्र प्रस्तावात्तादृशार्थः । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) संसार एषो ऽस्ति नदीहंदोदरः। नदीप्रवाहाश्च यथा महोदधौ । पतन्ति निर्गत्य नदीहदान्तरात् ॥ ४ ॥ नदीइदा नैव भवन्ति रिक्ता न चाम्बुधिः कहिंचिदस्ति पूर्णः । नदीप्रवाहो ऽपि निरंतरं यवहत्यविच्छिन्नतयातिशीघ्रं ॥ ५ ॥ इत्थं हि भव्याः परियन्ति मुक्तौ नदीप्रवाहा इव सागरान्तः। संसार एष हदवन रिक्तः पयोधिवन्नैव मृतापि मुक्तिः ॥ ६ ॥ दृष्टान्तदानॊन्तिकयोरितीदं साम्यं समालोचयतां नराणां । भवेत्प्रतीतिः परमाहतानामर्हद्वचस्येव न चापरत्र ॥ ७ ॥ अन्यो ऽपि दृष्टान्त इहोच्यते ऽय६७ नदीनां गङ्गादीनां इदाः पद्मदादयस्तेषामुदरं मध्यस्थजल प्रदेशस्तदिव यः सः तत्सदृशः संसारः अत्र लुप्तोत्प्रेक्षावाचि पदं ज्ञेयं ययामिर्माणवकः । ६८ मध्यात् । ६९ अत्रुटिततया । ७० गच्छन्ति । ७१ परमजैनानां । ७२ मिथ्यावाक्यवति । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माकर्णनीयो विदितप्रमाणैः। यथा हि कश्चित्प्रतिभान्वितः सनाजन्ममृत्यूद्भवमात्मशक्त्या ॥ ८॥ हिन्दूकषड्दर्शनपारशीकशास्त्राणि सर्वाणि पठस्त्रिलोक्याः । असङ्ख्यमायुर्निवहन्नपीह हृदस्य पूर्णं न भवेत्कदाचित् ॥ ९॥ शास्त्राक्षरैरप्यथ योजनैवं यथैव शास्त्राणि भवस्तथा ऽयं । भवन्ति शास्त्राक्षरखदिमुक्ताः सुबुद्धिवक्षोवदियं हि सिद्धिः ॥ १० ॥ अश्रान्ततँत्पाठवदेव मुक्तिमार्गो वहन्नस्ति निरन्तरायः। शास्त्रेष्वधीतेषु न शास्त्रनाशस्तथैव सिद्धेषु भवस्य नान्तः ॥ ११ ॥ दृष्टान्तदान्तिकभावनेयं ७३ अतिशयवती बुद्धिस्तया युक्तः । ७४ जन्म आरभ्य मरणं यावत् । ७५ यावन । ७६ संसारः । ७७ सिद्धाः। ७८ सुवुद्धिपुरुषविधायमान पाठ इव । ७९ सर्वभव्यजीवेषु सिद्धिं गतेषु । ८० भवस्यार्थात्संसारस्थभन्यजीवस्य । -- Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) विज्ञैः स्वयं चेतसि चिन्तनीया। एवं ह्यनेके ऽभिनिषन्ति भूयो दृष्टान्तसङ्घा अपरे ऽपि योज्याः ।। १२ ।। इति जैनतत्वसारे जीवकर्मविचारे मूरचन्द्रमनःस्थिरीकारे संसारशून्यतामोक्षाभरणतादृष्टान्तोक्तिलेशः सप्तमो ऽधिकारः॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) अथ अष्टमोऽधिकारः ॥ स्वीमिन्परब्रह्म किमुच्यते तत् लीनं जगद्यत्र भवेद्युगान्ते । तदेव हेतुः पुनरेव सृष्टेः स्यादीदृशं केन गुणो न वाच्यम् ॥ १ ॥ निशम्यतामार्य मनीपिणामपि सिद्धान्तवेदान्तविचारखेदिनाम् । स्वरूपमेतस्य निवेदितुं यतो वाचः स्फुरन्तीह न चर्मचक्षुपाम् ॥ २ ॥ ये योगिनो" निर्मलदिव्यदृष्टयश्ररौचराचारविवेकचिन्तकाः । लव्धाष्टसिद्धिप्रथना हि ते ऽप्यहो विचारयन्तो न हि पारमिर्यति ॥ ३ ॥ तथापि ये लोकविलोकनक्षमाः सर्वार्थयाथार्थ्य समर्थनार्थनाः । ८१ अथ ब्रह्मवादी जैनं प्रति ब्रह्मखरूपं पृच्छति । ८२ पुनस्तदेव सृष्टेः सर्जनकार्यस्य कारणं स्यादित्युच्यते । ८३ ब्रह्मणः । ८४ योगाभ्यासकर्त्तारः । ८५ जङ्गमस्थावर । ८६ एतस्य ब्रह्मणः । ८७ चतुर्दशरज्ज्वात्मक लोकदर्शनसमर्थाः । ८८ सर्वे ये ऽर्थाः पदार्थाः द्रव्यांणीति यावत् तेषां यत् याथाभ्यं सत्यता तस्य समर्थनं सम्पादनं तस्यार्थनं प्रार्थनं येभ्यस्ते । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) सत्केवलज्ञानविशिष्टदृष्टयो नीरागिणो ऽन्योपकृतौ परायणाः ॥ ४ ॥ ते त्वीदृशं ब्रह्म परं न्यवेदयन् निर्विक्रियं निष्क्रियमप्रतिक्रियम् । ज्योतिर्मयं चिन्मयमीश्वराभिधमानन्दसान्द्रं जगतां निषेवितम् ॥ ५ ॥ निर्माय निर्मोहमहंकृतिच्युतं सम्यग्निराशंसमनीहितार्चनम् । महोदयं निर्गुणमप्रमेयकं पुनर्भवप्रोज्झितमक्षरं यतः ॥ ६ ॥ विभु प्रभावत्परमेष्ट्यनन्तकं निर्मत्सरं रोधविरोधवर्जितम् । ध्यानप्रभावोत्थितभक्तनिवृति निरञ्जनानाकृति शाश्वतस्थिति ॥ ७ ॥ एवंविधं ब्रह्म तदेव तत्कथं हेतुर्भवेत्सृष्टिकुलालकर्मणि । प्रयोजको ब्रह्मण एव नास्ति यस्वस्मिन्गतत्वात्सकलस्य वस्तुनः ॥ ८॥ ८९ निःस्पृहं । ९० अवाञ्छितपूजनं । ९१ सत्वादिगुणत्रयरहितं । ९२ व्यापकं ९३ अनाकारं । ९४ सर्जनरूपं यत्कुलालकर्म कुम्भकारक्रिया तत्र । ९५ ये तु परब्रह्म कर्तु वदन्ति तेषां मते Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४) कुर्याद्यदीदं जगतां हि मर्जनं तदेदृशं केन करोति विष्टपम् । जन्मात्ययव्याधिकपायकैतवकन्दर्पदौर्गसमियाभिराकुलम् ॥ ९॥ परस्परद्रोहिविपक्षलक्षित दुःश्वापदव्यालसरीसृपालिकम् । साखेटिकनिकसौनिकैश्चितं दुश्चोरजारादिविकारपीडितम् ॥ १० ॥ कस्तूरिकाचामरदन्तचर्मणे सारङ्गधेनुदिपचित्रकान्तकम् । दुर्मारिदुर्भिक्षकविडादिकं दुर्जातिदुर्योनिकुकीटरितम् ॥ ११ ॥ अमेध्यदौर्गन्ध्यकलेवराङ्कितं दुष्कर्मनिर्माषणमैथुनाञ्चितम् । समाश्रयद्धातुकृताङ्गिपुद्गलं सर्वाणि कालस्वभावलियत्यादीनि अपि ब्रह्मगतान्येव सन्ति तस्य ब्रह्मणः कालादिः कश्चिदन्यः पदार्थों नारित यः ब्रह्मप्रति सर्जनसंहारे च प्रेरयति।९६यदीदयपि ब्रह्म निःक्रियनिरञ्जनायुक्तानेकाविशेषणविशिष्टं सृष्टि कुर्यादिति भवतां विधिरस्ति तहि भवतां ब्रह्म स्वस्वरूपाद्विपरीतां सृष्टिं कथं करोतीत्युदाहरति सपनुतैः । ९.७ - कारणेन । ९८ व्याघ्र । ९९ दुष्टगज । २०० वींछी। १ नाशकम् । २.शरीरं । - -- Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) सनास्तिकं सर्वमुनीशनिन्दितम् ॥ १२ ॥ कियत्स्वकीयाह्वयबद्धवैरं कियत्वपूजाप्रवणाङ्गिजातम् । नानात्महिन्दूकतुरुष्कलोकं कियत्परब्रह्मनिरासहासम् ॥ १३ ॥ षड्दर्शनाचारविचारडम्बरं प्रचण्डपाषण्डघटाविडम्बनम् । सत्पुण्यपापोत्थितकर्मभोगदं स्वर्गापवर्गादिभवान्तरोदयम् ॥ १४ ॥ वितर्कसम्पर्ककुतर्ककर्कशं नानाप्रकाराकृतिदेवतार्चनम् । वर्णाश्रमाचीर्णपृथक्पृथरवर्ष ३ नास्तिका हि कर्तारं न मन्यन्ते तहि सृष्टिकर्तुस्तद् ज्ञानं नासीदद्यमी ममैव विलोपका भविष्यन्ति न चात्र पितापुत्रविचारो वाच्यः पिता तु इन्द्रियपरवशो ज्ञानी अनायतितो यथातथा पुत्रकर्मणि प्रवर्ततां परब्रह्म तु निर्विकारं - सज्ञानं चेति स्वस्मृष्टिनिनवान् कथं नाम करोतीति अथ च तस्य रागद्वेषौ न स्तस्तर्हि सृष्टिसंहारो कथं करोतीति विचार्यमाणं विशीयते इति सम्यग्ध्येयम् । ४ यदि ब्रह्मणा सृष्टिः कृता तर्हि मुनीशा योगिनो ऽपि ब्रह्मणैव कृतास्तहि ते परब्रह्मचिन्तकाः सन्तः सकलं संसारस्वरूप परब्रह्मकृतं असारं ज्ञात्वा कथं निन्दयन्तीति विचार्यम् । ५ ब्रह्म । ६ ब्रह्म।७ चत्वारः। 4 चत्वारः।९धर्म । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्रव्यनिद्रव्यनरादिभेदभृत् ॥ १५ ॥ सप्तभिः कुलकम् ॥ अनेन किं पल्लवितेन येन यद् दृश्यते तद्विपरीतमेव । कार्ये पुनः कारणजा गुणाः स्युविद्वांस एवं निगदन्ति तज्ज्ञाः ।। १६ ॥ यदैत्र दृश्यं किल वस्त्वनित्यं तंद्रह्मणो जातमिदं हि सृष्टौ । तद्योगिनः केन विहाय शीघ्र जुगुप्स्यमेतदृणते विरागम् ॥ १७ ॥ यद् द्वेषरागादिविरूपमुज्झ्यं जगत्स्वरूपं वरयोगवद्भिः। तदेव सर्वं खलु ब्रह्मणैव स्वस्मिन्कथं धार्यमहो युगान्ते ॥ १८ ॥ तदा विवेको ऽस्ति न ब्रह्मरूपे ऽसौ वा शुकायेषु न योगवत्सु । कार्यं च धार्यं च यदादिपुंसो निन्द्यं च हेयं च तदन्यपुंसाम् ॥ १९ ॥ १० संसारे । ११ सर्व वस्तु । १२ सर्गकाले । १३ । वस्तु । १४ शुकादिभिः । १५ आदिपुरुषस्य पुराणपुरुषस्यार्थात्परह्मनामनि। १६ शुकादीनां योगिनाम् । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) ताजा सृष्टिरथापि कल्पस्तज्जो वैदद्भिस्त्विति ब्रह्म मूढं । ૧૮ विज्ञाप्यते किं न च तैस्तथैषां " वन्ताहृतेर्ब्रह्मणि किं न दोषः ॥ २० ॥ लोके तथैकादिकत्राह्मणादिघाते ऽत्र हत्या महती निगद्या । तन्निघ्नतो ब्रह्मण एव सृष्टिं कशी स्याददया दयालोः ॥ २१ ॥ तज्जातसृष्टिं न हि तस्य हिंसा निहिंसतद्भवतीति चोद्यते । सम्पाद्य सम्पाद्य सुतान्स्वकीयान्पितुतस्तर्हि न कोपि - दोषः ॥ २२ ॥ लीलेयमस्यास्ति यदीति चेद्द्रीनिहिंसतस्य न चास्ति पापम् । CONCE एवं हि राज्ञो मृगयां गतस्य जीवान्नतः पातकमेव न स्यात् ।। २३ ।। १७ ब्रह्मवादिभिः । १८ परब्रह्मादिकर्तृवादिनां । १९ यत्तु सृष्टिकाले स्वस्मात्सर्वं निष्काषितं तदा तु तत्सर्वं वान्तमित्र पुनव संहृतिकाले सर्वस्यापि जगतः आत्मनि संलीनीकरणाद्भक्षणमिवेति तेन सृष्टिकता वान्ताहृतिदोषो ऽपि न वितारितः । २० हत्या । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) अथ स्वभावादथ कालतो वा सृष्टिं तो नास्ति विभोरखतिः । स्वभावकालौ यदि चे बलिष्ठौ ब्रह्माप्यशस्ते नुदतः क्षये ऽस्मिन् ॥ २४ ॥ एतौ तदेवात्र च हेतुभूतौ किं ब्रह्मणा युक्त्यस कार्यम् । तद्ब्रह्मणः सृष्टिविधिं तथैव संहारकत्वं च वदन्ति ये तैः ॥ २५ ॥ न महिमा प्रकटीकृतः किं निर्दूषणे दूषणमादधे यत् । वन्ध्या ममाम्बेति समं निगद्यते यनिष्क्रियं ब्रह्म निगद्य कत्रिति ॥ २६ ॥ येsपि विज्ञानभृतो भवन्ति सर्वे च ते ब्रह्म विचिन्तयन्ति । ब्रह्मांशकास्ते यदि को sस्ति भेदः २४ २१ पापाप्तिः | २२ यदेव ब्रह्म निरञ्जननिः क्रियनिर्गुणनिस्पृहादिगुणविशिष्टमुक्त्वा तदेव ब्रह्म कर्तृसंहर्तृरागद्वेषिसर्वसंसारप्रवर्तकमुच्यते इति निर्दूपणे ब्रह्मणि दूषणं स्थापितमिति तेषां वचो अस्मन्मनो न रञ्जयति किमुच्यते अथ च तैः परस्परविरोधि वचो अङ्गीकृतं तदेवाह । २३ विशिष्टज्ञानवन्तो योगीश्वराः । २४ ते योगीश्वराः । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैस्मै विचारः क्रियते तदेभिः ॥ २७॥ अंशास्तदीया यदि जन्तवो ऽमी स्वयं स्वपार्वं हि तदेव ने। विनैव कष्टं यदि तस्य लब्ध्यै नीरागता निःस्पृहत्ता निकामम् ॥ २८॥ निर्देषता निष्क्रियता च तदज्जितेन्द्रियत्वं च समानभावः। इत्यादि कार्य यदि तस्य प्रीतिरेष्वेव सिद्धं तदिहाक्रियत्वम् ॥ २९ ॥ चेद्वक्ष्यसि ब्रह्मगतः स्वभावो ऽयमीदृशः सक्रियनिष्क्रियादिः । कर्तुस्त्वनेकैश्च तदा स्वभावै रनियतापीह भवेत्कदाचित् ॥ ३०॥ २५ किमर्थ यदि योगिनः स्वयं ब्रह्मांशकास्तहिं ब्रह्मांशानां अतःपरं लभ्यमवशिष्यते यद् ब्रह्म चिन्तयन्ति । २६ नेष्यति । २७ ब्रह्मणो लब्ध्यै प्रायै । २८ विधेयं । २९ ब्रह्मणः । ३० तत्तस्मात्कारणात् इह ब्रह्मणि। ३१ अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरेकलावं नित्यमित्यनेक स्वभावस्य नित्यस्य ब्रह्मणः सक्रियनिःक्रियतायनेकस्वभावेनानित्यत्वप्रसङ्गः । ३२ यदि ब्रह्मणः सृष्टौ संहारे च सक्रियतान्यनावस्थायां निःक्रियता स्यादिति भिन्नस्वभावता ततोऽनेकस्वभावतापत्ति तदा नित्यस्वभावपरित्यागादनित्यस्वभावतापि स्यात् प्रजान्यु मुखदुःखहर्शनात् ब्रह्मणि रागद्वेषयोरपि द्वौ भिन्नरवभावो रतस्तहि यथा चर्गदृशा न दृश्यते Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) देषो ऽपि रागो ऽपि दृशापि वीक्षा नित्यं तदेवास्ति यदेकैरूपम् । आकाशवद्याप्तिरियं हि यत्र वाक्येन पञ्चावयवेन कृप्तौं ॥ ३१ ॥ कत्तः स्फुटा सक्रियता मनःस्था सृष्टौ युगान्ते च तदन्यभावे स्यानिष्क्रियत्वं च तथैव रागद्वेषौ जनानां सुखदुःखदृष्ट्या ॥ ३२ ॥ यादृक्रिया तादृशसौख्यदुःखे चेदेवमूहो भतामपि स्यात् । क बैलं किं किल तर्हि सिद्धे स्वपापपुण्ये सुखदुःखहेतू ॥ ३३ ॥ हे ब्रह्मवादिन् यदि जन्तवो ऽमी ब्रह्मांशकास्तहि समे समाः स्युः। ब्रह्मेति स्वभावः तस्यापि परावृत्त्या कदाचिन्नेत्रेणापि ब्रह्मणो दर्शनं भवेदनेकस्वभावत्वात् यदनेकस्वभावं तन्नित्यं न स्यात् । ३३ नित्यं तदेव यदेकस्वरूपं एकस्वभावमिति । न्यायस्तु एवं । ब्रह्म नित्यं । एकस्वभावत्वात् । यदेकस्वभावं तन्नित्यं यथाकाशं । तथा चेदं । तस्मात्तथेति पञ्चावयत्रवाक्येन या नित्यवस्तुनो व्याप्तिरस्ति सा ब्रह्मणि सक्रियनिःक्रियरक्तद्विष्टादिभिन्नभिन्नानेकस्वभावत्वेन न प्रसक्ता स्यादित्यादि स्वयमूह्यम् । ३४ कृता । ३५ सृष्टिसंहाराभावे । ३६ ब्रह्मवादीति चेदुत्तरयति । ३७ ब्रह्मवादिनामपि । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) तैर्दशसाम्याद बहुभेदभिन्नतर्हि कश्चिन्ननु तैंकरो ऽन्यः ॥ ३४ ॥ भिन्ना भुवि जन्तवो ऽमी सुखस्य दुःखस्य च कर्तृ ब्रह्म । तोर्यतो दुःखसुखे विधत्ते ब्रह्मा स एवास्तु तयोर्विधाता ॥ ३५ ॥ निरञ्जनं नित्यममूर्त्तमक्रियं सङ्गीर्य्य ब्रह्माथ पुनश्च कारकम् । संहारकं रागरुडादिपात्रकं परस्परध्वंसि वचस्त्यदस्ततः ।। ३६ ।। अतो विभिन्नं जगदेतदेतब्रह्मापि भिन्नं मुनिभिर्व्यचारि । अतस्तु संसारगता मुनीन्द्राः कुर्वन्ति मुक्त्यै परब्रह्मचिन्ता ॥ ३७ ॥ ये केपि मायामिह विष्णुमाश्रितां ૪૩ ३८ ब्रह्मांशानाम् । ३९ जीवाः । ४० सुखदुःखादिभेदकरोऽन्यः पदार्थः । ४१ पुण्यपापयोः । द्वेष । ४२ ध्यानम् । ४३ ये केचन वैष्णवाः सन्ति ते च विष्णुनैव कृतं संगै संहारं च वदन्ति यथा च पद्मपुराणे तत्वानुसारिमहादेवकृतभगवत्सहस्रनामपाठे प्रतिपादितम् । यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे । यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥ इत्याद्यनेकशः पाठैः पठन्तीति तानाश्रित्याह ये के ऽपीत्यादि । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) जगद्विधौ हेतुसुदीरयन्त्यथ । प्रष्टव्यमेषामिति किं हि मायां विष्णुः श्रितो विष्णुमथापि माया ॥ ३८ ॥ माया जडा संश्रयितुं स्वयं नो शक्ता तु विष्णुः परब्रमतुल्यः । जानन्स्वयं नाश्रयते हि मायां यत्पारतन्त्र्यादजडो जडं श्रयेत् ॥ ३९ ॥ अथैष विष्णुयुगपन्नुदेत्तां पृथक्पृथग्वा प्रतिजीवमीत्त । आये यदीमां तु नुदेत्रिलोकी तदैकरुपास्तु न भिन्नरूपा ॥ ४० ॥ तदैकरूप्याद्यदि ती पृथक्पृथग् जीवान्प्रतीत न भवेत्तदानीम् । अनन्त्यमस्या इयमप्यनेकरूपा च जीवा अपि भिन्नरूपाः ॥ ४१ ॥ नामैवमस्त्वत्र तथापि माया *श्रिता। ४४ परब्रह्माधिकारोक्तविशेषणविशिष्टत्वात् ब्रह्मतुल्यो वा विष्णुव्रह्मापरपयोयो वा विष्णुरिति । ४५ मायां । ४६ यदी सुखमयी तदा मुखमय्येव दुःखमयी दुःखमध्येव न च भिन्नरूपा । ४७ तस्या मायाया एकरूप्यं एकस्वभावता तस्मात् । ४८ मायां । ४९ जीवानामनेकत्वात् । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) जडा सती किं चरितुं क्षमा स्यात् । कर्जुश्च शक्तेरथ सा समर्था तदैव कर्ता सुखदुःखयोऽस्तु ॥ ४२ ॥ . किं कर्तुं रेतैरपराद्धमस्ति चेदीदृशीं ती प्रति जीवमीर्ते । निरोगसां प्राणभृतां य ईग्दुःखादि कर्ता स कथं हि कर्ता ॥ ४३ ॥ ध्यायन्ति ये नेशमिमेऽस्यै साँगसास्तेषामसौ दुःखकरः प्रथेत्यहो । ये त्वीशमेनं प्रति सेवमानास्तेषामयं साततति विधत्ते ॥४४॥ देषी च रागी च भवतां स कर्ता य ईदृशीमाचरति प्रतिक्रियाम् । नामैवमस्त्वस्तु परं य एनं निन्देन्न वन्देत गतिस्तु कास्य ॥ ४५ ॥ लोके त्रिधा स्याद्गतिरेकवस्तुनो यत्सेवकासेवकमध्यमात्मिकाः। ५० कर्तुम् । ५१ मायाम् । ५२ निरपराधानाम् । ५३ कर्तुः। ५४ सापराधाः । ५५ सेवकानाम् । ५६ प्रसिद्धिः। ५७ मध्यस्थनकारस्योभयत्रसम्बन्धो डमरुकमणिवत् । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्योईयोश्चेद्गतिरस्तितर्हि मध्यस्थजन्तोरपि सास्तु काचित् ।। ४६ ॥ अस्यापि काचिनियता गतिः स्यादस्यागतेस्तहिं च कोऽस्ति कत्तो । तीति वाच्यं सुखदुःखमुख्यं यथा कृतं कर्म तथैव लभ्यम् ॥ १७ ॥ इत्थं च ये केचंन सगिरन्ते कर्ता स्वतो जीवगणान्प्रमृज्य । संसारिभावं प्रणिदीय तेषां महाक्षये संहरते पुनस्तान् ॥ ४८॥ वाया अमी किं जगदीश्वरो ऽयं जीवान्सतः किं प्रकटीकरोति । किं वा नवाँनेवकरोति कर्ता चेदादिपक्षः शृणु तर्हि वार्ताम् ॥ ४९ ॥ इष्टे पदे चेत्परिरक्ष्य जीवान् यः कार्यकाले प्रकटीकरोति । ५८ सेवकासेवकयोर्द्वयोः । ५९ उदासरूपस्य गतिः । ६० यवनाचार्यादयः । ६१ प्रतिजानते प्रतिज्ञां कुर्वन्तीति यावत । ६२ वकीयादात्मनः सकाशात् । ६३ कृत्वा । ६४ दत्त्वा । ६५ ये इत्यं वदन्ति ते वाच्याः पृष्ठव्या इत्यर्थः । ६६ विद्यमानान् । ६७ जीवान् । ६८ स्ववाञ्छिते स्थाने । . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) सो ऽस्मादृशः कर्मणि वस्तुरक्षी . प्रस्तावनोप्राप्तिभयादिभीतः ॥ ५० ॥ अशक्तिरप्यस्य निवेदिता यनो भिन्नभिन्नार्थकमेलवीर्यः। कर्तुस्त्वचिन्त्या किल शक्तिरस्ति तत्किं स लोभीति निगद्यते हो ॥ ५१ ॥ कृत्वा नवानेव यदैव जन्तून् संसारिभावं प्रति लाभयेचेत् । । मौलान्कथं मोचयितुं क्षमो न येन स्वकृप्तानितिकिं विडम्बयेत् ।। ५२ ।। कृतानपीत्थं यदि संहरेत् पुनः को ऽयं विवेको जगदीशितुः सतः । बालो ऽपि यो वस्तु निजं प्रकृप्त धर्तुं क्षमस्तावदयं दधाति ।। ५३ ।। लीलेति चेत्तर्हि जनो ऽपि लीलों कुर्वन्न निन्द्यो भवति प्रवीणैः । तपोयमध्यानमुखैः स लभ्य६९ क्रियावसरे । ७० अवसरे या ऽप्राप्तिस्तद्भयात् । ७१ पृ. थक्पृथग्जीवपदार्थमेलनवलः । ७२ प्रापयेत् । ७३ स्वकृनान् । ७४ रक्षति । ७५ स्वचित्ताभीष्टागम्यगमनादिक्रीडां विदधत् । ७६ स खुदाई नामा जगदीशः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) श्वेत्तानि रुच्यै यदि सन्ति तस्मै ॥ ५४ ।। एतानि यस्मै रुचये भवन्ति स नेदृशीं जातु करोति लीलाम् । लोकेऽपि जीवादिकघातनोत्था लीला निषिद्धास्ति समैव तेन ॥ ५५ ॥ अन्यान्निषेधन्पुनरात्मना सृजंस्तदा स को ऽतीव विनिन्दितः स्यात् ।। एवं त्वनालोचनकर्मकारं वयं न कर्तारमिमं वदामः ॥ ५६ ॥ यत्त्वदचोन्यासभरैः स कर्ता। पूतः स्वयं स्वीयजनान्पुनानः । ज्योतिर्मयाद्योत्थगुणै विशिष्टः सो ऽपि स्वकांशान्स्वरसादिमोहे ॥ ५७ ॥ संसारभावे विरचय्य सद्यो जीवत्वमेवं बहुदुःखपात्रं । नुदत्ययं चेन्नहि तर्हि कर्तृ.. रंशा इमे प्राणभृतो ऽपरे यत् ॥ ५८ ॥ ७७ तपःप्रभृतीनि । ७८ जनानां दुःखदानरागद्वेषादिविधानसंहारादिकाम् । ७९ प्रागेव ब्रह्मलक्षणसदृशलक्षणः त्वदुक्तकत्ता । ८० स्वकीयात् कस्माचिल्लीलादिरसात् । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) कर्ता कथं सङ्कटपेटकोदरे दौर्गत्यदौस्थ्यादिमये भवे ऽस्मिन् । जाननिजांशान्सहसैव नुद्यात् स्वकस्वरूपादिनिपात्य रम्यात् ॥ ५९ ॥ एषा तु लीलास्ति यदीश्वरस्य संसार एवैष ततस्तदिष्टः। तदा तु संसारिजनैस्तदीप्त्यै कष्टादि केनाथ विधेयमुग्रम् ॥ ६० ॥ पूर्वापरानाश्रितवाक्यमेतत् । प्रजल्पतां कापि न वाक्प्रतीतिः । ये सर्वसद्रूपगुणानदोषान् कर्तुर्वरांशानिति पातयन्ति ॥ ६१ ।। किंतर्हि वाच्यं शृणु किञ्चिदस्ति ज्योतिर्मयं चिन्मयमेकरूपम् । द्रष्टै प्रजानां सुखदुःखहेतुं ८१ पातयित्वा । ८२ परमेश्वरस्येष्टः । ८३ परमेश्वरप्राप्त्य । ८४ सिद्धान्ती खेष्टं परब्रह्मपरमेष्ठिलक्षणमपरनामसिद्धाख्यं निरूपयति । ८५ दर्शकम् । ८६ लोकानां सम्बन्धिनम् । ८७ पुण्यपापलक्षणं प्रति पुण्यपापयोस्तस्य दर्शकत्वे तयोस्तत्तत्फलवत्वं स्यात यथा साक्षिणि सति पुण्यपापयोः फलाफलोपलम्भः सुलभो भवति लोका अपि वदन्ति सर्व कृतं शुभाशुभं भगवान् वेत्तीति तात्पर्यार्थः। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) योगीश्वरध्येयतमस्वभावम् ।। ६२ ।। दौर्गत्यदुःखे सुगतिं सुखं च प्राप्नोति तादृक्कृतकर्मयोगात् । जीवो यदात्वेप समानभावं श्रयेत्तदा गच्छति ब्रह्मभूर्यम् || ६३ || तुष्टिर्जनानां परमेश्वरस्य चेत्सृष्टिसंहारकथाप्रवृत्त्या । स्फूर्त्तिप्रभावप्रतिपादनार्थं तदेति वाच्या स्तुतिरीश्वरस्य ॥ ६४ ॥ आस्तामयं श्रीपरमेष्ठिनामा तद्धयानवाने जनो ऽभिनिष्यात् । कर्त्ता सुखस्यात्मनि संविधानात् संहारकश्वात्मतमोपहारात् ।। ६५ ।। यथैवं लोके किल को sपिसूरः स्वाम्यात्तशस्त्रैरपि सर्वशत्रून् । सञ्जित्य तत्संहतिकृन्निजाङ्गे सुखस्य कृत्यापि भवेत्स कर्त्ता ॥ ६६ ॥ यथा ऽत्र शस्त्रादिकवस्तुनेतुः G स्थाने स्थितस्यापि न हि प्रयासः । ८८ ब्रह्मत्वं । ८९ स्यात् । ९० स्वामिनः । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) तथेश्वरस्यापि भवेन्न काचित् किया तो निष्क्रियतापि सिद्धा ।। ६७ ।। शूरो ऽपि चैवं सति शस्त्र भर्तुमहोपकारं किल मन्येत ऽसौ । अधीशभक्तो ऽपि तदीयनामध्यानोत्थसौख्य स्तमेव वक्ति ॥ ६८ ॥ एवं के खलु सन्ति सन्तो दृष्टान्तसङ्घाः सुधिया समुह्याः । तथा सतीशो महिमापि विश्रुतो भक्तुश्च सँर्गप्रतिसर्गकर्तृता ।। ६९ ।। इति जैनतत्वसारे जीवकर्मविचारे सुरचन्द्रमनः स्थिरीकारे परब्रह्मविचारोक्तिलेशो sat sधिकारः ॥ ९१ शस्त्रनायकस्य । ९२ तत्सौख्यकरं तमधीशमेव वक्ति तस्य सेवकत्वात् । ९३ सृष्टिसंहार । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' (५०) अथ नवमोऽधिकारः किं ब्रह्म सिद्धापरनामकीर्त्तितं ध्येयं मुनीनामपि शुद्धचेतसाम् | भवार्णवे यानवदेव योगिनो जानन्ति यन्मुक्तिगृहं यियासवः ॥ १ ॥ स्वामिन् यदीयं न हि सृष्टिरुत्थिता सकाशतो ब्रह्मण इत्यवाचि चेत् । इयं कुतः स्यादपयाति वा कुतो निगद्यतामद्य रहस्यमेतकद || २ || त्रिकालविज्ञा इति योगिनो ये निरागिणस्ते ऽभिदधुर्विशिष्टाः । कालात्स्वभावान्नियतेश्ववीर्यतः सृष्टिक्षयौ स्तः समवायपञ्चकात् ॥ ३ ॥ ९४ अथ जिज्ञामुः पृच्छति ब्रह्मभूयमित्यत्र किं नाम ब्रह्मेत्युक्ते तज्जिज्ञासोराशयेन वदति सिद्धान्ती । ९५ यत् सिद्वापरनाम ब्रह्म भवार्णवे संसारसागरे योगिनः मुक्तिरूपं गृहं प्रति प्राप्तुकामाः प्रवहणवत् आमनन्ति, गृहप्रवेशेतु कर्त्तव्ये यथा प्रवहणं परित्यज्यते तथा मुक्ति गृहगमनावसरे सिद्धध्यानमपि संत्यज्यात्मध्यानं च समभावलक्षणमाश्रित्य मुक्तिगृहं प्रविशन्तीति भावः । ९६ कालः स्वभावनियती, पूर्वकृतं पुरुपकारणं पञ्चः समवाये सम्यक्त्व, - मेकत्वे भवति मिथ्यात्वम्. इति जैन तत्वम् । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) मुनीश्वरा ब्रह्मणि ब्रह्म लीयते ज्योतिस्तथा ज्योतिषि संविशेदिति । कथं प्रवादो घटते महात्मना - मयं विना ब्रह्म पुराणवेदिनाम् ॥ ४ ॥ निशम्यतां ज्ञानमिदं वदन्ति ब्रह्मेति वा ज्योतिरथेति विज्ञाः । तदेकसिद्धस्य हि ब्रह्म यावत् क्षेत्रं श्रयेत्सर्वदिशास्वनन्तम् ॥ ५ ॥ तावद् द्वितीयस्य तृतीयकस्य सिद्धस्य ब्रह्मयते तदेव । एवं ह्यनन्तीमित सिद्धनाम्रां ब्रह्माश्रयेत् क्षेत्रमहो तदाश्रितम् ॥ ६ ॥ नेति गर्ब्रह्मणि ब्रह्म णीयते ज्योतिस्तथा ज्योतिषि सम्मिलत्यथ । अयं प्रवादो मुनिभिः पुरातनैः ९७ पुरातनतत्वविदाम् । ९८ ब्रह्मशद्धेन ज्ञानमुक्तमनेकार्थे, तदेव ज्ञानं प्रकाशकत्वात् ज्योतिरिव ज्योतिरिति ज्योतिरपि लोका व्यवहरन्ति तत एकस्यापि परमज्ञानस्य ब्रह्म ज्योतिश्चेति नामद्वयं लोकाः श्रितास्ततो लोकाशयेनोच्यते ब्रह्मेति ज्ञानं ज्योतिर्वेति । ९९ ज्ञानम् । ३०० अनन्ता अत एवामिता ये सिद्धा इतिनामानः । १ ज्ञानं ज्योतिर्वा । २ सिद्धज्ञानाश्रितम् । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) समाश्रितो यथार्थवेदिभिः ॥ ७ ॥ एवं सति प्राज्ञवराः कथं न तत् क्षेत्रस्य साङ्कर्यमथो भवेत्तथा । परस्परालिङ्गितब्रह्मणो ऽप्यहो सङ्कीर्णता केन भवेन्न तत्र ॥ ८ ॥ Tea कस्यापि मनीषिणो हृदि प्रभूतशास्त्राक्षरसङ्ग्रहे सति साङ्कर्यमस्योरसि नैव जायते न चाक्षराणां परिपिण्डता भवेत् ॥ ९ ॥ एवं चिदाश्लिष्टदिवः समन्ततो भिर्ब्रह्म परम्पराश्रितैः । 2. सङ्कीर्णता ऽथो नभसा न ब्रह्मणा - मिह प्रवीणा इति संविदा जगुः ॥ १० ॥ इत्थं हि सिद्धैः परिपूरितं शिवक्षेत्रं न सङ्कीर्णमहो भवेत्कदा ।... सिद्धास्तथा सिद्धपरम्पराश्रिताः. सायबाधारहिता जयन्ति भोः ॥ ११ ॥ 2 इति जैनतत्वसारे जीवकर्मविचारे सुरचन्द्रमनःस्थिरीकारे एकसिद्धक्षेत्रे ऽनेकसिद्धावस्थानामिधानोक्तिलेशो नवमो ऽधिकारः ॥ ३ ब्रह्मशद्वार्थवादीभिः । ४ मिथोमिलितज्ञानस्य ज्योतिषो वा । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५ ) अथ दशमो ऽधिकारः प्रश्नः पुनः पृच्छयत एष पूज्या निगोदजीवानधिकृत्य तद्वत् । निगोदजीवाश्च निगोद एव तिष्ठन्ति केनाशुभकर्मणा ते ॥ १ ॥ यत्ते हि जन्मात्ययमाचरन्तः कर्माणि कर्तुं न लभन्ति वेलाम् । तत्कर्मणा केन परेतदुःखा-'' नन्तव्यथां ते ऽनुभवन्ति दीनाः ॥ २ ॥ ये तेषु केचिद्यवहारराशिमायान्ति ते स्युः क्रमतो विशिष्टाः ।। राशेः पुनर्ये व्यवहारनाम्नो निर्गत्य जीवा अभियान्ति ते ऽपि ॥ ३॥ निगोदजीवत्वमथो लभन्ते कथं व्यवस्था कुत आविरस्ति । निशम्यतां सम्यगयं विचारो विचारसञ्चारितचित्तवृत्ते ॥ ४ ॥ ५ मरणम् । ६ परेता नारकास्तेपां यानि दुःखानि तेभ्योऽप्यनन्ता व्यथा. येषां ते। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) निगोदजीवेषु सदैव दुःखं यदस्ति तत्तादृशजातिभावात् तथाविधक्षेत्रजनिप्रलम्भान्महार्त्तिदोदर्क तथाप्रणोदात् ॥ ५ ॥ यथैव लोके लवणोदवारि क्षारं सदा दुःसहकर्मयोगात् । अनन्तकाले ऽपि भवेन्न पेयं यन्नैव वर्णान्तरमाश्रयेत ॥ ६ ॥ अनन्ततो ऽनन्ततरस्त्वनेहा बभूव वार्द्धर्लवणोदनाम्नः । विनेदृशं कर्म न नाम वाच्यं तत्कुत्र दुष्कर्म कृतं जलेन ॥ ७ ॥ यत्रापि गङ्गादिमहानदी भव जलं गतं तद्गतरूपि तद्रसं । निगोदकेषु व्यवहारराशितो जीवा गतास्ते ऽपि भवन्ति तत्समाः ॥ ८ ॥ Fat मेघस्य मुखं समाप्य पेयं भवेच्चाथ सुखीभवन्ति । एवं निगोदादपि निर्गता ये ७ उत्तरकालतादृक्प्रेरणात् । ८ दुष्कर्म । ९ लवणोदस्य वारि । ' Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) संलभ्य जीवा व्यवहारराशिम् ॥ ९ ॥ यद्वागज्ञस्य नरस्य कस्यचित् हृदन्तरोच्चाटनमन्त्रवर्णाः । तिष्ठन्ति तैः किं कृतमत्र दुःकृतं यदीदृशं नामे निगद्यते जनैः ॥ १० ॥ तत्स्था हि वर्णा यदि के ऽपि शस्तमन्त्रस्थितास्ते गदिताः प्रशस्ताः । सन्मन्त्रगा ये ऽपि च मन्त्रवर्णास्तेस्युस्तथोच्चाटन दोषदुष्टाः ॥ ११ ॥ क्षेत्रं निगोदस्य यथा तथेदं दुर्मान्त्रिकस्याशुभवर्णभृद् हृद् । दुर्मन्त्रवर्णाभनिगोददेहिनः सन्मन्त्रैवर्णव्यवहारिजन्मिनः ॥ १२ ॥ दृष्टान्तदार्शन्तिकतेयमात्मना संयोजनीया समभावभाविना । एवं च सूक्ष्मा गुरवश्च पण्डितैईश्यास्तु दृष्टान्तगणाः स्वबुद्धितः ॥ १३ ॥ दक्षा निगोदासुभृतः समस्तं संवाप्य लोकं सततं स्थिताश्चेत् । bota १० मान्त्रिकस्य । ११ उच्चाटनेति दुर्नाम । १२ शुभमन्त्रवर्णवत् व्यवहारराशिगतजीवाः । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते केन नायान्ति दृशः पथं यके घनीभवन्तो ऽपि न बाधयन्ति ॥ १४॥ सत्यं निगोदा अतिसूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मतरा भवन्ति । एकां तनुं ते ऽधिगता अनन्ता-. स्तथाप्यदृश्या ननु चर्मदृग्भिः ॥ १५ ॥ यथोग्रेगन्धामृतदेहिरामठादिकोत्थगन्धो बहुधा यथा मिथो । श्लिष्टो ऽभितिष्ठेन्न तदन्यवस्तुनः सङ्कीर्णता नापि नभोभुवस्तथा ॥ १६ ॥ एवं निगोदासुमतां परस्पराश्लेषेऽस्ति तेषामतिबाधनं सदा । तथापि चान्यस्य न वस्तुनो ऽस्ति सङ्कीणेता नैव विहायसश्च ॥ १७ ॥ यथात्र गन्धादिकवस्तुसत्ता । ज्ञेया नसा नैव दृशाभिदृश्या । एवं निगोदात्मभृतोऽपि जैनवाक्यादिबोध्या मनसा न वीक्ष्याः ॥ १८ ॥ ते केवलज्ञानवता हि दृश्याः १३ वचा । १४ कलेवर । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) यथा हि सर्वत्र रजो तिसूक्ष्मम् । उड्डीयमानं न च दृश्यते ऽक्ष्णा न चापि राशीभवने ऽपि बोध्यम् ॥ १९ ॥ परं यदानशुषीनरश्मिसमुत्थवंशीत्रसरेणुरूपम् । प्रकाशयोगादभिवीक्ष्यते तत् दृश्यास्तथा दिव्यदृशा निगोदाः ॥ २० ॥ स्वामिनिगोदाद्यसुमान न्यदन् सन् न गौरवं केन लभेद्गुणेन च । यथा हि सूतो विविधांश्च धातूनश्नन भजत्येष गरिष्ठतां नो ॥ २१ ॥ वस्त्रं यथा चम्पकपुष्पवासितं यथा च कृष्णागरुधूपधूपितम् ।। न मौलभारान्ननु याति गौवं दृष्टान्त एकः पुनरत्र शास्त्रगः ॥ २२ ॥ सिद्धो यथा तोलकमानपारदः स्विन्नः सहेम्नः शततोलकेन । १५ आच्छादितमंदशे जातं यत् छिद्रं तत्रागता ये इनर:मयः सूर्यकिरणास्तेभ्य उत्सना ये वंशीकाराः किरणप्रतिविम्बास्तत्र यदुडीयमानं रजस्लत्त्रसरेणुरित्युच्यने तस्य यद्रूपं दर्शनम् । १६ आहरन् । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) aash निजतोलकाद्वरादेवं न जीवेऽपि भरः कृतात || २३ || यथा पुनर्मारुतपूर्णमध्या दृतिः स्वभारादधिकी भवेन्नो । तथैव जीवो विहिताशनो ऽपि स्वगौरवान्नाधिकगौरवचित् ॥ २४ ॥ साधो निगोदाभूतोऽतिदुःखिताः स्युः कर्मणा केन निगद्यतामिदम् । इमं विना केवलिनं न कश्चिविज्ञो ऽपि विज्ञातुमलं विचारम् ॥ २५ ॥ तथापि च प्रत्यहेतवे दो निगद्यते किंचन कर्मजातम् । यद्यप्यमी अत्र निगोदजीवाः स्थूलात्रवान्तेवितुमक्षमा हि ॥ २६ ॥ परत्वमी एकतनुं श्रिता यतिष्ठन्त्यनन्ताः प्रतिजन्तुविद्याः । ૧૯ पृथकपृथग्देहगृहप्रमुक्ताः परस्परपकरात्मसंस्थाः ॥ २७ ॥ १७ कृताहारे । १८ कर्मप्रकारम् । १९ मत्येकत्वाभावात् भिन्नभिन्नशरीररूपगृहरहिताः । २० परस्परद्वेषकारणालना तैजसकार्मणारव्येन संस्था संस्थितिर्येषां ते । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) अत्यन्तसङ्कीर्णनिवासलाभादन्योन्यसम्बद्धनिकाच्यवैराः । प्रत्येकमप्येष्वभिवर्तमानअनन्तजीवैस्तत उग्रवैरम् ॥ २८ ॥ एकस्य जन्तोर्यदपीह वैरमेकेन जीवेन तदप्यजेयम् । एकस्य जन्तोर्यदनन्तजीवैवैरं भवेच्चेत्तदनन्तकालैः ॥ २९ ॥ कथं न भोग्यं पुनरेधमानं तदेव तेनैव ततो ऽप्यनन्तम् । एवं निगोदासुमतां न वैरं सान्तं न दुष्कर्म च नापि कालः ॥ ३०॥ लोके यथा गुप्तिगृहाश्रितानामन्योन्यसंमर्दनिपीडितानाम् । प्रत्येकमाबद्धनिकामवैरभाजां नराणां किल कर्मबन्धः ॥ ३१ ॥ भावस्त्वमीषामलमीदृशः स्याद्यदेषु कश्चिन्मियते ऽपयाति वा । तदाहमासीय सुखेन भक्ष्य२१ एकमेकं मत्यात्मनात्मानं संविश्य २ एकीभूय तिष्ठन्ति । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) । ३ मायाति किञ्चिदघनमंशतश्च ॥ ३२ ॥ इत्यादिकं वैरमतुच्छमीहक् प्रवर्धमानं प्रतिवन्दि यत्स्यात् । तस्मादमीपामतिदुष्कृतं स्यादेवं निगोदाङ्गभृतामपीक्ष्यम् ॥ ३३ ॥ तथानिसङ्कीर्णकपञ्जरस्थिताः विदेपभाजश्चटकादिपक्षिणः । जालादिगा वा तिमयो मिथोभवदिवाधनदेषचिताः सुदुःखिनः ॥ ३४ ॥ तथा पुनस्तस्करके निहन्यमाने च सत्यामनले विशन्त्याम् । कौतूहलार्थं परिपश्यतां नृणां देपं विनोत्तिष्ठति कर्मसेञ्चयः ॥ ३५ ॥ बुधास्तमाहुः किल सामुदायिक भोगो यदीयो नियतो ऽप्यनेकशः । एवं हि चेत्कौतुकतः कृतानां वकर्मणामत्र सुदुर्विपाकः ॥ ३६ ॥ अन्योन्यबाधोत्थविरोधजन्मनामनन्तजीवैः कृतकर्मणां तदा । २२ बन्धः। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) भोगो ऽप्यनन्ते ऽपगते हि काले निगोदजीवैर्न हि जातु पूर्यते ॥ ३७ ॥ पूज्या निगोदासुमतां मनो ऽस्ति नो केनेदृशं तन्दुलमत्सवद् भृशम् | प्रजायते कर्म यतस्त्वनन्तकालप्रमाणं परिपाक एवम् ॥ ३८ ॥ सत्यं यदेतन्न मनो ऽस्त्यमीषां तथापि चान्योन्यविबाँधनोत्थम् । दुष्कर्म तूत्पद्यतएव द्विषं निहन्त्येव यथा तथार्हतम् ।। ३९ ।। सञ्ज्ञाश्चतस्रोऽप्यथवर्षे मिथ्या योगेंः कषायो विरतिश्च सन्ति । इमानि सर्वाण्यपि कर्मबन्धबीजान्यनन्तैस्त्वधिको विरोधः ॥ ४० ॥ एवं निगोदामतां निदर्शनैः - २३ पीडन । २४ यथा । २५ विषं ज्ञातमज्ञातं वा भक्षितं मारयति तत्र ज्ञाते तु स्वयमन्यो वा कश्चिदुपायमपि कृत्वा जीवेदपि परमज्ञातं तु मारयत्येत्रेति शेषः अत एवैषां मनो विना समुत्पन्नं परस्परवैरमन्तकाले ऽपि भुज्यमानं न पूर्ण स्यादिति तत्त्वम् । २६ निगांदेषु । २७ मिथ्यात्वम् । २८ काययोगादिकः । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) किञ्चित्स्वरूपं गदितं यथामति । यतस्त्विदं नो किल को ऽपि वक्तुं शक्तो विना केवलिनं कुलीनाः ।। ४१ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे मुरचन्द्रमनःस्थिरीकारे निगोदजीवानां क्षेत्रस्थिनिगमागमकर्मवन्धादिनिदर्शनोक्तिलेशो दगमो ऽधिकारः ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) अथ एकादशोऽधिकारः स्वामिन्निदं विश्वमशेषमित्थं पूर्ण निगोदैर्यदि तर्हि तत्र । कर्माण्यथो पुद्गलराशयो ऽपि धर्मास्तिकायादि कथं हि मान्ति ॥ १ ॥ सत्यं यथा गान्धिकहट्टमध्ये कर्पूरगन्धः प्रसृतो ऽस्ति तत्र । कस्तूरिकाजातिफलादिसर्ववस्तूत्थगन्धो ननु माति किं न ॥ २ ॥ तत्रास्ति मार्तण्डतपस्तथैव धूपस्य धूमस्त्रसरेणवो ऽपि । वायुश्च शब्दश्च सुमादिगन्धो मातो यथा स्यादथ चावकाशः ।। ३ ।। पुनश्च कस्यापि विचक्षणस्य वक्षोन्तराशास्त्रपुराणविद्याः । वेदाः स्मृतिमन्त्रकलाश्च यन्त्रतन्त्राणि सर्वाण्यभिधानकोपाः ॥ ४ ॥ ज्योतिर्मतिाकरणादिविद्या Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) रागा रसाशीविषयाः कषायाः। वार्ता विनोदा वनिताविलासा दानादयो मत्सरमोहमैत्र्यः ॥ ५॥ क्षान्तिधृतिदुःखसुखे गुणास्त्रय आम्नायशङ्काभयनिर्भयाधयः । ध्यानादयो मान्ति यथैव तद्वद् द्रव्याणि लोके ऽपि वसन्ति नित्यम् ॥ ६ ॥ लोके यथा वा वनषण्डमध्ये रेणुस्तथामी त्रसरेणवो ऽपि । सूर्यातपो वह्नितपः सुमानां गन्धः समीरः पशुपक्षिशब्दः ॥ ७ ॥ वादित्रनादश्छदमर्मरादि सर्वाणि मान्तीह तथावकाशः । एवं च द्रव्यैर्निचिते ऽपि लोके ऽवकाश एषो ऽपि च तादृशो ऽस्ति ॥८॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सूरचन्द्रमनःस्थिरीकारे जीवपुद्गलधर्मास्तिकायादिपूर्णे ऽपि लोके तथैवावकाशोक्तिलेश एकादशो ऽधिकारः॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५ ) अथ द्वादशो ऽधिकारः पृच्छामि पूज्यान प्रणयादिदानी जीवस्तु कर्माणि शुभाशुभानि । भुङ्क्ते सुखषी किमु दुःखितः संस्तदास्ति कश्चिन्ननु कर्मनोदकः ॥ १ ॥ विधिग्रहो वा परमेश्वरो वा कर्ता यमो वा भगवानिहास्तु । प्रणोदकः कर्मगणस्य येन दुःखं सुखं वा परिभोज्यते जगत् ॥ २॥ नैवं यदेतानि भवन्ति कर्मनामानि शास्त्रे पठितानि तद्यथा । भाग्यं स्वभावो भगवानदृष्टं कालो यमो दैवतदैवदिष्टम् ॥ ३ ॥ अहो विधानं परमेश्वरः क्रिया २९ जीवो हि स्वभावात् सुखैषी दुःखद्वेपी । तेन मुखहेतुशुभकर्माणि स्वेच्छया भुङ्क्ताम् । परं दुःखकारणमशुभकर्म भोक्तं स्वेच्छया न समीहते । तदा ऽशुभकर्मभोगे तु कश्चित् प्रेरको ऽस्तु येनायमास्मा ऽशुभकर्मवलात् दुःखं भोज्यते । स च प्रेरको लौकिकः कश्चिदृश्यमाणो ऽइति पृच्छाकारः प्रेरकपूर्विकां कर्मभुक्तिमाह । तदा कर्मवादी नैवमित्यादिवृत्तत्रयेणोत्तरमाह । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराकृतं कर्म विधा विधिश्च । लोकः कृतान्तो नियतिश्च कत्तों प्राकीर्णप्राचीनविधातृलेखाः ॥ ४ ॥ इत्यादिनामानि पुराकृतस्य शास्त्रे प्रणीतानि तु कर्मतत्वगैः। तदात्मनो न स्वकर्मणो विना सुखस्य दुःखस्य च कारको परः ॥ ५॥ स्थाने त्वजीवानि पुनर्जडानि कर्माणि किं कमिह क्षमाणि । कश्चित्तदेषां परिणोदको ऽस्तु । यच्छक्तितो ऽनि सहीभवन्ति ॥ ६ ॥ इदं तु सत्यं परमत्रकर्मणामेषां स्वभावो ऽस्ति सदेहगेव । विनेरकं यान्यखिलात्मनः स्वयं स्वरूपतुल्यं फलमानयन्ति ॥ ७॥ यतो ऽभिवर्तन्त इमे ऽत्र जीवा अजीवसम्बन्धमधिश्रिताः सदा । जीवन्त्यजीवन्नथ जीवितारस्त्रैकालिकः सङ्गम ऐभिरेषाम् ॥ ८॥ ३०, कर्मस्वभावः । ३१ जीवस्य । ३२ कर्माणि ३३ समर्थीभवन्ति । ३४ जीविष्यन्ति । ३९ कर्मभिः । ३६ आत्मनाम् । , Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) षड्द्रयमध्ये खलु द्रव्यपञ्चकं निर्जीवमेवं समवायपञ्चकम् । एतैरजीवैरपि जीवसङ्कुल जगत्समस्तं धियते निरन्तरम् ॥ ९ ॥ जीवास्त्विमे स्वोर्जितकर्म पुद्गलैः सन्तः श्रिता दुःखसुखाश्रयीकृताः । द्रव्याणि षट् यत्समवायपञ्चकमेतन्मयं ह्येव जगन्न चापरम् ॥ १० ॥ ततः सचेतः प्रणिचेत चेतसा जीवेभ्य एते सबला अजीवाः । ३७ धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवास्तिकायकाललक्षणानि षड् द्रव्याणि, तन्मध्ये जीवास्तिकायमेकं विमुच्य शेषाणि पश्च द्रव्याणि अजीवानि, एवं कालस्वभावनियतिपुराकृतपुरुषकारलक्षणपश्चसमवायो ऽप्यजीव एभिर्दशभिरजीवैरशेषं जीवसंभृतं जगत् सन्ध्रियते । यथा धर्मास्तिकायेन चलति । अधर्मास्तिकायेन तिष्ठति । आकाशास्ति. कायेनावकाशं लभते । पुद्गलास्तिकायेनाहारविहारादिकरोति । कर्माण्यत्रान्तर्भवन्ति । यैरजीवरूपैरयं जीवः सुखदुःखभाग् भवति तानि कर्माणि जीवः कालादिपञ्चसमवायसामर्थ्यात् गृहात्ति धारयति भुङ्क्ते शमयतीति । एवं नवापि वस्तुनि अजीवानि जीवानां जीवनो-- पायाः । तत्र कालस्तूभयत्रवर्तमान आयुरादिसर्वप्रमाणवद्वस्तुप्रमाणकर इति। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) यतो यथा ऽजी_बलप्रणोदिता जीवास्तथा स्युः सुखदुःखमाजः ॥ ११ ॥ स्वभाव एषो ऽस्ति यतस्तु जीवा गृह्णन्ति कर्माणि शुभाशुभानि । अयं तु गृह्णन् गृहयालुभावादेत्तीति कुर्वे खरसान्निजेष्टम् ।। १२ । जडानि कर्माणि न भोगकालं विदन्ति येन प्रकटीभवन्ति । आत्मापि दुःखानि न भोक्तुकामो यदेष दुष्कर्म पुरस्करोति ॥ १३ ॥ तदीह कर्माणि कियन्तमुच्चै- . . . . विलम्ब्य कालं निजकारमात्मकम् । सुखं तथा दुःखमिमं नयन्ति। कुतो विना प्रेरकमेतदेष्यम् ॥ १४ ॥ 'सत्यं तु कर्माणि जडानि सन्ति नाभोगकालं निजकं विदन्ति । ३८ अजीवा धर्माधर्माकाशपुद्गलकालस्वभावनियतिपूर्वकृत्पुरुषकारद्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणास्तेषां यवलं तेन प्रेरिता व्यापारिताः सन्तो जीवाः सुखदुःखभाजो भवन्ति । पुद्गलेष्वेव कर्याण्यन्तर्भविध्यन्ति इति भावः । ३९ ग्रहणशीलस्वभावात् । ४० वाञ्छनीयम् । : Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९ ) आत्मापि दुःखानि न भोक्तुकामस्तथापि दुःखान्ययमाश्रयेत ॥ १५ ॥ द्रव्यादिसामग्यतथाऽनिवार्यशक्त्यैव कर्माणि तु तादृशान्यपि । स्फुटानि भूत्वा स्वकर्तृकं बलादात्मानमेनं ननु दुःखयन्ति ॥ १६ ॥ युग्मम् ॥ यथेोष्णकालादि समेते कश्चिज्जनः शीतलवस्तुसेवी । मृष्टादिकाम्लादिकरम्यभोजी स्यात्तस्य तद्योगसमुत्थवातः ॥ १७ ॥ वर्षाऋतुं प्राप्य पुरुं प्रकुप्यति प्रायो वपुःस्थः समीर उग्रः । ४१ द्रव्यमादौ येषां तानि द्रव्यादीनि द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपाणि समग्रवस्तूत्पतिस्थितिनाशहेतुभूतानि तेषां सामग्र्यं सामग्री समवायस्तस्य तथेति तादृशी अनन्यरूपा सा चासौ अनिवार्या प्रतिहता बलवती वा सा चासौ शक्तिश्च तथा प्रेरकभूतया तादृशान्यपि जडान्यजीवानि च कर्माणि द्रव्यादिसामग्र्यां सत्यां प्रकटीभूय खेषामात्मीयानां कारकं कर्त्तारं बलादेनमात्मानं दुःखद्वेषिणमपि दुःखयन्ति दुःखिनं कुर्वन्ति अत एव कर्त्रादिकं विनैव द्रव्यक्षेत्रकालभावसामाग्र्या प्रेरकभूतया जडान्यपि कर्माणि कञ्चित् कालमात्मनि स्थित्वापि ततः प्रकटीभूयात्मानं दुःखयन्ति सुखयन्ति वा न तु कर्त्रादिमेरकप्रेरितानि इति भावः । ४२ भूरि । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) यतो यथा ऽजीवैबलप्रणोदिता जीवास्तथा स्युः सुखदुःखभाजः ॥ ११ ॥ स्वभाव एषो ऽस्ति यतस्तु जीवा गृह्णन्ति कमोणि शुभाशुभानि । पृष्ठ ६८ उपर पहेली चार लिटि पछी उमेरी वांचो. स्वकालसीमानमवाप्य कर्माण्यमूनि चैषां सुखदुःखदानि ॥ १२ ॥ चेदित्थमेवेति तदायमात्मा गृह्णाति कर्माणि शुभाशुभानि । यदेष दुष्कमे पुरस्कराात ।। १३ ।। तदीह कर्माणि कियन्तमुच्चैविलम्ब्य कालं निजकारमात्मकम् । सुखं तथा दुःखमिमं नयन्ति कुतो विना प्रेरकमेतदेयम् ॥ १४ ॥ सत्यं तु कर्माणि जडानि सन्ति नाभोगकालं निजकं विदन्ति । ३८ अजीवा धर्माधर्माकाशपुद्गलकालस्वभावनियतिपूर्वकृत्पुरुषकारद्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणास्तेषां यवलं तेन प्रेरिता व्यापारिताः सन्तो जीवाः सुखदुःखभाजो भवन्ति । पुद्गलेष्वेव कर्याण्यन्तर्भविज्यन्ति इति भावः । ३९ ग्रहणशीलस्वभावात् । ४० वाञ्छनीयम् । . Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) आत्मापि दुःखानि न भोक्तुकामस्तथापि दुःखान्ययमाश्रयेत ॥ १५ ॥ द्रव्यादिसामग्यतथाऽनिवार्यशक्त्यैव कर्माणि तु तादृशान्यपि । स्फुटानि भूत्वा स्वकर्तृकं बलादात्मानमेनं ननु दुःखयन्ति ।। १६ ॥ युग्मम् ।। यथोष्णकालादिऋतौ समेते कश्चिज्जनः शीतलवस्तुसेवी । मृष्टादिकाम्लादिकरम्यभोजी स्यात्तस्य तद्योगसमुत्थवातः ॥ १७ ॥ वर्षा ऋतुं प्राप्य पुरु प्रकुप्यति प्रायो वपुःस्थः समीर उग्रः ।। ४१ द्रव्यमादौ येषां तानि द्रव्यादीनि द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपाणि समग्रवस्तूत्पतिस्थितिनाशहेतुभूतानि तेषां सामग्य सामग्रीसमवायस्तस्य तथेति तादृशी अनन्यरूपा सा चासौ अनिवार्या प्रतिहता बलवती वा सा चासौ शक्तिश्च तमा प्रेरकभूतया तादृशान्यपि जडान्यजीवानि च कर्माणि द्रव्यादिसामग्र्यो सत्यां प्रकटीभय स्खेपामात्मीयानां कारक कर्तारं बलादेनमात्मानं दुःखद्वेषिणमपि दुःखयन्ति दुःखिनं कुर्वन्ति अत एव कादिरेरकं विनैव द्रव्यक्षेत्रकालभावसामाग्र्या प्रेरकभृतया जडान्यपि कर्माणि कश्चित् कालमात्मनि स्थित्वापि ततः प्रकटीभृयास्मानं दुःस्वयन्ति सुखयन्ति वा न तु कनोदिमेरकमेरितानि इति भावः। ४२ भरि । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) लब्ध्वा च कालं शरदाख्यमेष प्रायेण संशाम्यति पित्तभावात् ॥ १८॥ एवं हि वातादिकवस्तुनस्तूत्पत्तिस्थितिप्रान्तदशात्रये पि । आत्माश्रितम्यास्य न कश्चिदन्यो विनैव कालादिकमत्र हेतुः ॥ १९ ॥ कर्मग्रहः स्वेप्सितभुक्तिवत्स्यात् योस्तु शान्तिस्थितिकार्यनेहीं । समस्तदात्मार्जितकर्मणां हि भुक्तिश्च शान्तिः किल कालद्रव्यैः ॥ २० ॥ एवं तु कालो गदितो ऽस्ति कर्मणो वातादिवस्तुत्रितयस्य चापि । परं यदा कश्चनशान्त्युपाय उग्रो भवेत्तयपि याति चान्तरात् ॥ २१॥ किञ्चित्कदाचित्स्वदनं यदात्मनो वातादिकृत्तत्क्षणतो ऽपि जायते । कर्माणि कानीह तथात्मनो ऽस्यो ४३ उत्पत्तेः । ४४ नाश । ४५ कर्मवातयोः । ४६ कालः । . ४७ अर्थात् प्रमाणभूततया ! ४८ वातपित्तश्लेष्मरूपवस्तुत्रयस्य । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणि क्षणात्तत्तलदान्यनीरम् ॥ २२ ॥ यदा पुनः स्त्री पुरुषं भजन्ती यदृच्छया स्वार्थपरा विनेरकम् । विपाककाले परिपूर्णतां गते प्रसूयमाना सुखिताथ दुःखिता ॥ २३ ॥ एवं तु कर्माण्यपि दुष्टशिष्टान्यनीरकाण्येव निजात्मगानि । स्वं कालमाप्य प्रकटीभवन्ति यद् दुःखं सुखं वाभिनयन्ति देहिनम् ॥ २४ ॥ यहातुरः कोऽप्यगदान किलाहरन् जानाति नासावहितान हितानथ । तदीयपाकस्य गते तु काले सुखं तथा दुःखमयं लभेत ॥ २५ ॥ कर्माण्यपीत्थं पुनरेष आत्मा गृह्नन न जानाति शुभाशुभानि । यदा तु तेषां परिपाककालस्तदा सुखी दुःखयुतो ऽथवा स्वयम् ॥ २६ ॥ विषं तथा कृत्रिममीदृशं स्या ४९ सुखदुःखादिरूप । ५० नास्ति ईरकः प्रेरको यत्र फलादिदानकर्मणि तदनीरकम् तक्रियाविशेषणमेतत् । ५१ औपधानि । ५२ जनः । ५३ आहारको जनः कश्चित् । ५४ परिकर्मितम् । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) तत्कालनाशाय तथैकमासात् । दिमासषण्मासकवर्षकालदिवर्षवर्षत्रयतो ऽपि नाशकृत् ॥ २७ ॥ इत्थं च कर्माण्यपि भूरिभेदभिन्नस्थितीनीह भवन्ति कर्तुः । निजे निजे काल उपागते तु तादृक् फलं तानि वितन्वते स्वतः ।। २८ ।। सिद्धो रैसो वैष भवेदसिद्धः सर्वो गृहीतो ऽभ्यमितेन केनचित् । समागते तत्परिणामकाले दुःखं सुखं वा भजते तदाशकः ॥ २९ ॥ तथात्मगा दुःपिटिका च वालको दुर्वातशीताङ्गकसन्निपाताः। स्वयं त्वमी कालवलं समेत्य तदन्तमात्मानमतिव्यथन्ते ॥ ३०॥ अमी तथैते ऋतवो ऽपि सर्वे ५५ कर्मणां कारकस्य । ५६ यादृशं कर्म स्याद्यदि शुभं कर्म तदा शुभं फलं. यद्यशुभं कमोशुभं फलं कुर्वन्तीति भावः । ५७ पकः । ५८ पारदः । ५९ रोगितेन । ६० परिपाक । ६१ सिद्धस्यासिद्धस्य वा पारदस्य भक्षकः । ६२ दुष्टा स्फोटिका दुःपिटिका निर्नामिकायेत्यर्थः। ६३ पीडयन्ति । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) स्वं स्वं च कालं समवाप्य सद्यः। मनुष्यलोकाङ्गभृतो नयन्ति सुखं तथा दुःखमिमान स्वभावतः ॥ ३१ ॥ एवं हि कर्माणि निजात्मगानि स्वकं स्वकं कालमवाप्य सत्वरम् । विना परप्रेरणमेतमात्मकं नयन्ति दुःखं सुखमप्यथो स्वयम् ॥ ३२ ॥ तथा पुनः शीतलिकादिबोलामयोद्भवा तप्तिरधिश्रयेत्तनुम् । षण्मासमात्मानमिमं तथैव श्रयन्ति कर्माणि समेत्य यत्स्वयम् ॥ ३३ ॥ यक्ष्माक्षिबिन्दूद्दतपक्षघाता अधोगशीताङ्गमुखामया ये। सहस्रघौः परिपाकमेषां वदन्ति वैद्या विदितागमा विदा ॥ ३४ ॥ इत्थं हि केषामिह कर्मणां परीपाकं स्वकालं समवाप्य यत्स्वयम् । विना परप्रेरणमत्र पण्डिताः ६४ मनुष्यलोकमध्यवर्तिप्राणिनः मति । ६५ आदिशब्दात वो. दरिकाऽच्छपिटकादयः । ६६ क्षयरोग । ६७ रोगाः । ६८ ज्ञानेन। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) पठन्ति सैद्धान्तिक सिन्धुराये ॥ ३५ ॥ तापो यथा पित्तभवो दशाहं श्लेष्मको वादशरात्रमात्रम् । सँवातिकस्तिष्ठति सप्तरात्रं दोषिकैः पञ्चदशाहमानम् || ३६ || एवं ज्वराणां परिपाककालः स्वकः स्वकोऽयं पृथगेप उक्तः । यथा तथैषां कृतकर्मणामपि पृथक् स्वकीयः स्थितिकाल एष्यः ।। ३७ ।। यथा यथा वा चरितं पुरात्मना फलं ग्रहाणामिह भुज्यते तथा । यावत्स्वसीमां सहजाद्दशान्तदर्शादियुक्तं परिणोदकं विना ॥ ३८ ॥ कर्माणि कर्मान्तरितानि चैवं यथात्मनानेन नतु क्रियन्ते । स्वकालमेषां परिपाकयुक्तं भुङ्क्ते तथात्मा फलमीकं विना ॥ ३९ ॥ कर्मेदमाहुः कतिधा बुधाः सुधा ७३. ७४ -- ६९-७१ तापः । ७२ वाञ्छनीयः । ७३ प्रेरकम् । ७४ अमृतस्राविण्या | Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) किरा गिरौं त्वं शृणु दक्षिण क्षणम् । भंङ्गीचतुष्केन चतुर्विधं तत्तत्राद्यमत्राचरितं विहोदयेत् ॥ ४०॥ शस्तं तथाशस्तमहो यथा भुवि सिद्धाय वा साधुजनाय भूभृते । श्रियाइह स्वल्पमपि प्रदत्त । चौर्याचशस्तं पुनरत्र नाशकृत् ॥ ४१ ॥ भेदो द्वितीयोऽत्रकृतं परत्र कौंदयेदत्र यथा प्रशस्यम् । तपोव्रताद्याचरितं सुरत्वादिदं तदन्यन्नरकादिदायि ॥ ४२ ॥ सत्या यथा सत्त्वमिहाश्रितं पुनः शूरेण शौर्यं परजन्मभोगदम् । तृतीयभेदस्तु परत्र कर्म निर्मातमत्रासुखसौख्यदायि ।। ४३ ॥ ७५ वाण्या । ७६ इदं कर्मसिद्धान्ते चतुर्थोक्तं । यथा इह लोए फडा कम्मा इह लोए वेज्जन्ते, इह लोए कडा कम्मा परलोए वेज्जन्ते, परलोए कडा कम्मा इह लोए वेज्जन्ने, परलोए कडा फम्मा परलोए वेज्जन्ते इति चतुर्भङ्गी उक्ता सान यथा सवाच्या । ७७ कर्म । ७८ कृतम् । ७९ अत्रैवोदयं यायात् । ८० सिद्धपुम्पाय रससिदादिमहापुरुषाय । ८१ राजे । ८२ लक्षस्य । ८३-८४ कर्म । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) एकत्र पुत्रे तु तथा प्रसूते दारिद्यमात्रादिवियोगयोगः। अस्य ग्रहा अप्यथ जन्मकुण्डलीमध्ये न शस्ताः कृतकर्मयोगात् ॥ ४४ ॥ अन्यत्र पुत्रे तु तथा प्रजाते सम्पत्तिमात्रादिसुखं प्रभुत्वम् । अपि ग्रहा अस्य तु जन्मपत्रिकामध्ये विशिष्टाः पतिताः सुकर्मतः ॥ ४५ ॥ चतुर्थभेदस्तु परत्र कर्म कृतं परत्रैव फलप्रदं भवेत् । यदत्र जन्मे विहितं तृत्रीयभवे विधत्ते फलमात्मगामुकम् ॥ ४६॥ येनात्र जन्मे व्रतमुग्रमाश्रितं प्रागेव तस्मात्प्रतिबद्धमायुः नृदेवपश्वादिभवोत्थमल्पं तदा ततोऽन्यत्र भवेद्भवेऽस्य तत् ॥ ४७ ॥ दीर्घायुषा भोज्यमहो महत्कलं द्रव्यादिसामय्यतथोदयाच। यथात्र केनापि च वस्तु किञ्चि८५ । एकस्मिन् । ८६ प्राप्तिः । ८५ जन्मशब्दोऽदन्तोष्यस्ति ।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) त्रातं प्रगे भवितेत्यत्रेत्य ॥ ४८ ॥ द्रव्यादिकालादितथाविधौजसात्यर्थं तु तद्दस्तु न तेन तत्र । दिने प्रभुक्तं ततोऽन्यदा तगोक्तव्यमेताहँगिदं तु कर्म ॥ ४९ ॥ एवं चतुर्भङ्गिकया स्वकर्म भोग्यं भवेदाप्तवचः प्रमाणात् । कर्मस्वरूपं प्रतिवेदितुं नो क्षमं विना केवलिनो यथार्थम् ॥ ५० ॥ ईग्विधं कर्म कियधिं स्यात्रिति तत्किं शृणु भण्यमानम् । भुक्तं च भोग्यं परिभुज्यमानं शुभाशुभं सर्वमिदं सदृक्षम् ॥ ५१ ॥ किंवद्यावारिदविन्दुवृन्दं वसुन्धरायां पतितं प्रशुष्कम् तद्भुक्तवत्तत्र च भोग्यवर्तिक यावत्पतिष्यत्परिशोष्यमस्ति ।। ५२ ।। ८८ परत्र कृतं कर्म परत्र यद्वेयते तत्सर्वमिदमुक्तम् । ८९ यबसुर्भया भोक्तव्यं कर्म तत्कनिप्रकारं स्थादित्याह । ९० सर्व शुभं वाशुभं वा कर्म त्रिधा स्यात् भुक्तं भोग्यं भोज्यमानं चेति । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) निपत्यमानं परिशुष्यमाणं यावधदेतत्परिभुज्यमानवत् । ग्राह्यो गृहीतः परिगृह्यमाणो यथा गुडो वा किल कर्म तहत् ॥ ५३॥ संसारिजीवा वतिनोऽवता वा तेषां तु कर्मत्रयमेतदस्ति । वसुन्धराया धनबिन्दुवृन्दवत् भुक्तं च भोग्यं परिभुज्यमानकम् ॥ ५४ ॥ कैवल्यभाजस्तु यके महान्तस्तेषां तु कर्माणि शिलाप्रवृष्टिवत् । अल्पस्थितीन्येव तथापि तद्दशा त्रयं तु तत्रापि गवेषणीयम् ॥ ५५ ॥ ___९१ यथा मुखान्तर्गतः कवलः चर्वितः स भुक्तकर्मवत्, चय॑माणकवलस्तु भुज्यमानकर्मवत, यश्च चविष्यते कवलः स भोग्यकर्मवत, इति कर्मणां कवलदृष्टान्तयोजनेति । ९२ योगिनः । ९३ सा च भुक्तादिका या दशा अवस्था तदशा तस्यास्त्रयं तदशात्रयं भोग्यभुक्तभुज्यमानकर्मलक्षणत्रयं । ९४ केवलिसत्ककर्मसत्तायां । तत्र केवली हि केवलोत्पत्त्यनन्तरं स्वायुषोन्तसमयद्वयं यावत प्रतिसमयं भुक्तभोग्यभुज्यमानकर्मा भवति, आयुषोन्तसमयादनन्तरपूर्वसमय भुक्तभुज्य मानकर्मा स्यात् , अन्तसमये तु भुक्तकर्या न पुज्यमानका सर्वकर्मणासन्तसमये क्षयकरणात् सिद्धत्वमालेथात एवाग्रेऽनन्तरं वक्ष्यति सिदात्मनामिति । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) सर्वत्र कादिपरप्रणोदनां विनैव व्यादिचतुष्टयस्य ।। तादृक्स्वभावादिह कर्मणां त्रयी. . ., भुक्तादिकासौ भविमुक्तजीवगा ॥ ५६ ॥ सिद्धात्मनां सिद्धतया दशात्रयी। न कमेणां तत्कृतपूर्वनाशतः।। भुक्ताप्यवस्था भवदेषु केवलिभवावसानं न तदत्र कापि सा ॥ ५७ ॥ मया विचारोऽयमवाचि कर्मणामजानता लोकगतैनिदर्शनैः। . सामान्यलोकप्रतिबोधनाय ज्ञेयः प्रवीणैस्तु पुराणयुक्तिभिः ॥ ५८॥ इत्थं विना प्रेरकमत्र कर्मणां भुक्ताविहोदाहरणान्यनेकशः। विचारितान्येव विचारचक्षुरैस्तबाप्रमाणं किल पारमेश्वरी ॥ ५९ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीरकर्मविचारे सूस्चन्द्रमनःस्थिरीकारे परमेरणारहितकर्मभोगोक्तिले शो । द्वादशोऽधिकारः॥ ९५ द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपस्य । १६ संसारिकेवलिजीवसम्बधिनी । २७ लोकप्रसिद्वैः । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) अथ त्रयोदशोऽधिकारः मुनीश केचिद् भुवि नास्तिका ये न पुण्यपापे नरकं न मोक्षम् । स्वगं न च प्रेत्यभवं वदन्ति को नाम तर्कः खलु तैः श्रितोऽस्ति ॥ १॥ ते नास्तिका दृश्यपदार्थसत्ता नो इन्द्रियादेयविचारमुक्ताः। प्रत्यक्षमेकं वृणते प्रमाणं पञ्चेन्द्रियाणां विषयो ऽस्ति यँत्र ॥ २ ॥ पृच्छास्ति तैः सार्धमसौ मुंनीनां चेन्नास्तिकैरिन्द्रियगोचरः श्रितः। सबैस्तु दृश्यं यदि तर्हि वस्तु किं यन्नेन्द्रियाणां विषयः समेषाम् ॥ ३ ॥ रामादिके वस्तुनि सर्वश्रोतसां किं गोचरो नेति यदाह नास्तिकः । ९८ प्रत्यक्षे । ९९ आस्तिकानाम् । ४०० विषयः । १ य. देव दृश्यं इन्द्रियग्रहणीयं तदेव सत नास्तिकानां नान्यत् । तत्र पश्चानामपीन्द्रियाणां कस्मिन् वस्तुनि नास्तिकानां विषयोऽस्ति तद्वस्तु ते उद्वणन्तु तत्राहुनोस्तिकाः रामादिके । २ इन्द्रियाणाम् । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) रात्रावतद्वस्तुनि शब्दरूप - समेऽपि तद्वैस्तुभ्रमो न किं स्यात् ॥ ४ ॥ सैत्यं हि रात्रौ सकलेन्द्रियाणि प्रायेण मुहान्त्यबोधहान्याः । तस्मादतर्वस्तुनि तद्ग्रहः स्यात् । तच्छ्रोतसां चिन्न सदैव सत्या ॥ ५ ॥ पुनर्यथा पश्य जनेन नीरजा शङ्खः सितोऽस्तीति निरीक्ष्य गृह्यते । पुनश्च तेनैव रुजदितेन स गृह्यते किं न बहूत्थवर्णः ॥ ६ ॥ यथा पुनः स्वस्थमनाः स्वबन्धून् जानाति नैवं मधुमत्त एषः । ३ न विद्यते तत् प्रागुक्तं वस्तु रामादिकं यत्र तद्वस्तुभ्रमः रामादिवस्तुभ्रमः मोहः किं न स्यात् अपि तु स्यादेवात एव रात्र्यादौ कचित्काले पुरुपेsपि धृतरामावेषे रामाभ्रमो नास्तिकेन्द्रियाणां न भवति किन्तु भवत्येव तदा पुरुषे स्त्रीत्वज्ञानात् अथवान्यस्यां स्त्रियां स्वदृष्टखिया भ्रमात् नास्तिकस्येन्द्रियज्ञानं कथं प्रमाणं स्यादित्युक्तं । ४ नास्तिकः माह सत्यं इति । ५ ज्ञान । ६ पुरुषादिके । ७ रामाभ्रमः । ८ आस्तिकः प्राह । ९ काचकामली रोगपीडितेन । ११ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) संन्येषु तान्येव किलेन्द्रियाणि कथं विपर्यास इयानभिष्यात् ॥ ७ ॥ पुरातनं ज्ञानमथेन्द्रियाणां सत्यं तथा चाधुनिकं प्रमाणम् । नेदं वरं किन्तु पुरातनं सत् तान्येव खानीह तु को विशेषः ॥ ८ ॥ पूर्वे मनोऽभूदविकारि यस्मात् १० एषु अस्त्री स्त्रीदर्शक - काचकामली रोगपीडित-मत्तेषु तान्येव स्वकीयसम्बन्धान्येव तादृशाकाराण्येव स्वस्थानस्थान्येव सन्ति तर्हि कथं भ्रमो भवति । नास्तिकस्य तु रात्रिरोगमत्ततादयो न वाच्याः स्युः गृहीतैकप्रत्यक्षप्रमाणस्य नास्तिकस्य रात्र्यादीनां पदार्थानामाकारवर्णगन्धरसस्पर्शादिशून्यानां करतलामलकवत् दर्शयितुमशक्यत्वात् । ततो नास्तिकस्य तेषामेवेन्द्रियाणामप्रमाणता कथं स्यादित्येतदेवाह । ११ स्यात् । १२ नास्तिकः पृच्छयते, हे नास्तिकत्वं ब्रूहि पुरातनं माचीनं ज्ञानं यदिन्द्रियाणामभूत् स्त्रियां स्त्रीज्ञानं सितं ज्ञानं समीक्ष्य शङ्खग्रहणलक्षणं अमत्तस्य मात्रादिषु तज्ज्ञानं इत्येत्पुरातनं ज्ञानं सत्यं किंवाधुनिकं साम्प्रतिकं पुरुष स्त्रीग्रहणं पीतत्व प्राप्तशङ्खशङ्खत्वेन ग्रहणं, मत्तस्य मात्रादिषु स्वैरिन्द्रियैरेव भार्यात्वेन ग्रहणमेवं स्वामिनि सेवकत्वेन ग्रहणमित्यादि मिथ्यारूपं तत्सत्यं इति पृष्टे नास्तिकः प्राह नेदं वरं आधुनिकं ज्ञानं यदुक्तं तत्सत्यं न । किन्तु पुरातनमेव तेषां तद्वस्तुनि तद्ग्रहणलक्षणं ज्ञानं तदेव सत्यं अथैषां इन्द्रियाणां सत्यासत्यज्ञानाङ्गीकारः कथं क्रियते इति पृष्टो नास्तिकः माह पूर्वमिति । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) तत्साम्प्रतं यदिकृतं बभूव । । अतो मिथो भेद इयान स कस्य भेदोऽस्त्ययं मानसिकस्तदत्र ॥ ९ ॥ दृश्यं मनो नास्ति न वर्णतो वा कीहर निवेद्यं भवतीति भण्यताम् । न दृश्यते चेन्नहि वर्तते तत् खान्येव तानीह कथं विकारः ॥ १० ॥ अयं विकारस्तु बभूव साक्षाद यं सर्व एते निगदन्ति तज्ज्ञाः। त्वं पश्य चेद्दष्टपदार्थकेष्वपि मोहो भवेदित्थमिहैव स्वानां ॥ ११ ॥ तीन्द्रिज्ञानमिदं हि केन सत्यं सता सर्वमितीव वाच्यम् । तदेव सत्यं यदिहोपकारिण उपादिशन् दिव्यदृशो गतस्पृहाः ॥ १२ ॥ स्वस्थं मनस्त्वं बुध सन्निधाय विचारमेतं कुरु तत्त्वदृष्टया । शब्दा इमे ज्ञानवतोपदिष्टा१३ नास्तिक । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) स्तेऽमी यथार्था भवतापि वाच्याः ॥ १३ ॥ आनन्दशोकव्यवहारविद्या आज्ञाकलाज्ञानमनोविनोदाः। न्यायानयो चौर्यकजारकर्मणी वर्णाश्च चत्वार इमे तथाश्रमाः ॥ १४ ॥ आचारसत्कारसमीरसेवा मैत्रीयशोभाग्यबलं महत्त्वम् । शब्दस्तथार्थोदयभङ्गभक्तिद्रोहाश्व मोहो मदशक्तिशिक्षाः ॥ १५ ॥ परोपकारो गुणखेलनाक्षमा आलोचसङ्कोचविकोचलोचाः। रागो रतिर्दुःखसुखे विवेकज्ञातिप्रियाः प्रेमदिशश्च देशाः ॥ १६ ॥ ग्रामः पुरं यौवनवार्धकास्था नामानि सिद्धयास्तिकनास्तिकाश्च । १४ अपिः समुच्चयार्थस्तेन मया वाच्या एव पुनर्भवता त्वयाप्येते मद्वद्वाच्या इति । १५ अर्थोऽभिधेयः शब्दोऽयमयं चार्थ इति च क उच्यते किं शब्दार्थयोः कश्चिदाकारादिरस्ति। १६ अयं मे प्रियो ऽयं चाप्रियश्चेति यदा दृश्यते तदा तद्वस्तु एव दृश्यते परं- येन कृत्वा - पियशब्दः प्रवर्तते सगुणस्तु दर्शयितुं न शक्य एवमन्यत्रापि । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५) कषायमोषौ विषयाः पराङ्मुखाचातुर्यगाम्भीर्यविषादकैतवम् ॥ १७ ॥ चिन्ताकलङ्कश्रमगालिलज्जासन्देहसङ्ग्रामसमाधिबुद्धि । दीक्षा परीक्षादमसंयमाच माहात्म्यमध्यात्मकुशीलशीलम् ।। १८ ।। क्षुधा पिपासार्घमुहूर्त्त पर्वसुकालदुःकालकरालकल्यम् । दारिद्र्यराज्यातिशयप्रतीतिप्रस्तावहानिस्मृतिवृद्धिगृद्धि ॥ १९ ॥ प्रसाददैन्यव्यसनान्यसूया - शोभामभावप्रभुताभियोगाः । नियोगयोगाचरणाकुलानि भावाभिधाप्रत्यययुक्तशब्दाः ।। २० ।। १७ अर्घः मूल्यम् । १८ आरोग्यम् । १९ भावः शब्दस्य प्रटत्तिनिमित्तं तस्याभिधाभिधानं कथनं वचनमिति यावत् तदर्थं ये प्रत्ययाः तत्वयण्इमनणादयस्तैर्युक्ता शब्दास्ते तथा यथा विष्णोर्भावः विष्णुता विष्णुत्वं वैष्णवं दाढम् द्रढिमा इत्यादिभावप्रत्ययान्तैः सर्वैरपि लोकमध्यस्थव्यै र्योऽर्थो भवति स नास्तिकेन न वाच्यः स्यात् तस्य पञ्चभिरिन्द्रयैर्यहीतुमशक्यत्वादिति यथासम्भवं वाच्यम् यद्यपि चौर्यमाहात्म्यदारित्र्यवाज्यादिशब्दा अत्रैवान्तभूर्तास्तथाप्यतीमसिद्धत्वादिहोपात्ता इति न पौनरुत्यदोषः । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) इत्यादिशब्दा बहवो भवन्ति ये जिव्हादिवत्तेन हि शब्दवन्तः । स्वर्णादिवन्नो इह रूपवन्तः पुष्पादिवन्नोऽत्र च गन्धबन्धुराः॥ २१ ॥ सितादिवन्नो रसवन्त एवं न स्पर्शवन्तः पवनादिवञ्च । किन्त्वेककर्णेन्द्रियरूपग्राह्यास्ताल्वोष्ठजिव्हादिपदे प्रवाच्याः॥ २२ ॥ स्वस्वोत्थचेष्टादिविशेषगम्याः स्वाभ्याससम्प्राप्तफलानुमेयाः । स्वनामयाथार्थ्यकथानिधायिनः स्वीयप्रेतिहन्दिविनाशकारिणः ॥ २३ ॥ संघो विरोध्युत्थनिजाह्वयान्ताः २० यथा नन्दनमानन्दः शोचनं शोक इत्यादिकथनधारिणः । २१ आनन्दप्रतिद्वन्द्वी अनानन्दः शोकादिः तेनानन्देनानानन्दस्य विनाशः . क्रियते एकस्य नाशेऽपरस्योपपत्तौ वस्तूनां भावाभावौ सिद्धौ एतौ तु . तदा स्यातां यदा किञ्चिद्वस्तु स्यात् तत्सद्भावस्तु न साक्षात् स्वर्णादिवदृश्यते सर्वत्र चेष्टयैव एषां सत्ता उपदिश्यते एवं नञ्समासादिमतामे- . पामभावरूपेण विनाशो लक्ष्यते । २२ सयः शीघं आनन्दादीनां विरोधिनः शोकादयः तेभ्यः शोकादिभ्य उत्थ उत्पन्नो निजाहयस्य आनन्दादीनां स्वनाम्नः आनन्दति शब्दस्यान्तोऽवसानमनुच्चारो येषां Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) इतीदृशाः सर्वजनप्रसिद्धाः। . शब्दाः स्वकीयोत्थगुणप्रधाना वाच्या नरैरास्तिकनास्तिकैश्च ॥ २४ ॥ चतुर्भिःकलापकम् यदीदृशा अप्ययि सिद्धशब्दा येषां न साक्षात्कृतिरिन्द्रियैः स्वैः । तत्पुण्यपापादिकवस्तूनीहा प्रत्यक्षके कस्य च खंस्य वृत्तिः ॥ २५ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे मूरचन्द्रमनःस्थिरीकारे नास्तिकस्याप्यानन्दादिशब्दवत् पुण्यपापादिशब्दसत्तोक्तिलेशः त्रयोदशोऽधिकारः ते तथा अतएव यस्मिन् क्षणे यन्निमित्तानन्दोत्पत्तिस्तस्मिन् क्षणे तनिमित्तमेव शोकायुत्पत्तेरभावात् शोकादीनामनुच्चार एवं सर्वशब्देष्वप्ययमेव धर्मोऽ वसेयः । २३ पुंसः । २४ इन्द्रियस्य । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) अथ चतुर्दशोधिकारः viram अतो य एतन्मनुते वदावदः प्रत्यक्षमेकं हि मम प्रमाणम् । तचिन्त्यमानं न विवेकचक्षुषाम् शक्तं भवेत्सर्वपदार्थसिद्धयै ॥ १ ॥ किं तर्हि सत्यं निजगाद नास्तिकस्तदुत्तरं यच्छतु शुद्धमास्तिकः । यदेकशब्देन निगद्यमानं तत्सत्पदं प्राहुरिति प्रवीणाः ॥ २ ॥ तविद्यते यन्ननु सत्पदेन वाच्यं भवेदस्तु तदत्र किं स्यात् । यच्छब्दजातं गदितं पुरैव तथा पुनः किंचिदनूच्यतेऽत्र ॥३॥ कालः स्वभावो नियतिः पुराकृतं तथोद्यमः प्राणमनोऽसुमन्तः । आकाशसंसारविचारधर्माधर्माधिमोक्षा नरको लोकौ ॥ ४ ॥ विधिनिषेधः परमाणुपुद्गलः कर्माणि सिद्धाः परमेश्वरस्तथा । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९) इत्यादिशब्देषु न चेष्टयाऽपि । केचित्सुधीभिः प्रतिपादनीयाः॥ ५ ॥ किन्त्वेकतः सत्पदतः प्ररूप्याः तथैककर्णेन्द्रियग्राह्यवर्णाः। स्वस्वस्वभावोत्थिततत्तथाविधफलानुमेयाः किल केवलीक्ष्याः॥६॥ ये सन्ति शब्दास्तु पदयादिना संयोगजास्ते भुवि सन्ति वा नो। यथा हि वन्ध्यास्ति सुतोऽपि चास्ति वन्ध्यासुतश्चेति न युक्तशब्दः ॥ ७॥.. एवं नभःपुष्पमरीचिकाम्भःखरीविषाणप्रमुखा अनेके। एतादृशा ये किल सन्ति शब्दाः संयोगजास्ते किल नैव युक्ताः ॥८॥ कर्णेन्द्रियग्राह्यतयापि नैषा सत्तास्ति तन्नेन्द्रियगोचरः सैन् । केचित्तु संयोगभवा हि शब्दाः सन्त्येव ते तदिरहो न प्रायः॥ ९॥ यथाहि गोशृङ्गनरेन्द्रकञ्जा२५ सत्यः। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) वनीरुहागोपतिभूधराद्याः। संयोगजाः सन्ति वियोगतश्च ।। . . . शब्दा अनेके विबुधैर्विवेच्याः ॥१०॥ श्रोत्राक्षिमुख्येन्द्रियरूपाह्ये . परन्त्वतन्नामनि तस्य नाम्नि । . . . अर्थे तथान्याश्रितरूपवेषके , .. ! ज्ञानं न नेत्रश्रवसोस्तदर्थकृत् ॥ ११ ॥ यथा सिताभ्रादिसुगन्धिवस्तुषु ..., श्रोत्राक्षिनासारसनासमुत्थं । .. ज्ञानं यदप्यस्ति तथापि केषुचितेषु प्रमाणं रसनावबोधनम् ॥ १२ ॥ स्वर्णादिके वस्तुनि कर्णनेत्र- . . . . ज्ञानं स्फुरत्येव तथापि तंत्र । ... निघर्षणादिप्रभवो ऽवबोध-. .. स्तदर्थसत्याय न केवलाक्षम् ॥ १३ ॥ : . २६ वस्तुनि । २७ लवणादिखण्डे । २८.कर्पूरादेन मनि पदार्थे इत्यर्थः । २९ सत्स्वपीन्द्रियेषु इन्द्रियज्ञानात् निघर्षणच्छेदनतापताडनोत्यपरीक्षाभवं यत् ज्ञानं तदेव स्वर्णादिसत्यतासम्पादकं स्यात् नहि स्वर्णशब्दे श्रुते चक्षुभ्यो स्वर्णवर्णे च दृष्टे स्वर्ण सत्यमिति वक्तुं शक्यते किन्तु निघर्षणादिभवेन तश्चकषपट्टलोहाग्न्यादिहेतुजं -तत्संयोगानन्तर-. मेव तत्रेन्द्रियगोचरप्रवृत्तिर्न स्वतस्तत्मागेवेति विचार्यम् । - - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१) माणिक्यमुख्येषु पदार्थराशिषु . . . समाक्षविद्रत्नपरीक्षिकातः । तथापि तेषामधिकोनवैक्रयो निगद्यते रत्नपरीक्षकैः किम् ॥ १४ ॥ सर्वेषु सर्वाणि समानि खानि तदा कथं भिन्नविभिन्नवक्रयः। परन्तु कश्चित्प्रतिभाविशेषो येनोच्यते तद्गतमूल्यनिश्चयः ॥ १५ ॥ तथाहिफेनादिकजोटकेषु प्रायो विमुह्यन्ति समेन्द्रियाणि । प्रमाणमेतेषु तदुत्थमत्तता तेनेन्द्रियज्ञानमतं न सर्वम् ॥ १६ ॥ तथौषधीमन्त्रगुंडाविशेषै लोकञ्जिनप्ततनोनरस्य । मूर्तिस्तु नो दृक्पथमेति नृणां . ३७N ३० माणिक्यमुख्येषु रत्नपरीक्षावेदिनां यद्यपि पंञ्चन्द्रियाणामपि विषयो वर्तते तथापि -रत्नपरीक्षकैः सर्वेन्द्रियाकारसाम्येऽपि न्यूनमधिकं वा मूल्यं तत्र केनायं विशेषः क्रियते एतदेवाह । ३१ रलपरीक्षिका रत्नपरीक्षाशास्त्रं तस्याः सकाशात् । ३२ मूल्यं । ३३ माणिक्य । ३४ सत्यं । ३५ गुटिका । ३६ अदर्शीकरणाञ्जनेन । १७ शरीरं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) तत्कि से नास्तीति न गृह्यते खैः ॥ १७ ॥ तदाश्रितार्थादिकृतेस्तु तस्य सत्ता तथा शक्तिमहेशवीराः । भूतं सती जागुलिका सपत्नी सिद्धायिकादेरपि तद्वदेव ॥ १८ ॥ एतस्य सिद्धौ हि परोक्षसिद्धिः तत्सेधनात् स्वर्गपरेतसिद्धिः। न दृश्यते यन्ननु चेष्टयापि कथं हि तवस्तु सदिष्यते भोः ॥ १९ ॥ स्थाने परं सर्वमिदं हि केवली ज्ञानेन जानाति यदेव वस्तु सत् । अतस्तदीयं वचनं प्रमाणं .. यदुच्यते तेन परावबुध्यै ॥ २० ॥ त्वं पश्य लोकेऽपि जनैर्न चान्यैर्यज्ज्ञायते तत्किल दृश्यतेऽलम् नैमित्तिकैरेव यथोरागो ग्रहोदयो गर्भनागमादि ॥ २१ ॥ ३८ गुप्ततनुः । ३९ तस्याश्रितं यत्कार्य आनयनसोचनादिक तस्य करणाव । ४० नरक । ४१ नास्तिकः पुनः प्राह । ४२ ग्रहणं ४३ मेघदृष्टयादि। -- - -- - - - - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) तथा व्यतीतं सकलं ब्रवीति पृष्टं तु चूडामणिशास्त्रवेदी। निदानवैद्यो ऽखिलरुग्निदान निवेदयत्याशु न चान्यलोकः ॥ २२ ॥ परीक्षको वेत्त्यथ नाणकस्य यथा परीक्षां न परो मनुष्यः । पदं पदज्ञः शकुनं च तज्ज्ञो । यथा विजानातिः परो न तहत् ।। २३ ।। अतस्त्वंकं विद्धि जनो ऽखिलौ ऽन्यः. सर्वेन्द्रियो ऽप्यत्र न वेत्ति तदत् । यथैव नैमित्तिकमुख्यलोकस्तदक्षतः कोऽप्यपरो ऽस्ति बौधः ॥ २४ ॥ एवं परोक्षार्थमिमं समस्तं ज्ञानी विजानाति न सर्वलोकः । प्रायस्त्विदं वेत्ति परोपदेशाज्जनः स्वतो नेन्द्रियकेषु सत्सु ॥ २५ ॥ आचारशिक्षार्गमसार्धनानि . रसायनं व्याकरणादिविद्याः । ४४ त्वं । ४५ इन्द्रियेभ्यः । ४६ ज्ञानम् । ४७ मन्त्राम्नाय । ४८ देवाना-! Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) चरित्रवत्ती परदेशवार्त्ता स्वादिन्द्रियाद्वेत्ति न किन्तु चान्यतः || २६ || हेतोरतः सुष्टुः विधाय चित्तं विचारयेदं स्वविकल्पमुक्तः । ग्राह्यं यदेवास्ति नृणां निजैः खै - स्तदेव गृह्णन्ति हि तानि खानि ॥ २७ ॥ ज्ञानं परोक्षं हि यदिन्द्रियाणां तज्ज्ञायते मङ्क्षु परोपदेशात् शस्तं तथाऽशस्तमिदं समस्तं .. विस्तारसंक्षेपत, ईक्ष्यते ऽन्यतः ॥ २८ ॥ यथान्त्रंशुकं कफपित्तवात - . ૪૯ " नाडी भ्रमं गुल्म यकृन्मलाशयाः । गण्डोलतापाधिकत सिवालकाः कपालरोगा गलरोगविद्रधी ॥ २९ ॥ इत्यादिकं यत्तनुमध्यवस्तु सामान्यमत्यैर्निजकेन्द्रियैः स्वयम् न ज्ञायते किन्तु परोक्षश्रुत्या ज्ञेयं तदस्य प्रशमात्स्वसत्ता ॥ ३० ॥ ; ४९ अन्त्राश्रितं हानिवृद्धयादिकं । वीर्याश्रितं हानिवृद्धयादिकं । ५० अप्यन्त्रादिविद्रधिपर्यन्तरोगगणस्य' औषधादिनोपशमात् शान्तितः सत्ता रागोत्पतिज्ञानं भवेत् । "" Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) इदं "विदां सुन्दर, स त्वमैदपर्य विजानीहि मयोच्यमानम् । वस्त्वस्ति यत्प्राणभृदङ्गभाग-, :, भूतं प्रदृश्यं न परन्त्वमूर्त्तम् ।।.३१ ॥ . अतः किलाकारवतोऽङ्गिनोऽङ्गजं . .. तदङ्गभूतं च यदस्ति वस्तु । दृश्यं तदेवाथ न सन्त्यनाकृते- ... र्जीवस्य येनाकृतयो गुणास्ते ॥ ३२ ॥. . इतीयता सिद्धमिदं यत्र खै- , ग्राह्यं तदेव प्रतिगृह्यते तैः। ....., अन्यद्यदाप्तैरुदितं तदेव सत्यं नृणां खानि तु सर्वशि नो ॥ ३३ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सुरचन्द्रमनः स्थिरीकारे नास्तिकस्य प्रत्यक्षप्रमाणान्नोइन्द्रियावगमाधिक्योक्तिलेशः चतुर्दशोधिकारः are ५१ विदः पण्डिताः तेषां मध्ये मुन्दर । ५२ जीवशरीरभागजातं वस्तु Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) अथ पञ्चदशोऽधिकारः wommm पुनश्च यदेहबहिःस्थवस्तु दृश्यं तदेवाङ्गिभिरीक्ष्यते ऽक्षः। ग्राह्यं तु यन्नास्ति न गृह्यते तत् परोक्तिशक्त्या तदपीह मन्यते ॥ १॥ पुंसो यथा कस्यचिदस्ति कन्धरा पृष्ठस्थितो वंशकमध्यगो वा। भृङ्गो ऽथवा लक्ष्म च कालकादि स्वयं न जानाति स तन्निजैः खैः ॥ २॥ यदा तु मात्रादिनिजाप्तवृद्धैस्तवात्र भृङ्गादि निगद्यतेऽदः । तदापि तेनाप्यनुमन्यते तत् परन्तु खैः स्वैर्न कदाचिदीक्ष्यम् ॥ ३॥ विदन् यथास्येक्षकमानवास्ततो ऽनेके परे सन्ति तथा स्वरीक्षकाः । घना न तस्य त्वनिरीक्षकः स्वको ऽक्येवैककस्तेन समं न चोत्तरम् ॥ ४॥ युक्तं परं नास्तिकतो घना जनाः ५३ ग्रीवा । ५४ स्वस्तिकादि । ५५ तिलकादि । ५६ स्वर्गे । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ('९७') सन्त्यास्तिका आप्तवचः प्रमाणकाः तत्प्रेत्यैदर्शा निवसन्ति भूरिशो लक्ष्मेक्षवन्नास्तिकवत्तु लक्ष्मवान् ॥ ५ ॥ सत्यं मुने तत्फलतो ऽपि पृष्ठगं लक्ष्मावसेयं हि भवेदवश्यम् । परन्तु न स्वर्गपरेतलोकौं कयापि बोध्यो ननु चेष्टयापि ॥ ६ ॥ मैवं वदः कोविद शक्तिशम्भु - गणेशवीरादिक देवसंहतिः । शैवाङ्गिमान्याथ तुरुष्कपूज्याः फिरस्तपे गम्बरपीरमुख्याः ॥ ७ ॥ तदीयसेवोत्थिततादृशेन फलेन वेद्या न हि सन्ति ते किम् । सन्तीति चेते त्रिदशा न मर्त्याः प्रायो न दृश्याः कलिकालयोगतः ॥ ८ ॥ दूरस्थतयोग्यनिवासभूमेरगम्यतत्क्षेत्रपथा मनुष्याः । ५७ परभव । ५८ लक्ष्मेक्षा इव लक्ष्मेक्षवत् लक्ष्मदर्शका इव । यथा लक्ष्मवान् अङ्की स्वास्थमपि लक्ष्म न पश्यति तथा नास्तिकोsपि स्वर्गादि न पश्यति इति समानमुत्तरम् । १३ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) परन्तु सिद्धादिमीय सत्ता नो मादृशैरगतैः प्रदर्श्या ॥ ९ ॥ त्वं चेतसि स्वे परिभावयैवं लङ्कास्ति वा नो ननु वर्तते सा । त्वया मया सर्वजनैरपीयमाकर्ण्यते केन न मन्यते सा ॥ १० ॥ एवं तदा त्वमिह स्थितः सन् लङ्कां पुरीं तां मम दर्शयात्र । श्रुत्वेति सोऽभाषत नास्तिकाख्य इहस्थितैः कैर्ननु दते सा ॥ ११ ॥ त्वमित्थमेवात्मनि - मानयात्र स्थितैस्तु लङ्का न यथा निरीक्ष्यते । न स्वर्गमोक्षादिपदं तथैव छद्मस्थपुम्भिः परिवीक्ष्यमत्रगैः ॥ १२ ॥ 1 # इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सूरचन्द्रमनः स्थिरीकारे नास्तिकस्य सकलमत्यक्षेऽपि कस्मिंश्चिद्वस्तुनि निजप्रत्यक्षतानिराकरणोक्तिलेशः पञ्चदशोऽधिकारः || ५९ एषामियमिदमीया सा चासौ सत्ता च तथा देवसम्बन्धिनी सत्ता एतत्सिद्धौ हि सिद्धा एतद्विपरीतपापहेतुप्राप्या नरकगतिसत्तेतिः स्वया । ६० अत्रस्थितैः । . Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) अथ षोडशोऽधिकारः reside अथास्तिकं नास्तिक आह शस्तधीरस्त्वस्त्विदं स्वर्गपदादि निश्चितम् । परं किलैतस्य यदस्ति साधनं तद्ब्रूहि मे साम्प्रतमादरेण ॥ १ ॥ अहो त्वया साधु वचः समीरितं धर्मश्रुतौ ते यदभूदिदं मनः । एकाग्रतः शृणु तर्हि मचो यथा तवाप्यस्तु सुधीः सुधर्मे ॥ २ ॥ हिंसामृपादतग्रहीङ्गनागमाः परिग्रहश्चेति समे समन्ततः । विवर्जनीया यदिमान् विवर्ज्य सिद्धोऽभवच्छ्रीभगवान् प्रसिद्धः ॥ ३ ॥ ये सत्यशीलक्षमतोपकारिता 2 5 ६१ यथा स्यात्तथा । ६२ शोभना बुद्धि: । ६३ आदान | ६४ पुनस्त्वं पश्य संसारे वसतां योगिनां ये सत्यशीलादयः लौकिका गुणा अल्पशोऽल्पशोऽभूवन् ते सर्वेऽपि गुणा वीजभूताः सन्तः एषां योगिनां सिद्धत्वेनावतीर्णानामनन्ताः सिद्धावस्थत्वयोग्याः एते भवन्तीति तत्कुतस्तत्र हेतूनाह । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) सन्तोषनिर्दूषणवीतरागताः। निःसङ्गता चाप्रतिबद्धचारितासज्ज्ञानितानिर्विकृतिप्रसन्नताः ॥ ४॥ .. सद्गोष्ठितानिश्चलताप्रकाशिताअस्वामिसेवित्वमतीवसत्त्वताः । निर्भीकताल्पाशनताविशिष्टतासंसारसम्बन्धजुगुप्सतादयः ॥ ५॥ अंत्रेदृशा अल्पगुणा अभूवन् सिद्धिश्रितो ते तु भवन्त्यनन्ताः। ... क्षेत्रस्वाभावादथ सिद्धभावाधबा शिवात्केवलिवाक्प्रमाणात् ॥ ६॥ . . . विशेषकम् ॥ तत्सेवकेनापि तदीयशीलविधायिना भाव्यमिति प्रतीतम् । ... . i तथा च सिद्धा यदमूर्तरूपा .. ६५ संसारसम्बन्धेनायं मम स्वामी अहं चास्य सेवी सेवकः तहि मया किञ्चित्कर्मकरेण इव भाव्यमिति भावाभावः सम्बन्धमनुभवत्येव । ६६ अर्थात् मुमुक्षुषु । ६७ सिद्धिं गतानां मुमुक्षूणां । ६८ लोके । ६९ मया सिद्धाः स्मर्तव्या.यथाहमप्येतादृशो ऽपुनीवो भर वामीति विचिन्त्य सिद्धान्स्वामित्वेन सम्पाध स्वमात्मानं च तत्सेवकतया प्रकल्प्य यदि तत्सेवामाचरति तदेशेन तेन भान्यमित्याह । - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) ७० गताशना नीरुषवीतरागाः ॥ ७ ॥ निरञ्जना निष्क्रियका गतस्पृहाः अस्पर्धका बँन्धनसन्धिवर्जिताः । सत्केवलज्ञाननिधानबन्धुरा निरन्तरानन्दसुधारसाचितः ॥ ८ ॥ अतस्तदुत्पन्नगुणानुगामिभिमहानुभावैर्मुनिभिर्विधीयते । तेषां गुणानामनुयानमात्मा - नुरूपशक्त्या तेंदवाप्तिकाङ्क्षया ॥ ९ ॥ यद्यप्यमीषां न गुणान्समस्तान् पूर्णानिमे सेवितुमत्र शक्ताः । तथाप्यमी साधव आत्मयोग्यं - श्रित्वा बलं सिद्धगुणान् श्रयन्ति ॥ १० ॥ तथाहि सिद्धाः परिभान्त्यमूर्त्ता ७० निराहाराः । ७१ गतद्वेषाः । ७२ गतारम्भाः । ७३ व न्धनं मानसं वाचिकं कायिकं च यथा इदं तवाहं करिष्ये इति त्रिकरणेनापि मुक्ताः सन्धानं सन्धिः अमाननशीलानां भवद्भिरहं मान्यः इति सन्धिः संश्लेषः सोऽपि त्रिकरणाश्रितस्तेन मुक्ताः | ७४ पूर्णाः । ७५ साधुभिः । ७६ अनुसरण । ७७ सिद्धत्व । ७८ किं किं विचिन्त्य सिद्धगुणाननुसरन्तीत्याह । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) अमी तथा देहममत्वमुक्ताः । ..... अरूपिणस्ते तदिमे शरीर- ... ... .. संस्कारसत्कारनिकारकाराः ॥ ११॥ . . मुक्ताशनास्ते ऽत इमे कैचिवचिदाहारवर्जाः पुनरेव ते तु। :, ... विद्वेषमुक्ता इति सर्वसत्त्व- . ... .... मैत्रीवहा एत इतीव रुच्याः ॥ १२॥ ते वीतरागा इति बन्धुबन्धच्युता इमे ते तु निरञ्जनाख्याः। इमे ततः प्रीतिविलेपनाद्यैः शून्याश्च ते निष्क्रियकास्ततोऽमी ॥ १३ ॥ आरम्भसंरम्भविलम्भरिक्ता . गतस्पृहास्ते ऽत इमे निराशाः। .... अस्पर्धकास्ते तदमी परैस्तु .. . वादविवादरहितास्तथा च ॥ १४ ॥ . .' निर्बन्धनास्ते ऽथ सदैवक्तप्त ७९ अत्र प्रकरणे इदमदस्एतच्छब्दैः साधव एव सर्वत्र ग्राह्यास्तच्छन्देन तु प्रसिद्धास्ते सिद्धा एवादेयाः किं वारंवारं लिखनेन । ८० निषेधकर्तारः । ८१ पर्वणि । ८२ विशेषेण लम्भः प्राप्तिस्तया रिक्ताः शून्याः। ६ ... - - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . (१०३.) खेच्छाविहारास्तदिमेऽथ तेऽपि । निःसन्धयो ऽमी तु परस्परोत्थसंख्याविरक्ता अथ केवलेक्षाः ॥ १५ ॥ ते सन्त्यमी सर्वजगत्स्वभावानित्यत्वदर्शाः पुनरेव ते तु । आनन्दपूर्णास्तदिमे सदान्तराः सन्तोषपोषात्समभावभाविनः ॥ १६ ॥ . इत्यादिका ये भगवद्गुणौघाः शास्त्रेषु दृष्टा अथ तान्प्रकल्प्य । मुमुक्षवो ऽमी अपि शक्तियोग्यमाहत्य सिद्धन्त्यपि ते क्रमेण ॥ १७ ॥ ये ऽन्ये गृहस्थाः खलु ते स्वकीयशक्त्या तथा देशत एतकान गुणान् । दुष्कर्मशान्त्यर्थमनुश्रयन्तः क्रमेण चैतेऽपि सुखीभवन्ति ॥ १८ ॥ एवं तु ये के ऽपि जनाः स्वशासने सत्तां श्रिताः श्रीपरमेश्वरस्य । , ८३ मैत्र्यात् । ८४ अनगाराः ८५ यथा सिद्धापेक्षया साधुषु देशतो गुणाः साध्वपेक्षया गृहस्थेषु देशतो गुणाः तत एतान् तप:प्रभृतिकान् गुणान् । ८६ शाक्यनैयायिकवैशेपिकायाः । ८७ मते । ८८ परमेश्वरोऽस्तीति तत्सेवनात् मुक्तिरिति ये परमेश्वरस्य सद्भाव Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) तत्पीतये ते ऽपि गुणानिमाननुयान्ति विज्ञाः परब्रह्मलिप्सवः ॥ १९ ॥ साधो गृहस्था अपि देशतो ऽमी श्रयन्त्वमूनेव गुणांश्चिराय । परन्तु यत्कर्मणि जीवहिंसा श्रयन्ति चेत्तन्नवरं तदेषाम् ॥ २० ॥ सत्यं गृहस्थाः खलु ते भवन्ति । पायो हि ते स्थूलधियोतिचिन्ताः । आरम्भवन्तश्च परिग्रहादराः सूक्ष्मेक्षिकालोकनकुण्ठेबुद्धयः ॥ २१ ॥ एते विनालम्बनमत्र तत्त्वत्रये विमुह्यन्ति ततः शुभार्थम् । साकारपूजां धृतसाधुवेषसेवां च दानादि सृजन्तु नित्यम् ॥ २२ ॥ उच्चैः कुलाचारयशोऽवनार्थ · .. श्रितो गृहस्थैः सँकलो ऽपि धर्मः। तद् द्रव्यतो भावत आत्मसम्पदे भजन्ते तेऽपि । ८९ परमेश्वरप्रीतये । ९० अधिकचिन्ताः । ९१ दृष्टि । ९२ वठर । ९३ आलम्बनमाश्रय आधारो वेत्याघेकार्थाः । १४- साकारजिनप्रतिमायां-- साधुवषे. प्रतिलेखनाप्रमार्जनादानादि. कर्तव्ये च-द्रव्यधर्मत्रये । ९५ रक्षणाय । ९६ द्रव्यभावभिन्नः। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ( १०५ ) द्विधापि धर्मं गृहिणः श्रयन्त्वमी ॥ २३ ॥ प्रायेण सावधरता गृहस्थाः सदैहिकार्थाधिकृतौ प्रसक्ताः। कुटुम्बपोषाहतभूरिसङ्घयोचनीचवार्ताः परतन्त्रखिन्नाः ॥ २४ ॥ तेऽमी स्वचेतःप्रतिभॊतपुण्यकार्योद्यता आत्मरुचिप्रवृत्ताः ।, यदेव ते स्वीयमनोऽभितुष्ट्यै कुर्वन्ति पुण्यं किल कुर्वतां तत् ॥ २५ ॥ एते गृहस्था हृदये विदध्युरितीव सङ्कल्प्य च द्रव्यधर्मम् । द्रव्येण कर्माणि समाचरय्य यथा मनस्तुष्टिमिदं निधत्ते ॥ २६ ॥ तथैव धर्माण्यपि कानिचिच्चेद् द्रव्येण कृत्वा स्वमनः प्रसन्नम् । कुर्मोऽत्र येनैव गृहस्थसत्को व्यापार एष द्रविणेन सिध्येत् ॥ २७ ॥ एषां यतो द्रव्यवतां स्वधर्म - ९७ आजीविकाः । ९८ पारवश्येन खेदवन्तः । ९९ मानित ६०० पुण्यादि Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) द्रव्येण सार्द्धं भवतीह चेतः । युक्तं ह्यदो यस्य वलं यदीयं बलेन तेनैव मतं निजं क्रियात् ॥ २८ ॥ तद्रव्यधर्म गृहिणां प्रकुर्वतां संसारकार्यान्मनसोऽस्तु संवृतिः यथा तथैते दधतां मनः स्वकं सालम्बने पुण्यविधावपेक्षणम् ॥ २९ ॥ तद्यावतामी निजकेन्द्रियाणि संवृत्य संसारर्भवक्रियातः । तदेव पूजादिकमाश्रयन्तां मनः स्थिरं येन मनागपि स्यात् ॥ ३० ॥ यावत्त्वनाकारपदार्थचिन्ता - कृतौ मनो न क्षममस्ति तद्वैत् । सुसाध्वसाधुप्रतिपत्तियोग्यो ज्ञानोदयो यावदहो भवेन्नो ॥ ३१ ॥ तावत्स्वकीयव्यवहाररक्षा कार्या कुलीनेन सनिश्चयेन | पृष्ठ १०६ लिटि ७ “ सालम्बने " उपर पर्याय. * साकारजिनपूजायां साधुवेषे प्रतिलेखनाप्रमार्जनादानादि कर्त्तव्ये च द्रव्यधर्मत्रये । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) निन्द्यो गृहस्थो न परैर्यतो भवेत् ॥ ३२ ॥ स्थिर यदा चित्तमनाकृतावपि तदा तु सिद्धस्मरणं विधेयम् । तत्सेधने साधुगृहस्थमुख्यैरात्मबोधे परियत्न एष्यः ॥ ३३ ॥ पौर्वो विधिर्योऽखिलद्रव्यभावभिन्नः स हि धौरधरोपलब्ध्यै । निर्वाणधाम्नो वरयानवत्स्यातस्य प्रवेशेऽयमिहात्मबोधः ॥ ३४ ॥ तदङ्गने पादविहारवद्यः शिवालयावस्थितिकृन्महात्मनां । तेनात्मबोधः परमोऽस्ति धर्मो यत्सेधनान्निर्वृतिरेव निश्चिता ॥ ३५ ॥ Whims निश्वयवता स्थेयं मया त्वयं सर्वो व्यवहारः साध्यते परं यदा भावधर्म उदयं समेष्यति ध्रुवं मोक्षो भात्री नान्यथा इति निश्चयपरेण भाव्यं तेन व्यवहारावसरे व्यवहारं कुर्वन् निश्चयात्मकेऽवसरे च निश्रयं कुर्वन् कुलीनो गृहस्थः न निन्यो भवेत् अत्रायं भावः उत्तमेन कुलीन गृहस्थेन येन पुण्यकर्मणा पुण्यवज्जनेषु पूर्वजैः यशोऽर्जितं तद्विपरीतं कर्म कृत्वाऽयशो नार्थनीयमिति व्यवहाररक्षा व्यवहारिणा कार्या गृहस्थेन सता मुनिधर्म सर्वोत्कृष्टं कुर्वाणः कदापि न निन्द्यो भवेदिति तत्करणे पूर्वजादधिकीभवेदिति सर्वं विचार्यम् । ५ भू । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) सन्त्यत्रं यदबोधनदर्शनाख्यचारित्रमुख्याः सकला गुणौघाः । स आत्मबोध जयति प्रकृष्टं ज्ञानादिशुद्धं यदिहास्त्यनन्तम् || ३६ || तच्छोधनेऽनन्तचतुष्टयाप्तियदीयपारप्रतिपत्तिकार्ये । ज्ञानं न कस्यापि सदा प्रभु स्यात्सर्वात्मनाकशदृशीव शाश्वतम् ॥ ३७ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सुरचन्द्रमनःस्थिरीकारे नास्तिकस्य द्रव्यभावभेदद्विविधधर्मदर्शनपूर्वकं द्रव्यधर्मादपि परम्परया भावधर्मलाभोक्तिलेशः पोडशोऽधिकारः । ६. आत्मावबोधे ७ ज्ञान' ८ आत्मावबोधस्य सम्यग निषे कृतायां ९ आकाशदर्शने इव । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९) ॥अथ सप्तदशोऽधिकारः॥ अथेत्यसौ नास्तिक आख्यदास्तिकं. यदुच्यते भोः प्रतिमार्चनाद्भवेत् । पुण्यं न तत्सम्भवतीपदार्या अजीवतः का फलसिद्धिरस्ति ॥ १ ॥ नैवं स्वचित्ते परिचिन्तनीयमजीवसेवाकरणाद्भवेत्किम् । यद्यादृशाकारनिरीक्षणं स्यालायो मनस्तद्गतधमचिन्ति ॥ २॥ यथा हि सम्पूर्णशुभानपुत्रिका दृष्टा सती तादृशमोहहेतुः । कामासनस्थापनतश्च कामकेलीविकारान्कलयन्ति कामिनः ॥ ३ ॥ योगासनालोकनतो हि योगिनां योगासनाभ्यासमतिः 'परिष्यात् । भूगोलतस्तद्गतवस्तुबुद्धिः स्यालोकनालेरिह लोकसंस्थितिः ॥ ४ ॥ १० स्यात् । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) कूाहिकालानलकोटचक्रस्तदाश्रितज्ञप्तिरिह स्थितानाम् । शास्त्रीयवर्णन्यसनात्समग्रशास्त्रावबोधस्तदभीक्षकाणाम् ॥ ५ ॥ नन्दीश्वरदीपपुटात्तथा च लङ्कापुटात्तद्गतवस्तुचिन्ता। एवं निजेशप्रतिमापि दृष्टा तत्तद्गुणानां स्मृतिकारणं स्यात् ॥ ६॥ यदा तु साक्षान्न हि वस्तु दृश्यं तत्स्थापना सम्प्रति लोकसिद्धा। तथा च पत्यौ परदेशसंस्थे । काचित्सती पश्यति यत्तदैर्चाम् ॥ ७ ॥ यदन्यशास्त्रेऽपि निशम्यतेऽदः श्रीरामचन्द्रे परदेशसंस्थे । तत्पादुकां सोऽपि च रामवत्तदाभ्यपूजयत्श्रीभरतो नरेश्वरः ॥ ८॥ सीतापि रामाङ्गुलिमुद्रिका ता- - मालिङ्गय रामाप्तिसुखं न्यमस्त । ११ कूर्मचक्र अहिचक्रं अहिवलयाख्यं वा चक्र सूर्यकालानलचक्रं चन्द्रकालानलचक्र कोटचक्रं वेति वाच्यम् । १२ तदभिदर्शकानाम् । १३ तस्य पत्युः अची प्रतिमाम् । १४ रामायणादावपि । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( १११ ) रामोऽपि सीताश्रितमौलिरत्नमासाद्य सीताप्तिरति व्यजानात् ॥ ९॥ नानास्ति कश्चित्तु तयोः शरीराकारस्तथापीह तयोस्तथाविधम् । सुखं समायाद्यदजीवतोप तहीश्वराचापि सुखाय किं न ॥ १० ॥ इत्थं चरित्रेऽस्ति च पाण्डवानां यद्रोणसूरिप्रतिमापुरस्तात् । भिल्लैकलव्यस्य 'किरीटिवद्धनुविद्या सुसिद्धति जगत्प्रतीतम् ॥ ११ ॥ तथा च चञ्चादिकवस्त्वजीवं क्षेत्रादिरक्षाकरणे समर्थम् । छायाप्यशोकस्य च शोकहीं कलेस्तु सौ स्यात्कलहाय नृणाम् ॥ १२ ॥ अजारजोमुख्यमथाप्यजीवं पुण्यादिहान्यै भवतीति लोकः । अस्पृश्यकच्छायमजीवमेवं यल्लङ्घमानस्य निहन्ति पुण्यम् ॥ १३ ॥ गु-वधूच्छायमपीह भोगिनः १५ स्वामिमूर्तिरपि । १६ नाम्नः । १७ अर्जुन । १८ छाया। १९ चण्डालादिसत्का छाया । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) प्रोलसमानस्य निहन्ति पौरुषम् । श्रच्छायमथापि स्य रुषे व्यतिक्राम्यत एव पुम्सः ॥ १४ ॥ एवं पदार्था बहवोऽयजीवाः सुखस्य दुःखस्य च हेतवः स्युः । देवाधिदेवप्रतिमाप्यजीवा सती न किं सा सुखहेतुरत्र ॥ १५ ॥ वरं निजेशप्रतिमापि तर्हि दृष्टा सती भक्ततमांसि हन्तु । परन्तु याऽस्याः क्रियते सपर्या साऽजीवतः कस्य च किंफला स्यात् ॥ १६ ॥ नैवं त्वजीवापि सती वैरार्चा समर्चिता पुण्यफलाय नूनम् । त्वं विद्धि चित्ते प्रतिमा यदीया या या सका स्वोत्थगुणप्रदा स्यात् ॥ १७ ॥ यथा ग्रहाणां प्रतिभा अजीवाः २० महेश्वरो महानायकः सार्वभौमादिस्तस्य छाया तत्तथा विभाषा सेनासुराछायाशालानिशानामिति क्लीवता एवमग्रेपि वाच्यम् । २१ महेश्वरस्य | २२ उल्लङ्घमानस्य । २३ स्वर्णरूप्यरत्नवस्त्रकम्बल सिद्धान्नपानौषधादिपदार्था अनेके सन्ति । २४ अजीवत्वहेतोः । २५ देवगतिमा | Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३ ) सत्योऽपि तत्पूजनतस्तदीयम् । गुणं ददत्येव तथा सतीनां क्षेत्राधिपानामथ पूर्वजानाम् ॥ १८ ॥ विधेर्मुरारेश्च शिवस्य शक्तेयाः स्थापनास्ता अहिता हिता वा । अमानिताश्चाप्यभिमानिताः स्युः स्तूपं तथा वा फलवन किं स्यात् ॥ १९ ॥ रेवन्तनागाधिपपश्चिमेशश्रीशीतलादिप्रतिमा अजीवाः । संपूजितास्तद्गतकार्यसिद्धिं कुर्वन्ति यदच्च तथाऽधिपाँर्चा ॥ २० ॥ ये कार्मणाकर्षणवेदिनस्तथा नाम्नैव येषां मदनादिपुत्रके । निर्जीवके तं विधिमाचरन्त्यहो यस्मात्सजीवानपि मूर्छयन्ति तान् ॥ २१ ॥ एवं निजेशप्रतिमामजीवां तन्नामग्राहं स्तवनां विधाय। समर्चयद्भिः कुशलैः सपयाँ सम्प्रापितो ज्ञानमयः प्रभुः स्यात् ॥ २२ ॥ तथा "नियोज्यानपि कांश्चिदात्मनो २६ पितृणाम् । २७ यथा । २८ स्वामि- । २९ सेवकान । - - - १५ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) मूत्ति प्रभुर्मानयतोऽवसाय । तुष्यत्यसौ तेषु तथैवमीशो ऽर्चितो भवेत्तत्प्रतिमार्चनात्स्यात् ॥ २३ ॥ सत्यं बुधैतत्परमत्र यस्माविशेष एषो ऽभिनिरीक्ष्यते महान् । देवा यदेते किल सन्ति रागिणः पूजार्थिनो नो भगवान्स ईदृशः ॥ २४ ॥ तदात्वतीवास्तु वरं यतः स्यादनीहसेवा परमार्थसिद्धये। यथाहि सिद्धस्य च कस्यचिदा स्पृहावतः सेवनमिष्टलब्धये ॥ २५ ॥ सिद्धस्तु साधो वरिवर्ति साक्षादैशी त्वजीवा प्रतिमा प्रतिष्ठिता। नायं विचारः परिपूजनीये द्रव्ये यतः पूज्यत एव पूज्यः ॥ २६ ॥ यदक्षिणावर्तककामकुम्भचिन्तामणिचित्रकवल्लिमुख्याः। कानीन्द्रियाणीह वहन्ति यत्ते 7 ऽचिंताः प्रकुर्वन्ति मतं जनानाम् ॥ २७ ॥ वस्तुस्वभावाचदमी अजीवाः स्वतोऽस्पृहावन्त इहाङ्गिकामान् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) यच्छन्ति यदत् खलु पौरमेशी पुण्यस्य सिद्धयै प्रतिमार्चिता तथा ॥ २८॥ सत्यं मुने ऽदोऽस्ति परं य एते स्युदक्षिणावर्तमुखाः पदार्थाः। अंजीववन्तोऽपि विशिष्टजातिभेदात्तथादुर्लभवस्तुभावात् ॥ २९ ॥ आराधिता अङ्गिमतं दिशन्ति नैतागर्चा किल पारमेश्वरी । अहो यदेषा सुलभोपलादिममयी तदा किं सदृशी वैऽमीभिः ॥३०॥ अहो विचारिन्नविचारितं मा वदस्त्वमेवं जगतीह पश्य । यन्मूलतो वस्तु गुणि प्रतीतं ततोऽपि यत्पञ्चकृतं गुणाढ्यम् ॥ ३१ ॥ यथाहि कश्चिक्किल राजपुत्रः प्रायेण वीर्यादिगुणास्पदं स्यात् तं प्रोज्य चेदुर्बलवंशसम्भवं पुण्याच राज्ये विनिवेशयन्ति ।। ३२ ॥ प्रामाणिकाः पञ्च यदा तदा त्वयं ३० यथा । ३१ परमेशस्य इयं पारमेशी । ३२ अमाणिनः । १३ दक्षिणावर्तादिभिः। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) राजन्यकं मौलमपि प्रशास्ति । . यदा तदुक्तं न करोति कश्चि- . स शास्यते नन्दवदेव तेन ॥ ३३ ॥ विचार्यते चेन्मनसा मनुष्यैमौलो गुणी राजसुतः स योग्यः । परन्तु यः क्षुद्रकुलोऽपि राजा स एव सेव्यः खलु पञ्चपूजितः ॥ ३४ ॥ एवं हि चिन्तामणिमुख्यमेतद् वस्तु प्रधानं निजकस्वभावात् । ततोऽपि मान्य भुवि पारमेश्वरं बिम्बं यतः पञ्चभिरत्र पूजितम् ॥ ३५॥ लोके यदेवादृतमस्ति पञ्चभिः तदेव मान्यं क्षितिपैरपि ध्रुवम् । यथा विवाहार्थनृपा महाजना न्यायोतिपुत्रावपरेऽपि चेत्थम् ॥ ३६ ॥ ये पञ्चभिस्तत्कृतभाग्यनोदासंस्थापिताः सन्ति त एव मान्याः। तथा स्वपूजाह्वयकर्मवीर्या स्कृतास्ति यैशी प्रतिमा सकाऽर्ध्या ॥ ३७ ॥ ३४ नन्दनामराजेन(राजा?) इव शिक्षा दाप्यते । ३५ पालक । ३६.सा. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७.) प्राज्ञा य एते गदिताः पदार्थास्ते सर्व आकारयुता भवन्ति । अतस्तदीयाकृतिमन्तरात्मनः कृत्वार्चयन्तेऽत्र तदीयबिम्बम् ॥ ३८ ॥ आकारमुक्तो भगवान्प्रसिद्धस्ततस्तदीयं प्रतिबिम्बमेतत् । कृत्वा कथं पूज्यत एवमत्र दोषस्वतद्वस्तुनि तद्ग्रहो यः ॥ ३८ ॥ साधूच्यतेऽदस्त्वयका विचारिणा ऽनाकारिणस्त्वाकृतिरेव नेष्टा । इदं तु यद्भागवतं हि बिम्ब तचावताराकृतिक्लृप्तरूपम् ॥ ४० ॥ यादृक्तु संसारकृतावतारो ऽभून्यासि तादृग्भगवान्महद्भिः । या या ह्यवस्था रुचिता च येभ्यः साऽहो तदर्थैः परिपूज्यते तैः ॥ ४१ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सूरचन्द्रमनःस्थिरीकारे नास्तिकस्याजीवरूपस्थापनासेवाफलप्रतिपादनोक्तिलेशो सप्तदशोऽधिकारः। ३७ अभगवति भगवानयं इति या बुद्धिः । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८ ) ॥अथ अष्टादशोऽधिकारः॥ यहा त्वनाकारखतोपि बिम्ब सिर्द्धस्य शुद्धं भगवत्सुनाम्नः । तत्तत्स्वचित्ताशयचिन्तिताशां साक्षादिवेदं वितरत्वशङ्कम् ॥ १॥ यत्स्थापना सा स्वकचित्तकल्प्या संतोऽसतो वास्त्विह वस्तुनः सा । सर्वापि यादृग्निंजभावसेविता तादृक्फलं यच्छति नात्र संशयः ॥ २॥ लोकेऽप्यनाकारमयस्य वस्तुनः आकारभावः परिदृश्यते यथा । आज्ञास्त्यसौ भागवतीति वाचंवाचं तु लेखाक्रियते मनुष्यैः ॥ ३॥ ३८ भगवान् इति शोभनं नाम यस्य सिद्धस्य स. तथा तस्य यो हि सिद्धो भगवान् इत्युच्यते । ३९ सिद्धवत् । ४० विद्यमानस्य अविद्यमानस्य वा । ४१ आज्ञा स्वयं साक्षादाकाररहिता परं तस्या अपि रेखारूप आकारः कल्प्यते या चाज्ञा सापि अमूर्तस्य भगवदादेः स्वामिनः प्रतापस्य सम्बन्धिनी तेन पूर्व भगवदादिप्रतापोऽमूर्तः अमूर्तस्याप्यस्यामूर्ती आज्ञा अस्या अपि अमूर्तीया रेखारूप आकार सद्भिः कल्पितः इत्यर्थः । ४२ स्वामिसम्बन्धिनी । ४३ उक्तोक्ता। ४४ रेखा। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) तो लडते यः स तदा न साधुनौल्लङ्घते सैष जनेषु साधुः। आम्नायशास्त्रेषु मरूधवाः स्यात् तथाऽऽकृतिमण्डलतो विलेख्या ॥ ४ ॥ स्वरोदयस्याथ विचारशास्त्रे तत्त्वानि पञ्चापि च साकृतीनि । अनाकृतं वस्त्विति साकृतं यथा स्यादित्थमाकार इहाप्यनाकृतेः ॥ ५॥ पुनर्बुधेक्षस्व यतीह सन्ति लोकेषु लोकाः किल लब्धवर्णाः । सर्वैश्वतैराकृतिवर्जिता अपि वर्णाः प्रकृप्ताः स्वैकनामसाकृताः ॥ ६ ॥ ४९ आज्ञा । ४६ भव्य । ४७ आगमशास्त्रे मन्त्रशास्त्रे । ४८ मरुद्वायुः द्यौश्च नभः मरुञ्च द्योश्च मरुद्दयावौ तयोर्मरुधवोः वायुनभसोः। ४९ मण्डलकारणहेतुनाकृतिविलेख्या यथा मरुत्मण्डलं चाकाशमण्डलं चेति-उक्त्वा तदाकाशे लिख्यते ।५० पृथिव्यप्तेजोवावाकाशलक्षणानि। ५१ आकृतिराकृतमाकारः भावे क्तः अनाकृतमनाकारं। ५३ सिद्धस्य । ५४ रचिताः। ५५ स्वकं यन्नाम तेनैव साकृताः साकारा ये ते स्वकनामसाकाराः आकारादयो वर्णाः यथायमाकारः अयं ककारः अयं हकारः इति स्वस्वनामग्राहं वर्णाः साकाराः कल्पिताः स्वचित्तकल्पनया स्थापिता इति । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) यद्याकृतिः स्यानियताक्षराणां तदा समेषां सगाकृतिः स्यात् । साँ नास्त्यतो भिन्नकभिन्निकैव वर्णाकृतिः कापि न तत्र तुल्या ॥ ७॥ यावन्ति राष्ट्राणि च सन्ति विश्वे वर्णाकृतिस्तेष्वपरापरैव । तयक्तिकाले तु समोपदेशः तैः कार्यमप्यत्र विधीयते समम् ॥ ८॥ पुनश्च पश्य त्वमिमाः समा लिपीमिथ्या विधातुं न हि कोऽपि शक्तः । या येषु सिद्धाः किल तैश्चताभिनरैलिपिभिः प्रविधीयते फलम् ॥ ९ ॥ लिप्यो विभिन्ना इह यद्यपीमा व्यक्तिः समैवास्ति तु पाठकाले । नृणां तथा कार्यकृतिः समस्ता ताभिः समाना भवतीत्यवेहि ॥ १० ॥ ५६ ननु एते वर्णाः महद्भिः स्थापिताः इति कथं प्रतिज्ञायते, उच्यते, ययेषां वर्णानां नियता शाश्वती एवाकृतिः स्यात्तदा समेषां लोकानां ककारादीनां अक्षराणां सदृशी एवाकृतिः स्यात् । ५७ सा तु संवषां समाकृतिनदृश्यते सर्वैरपि स्वमनोभिमतपृथक्पृथगेव लिख्यते अतो हेतोरेव भिन्नभिन्नाकृतिः सर्वेषामपि लिपिकर्मकारिजनानामिति । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) घनं किमाकारविवर्जितानामिहाक्षराणामियमाकृतिः कृता । अस्या अपि स्थापनमन्यदन्यत् कृतं बुधैः स्वस्वसुगुप्तवेदने ॥ ११ ॥ पुनश्चरागा अपि शाब्दरूप्यादाकारमुक्ताश्च तथापि तद्बुधैः । ते रागमालाह्वय पुस्तकेषु न्यस्ताः किलाकारभृतः समस्ताः ॥ १२ ॥ एवं त्वनाकारवतोऽप्यधीशितुराकार एष प्रविकल्प्य सद्भिः । यं यं वशं साधु समिष्य पूज्यते सर्वोप्ययं तेषु फलत्यवश्यम् ।। १३ ।। याहि पूजा परमेश्वरेऽत्रालिप्तेऽथ निन्दा न लगेत्समापि । ते यादृशे तत्र कृते तु तादृशे अभ्येत आत्मानमिमं स्वकीयम् ॥ १४ ॥ कुडये यथा वज्रमये नरेण क्षिप्त मणिर्वा दृषदप्यथा परा । ते अपि क्षेपकमभ्युपेते न जातु यातस्ततीत्य कुत्रचित् ॥ १५ ॥ ५८ आयातः । ५९ गच्छतः । ६० क्षेपकम् । १६ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२२) कश्चिद्रवेः संमुखमात्मना रजो ऽथवा सितानं क्षिपति क्षमास्थः । तत्सर्वमस्यैव समेति संमुखं । न याति सूर्यं च तथोचखं प्रति ॥ १६ ॥ यहा पुनः कश्चन सार्वभौम संस्तौति तस्यैव फलाय सं स्यात् । निन्देदथेशं यदि कश्चिदङ्गी स्यात्सैव दुःखी जनतासमक्षम् ॥ १७ ॥ स्तुतेऽधिकं स्यान्नहि सार्वभौमे विनिन्दितेऽस्मिंस्तु न किञ्चिदूनम् । नैवं प्रभौ पूजननिन्दनाभ्यामाधिक्यहानी स्त इमे तु कर्तुः ॥ १८ ॥ यद्दा पुनः कश्चिदपथ्यपथ्याहारीह दुःखं च मुखं च भुङ्क्ते । न स्तस्तु ते आहृतवस्तुनो यद् एवं च सिद्धार्चनमात्मगामि ॥ १९ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे मूरचन्द्रमनःस्थिरीकारे नास्तिकस्यानाकारस्यापि भगवतः स्थापनोक्तिलेशो ऽष्टादशोऽधिकारः॥ ६१ कपूरं । ६२ संस्तवः। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) ॥अथ एकोनविंशोधिकारः॥ साधो वरं प्रोक्तमिदं परं यथा चिन्तामणिमुख्यमिहार्चकानाम् । सद्यः फलत्येव तथात्र पारमेशी फलेन्नो प्रतिमार्चिताऽसौ ॥ १ ॥ सत्यं त्वदुक्तं परमत्र साधो संस्थाप्य चेतः स्थिरमित्यवेहि। यवस्तुनो योऽस्ति फलस्य कालस्तत्रैव तदस्तु फलयशङ्कम् ॥ २॥ यथाहि गर्भो नवभिस्तु मासैः पूर्णैर्लभेत् सूतिमिहैव नार्वाक् । तथा पुनः काश्चन मन्त्रविद्याः लक्षण कोट्याथ फलन्ति जापैः ॥ ३ ॥ वनस्पतिर्वा समये स्वकीये सर्वः फलत्येष न चात्मशैघ्यात् । सेवापि राजत्रिदशेश्वरादिसम्बन्धिनी वा फलतीह काले ॥ ४ ॥ संसाध्यमानोऽत्र रसोऽपि काले ६३ पारदोऽपि । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ( १२४ ) सिद्धः फलायास्ति न साध्यमानः । तथान्यदेशव्यवहारकर्म तत्कालपूर्ती फलति प्रकामम् ॥ ५॥ तथैव पूजादिकमन्त्रपुण्यं काले स्व एवास्ति भवान्तराख्ये । फलप्रदायीति ततो न दक्षरौत्सुक्यमेष्यं फलदे पदार्थे ॥ ६॥ पुनर्बुधाऽव॑स्य हृदि स्वकीये पूर्व प्रणीता य इमे पदार्थाः। ते चैहिका ऐहिकदायिनस्तत् फलन्यथात्रैव यतोऽग्रतो न ॥७॥ मनुष्यसम्बन्धिभवस्य तुच्छकालीनभावादिति तुच्छमेभ्यः। प्राप्यं फलं तेन मनुष्यजन्मन्यैवात्र नभ्योऽस्ति फलं परत्र ॥ ८॥ . इदं सुहृत् पुण्यभव फलं तु महत्ततः स्याबहुकालभुक्त्यै । ६४ पुनरास्तिकः प्राह । ६५ जानीहि । ६६दक्षिणावर्तकादिभ्य परत्र फलं न स्यात् अननुगामित्वात्, चर्मचक्षुदृश्यमानपदार्थास्तु जीवानामसहगामिनो भवन्ति, परमेश्वरपूजादिसमुत्थं पुण्यफलं अदृष्टत्वात् अदृष्टजीवेन सहगामि भवतीति तत्त्वम् । ६७ परलोके । . . Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) प्रभूतकालस्तु विना भवान्तरं देवादिसम्बन्धि न वर्तते यतः ॥ ९ ॥ तत्पुण्यलभ्यं फलमेतदस्ति प्रायोऽन्यजन्मान्तरयातजन्तोः । यद्यत्र जन्मन्युपयाति पुण्यफलं तदा मङ्क्षुविनाशमेव ॥ १० ॥ यतो मनुष्यायुरतीव तुच्छं मानुष्यकं देहमिदं शरारु । तद्भुज्यमानं मरणान्तरागमात् सन्त्रुट्यतीदं पृथुपुण्यजं फलम् ॥ ११ ॥ सुखान्तराँ दुःखभवो महीयोदुःखाय यत्स्यादतिभीतिदा मृतिः । सा पुण्यजेऽस्मिन्सति नैव युक्ता तदन्यजन्मे फलमेतदेति भोः ।। १२ ।। अनेकधोत्पन्नमनेकशो यथोपभुज्यमानं बहुकालमात्रम् । न क्षीयते पुण्यफलं तदेतत् प्रायोऽन्यजन्मन्युदयं समेति ॥ १३ ॥ ६८ प्राप्त । ६९ विनश्वरम् । ७० मध्ये | ७१ उत्पत्तिः । ७२ महत्तर । ७३ फले । ७४ बहुकालमेव स्वार्थे मात्रमत्ययः । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) तथा च किश्चिदुदुपुण्यं साक्षादिहैवार्पयति फलानि । यथाहि दिव्ये परिशुद्धयति क्षणाद यः कश्चिदत्रास्ति जनेषु सूती ॥ १४ ॥ शुद्धाय सिद्धाय च साधवे तथा वपि प्रदत्तं सकलार्थसिद्धये । स्यादैहिकामुष्मिकसर्वसौख्यनिबन्धनं बन्धनहद्भवस्य ॥ १५ ॥ जनेऽपि कस्मैचिदनुत्तराय क्षत्रादये स्तोकमपि प्रदत्तम् । वारे कचित्केनचिदेकवेलं तस्येष्टसिद्धयै भवतीह नूनम् ॥ १६ ॥ . यावत्वयं जीवति तावदस्य स राजपुत्रः सकलार्थकारी । घनं हि किं दुष्टविपक्षजातान्मृत्यन्तकष्टादपि पात्यशङ्कम् ॥ १७॥ एवं हि कुत्रावसरे किलैकवारं महत्पुण्यमुपार्जितं यैः। ७५ अत्युन । ७६ सत्यवादी । ७७ अल्पम् । ७८ अयं राजपुत्रादेदाता कश्चिद्वैश्यादिः । ७९ रक्षति । ८० प्रस्तावादेनं राजपुत्रादये दातारं प्रति राजपुत्रादिः। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. १२७ ) तेषां तदलापि परत्र लोके सत्सौख्यसन्तानविधानहेतुः ॥ १८ ॥ पुनस्त्वतीवोग्रतमं यन्त्र पुण्यं च पापं समुपार्जि पुंसा। अनेकपुंसामपि भुक्तये तच्छालेरिव स्त्रैणयुजश्व चोखत् ॥ १९ ॥ यथैककः कश्चन राजसेवा कृत्वा सुखी स्यात्परिवारयुक्तः । एकस्तथा कोऽपि नृपापराधी निहन्यतेऽसौ सपरिच्छदोगपि ॥२०॥ यद्येवमादिकपुण्यमेतत् सर्वात्मना स्वार्थकरं निरुक्तम् ।। तदैतदेवाद्रियतां जनौघः किं नामजापे विहिता प्रवृत्तिः ॥ २१ ॥ साधूच्यते साधुजन त्वयेदं परं विवेकोऽत्र कृतो महद्भिः । इमे गृहस्थाः खलु ये समर्थास्ते द्रव्यभावार्चनकाधिकारिणः ॥ २२ ॥ ८१ शालिभद्रस्येव स्त्रीसमूहयुक्तस्य भुक्तये पुण्यफलमभूत् च पुनः चोरस्येव स्त्रीसमूहादियुक्तस्य पापफलं भुक्तये स्यात्तथेनि। ८२ पूजादि । ८३ सर्वप्रकारेण । ८४ पूजनक । - Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८ ) ये योगिनो द्रव्यपरिग्रहेण विना विभान्तीह भवे महान्तः। तेषां त्वैधीशस्मृतिरेव युक्ता तयैव तत्स्वार्थकृतिः समस्ता ॥ २३ ॥ यथा विषंगारुडहंसजागुलीमन्त्रस्य जापाच्छ्रवणाच देहिनाम् । मूर्छावतां तत्त्वमजानतामपि विनश्यतीत्थं भगवत्स्मृतेरघम् ॥ २४ ॥ तथाऽस्थिभक्षीति हुमायपक्षी ८५ भगवत् । ८६ अधीशस्मृत्या । ८७ तेषां योगिनां स्वार्थसिद्धिः सर्वापि भवेत् । ८८ ननु योगिनः सम्यग्भगवत्स्वरूपं यथास्थितं न विदन्ति भगवानपि निःस्पृहो नीरागश्च ततः केवलं भगवस्मृत्या एव योगिनां किं सिध्यदित्याह यथा विपमिति । ननु भगवद्ध्यायका योगिनस्तु यदि भगवत्स्वरूपं न जानन्ति परं भगवास्तु जानाति अयं ध्याता मां ध्यायति एवं गारुडिको गारुडादिमन्त्रान्वेत्ति परं विषातौ यद्यपि गारुडादिमन्त्रस्वरूपं न जानाति तथाप्यस्य गारुडिकायुक्तगारुडादिमन्त्रप्रयोगाद्विषनाश एवं योगिनोऽपि सम्यग्भगवज्ज्ञानाभावेऽपि भगवन्नामाक्षरप्रभावात् दुष्कर्मक्षये पापं भश्यतीति एवमेकपक्षभूतेऽपि ज्ञानेऽभीष्टसिद्धिः । ८९ आस्तामेक पक्षजमपि ज्ञानमुभयपक्षविकलेऽपि ज्ञाने संयोगमात्रादपीष्टसिद्धिर्यथा हुमायपक्षिणो यस्य शिरसि छाया निपतति स पातसाहिर्भवति तत्र हुमायोऽपि न वेत्ति यदस्य शीर्षेऽहं छायां करोमि यस्य शीर्षे छाया भवेत्सोऽपि न वेत्ति मम शीर्षे हुमायः छायां करोत्येवं Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९ ) प्रसिद्धिमान्संततजीवरक्षी । उड्डीयमानस्य यदस्य छाया यन्मुर्द्धगा सोऽत्र भवेन्नरेन्द्रः ॥ २५ ॥ नायं खगो वेत्ति यदस्य शीर्षे छायां करोमीति तथेतरोऽपि । जानाति नैवं मम मस्तकेऽसौ छायां करोतीति मैं द्वयोर्न || २६ || तथापि तच्छायमहात्मतोदयादशतोदेति दरिद्रतापहा । अजानतोरप्यथ सिद्धिरेव कथं स्मृतेर्याति न पापमीशितुः ॥ २७ ॥ अस्मिन्गते सर्वत आत्मशुद्धिः सत्याममुष्यों परमात्मबोधः । जानो कश्चन कर्मबन्धः कर्मप्रणाशे किल मोक्षलक्ष्मीः ॥ २८ ॥ St द्वयोरप्यज्ञानेऽपि अन्यस्य नरेन्द्रत्वं सिध्यत्येवं सेवकोऽपि सम्यग् - भगवत्स्वरूपं न जानाति भगवानपि नीरागत्वात्सेवकस्याभीष्टकृतौ नोयच्छत तथापि सेवकस्य स्वामिस्मरणदर्शनादिसंयोगमहात्म्यादेवाभीष्टसिद्धिः स्यादिति काव्यत्रयेणाह तथास्थिभक्षीत्यादि । ९० ज्ञानं । ९१ पापे । ९२ आत्मशुद्धौ । ९३ परमात्मवोधे । १७ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) अस्या हि सत्यां स्थितिरक्षया स्याद् अनन्तविज्ञानमनन्तदृष्टिः। एकस्वभावत्वमनन्तवीर्य जागर्ति सज्ज्योतिरनन्तसौख्यम् ॥ २९ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे मुरचन्द्रमनःस्थिरीकारे नास्तिकस्य द्रव्यभावधर्मफलसम्प्रापणोक्तिलेश एकोनविंशोऽधिकारः। ९४ मोक्षलक्ष्म्यां । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१ ) ॥ अथ विंशोऽधिकारः॥ rew हे स्वामिनो यूयमिति प्रवक्थ यदात्मबोधान्न विनास्ति मुक्तिः । तीतरेऽन्यान्कथमाहुरस्या हेतूंस्तदुक्तिन समा तथाहि ॥१॥ ये वैष्णवाः केचन विष्णुवादिनो। विष्णोः सकाशान्निगदन्ति मुक्तिम् । ये ब्रह्मनिष्ठाः किल ब्रह्मणस्तां शैवाः शिवाच्छक्तिकृतां तु शाक्ताः॥२॥ तेषां न चात्मावगमो निदानं मुक्तस्तथा नास्त्यथ “निर्णयोऽयम् । यदात्मबोधाजनितैव मुक्तिस्ततः किमेवं क्रियते विनिश्चयः ॥ ३ ॥ ९५ वैष्णवादयः । ९६ विष्णुप्रमुखान् हेतून् । ९७ तस्मात्कारणादियं भवतां उक्तिरन्यैन समा वाऽन्येषां मुक्तिन भवद्भिः समा। ९८ ननु यदि वैष्णवादीनां विष्णुमुख्येभ्यो मुक्तिस्तहि अयं यो निश्चयो भवद्भिः प्रोच्यते स निश्चयो न ऐकान्तिकः कोऽयं निर्णयः यद्यस्मात् आत्मवोधादेव मुक्तिर्जायते अयं निश्चयो न युक्तो मुक्तेर्वहुहेतुप्राप्यत्वात् तत्तस्मात्कारणात् एवं पूर्वोक्तो यो विनिश्चयः किमिति कथं क्रियते इति पृच्छन्तमाह, सत्यं यदेते । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ( १३२ ) सत्यं यदेते किल लोकरूढिरूढास्तु विष्ण्वादिकभिन्नवीक्षिणः । परन्तु तत्त्वार्थत एप आत्मैवार्थोऽभिवाच्यो ननु विष्णुमुख्यैः ॥ ४ ॥ कथं हि वेवेष्टवथ विष्णुरात्मा व्याप्तेरथ ब्रह्म तथैष आत्मा । शिवोऽपि चात्मा शिवहेतुतः स्याच्छक्तिस्तथात्मश्रितवीर्यमेतत् ॥ ५ ॥ इत्थं हि सर्वैरपि विष्णुमुख्यैः शब्दैरसावात्मक एव बोध्यः । ततस्त्वतो मुक्तिरियं न कस्मात् प्राप्येति तत्त्वं हृदि तैरपीक्ष्यम् ॥ ६ ॥ चेन्नेति विष्णुप्रमुखेभ्य एभ्यो मुक्तिस्तदा वैष्णवमुख्यलोकाः। सन्तो गृहस्था इह विष्णुमुख्यान ९९ परमार्थतः । ६०० केवलज्ञानजातलोकालोकस्वरूपो ज्ञानात्मना व्यापकत्वेन विष्णुः । परब्रह्मसञ्ज्ञनिजशुद्धात्मभावनात्मकत्वेन ब्रह्मा । शिवं निर्वाणं प्राप्त यनेति शिवः कर्ममुक्तः सिद्धत्वावस्थामधिश्रितः, यदुच्यते योगवासिष्ठादौ, “जीवः शिवः शिवो जीवो, नान्तरं शिवजीवयोः । कमबद्धो भवज्जीवः, कर्ममुक्तः सदा शिवः" इति यद्वा अत्रत्यभावापेक्षया शिवमस्यास्तीति शिवः शिवसत्तावान् इत्यर्थः । २ विचारणीयम् ।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) एवाचयन्तः परितो जपन्तु ॥ ७ ॥ परं तपः संयमयुक्तता क्षमा निःसंगता रागरुषापनोदौ । पञ्चेन्द्रियाणां विषयाद्विरागो ध्यानात्मबोधादि विधीयते कथं ॥ ८ ॥ एषैव सेवा ननु विष्णुब्रह्मादीनां तदेयं कुत आश्रितास्ति । भोस्तेभ्य एवेति तदा न तेषां वागस्ति हस्तोsपि यतो ऽन्यबोधः ॥ ९ ॥ तद्धयायियोगिभ्य इयं प्रवृत्ति - स्तत्तैः कुतोऽसौ निगदोपलब्धा । अध्यात्मयोगादिति चेत्तदानीं तस्य प्रणेताऽभवदत्र को भोः ॥ १० ॥ निरञ्जनैर्निष्क्रियकैर्न चायं वक्तुं हि योग्यः खलु विष्णुमुख्यैः । सोयात्मयोगः कुतराविरासीत् चेदादियोगभ्य इति प्रवादः || ११ || तैरप्यसावात्मभवावबोधादध्यात्मयोगो saगतो न चान्यतः | २ ज्ञानम् । ३ वद । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) अनिन्द्रियान्निष्क्रियकान्निरञ्जनानित्यैकरूपान्न तु विष्णुमुख्यात् ॥ १२ ॥ स्वादात्मनो योsवगमो बभूव भावात्समाख्यागतरागरोषात् । अपूर्वलाभांन्निखिलार्थदृष्टे रध्यात्मयोगः स्वत एव सिद्धः ॥ १३ ॥ एवं हि यश्वात्मभवात्मबोधस्तस्मान्नृणां जायत एव मुक्तिः । अस्या न हेतुस्त्वपरोऽस्ति विष्णुमुख्यस्तदात्माऽवगमस्पृहैष्या ।। १४ ।। ये तु स्वभावान्निगदन्ति मुक्तिं तत्राप्यसावेव निवेदितोऽर्थः । स्वस्यात्मनो भाव इहाप्तिरुक्ता तदात्मलाभान्ननु सिद्धिलक्ष्मीः ॥ १५ ॥ एवं समस्तैरपि मुक्तिमिच्छुभि मुक्तिः समेष्या नियतात्मवोधात् । ४ समभावात् । ५ अमाप्ततादृग्लाभात् । ६ सकलद्रव्यदर्शनात् । ७ मुक्तेः । ८ ज्ञान । ९ भू प्राप्तावित्यस्य भावः प्राप्तिरित्यर्थः स्वस्यामनो भावः प्राप्तिः याथातथ्येनात्मनोऽववोधेनात्मलाभ इत्यर्थः । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) अस्या निमित्तं नहि किञ्चिदस्मादन्यन्यगादि प्रगुणैयेदुच्यते ॥ १६ ॥ यावत्कषायान्विषयानिषेवते संसार एवैष निगद्य आत्मा । एतद्दिमुक्तोऽजनि यावदात्मावबोधयुग्मोक्ष इतीहितोऽयम् ॥ १७ ॥ ज्ञानं तथा दर्शनकं चरित्रमात्मैष वाच्यो न हि किञ्चिदस्मात् । भिन्नं यदेतन्मय एव देहमेष श्रितस्तिष्ठति कर्मनिष्ठः ॥ १८ ॥ आत्मानमात्मैष यदाऽभिवेत्ति मोहक्षयादात्मनि चात्मशक्यौ । तदेव तस्योदितमात्मविनिआनं च दृष्टिश्चरणं तथाप्तः ॥ १९ ॥ आत्मावबोधेन निवार्यमात्माऽज्ञानोद्भवं दुःखमनन्तकालिकम् । अनेककष्टाचरणैरपीदं विनात्मबोधादनिवार्यमस्ति यत् ॥ २० ॥ १० मुक्तेः । ११ वक्तव्यः । १२ कर्म (कपायविपय ?)1१३ आत्मा । १४ युक्तः । १५ स्त्रज्ञानवलेन । १५ आत्मनः । १७ दशनं । १८ अर्हद्भिः परमप्रन्ययवद्वचाविशिष्टः। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) चिद्रूप आत्मायमधिष्ठितस्तनुं कर्माऽनुभावादसकौ शरीरी। ध्यानामिनिर्दग्धसमस्तकर्मा स्याच्छुद्ध आत्मा तु तदा निरञ्जनः ॥ २१ ॥ ईतीयता सिद्धमिदं विदन्तो यदात्मबोधान्न परोऽस्ति सिद्धये । हेतुस्ततोऽत्रैव यतध्वमध्वनि येनात्मनः स्थानमहो महोदये ॥ २२ ॥ मुनीश साधूदित एष मुक्तेमार्गो जिनेन्द्रागमयुक्तिसिद्धः। उत्सर्गनोत्सर्गहठाभिमुक्तः श्रेयःश्रिये केवलराजयोगात् ॥ २३ ॥ परं हि यः सर्वमतानुयायी मार्गोऽस्ति मुक्तेदतमात्मदृष्ट्यै । अध्यात्मविद्याधिगमैकहेतुः स मे निवेद्यः सरलः श्रम विना ॥ २४ ॥ अहो त्वदीया खल्लु सूक्ष्मदृष्टि१९ प्रभावात् । २० प्रवन्धेन । २१ भो जानन्तः भो पण्डिता इत्यर्थः । २२ मोक्षे । २३ उत्सर्गापवादलक्षणैकान्तकर्त्तव्यतारूपहठ रहितः स्याद्वादाधिश्रित इत्यर्थः । २४ मोक्ष । २५ दर्शन । २६ ज्ञानाय । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) यन्मक्षु मुक्त्यर्थमयं विचारः । चित्ते समुत्पन्न इयानिदानी मन्ये तदा तेऽत्र मनोस्ति मुक्त्यै ॥ २५ ॥ आकर्णय त्वं मयका निगद्यमानं मुनेमुक्तिपथं समर्थम् । सिद्धान्तवेदान्तरहस्यभूतं गुरूपदेशादाधिगम्य किञ्चित् ॥ २६ ॥ मुक्ति समिच्छुमनुजः पुरस्तात् करोतु चित्ते स विचारमेतत् । आत्माह्ययं योगिभिरेष शुद्धो बुद्धश्च मुक्तश्च निरञ्जनश्च ॥ २७ ॥ इत्युच्यते तर्हि तु केन बद्धो मुक्तस्त्वयं बद्धयत एप कस्मात् । ज्ञातं भ्रमेणेति यमूचुरायाः कर्मेति “मोहेति भ्रमेत्यविद्या ॥ २८ ॥ कर्तेति मायेति गुणेति दैवं २७ ज्ञात्वा । २८ मोहेत्यादावितिनैव विभक्त्यर्थस्योक्तत्वान्न विभक्तिर्यथा "श्रीरामेति जनार्दनेति जगतां नाथोंते नारायणेत्यानन्देति दयावरेति कमलाकान्तति कृष्णेति वा । श्रीमन्नाममहामताधिलहरीकल्लोलमग्नं मुहुमुह्यन्तं गल दश्रुनेत्रमवशं मां नाथ नित्यं कुरु १" इति श्रीभगवतः कवेरुक्तिः पद्यावल्यां तथात्रापि । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) मिथ्येति चाज्ञानमितीतिशब्दैः । सद्योगिनोऽन्निगदन्ति तज्ज्ञा भ्रमं नैव निबद्ध आत्मा ।। २९ ।। ॥ विशेषकम् ॥ *मोऽत्र मिथ्यानिजकल्पनोत्थितो २९ शब्दान् । ३० भ्रमोत्रेति मिथ्या असत्या या निजकल्पना स्वमानसिकविकारस्तत उत्थित उत्पन्नो य एवंविधो यो भ्रमो मिथ्याज्ञानमनात्मीयवस्तुन्यात्मीयवस्त्ववगमः स्त्रीपुत्रमित्रमातापितृद्रव्यशरीरादिसहवर्त्तिवस्तुषु अननुगामित्वेनास्वीयत्वान्ममेदमिति मिथ्याज्ञानं भ्रमः तेन संसारे शरीरे च मनोरमवस्तुषु रक्तमनोनिवर्त्तनं संसारे शरीरे च वर्त्तमाने दुर्वस्तुनि दुष्टमनोनिवृत्तिरिति वीतरागत्वेन रक्तद्विष्टमनस्त्वनापादनं सम्यग्ज्ञानं तद्विपरीतं ज्ञानं मिथ्याज्ञानं स एव भ्रमः अतस्मिंस्तद्रहो भ्रमः यथा शुक्रग्रहणार्थं वृक्षोपरि चक्रं स्थापयन्ति तच्चक्रकर्णिकायां च कारवेल्लकं स्थापयन्ति तत्र च ममेदं भक्ष्यमिति मिथ्याज्ञानेन भ्रमेण शुक्र आगत्य तिष्ठति तस्य स्थानतस्तच्चक्रं स्वयमेव च भ्रमति तद्भ्रमणात्तत्रस्थः शुकः केनाप्यगृहीतोऽपि भ्रभान्मन्यते यदहं केनापि गृहीतो वा पाशे निपातितः ततश्चक्रेण सह स्वयमपि भ्राम्यन्तच्चक्रं स्वष्टमिवागृह्य स्वमवद्धमपिवद्धं मन्यमानः चूचूत्कारान करोति तद्वेलायामशङ्कितो यदि उड्डीय याति तदा मुक्तः स्यात् अन्यथा भ्रमेणावपि तद्वाहकेण गृहीत्वा बध्यते इत्येवं नलिनीशुको यथा भ्रमेणैवं बध्यते पुनर्मर्कटकोऽप्यात्मानं भ्रमेणैव वन्धयति । यथा मर्कटग्राहकाः चणकभृतपात्रं स्थापयन्ति तत्राहारार्थी मर्कटो करं क्षिप्वा चणकमुष्टिं बद्धा तादृशमेवकरं कर्षति तदा तु समुष्टिः करो न निर्गच्छति नंदाऽयं जानाति अहमन्तरा केनचिद् वद्धः तदाऽवद्धपि स्ववद्ध Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३९ ) येनैव बद्धो नलिनीशुको यथा। बद्धः पुनर्मर्कटकोऽपि तहत् तथैष आत्मा भ्रमतो निबद्धः ॥ ३० ॥ भ्रमे तु मुक्ते मनसः सकाशादात्मैष मुक्तो भवतीति सिद्धम् । अस्मिंस्तु मुक्ते हि भवेदभेदस्तदात्मनः श्रीपरमात्मनश्च ॥ ३१ ॥ यदानयोर्वीक्षत एकभावं मिति मन्यमानः चीचीत्कारान्कुर्वन् तद्वन्धकेन स वध्यते यदि तदा स्वबद्धां मुष्टिं छोटयित्वा याति तदाऽवद्धो भवति परमयमपि स्वकीयमिथ्याभ्रमात् स्वं बन्धयति । एवमयमात्मापि अस्वीये वस्तुनि ममेदमिति स्वबुद्धिं कुर्वाणः कर्मभिर्वध्यते यदा तु शरीरादिके वस्तनि अनात्मीयतामाचरति अरक्तोऽद्विष्टश्च तिष्ठति तदा संसारस्थोऽपि मुक्तो भवति यदा त्वयमात्मा मुक्तस्तदान्तरात्मनः पारमात्म्यं प्रादुःण्यात यत उच्यते । वहिरात्मान्तरात्मापरात्माभेदादात्मा त्रिविधः तत्र यावता हेयोपादेयविचारवैकल्यात् केवलेन्द्रियविषयासक्तो भवेत्तदा वहिरात्मा हेयोपादेयज्ञानवान् विषयसुखपराङ्मुखो भवान्तर्वर्तिवस्तुरक्तद्विष्टमनोनिवृत्तिमान् विरक्तोऽन्तरात्मा अयमेव यदा सिद्धफेवलात्मज्ञानस्तदापरात्मेत्युच्यते तदात्मपरमात्मनोन भेदवान् भवति यदा तु योगी आत्मानमात्मनात्मनि परमात्मभूतं पश्यति तदा योगी आत्मज्ञानी उच्यते स हि केवलज्ञानीति पर्यायान्तरं लभते ततश्चायं कर्ममुक्तः क्रियामुक्तः भ्रान्तिमुक्तश्च स्यात इति योगिसमाचारः। अथ काव्यद्वयेनोक्तामेवावस्था द्रदयति यदा त्वयमित्यादि । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४०) योगी तदात्मावगमी निगद्यते । स केवलज्ञानमयो मुनीश्वरः कर्मकियाभ्रान्तिविमुक्त उक्तः ॥ ३२ ॥ यदा त्वयं मुक्त इति प्रसिद्धस्तदाहि सर्वत्र ममत्वमुक्तः। घनं हि किं सैप मनःशरीरसुखासुखज्ञानविमर्शशून्यः ॥ ३३ ॥ न पुण्यपापे भवतोऽस्य मुक्तितो मम क्रियेयं मम चैप कालः। सङ्गी ममोऽयं सुकृतं ममेदमित्याद्यमिदान्मनसो विनिर्जयात् ॥ ३४ ॥ स तावतेहास्ति शरीरधारी सूक्ष्मक्रियातोऽपि न निष्क्रियो यत् । यावद्यदा सूक्ष्मक्रियापि नष्टा मुक्तस्तदा सिद्धयति सिद्धताप्तेः ॥ ३५ ॥ विदन् विमर्शः क्रियतामयं क्रियावन्तोऽथवा निष्क्रियकाश्च सिद्धाः चेन्निष्क्रिया ज्ञानजदर्शनोत्थक्रियाऽक्रियेष्वेषु कथे न सिध्येत् ॥ ३६॥ सत्यं मुने ज्ञानजदर्शनोद्भवा ३१ विचार । ३२ सहायः । ३३ प्राप्तेः । ३४ सिद्धेषु । । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) सैषा क्रिया सिद्धिगतेषु नास्ति । कथं यतः सैषु यदा तु लोके कैवल्यलब्धिः समभूत्तदानीम् ॥ ३७ ॥ किये इमे युगपत्समास्तां ये ज्ञेयदृश्ये इह ते अभूतां । ततो नृजात किल सत्क्रियत्वमभूत्तु सिद्धौ खलु निष्क्रियत्वम् ॥ ३८ ॥ एवं तु निष्क्रियता प्रसिद्धा सिद्धेषु सिद्धास्त्यवधारणेन । सर्वस्य चैतस्य मनोनिरोधो हेतुस्ततोऽत्रैव रमध्वमध्वनि ॥ ३९ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सुरचन्द्रमनः स्थिरीकारे आस्तिकनास्तिकानां द्वयेषामपि परम्परया मनोनिर्विषयतापादनेन च मुक्तिमापणकारणोक्तिलेशो विंशोऽधिकारः || ३५ केवलज्ञान । ३६ पुनरत्र नोदको नोदयन्नाह, पूज्याः सिद्धा अपि सक्रिया भवन्ति, कथं, यत उच्यते, सिद्धा जानन्ति पश्यन्ति च तर्हि ज्ञानक्रियां च दर्शनक्रियां च कुर्वन्तीति ज्ञानदर्शन क्रियायाः सद्भावात कथं निष्क्रियत्वमिति निष्क्रियाः सिद्धा इति न घटते । नैवं यदैवात्र मनुष्यभवे सिद्धस्य केवलज्ञानमभूत्तदैव यज्ज्ञातव्यं यच्च द्रष्टव्यमासीत्तदैवाभूत् सिद्धत्वावस्थायां नवं किमपि न जानाति न पव्यति सर्वा - तीतानागतवर्तमानभावानां केवललाभसमये एवं ज्ञानादर्शनाच्चेति सर्वं सम्यक्तया ध्येयम् । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) ॥अथ एकविंशोऽधिकारः॥ reir winne- . अमुं विचारं मुनयः पुरातना ग्रन्थेषु जग्रन्थुरतीव विस्तृतम् । परं न तत्र द्रुतमल्पमेधसा*मैदंयुगीनानां मतिः प्रसारिणी ॥ १ ॥ मया परप्रेरणपारवश्यादजानतापीति विधृत्य धृष्टताम् । प्रश्ना व्यतायन्त कियन्त एते परेण पृष्टाः पठितोत्तरोत्तराः ॥२॥ शैवेन केनापि च जीवकर्मणी आश्रित्य पृच्छाः प्रसभादिमाः कृताः। माभूज्जिनाधीशमतावहेलेत्यवेत्य मक्षुत्तरितं मयैवम् ॥ ३॥ यथा यथा तेन हृदुत्थतर्कमाश्रित्य पृच्छाः सहसा क्रियन्त । तथा तदुक्तं पुरतो निधाय मया व्यतार्युत्तरमाईतेन ॥ ४ ॥ मया विदं केवललौकिकोक्तिप्रसिद्धमाधीयत पृष्ठशासनम् । . * मैदंयुगीना न ? Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) पुराणशास्त्राहितबुद्धयस्तु पुरातनी युक्तिमिहाद्रियन्ताम् ॥ ५॥ परं विचारेत्र न गोचरो मे प्रायेण मुह्यन्ति मनीषिणोऽपि । अमुं विना केवलिनं न वक्तुं व्यक्तोपि शक्तः सकलश्रुतेक्षी ॥६॥ अतस्तु वैयात्यमिदं मदीयमुदीक्ष्य दर्तन हसो विधेयः। बालोऽपि पृष्ठो निगदेप्रमाणं वार्भुजाभ्यां स्वधिया न किं वा ॥ ७ ॥ यवेदमेवात्मधियां समस्तु शास्त्रं यतः शासनमस्त्यथास्मात् । यदुक्तिप्रत्युक्तिनियुक्तियुक्तं तहाभियुक्ताः प्रणयन्ति शास्त्रम् ॥ ८॥ यदास्ति पूर्वेष्वखिलोपि वर्णानुयोग एतन्न्यगदन्विदांवराः । इयं तदा वर्णपरम्परापि तत्रास्ति तच्छास्त्रमिदं भवत्वपि ॥ ९ ॥ आनन्दनायास्तिकनास्तिकानां ममोद्यमोऽयं सफलोऽस्तु सर्वः । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४ ) आयेषु चास्तिक्यगुणप्रसारणादन्त्येषु नास्तिक्यगुणापसारणात् ॥ १० ॥ चिरं विचारं परिचिन्वताऽमु यन्न्यूनमन्यूनमवादि वादतः। कदाग्रहादा भ्रमसम्भ्रमाभ्यां तन्मे मृषा दुष्कृतमस्तु वस्तुतः ॥ ११ ॥ मया जिनाधीशवचस्सु तन्वता श्रद्धानमेवं य उपार्जि सज्जनाः। धर्मस्तदेतेन निरस्तकर्मा निर्मातशमोऽस्तु जनः समस्तः॥ १२ ॥ वरतरखरतरगणधरयुगवरजिनराजसूरिसाम्राज्ये । तत्पट्टाचार्यश्रीजिनसागरसूरिषु महत्सु ॥ १३ ॥ अमरसरसि वरनगरे श्रीशीतलनाथलब्धसान्निध्यात् । ग्रन्थोऽग्रन्थि समर्थः सुविदेऽयं सूरचन्द्रेण ॥ १४ ॥ युग्मम् ॥ ३७ आस्तिकेषु । ३८ नास्तिकेषु । ३९ मिथ्या । ४० तत्त्वतः। ४१ गत । ४२ सिद्ध। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१४५ ) श्रीमत्खरतरवरगणसुरगिरिसुरशाखिसन्निभः समभूत् । जिनभद्रसूरिराजो ऽसमः प्रकाण्डोऽभवत्तत्र ॥ १५ ॥ श्रीमेरुसुन्दरगुरुः पाठकमुख्यस्ततो बभूवाथ । तत्र महीयःशाखाप्रायः श्रीक्षान्तिमन्दिरकः ॥ १६ ॥ तार्किकऋषभा अभवन् हर्षप्रियपाठकाः प्रतिलतामाः। तस्यां समभूवन्निह सुरभिततरुमञ्जरीतुल्याः ॥ १७ ॥ चारित्रोदयवाचकनामानस्तेष्वभुः फलसमानाः। श्रीवीरकलशसगुरुखो गीतार्थाः परमसंविमाः ॥ १८ ॥ ४३ बृहत् । ४४ प्रतिशाखामाः। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) तेभ्यो वयं भवामो बीजाभास्तत्र सूरचन्द्रोऽहं । गणिपद्मवल्लभपडद्वितीको गुरुभ्राता ॥ १९ ॥ अस्मत्त हीरसार प्रमुखा अङ्कुरकरणैयः सन्ति । तेऽपि फलन्तु फलौघैः सुशिष्य रूपैः प्रमापटुभिः ॥ २० ॥ नासुको वाचकसूरचन्द्रनाम्ना रसज्ञाफलमित्यमिच्छता । ग्रन्थोऽभितोऽग्रन्थि मया स्वकीया - न्यदीयचेतः स्थिरतोपसम्पदे ।। २१ ।। एवं यथाशेमुषि जैनतत्त्वसारो मयाऽस्मारि मनः प्रसत्त्यै । उत्सूत्रमासूत्रितमत्र किञ्चिद् यत्तद्दिशोध्यं सुविशुद्धधीभिः ॥ २२ ॥ ४५ समाः । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) वर्षे नन्दतुरङ्गचन्दिरकलामानेऽश्वयुक्पूर्णिमा ज्ञे योगे विजयेऽहमेतममलं पूर्ण व्यधामादरात् ग्रन्थं वाचकसूरचन्द्रविबुधः प्रश्नोत्तरालङ्कृतं साहाय्यादरपद्मवल्लभगणेरर्हत्प्रसादश्रियै ॥ २३ ॥ इति जैनतत्त्वसारे जीवकर्मविचारे सरचन्द्रमनःस्थिरीकारे ग्रन्थग्रथनोत्पन्नपुण्यजनतासमर्पणस्वीयगच्छगच्छनायकसम्प्रदायगुरुनामस्वकीयगुरुभ्रात्रादिनामकीर्तनोक्तिलेश एकविंशोऽधिकारः सम्पूर्णः । ॥ तत्सम्पूर्णे च परिपूर्णोऽयं जैनतत्त्वसारो ग्रन्थः । ४६ (१६७९)। ४७ बुधे । ४८ पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् इति सूरइति सूरनाडी-सूर्यनाडीत्यर्थः चन्द्रइति चन्द्रनाडीत्यर्थः मनइति सुषुम्णानाडीसूचनं यदन्तर्गतं मनः स्थिरीस्यात् । तथा च हठप्रदीपिका। मारुते मध्यसञ्चार मनःस्थैर्य प्रजायते इति । ततो मनःस्थिरीकार इति सुषुम्णोच्यते । आसां नाडीनां स्थिरीकारो यस्मिन्नित्येकस्विरीकारशब्दालापायथेष्टार्थमाप्तिः पक्षे ग्रन्धकर्तृनामसूचनमिति ध्येयम् ।। Page #172 --------------------------------------------------------------------------  Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक. (मूलनु.) पृष्ठ. १ लिटि. ११ war or m ११ ३ २१ अशुद्ध. निदोषम् लाभाप्तया । बंगणा च्छन्नानीव स्वयमा सगुणत्व कर्तृत्व पारमयों प्रैर्य ताशा बुद्धि दुख निर्दोष लामतया वर्गणा छन्नानीव स्वयमूह्यम् । सगुणत्वं कत्वं पारमार्यो प्रेर्य तादृशी बुद्धि १५९ २१ ५ u rwwr १ MMMM दुःख ऋषि सुत ७ ७ १३ १८. २२ कृत्यक् पारवशात् दायति पश्यतोत्र समाधीश्च ऋपि भूत ऋत्यक पारवश्यात् दायतिः पश्यतात्र समाधींश्च कथं १२ १३ ११ ११ कंथ م १४ २२ मल्लो Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ १५ १६ w v o १६ १८ २२ २३ २४ २५ २५ २५ २६ २६ २७ २७ ૨૭ ૨૮ ३१ ३२ ३२ WW ७ ३२ ३३ १५ १९ २१ २१ १० ७ ९ ୬ ६ WO १२ २० १२ ६ १६ ww २० MY १३ १८ १ १४ १९ १८ १४ २२ ७ तं तं वसी कालैश्व न ते तेन त्ययमेव ( २ ) न रूप सुष्टुदुष्टु प्रयोक्त त्मनो तेष पृष्ठे मुत्पन पस्पि न तु भावाना पेती संन्त च सुर हप्त्यां मागि संसार गुणो न मिर्यति याथाथ्यं यति तं तं श्रवसी कालैश्च नसा त न ते त्ययमेव नरूप सुष्ठुदुष्ठु प्रयोक् त्मानो तेषु पृष्टे मुत्पन्न परिप ननु भावना sपैती " सन्तं न सूर हत्या: मगि संसारा गुणेन मियति याथार्थ्य - यनि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृष्टिं ३४ ३५ ३६ २० १४ २१ दद्यमी घदमी ' २१ परह्मनामनि तस्य वितारितः स्थिरेक त्यनेक तदा परब्रह्मनान्न:तस्तस्य . निवारितः स्थिरैक त्येक स्तदा १८ दर्श रुपा रूपा यदी यदि यो सागसा सागस पृष्ठ ४६ ४८ २० .१४ त्वदुक्त यथैवं FFFFFEEEEEEEE Ans : यन्मु सिद्वा स्वदुक्तः यथैव यन्मु सिद्धा लीयते उत्पन्ना ५० १७ ५१... १३ ५७ २० ६२४ णीयते. उतना खण्ड ६५ पण्ड । समीर करम्भ स समीर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सिन्धुरा ये . मनु ७७ ११ १ ४ दूद्वत सिन्धुराये एण्यः नतु तत्रीय वेत्य ततो भोज्य मूख सिद्वैः तृतीय बेत्य हि ततो ७७ ७७ ७२ ७९ २२. वरच सिद्धः नोइ से न पदन तेन पदे म नैषा स्तदथ स्तदर्थ ___ सुष्टु .. परोक्ष येना परोक्ति येऽना सुरचन्द्रमनः धि .. स्वको वोध्यो यस ताः स्वा सरण सूरचन्द्रमनःस्थि सको बोध्यो यस ___.१ १००५ १०० .२० १०१ ..२०. सरणं Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ १०४ १०४ १०४ १०४ १०६ १०७ ११४ ११४ ११८ ११९ ११९ १२० o o १२० 9 0 १२० 9.2 १२३ ११९ १७ VVVM L mr ११ १ -? १३० ६ १३१ ११ の ७ ११ १७ CAR ' २१ मत १२१ १८ था परा मणि मन्त्र च o or १ १२४ १२६ १२९ १२९ १७ १२९ १९ 20 20 only १ ܕ १२ सिद्ध न नुया चेत्तन्नवरं ૯૪ तत्त्वं सालम्बने धार स्पृहा मणि त्वना ( . ५ ) ता मरू काशे देश: तैः यन्मु राप्य महा अस्था तथा सिंध्य ननु या चेत्तन्न वरं तत्त्व सॉलम्बने द्वार Sस्पृहा मणी स्त्वना तां मरुद् कारो देश स्तैः मततया थापरा मणी मत्र च यत् यन्मू रप्य माहा अस्प तदा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ १३२ १७ १४४ १४५ 99 w १७ १३३ १६ १३७ ५ १३७ १३८ १३८ १३८ १४२ १४३ १४३ १३ १९ २४ २० ९ ११ ३ १६ पां जात (.६ . ) कुतरावि मुर्मु मेन्त् स्त्व भ्राम्यन्त संवकरं पृष्ठ पृष्ठो चात्म SH सगु प 1 षामु ज्ञात कुत आवि मुने मु मेवम् स्त्वा भ्राम्यंस्त मेव करं पृष्ट पृष्टो वाल्प ऽमुं सुगु Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्त्वसार. ( अनुवाद.) पहेलो अधिकार, ' सिद्धांत जेनो संशुद्ध (दोषरहित ) छे अने ज्ञानादि अतिशयो वडे जे दीप्त छे एवा सत्य परमेश्वर श्रीवर्धमानस्वामीने प्रणिपात करीने स्व-(आत्म ) ज्ञानार्थे किंचित् विचार दर्शाएँछु. आत्मा केवो छ ? आत्मा नित्य, विभु, चेतनावान् अने अरूपी छे. नित्य, द्रव्य तरीके छे; पण पर्यायनी अपेक्षाए, देव मनुष्य नारक अथवा तिर्यच गतिमां परिणाम ( अवस्था ) बदलाया करेछे माटे, अनित्य पण छे. विभु एटले व्यापक अथवा सर्वत्र व्यापवानी सत्ता सहित छे पण सामान्यतः स्वशरीरमां ज व्यापी रहेछे. चेतना एटले सामान्य विशेष उपयोग, ते आवरणो-( गुणने आच्छादन करनारां कर्मों) ना क्षयादिना प्रमाणमां होयछे. अरूपी एटले रूप अथवा आकारआकृति के मूर्ति रहित छे. कर्मो, केवा छे ? कर्मो जड, रूपी अने पुद्गल छे. जड एटले चेतना रहित छे. रूपी एटले रूप सहित छे पण अतिसूक्ष्मताने लीधे ते चर्मचक्षयी जोइ शकाता नथी. पुद्गल एटले पुरण (पुराववाना अथवा भराववाना) अने गलन ( खरी जवाना ) स्वभाववालां छे, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जीवो अनंत छे. तेमना वे भेद छे. कर्मो रहित ते सिद्ध अने कर्मो सहित ते संसारी. संसारी जीवोनी भिन्न भिन्न जातियो अने *योनियो छे. जे जीवो पृथ्वी, पाणी (अप् ), अग्नि (तेजस्), वायु अने वनस्पति रूपी काया-(शरीर)मां वतछे, ते मात्र स्पर्शन इन्द्रियनो विषय ग्रही शकेछे तेथी ते एकेन्द्रिय जातिना छे. कृमि आदिने स्पर्शननी साथे रसन इन्द्रिय ( जिह्वा ) पण होयछे तेथी ते दीन्द्रिय जातिना छे. जेमने उपली वेनी साथे त्रीजी घ्राण इन्द्रिय (नाक) होयछे ते कीडी प्रमुख त्रीन्द्रिय जातिमां छे. चोथी दर्शन इन्द्रिय ( आंख) जेमने वधारेमां होयछे ते भ्रमरादि चतुरिन्द्रिय छे. जेमने पांचमी श्रवण इन्द्रिय (कान) सहित उपली चार इन्द्रियो होयछे ते देव, मनुष्य, नारक अने पशु पक्षी मत्स्य सर्प नकुल वगेरे तिर्यंच पंचेन्द्रिय जातिना छे. वनस्पति रूपे वर्तता जीवोमां बे प्रकार छे. फल, छाल, काठ, मूल, पत्र अने वीज रूपी जे वनस्पतिना एक एक शरीरमा एक जीव होयछे ते प्रत्येक वनस्पति-छे. जेमनां शिर, सांधा अने गांठो गुप्त होयछे अथवा जेमना- सरखा भाग थइ शकेछे अथवा जे तंतु रहित होयछे अथवा जे छेदाया छतां उगेछे एवी, कांदा, अंकुरा, आदु, हळदर, गाजरां, गळो, कुमारपालुं इत्यादि जे वनस्पतिनी एक एक काया-(शरीर )मां अनंत जीवो होयछे. ते *जे जीवोनां उत्पत्तिस्थान उत्पत्तिसमये समान स्पर्श, रस, गंध ने वर्णवाळां होय तेमनी एक जातिनी योनि कहेली छे अने ए रीते सर्व जीवोनी मळी चोराशी ला जीवयोनि कहेवाय छे.-जैनमत. ____पृथ्वी (मृत्तिका) वगेरेमां चैतन्य होवानुं विज्ञान-(science) नी शोधोथी सिद्ध थयुंछे. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) अनंतकाय अथवा साधारण वनस्पति छे. एमने निगोद एवी पण संज्ञा छे. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय अने निगोद(साधा रण वनस्पतिकाय ) ए दरेकना सूक्ष्म अने वादर ( स्थूल ) एवा बे भेद छे. तेमां जे सूक्ष्म छे ते सर्व लोकाकाशमां व्यापी रहेला छे पण चर्मचक्षुथी जोइ शकाता नथी. बादर पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय अने वायुकायना असंख्य शरीरोनुं अने बादर निगोदना अनंत शरीरोनुं भेगुं पिंडन चर्मचक्षुथी जोइ शकायछे. पण प्रत्येक वनस्पतिना एक, बे आदि संख्यात अथवा असंख्यात शरीरोनुं पिंड नजरे पडी शकेछे. केवलज्ञानी सर्व जीवोने जोइ शकेछे. जीवो करतां कर्मों अनंत गुणां छे. ते सर्व लोकाकाशमां व्यापीने रहेलां छे. वधारे शुं ? जीवना एक एक प्रदेशमां शुभाशुभ कर्मनी अनंती वर्गणाओ ( समूहो) रहेली छे, जे सर्वज्ञथी जोइ शकायछे. जेम खाणमा रत्न सुर्वण इत्यादि मृत्तिकाथी व्याप्त ( आच्छादित ) होयछे तेम संसारी जीवो सर्व लोकाकाशमां निरंतर रहेला कर्मोथी आवृत ( आच्छादित ) होयछे. भिन्न जाति-( स्वभाव अथवा सत्ता) वाळां कर्मोनो अने आत्मानो योग केवी रीते थयो ? * जेवी रीते खाणमां पथ्थर-(मृत्तिका ?) नो अने तेमा रहेला सोनानो तथा अरणिना लाकडानो अने तेमां रहेला अग्निनो योग * निरंजन, निराकार, निर्गुण अने निष्क्रिय जगत्ना कर्ता परमेश्वरमा सगुणात्व अंतीन छे एटलेके कानो अने तेना सस्वादि। गुणोनो संबंध अनादिसिद्ध छे. कर्तृवादी. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादि संसिद्ध छे, दुधनो अने तेमा रहेला घीनो योग समकाले (एकीवखते ) थयेलो होयछे, सूर्यकान्त मणिनो अने तेमां रहेला' अग्निनो तथा चन्द्रकान्त मणिनो अने तेमा रहेला अमृतनो योग साथे उत्पन्न थयेलो होयछे, तेवीन रीते कर्मोनो अने आत्मानो योग केवलज्ञानीओए अनादि संसिद्ध कयोछे.. ____ *जेम तथाप्रकारनी सामग्रीना योगे सोनु पथ्थर-( मृत्तिका ?)' मांथी जूदुं पड़ी शके छे तेम आत्मा पण कर्मोनी साथे तेनो अनादि संबंध छतां कर्मोथी भिन्न ( मुक्त ) थइ शके छे. . *जेम पहेलु सोनुं अने पछी पथ्थर अथवा पहेलो पथ्थर - भने पछी सोनु इत्यादि भकारनो भेद कदी कही शकातो नथी सेम . जीव पहेलो अने पछी कर्म अथवा पहेलां कर्म अने पछी जीव एवो भेद घटी शकतो नथी. वनेनो समसमये-ज थयेलो अनादि संसिद्ध संबंध छे.-पर्यायकार, . . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( पृष्ठ ४ पर्यायकारना कथन उपर टिप्पणी.) जीवनी साथे कर्मनो प्रवाहथी अनादि संबंध छे. तेम जो मान__ वामां न आवे तो मोटां दूषणो आवेछे, ते आ प्रमाणे: १. जो जीव पहेलो अने कर्मनी उत्पत्ति जीवमा पछी थइ एम मानवामां आवे तो कर्मरहित आत्मा निर्मल सिद्ध थाय, निर्मल आत्मा संसारमा ( शरीरधारी) उत्सन्न थइ शके नहि, नहि करेला कर्मना फळने भोगववानुं होय नहि, विना करे कर्म, फळ भोगववामा आवे तो सिद्धने पण कर्मठे फळ भोगवg पडे अने कृत-(करेला) नो नाश तथा अकृत-(नहि करेला ) नुं आगमन इत्यादि दूपण लागे. २. जो कर्म पहेलो उत्पन्न थयां अने जीव पछी थयो एम माने तो ते घटतुं नथी. केमके जेम माटीमाथी घडो थायछे तेम जेमांथी जीव उत्पन्न थइ शके एवा उपादान कारण विना जीव उत्पन्न थइ शके नहि, जीवे जे कर्म कर्यां न होय तेनुं फल तेने होय नहि, जीव (कर्ता ) विना कर्म उत्पन्न थइ शके नहि, इत्यादि. ३. जो जीव अने कर्म एकज वखते उत्पन्न थयां एम माने तो ते पण असत् छे. केमके जे वस्तु साथे उत्पन्न थाय तेमां का अने कर्म एवो भेद होय नहि, जीवे जे कर्म कर्यु न होय तेनुं फल जीवने होय नहि, जेमांथी जीव अने कर्म उत्पन्न थइ शके एवां उपादान कारण विना जीव अने कर्म पोतानी मेळेज उत्पन्न धइ शके नहि, इत्यादि. ४. जो जीव सच्चिदानंदरूप एकलो छे अने कर्म छ ज नहि एवो पक्ष स्वीकारे तो तेथी जगत्नी विचित्रता सिद्ध थाय नहि. । ५. जो जीव अने कर्म कंइ ज छे नहि एवं मानवू थाय तो ते पण मिथ्या छे. केमके जो जीवज नथी तो ए ज्ञान कोने थयं के कंइज छे नहि. ___ एटलावास्ते जीव अने कर्ननो संयोगसंबंध प्रवाहधी अनादि छे एज मानवू युक्तिधी सिद्ध छे.-अज्ञानतिमिरभास्कर, Page #184 --------------------------------------------------------------------------  Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) बीजो अधिकार. . . . wheeroen . . . . . ___ . जीव अने कर्म अनादि छे. जीव अने कर्मनो संयोग अनादिसिद्ध छे. जीव केटलांक जुनां कर्मोने खपावेछे अने यथायोग प्राप्त-थयेला.. अथवा जेवां प्राप्त थयां तेवां पुरःस्थित, शुभाशुभ नवां कर्मोने; ग्रहण करेछे. कर्मो जडछे तेथी ते पोतानी मळे आश्रय लेवाने समर्थ- नथी. आत्मा बुद्ध (चेतनायुक्त ) छे तेथी ते मुखने इच्छतो शुभ कर्मोने , जाणता छतां ग्रहण करे पण दुःखनो द्वेषी छतां अशुभ कर्मोने जाणतार छतां पोतानी मेळे ज- केम ग्रहण करे ? कयो विद्वान् स्वतन्त्र छतां अशुभ वस्तुने जाणीने ले. ? (जे काळे जे थवानुं होय ते ) काळ, (जीवनो कर्म ग्रहण करवानो) स्वभाव, नियति ( भवितव्यता अथवा जे भाविभाव होय ते अवश्य थायछे ), पूर्वकृत ( जीवे पूर्वे करेलां कर्म ) अने' पुरुषकार ( जीवनो उद्यम ) ए सुखदुःखना पांच हेतु-(पंच समवाय ) नी प्रेरणाथी जीव जाणता छतां जेम शुभ कर्मोने ग्रहण करेछे तेम अशुभ कर्मोने पण ग्रहण करेछे. दाखला तरीके, कोइ धनवान् स्वतन्त्र अने मोदकादि स्वादिष्ट वस्तु तथा खलने जाणता छतां भाविभावथी प्रेराइने खल खायछे. कोइ मुसाफर इष्ट स्थानके जवानो वीजा मार्ग नहि होय तो त्यां जलदी पहोंचवानी इच्छायी शुभाशुभ स्थानको उल्लंघन करेछे. चोर, परस्त्रीगामी, व्यापारी, मतधारी अने ब्राह्मणों तेवा प्रकारना भाविभावने लीधे जाणता छतां शुभाशुभ कृत्यो करेछे. भिक्षुक, बंदीजन ( भाटचारण) अने ऋषि ( तत्त्वज्ञानी योगी) भिनाने स्निग्ध (घृतादि स्नेहयी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) युक्त ) अथवा रूक्ष ( लुखी) जाणीने जेवी मळी तेवी खायछे. युद्धमां गयेलो शूरो घेराइ जतां शत्रुने अने अशत्रुने जाणता छतां हणे छे. रोगी, निज रोगनी शान्तिने इच्छता छतां अने अपथ्यथी भविष्यमा पोताने थनारुं कष्ट पोते जाणता छतां रोगधी परवश थइँने ( कंटाळीने ), अपथ्यनुं सेवन करेछे. तेवीज रीते जीव पण जाणवा छतां शुभाशुभ कर्मोने अवश्य ग्रहण करेछे. V जीवनो ज्ञान विना पण कर्मो ग्रहण करवानो स्वभाव छे. दाखला तरीके, लोहचुंबक संयोजकोथी नजीकमां मुकायेला सार अथवा असार - लोहने वचमां कं व्यवधान ( आंतरों ) न होयतो ग्रहण करेंछे, तेवीज रीते जीव पण काळादिथी मेराइने समीपमा रहेला शुभाशुभ कर्मोने वगर विचारे ( अजाणपणे ) ग्रहण करेछे. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) त्रौंजो अधिकार जीव पोते अरूपी छतां ते इन्द्रियों अने हस्तादिनी मदद विना कर्मोने सेनावडे ग्रहण करेंछे ? कोइनें कंइ वस्तु ग्रहण करवी होयछे त्यारे ते प्रथम ते वस्तु निरीक्षण करीने पछीथी हस्तादिवडे तेने लेछ: आत्मा पोते तेवो नथी तेम छतां ते कर्मोंने ग्रहण करेंगे एँ कथन के घंटे? ___ *-आत्मा पोतानी-शक्तिथी अने स्वभावादिथी इन्द्रियादिनी मदद विना पण भविष्यत् कालमां भोगववा' योग्य कर्मोने ग्रहण करेछेजुवो.. - औषधीथी. सिद्ध करेला. पारानी गुटिका हस्तेन्द्रियादि रहित छतां दुध विगेरेनुं पान करावेछे, ' सीसाने तथा-- पाणीने शोषी. लेछ,. शब्दवेध करवानुं वल आपेछे तथा शुक्रनी वृद्धि करेछे. जो पारो चक्षुरादि. इन्द्रियो रहित छतां: आटलं करी शके तो आत्मा जेनी शक्ति अचिन्त्य छे ते शुं शुं न करे ? वनस्पतियो पण हस्तादि विना आहार. ग्रहण करेछे, नाळियर प्रमुखना मूळमां पाणी सिंचवाथी तेना फळमां ते पाणी- पहोंच्यानु प्रत्यक्षतः देखीयछे: एटलुज नहि पण प्रायः सर्व वस्तु पोतानी मेळे पाणीनुं ग्रहण करीने आई थायछे. जो ___* जगत्कर्ता ईश्वर निरिन्द्रिय निराकार छतां पोतानी अनंतशक्तिथी भक्तोने जुवेछे, जपादि सांभळेछे, पूजादिनो स्वीकार करेछे. अने' हस्त विना पापर्नु हरण करी उद्धार करेछे.--कर्तृवादी. '- अतिशय शंगारवाळी स्त्रीना अवलोकनथी पारो कुवामांथी उछामेमारी उचो आवेछे.-लोकोक्ति. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) एम कहवामां आवे के एतो पाणीनी शक्ति छे जे वीजी वस्तुओमां भेदन करीने दाखल थायछे, तो तेमां व्यभिचार (वाध ) आवेछे. मुद्गशिला (मगरियो पाषाण) अने कोरडु कण (गांगड दाणा) फदी पण पाणीथी भेदाता नथी. एतो जेने जे वस्तु , ग्रहण करवा योग्य होय ते ते ज वस्तुने ग्रहण करे. लोहचुम्बकनो, स्वभाव छे के ते लोह सिवायनी धातुओने पड़ी मूकीने लोहर्नु ज ग्रहण करे. तेवीज रीते जीव पण जेवू जेवु भविष्यत् कालमां बनवान होय तेवी प्रेरणाने वश थइने कर्मपुद्गलनुं ग्रहण करेछे. जेम कोइ सूतेलो माणस जे वखते स्वप्न जोइने मनथीज अनेक प्रकारनी क्रियाओ करेछे ते वखते तेनी पांच ज्ञानेन्द्रियो ( स्पर्शनादिः) अने पांच कर्मेन्द्रियो ( करपादादि ) एमर्नु वळ प्रवर्तनुं नथी, तेम आत्मा पण इन्द्रियादिनी मदद विना कर्मोनुं ग्रहण करेछे. शुं त्यारे ए स्वप्नभ्रम छे ? ना, एबु मानवानुं नथी. केमके स्वप्ननुं पण वखते बहु मोटुं फळ होयछे. स्वप्न जोनारने जेम स्वप्न स्मरेछे तेम जीवने कमग्रहण कर्यानुं स्मरतुं नथी एम पण कहेवू योग्य नथी. कारण के जेम जोयेलं स्वप्न प्रायः याद आवतुं नथी तेम ग्रहण करेलं कर्म पण'प्रायः याद आवतुं नथी; पण जेम कोइने जेवू स्वप्न जोडे होय तेवू ज सांभरेछे तेम करेलां कर्म पण कोइने ज्ञानविशेषथी सांभरेछे. जेम कोइ उत्तम पुरुषने स्वप्न यथार्थ फळ आपछे. तेम कर्म पण जीवने सफल थायछे. जेम कोइने स्वप्न व्यर्थ (निप्फल) थायछे तेम केवलज्ञानाने कर्म पण तत्क्षण नाश पामवाथी फलरहित थायछे. हवे उत्पत्तिकाळयी मांडीने अवसान ( अंत) सुधी, आत्मा शुं शुं करेछे ते पण स्वस्थ चित्ते अभ्यन्तरमा विचारी जुवो. गर्भनी अंदर शुक्र अने रज मध्ये रही यथोचित आहार करी इन्द्रिय वळ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) विना पोतानी मेळे उतावळे सर्व प्रकारे सर्व धातुओने निपजावेछे. गर्भथी बहार निकळ्या ( जन्म लीधा) पछी पण जेवो मळ्यो तेवो आहार शरीरनी अंदर ग्रहण करीने तेना विपाकथी थता परिणामवडे पोतानी मेळे धात्वादिना संपादन पूर्वक पुष्टि करेछे. तेमज रोममार्ग आहार लेइ खलने पड्यो मूकी रसोनो आश्रय लेछे अने तेना मळनो वारंवार बळथी त्याग करेछे. सत्व रज अने तम ए त्रण गुणोने धारण करतो सद्ज्ञान, विज्ञान, क्रोध, मान, माया, लोभ, काम, हिताहित आचारविचार, विद्या, रोग तेमज समाधिने धारण करेछे. ए रीते आत्मा शरीरनी अंदर शी रीते क्रिया करेछे ? | देहनी अंदर तेने हस्तादि तथा इन्द्रियादि होयछे के जेवडे आहारादि प्राप्त करी तथापकारनुं पृथक्करण करछे अने मुदत पूरी थये जेम घरनो स्वामी ! जायछे तेम नीकळी जायछे ? ज्यारे एवो पुद्गलथी भिन्न अमूर्त आत्मा शरीरनी अंदर स्थिति करीने अने शरीरमां व्यापीने क्रियाओ करेछे अने सूक्ष्म तेमज स्थूल रूपी द्रव्योने ग्रहण करेछे त्यारे ते सूक्ष्मतम कर्मोने केम ग्रहण न करे ?* वळी आ जीव रूप तथा हस्तादि रहित छतां आवा रूपी शरीरने आहारपानादिक इन्द्रियोना विषयोमां तथा शुभाशुभ आरंभवाळां कामोमां केवी रीते प्रवर्त्तावेछे तेनो. पण विचार करो. जो जीवना उद्यम विना इन्द्रियो अने हस्तप्रमुख अंगोथीज सर्व क्रियाओ थती होय तो जीवरहित मडदां करेन्द्रियादिथी क्रियाओ केम करतां नथी ? आथी सिद्ध थायछे के शुभाशुभ कर्म आत्माज करेछे, एकलां अंगो करतां नथी. त्यारे अरूपी आत्मा सूक्ष्म एवा रूपी कर्मोने केम ग्रहण न करे ? जेवी रीते ध्यानी पुरुष वाह्यगत ___* जीव तैजस कार्मण शरीरवडे आ वधुं करेछे.-जैन सिद्धान्त. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) इन्द्रियोनी मदद विना इच्छित कार्यों करेछे - जिह्वानी मदद विना जाप जपेछे, कर्णनी मदद विना सांभळेछे अने जल पुष्प फल तथा दीप ए द्रव्यो विना सद्भाव पूजाने सफल करेछे तेवी रीते आ जीव पण इन्द्रियो तथा हस्तादि विना ए कालस्वभावादि पंच समवायथी प्रेराइने कर्मोने ग्रहण करेछे.* जो जीवना एक एक प्रदेशमां अनंत कर्मों लागेलां छे तो ते पिण्डीभूत थने दृष्टी देखातां केम नथी ? सूक्ष्मतम कर्मो आपण जेवा चर्मचक्षुवाळाथी जोइ शकातां नथी पण ज्ञानीओ मात्र पोतानी दिव्य ज्ञानदृष्टिना उदयथी तेमने जोइ शकेछे. आना उपर दृष्टांत सांभळो. जेम कोइ पात्र अथवा वस्त्रादिमां लागेलां सुगंधी अथवा दुर्गंधी वस्तुनी गंधनां पुद्गलो नाकथी जाणी शकायछे पण पिण्डीभूत थया छतां नयनादिथी देखी शकात नथी तेम जीवने लागेलां कर्म पण आपणाथी देखातां नथी. मात्र केवलज्ञानी स्वज्ञानना प्रभावे तेमने जोइ जाणी शकेछे. जेम सिद्ध करेला पांराए पान करेलुं सुवर्णादि दृष्टिथी देखातुं नथी पण ज्यारे कोइ सिद्ध योगी पुरुष तेने पारामांथी बहार काढेछे त्यारे तेनी सत्ता ( अस्तित्व ) निश्चिंत थाय छे तेम जीवने लागेलां कर्मोने पण मात्र ज्ञानी जोइ जाणी शकेछे, वीजो कोइ नहि. * ब्रह्मनुं ध्यान धरनारने इन्द्रियादिनी मदद विना ब्रह्मत्वनी प्राप्ति थाय छे. - ब्रह्मवादी. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) चोथो अधिकार. जीव अमूर्त अने कर्मो मूर्त छे. ए बेनो संयोग न्यायथी केवी रीते घटे ? भिन्न वस्तुओ आधाराधेय भावने केवी रीते धारण करे? * जीवनी शक्ति अने कर्मना स्वभावने लीधे एमनो संयोग घटी शकछे. गुणनो आश्रय द्रव्य छे अने संसारी जीव-द्रव्यनो गुण कर्म छे एटले गुण (कर्म) गुणि-(जीव)नो आश्रय ले ए न्याय छे. अमूर्त आकाशने विचक्षणो मूर्त तथा अमूर्त, गुरु तथा लघु, सर्व पदार्थोनो अविनाशी महान आधार मानेछे. विचार करो के आ अरूपी आत्मा रूपी द्रव्योने निरंतर केवी रीते धारण करेछे ? मिथ्यात्वदृष्टि, भ्रम, कर्ममत्सर, कषाय, काम, कला, गुण, क्रिया अने विषयो एमांनुं शुं शुं शरीरमा रहेलो आत्मा धारण नथी करतो? जो एम कहवामां आवे के ए गुणो तो शरीराथि छे तो विचारवान के शरीर जीवरहित थायछे त्यारे ते देखाता केम नथी ? अर्थात् ते गुणो शरीर आश्रि नथी पण जीव आश्रि छे. वधारे दूर शा माटे ? आ दृश्यमान शरीरने अदृश्य आत्मा केवी रीते धारण करी रह्योछे एनो ज विचार करो एटले अरूपी आत्मा अने रूपी कर्मों एमनो संगम कौतक उत्पन्न नहि करे. जेम कपूर, हिंग वगेरे सारी नरती वस्तुनी गंध स्थिति प्रमाणे आकाशने आश्रि रहेछे तेम कर्मो जीवने आश्रि रहेछे. इत्यादि प्रत्यक्ष दाखलाओथी निश्चित थायछे के कर्मों आ. स्मानो आश्रय लेछे, जे भवी ( संसारी) कहेवायछे. ए रीते आस्मानो अने कर्मनो आश्रयाश्रेय भाव पण सिद्ध थयो. - * कल्पान्त काळे सर्व विश्व निराकार ईश्वरमां लीन थशे त्यारे भूतगण अने गुणोनी स्थिति पण तेमां थशे. कर्तृवादी, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . 1 (१२) पांचमो अधिकार. - परमेष्ठि संज्ञावाला सिद्धात्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख अने अनंत वीर्यथी दीप्त छे. ते सिद्ध जीवो कर्मोने केम ग्रहण करता नथी ? जो एमने सुख छे तो शुभ कर्मोनुं ग्रहण करतां कोण निषेधेछे ? सिद्धात्माने कर्मग्रहणनो अयोग छे. कारण के कर्मोनू ग्रहण सूक्ष्म तैजस कार्मण शरीरवडे थायछे, जेनो सिद्धात्माने अभाव छे. सिद्धात्माने ज्योतिष् , चिद् अने आनंदना भर-( समूह ) थी सदा तृप्ति होयछे. सुखदुःखनी प्राप्तिना कारणभूत कालस्वभावादि प्रयोजकोनो सिद्धात्माने अभाव छे. सिद्धात्मा निरंतर निष्क्रिय छे. अथवा, सिद्धात्मानुं सुख वेदनीय कर्मना क्षयथी उत्पन्न थयेलं अनंत छे अने कर्मो सान्त छे तेथी पण-अर्थात् अतुल्य मानने लीधे को सिद्धना सुखना हेतु थइ शके नहि. तात्पर्यके, सिद्धात्मा कमोनुं ग्रहण करता नथी. जेम लोकमां क्षुधा अने तृषाथी मुक्त मुतप्त जीवने तृप्तिनी काळमर्यादा होती नथी, जितेन्द्रिय तुष्ट योगीने कंड पण ग्रहण करवानी वांछा होती नथी अथवा जेम पूर्ण पात्रमा कंइ पण मातुं नथी तेम सदा चिदानंदामृतथी परिपूर्ण सिद्धात्मा किंचित् कर्मग्रहण करता नथी. जेम मनुष्यने अद्भुत नृत्यदर्शनथी मुख थायछे तेम सिद्धोने विश्वना वर्तावरूप नाटकना प्रेक्षणथी नित्य मुख वर्तेछे. सिद्धोने कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय के शरीर केइ नथी तो तेत्रो अनंत मुख केवी रीते प्राप्त करेछे ? Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) ___ लोकमां कोई ज्वरादिथी पीडित होय ते कदाचित् उंघतो होय त्यारे तेनां सगांवहालां ते सुखमां छे, जगाडशो नहि, ए प्रकारे बोलेछे. निद्रावस्थामां इन्द्रियजन्य सुख के करपादादिनी क्रिया कंइ देखातुं नथी तोपण सूतेला माणसने सुख होवानुं कहेवामां आवेछे तेम जाग्रत् ( ज्ञानादि उपयोगवाळा ) सिद्धोमां सदा सुख होयछे. अथवा, जे योगी आत्मज्ञानामृतनुं पान करतो पोताने सुखी मानेछे तेवा कोई संतुष्टिथी पुष्ट अने जितेन्द्रिय मुनिने बीजो माणस पूछे के, ' आपने केम छे ? ' त्यारे ते 'सुखी' एवो जवाब आपेछे. ते क्षणे तेने कोइ उत्तम वस्तुनो स्पर्श, भोजननो योग, गंधग्रह, दर्शन के श्रवण तेमज पाणिपादादिनी क्रिया कंड होतुं नथी तोपण ते संतोषी महात्मा 'हुँ सुखी छु' एम वारंवार कहेछे. तेनुं ज्ञानसुख तेज जाणेछे. ज्ञानहीन तेनुं कथन करवाने समर्थ नथी. एज प्रमाणे सिद्धोमां इन्द्रियोना विषयो अने क्रियाओ विना अनंत सुख छे. तेमना सुखभरने तेओज जाणेछे. ज्ञानी ते कडेवाने समर्थ नथी केमके ते निरुपम छे. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) छट्ठो अधिकार. जीवनो कर्म ग्रहण करवानो स्वभाव छे ते मूलना स्वभावने छोडीने सिद्ध केवी रीते थाय ? जीवनो अने कर्मनो जो के मूळनो (अनादि) संबंध छे तोपण तथाप्रकारनी सामग्री मळवाथी कर्म ग्रहण करवातुं छोडीने जीव शिव पामी सिद्ध थायछे. आ संबंधमां दृष्टांतो सांभळो. पारानो मूल स्वभाव चंचल अने अग्निमां अस्थिर रहेवानो ( उडी जवानो) छे पण तथाप्रकारनी भावना देवाथी पारो वह्निमां स्थिर रहेछे. अग्निमां दाहकतानो मूल स्वभाव छ पण तथाप्रकारना प्रयोगथीमंत्रयोग अथवा औषधीवडे बांधवाथी अग्निमां *प्रवेश, करनारने अग्निदहन करतो नथी, अग्निनुं भक्षण करनार +चकोरपक्षीने अमि पोतानो स्वभाव बदली जवाथी दहन करतो नथी तेमज अभ्रक, सुवर्ण, रत्नकम्बल अने सिद्ध पाराने अग्नि दहन करतो नथी. एवे वखते अग्निमांनी मूलनी दाहकता क्यां जायछे ? लोहचुम्बक पाषाणमां लोह ग्रहण करवानो सहज स्वभाव छ पण ज्यारे अग्निथी ते मृत ( भस्मीभूत ) थायछे अथवा तेना दर्प(प्रभाव) ने हरण करनारी बीजी औषधीथी तेने संयुक्त करवामा आवेछे त्यारे तेनो लोह ग्रहण करवानो स्वभाव नष्ट थायछे. तेज प्रमाणे सिदोमा कर्मयोग जतो रहेछे. धान्य प्रमुखनु वीज ज्यांसुधी तेना मूल स्वभावमा विकार थयो होतो नथी त्यांसुधी धान्यांकुरनी उत्पति करेछे पण ज्यारे ते वीज वळी जायछे त्यारे अंकुरोत्पत्ति *सन्तपुरुपोने अने सतीओने अग्निदहन करतोनथी.-लोकोक्ति. + चकोरपक्षी चन्द्रज्योत्स्नातुं पान करेछे.-विद्धशालभञ्जिका, Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) थती नथी. तेवीज रीते सिद्ध जीवोमां कर्मवीज बळी जवाथी नवीन कर्मबंध थतो नथी. वायुनो सहज स्वभाव चंचल वर्तेछे पण ज्यारे पवनने पखालमा निरुद्ध करवामां आवेछे त्यारे ते चल स्वभाव केवी रीते जतो रहेछे ? तेज रीते सिद्धात्माने विष कर्म ग्रहण करवानो स्वभाव जतो रहेछे. आ अने एवां वीजा दृष्टांतोमा जेम मूळनो स्वभाव बदलाइ जायछे तेम जीवनो कर्म ग्रहण करवानो सहज स्वभाव पण सिद्धत्व पामतां जतो रहे तेमांशुं विचित्र छे ?x ____x शुकादि मुनियो आहार, भय, मैथुन अने परिग्रह ए चार मूलनी संज्ञाओनो त्याग करीने परब्रह्मरूप सिद्ध थया छे-शैवमत. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६,), सातमो अधिकार, मुक्तिमार्ग ( कळशना नाळचानी पेठे ? ) सदाकाळ वहेतो रहेशे अने संसार पण भव्यशून्य थशे नहि-आ वाक्य परस्पर विरुद्ध वचनविलासने लीधे संगतियुक्त लागतुं नथी तेनु केम ? . ... भगवान्नु ए वचन असत्य नथी पण अल्प. बुद्धिवाळा जीवोना चित्तमां ते वेसे नहि ए स्वाभाविक छे. ए उपर एक लौकिक दृष्टान्त छे, जे सांभळतांज श्रोताजनोनुं मन स्थिर थाय तेमछे. नदीओना इदमांथी नदीप्रवाह नीकळीने सदाकाळ समुद्रमणी वहेछे तोपण हुदो खाली थतां नथी, नदीप्रवाह बंध थतो नथी अने समुद्र कदी पूर्ण थतो नथी. तेवीज रीते संसारमाथी नीकळीने भव्य जीवो मुक्तिमां जायछे तोपण संसार खाली थतो नथी, भव्यजीवो खूटता नथी अने मुक्ति भराती नथी. आ दष्टान्त अने दान्तिकनुं साम्य सम्यक् प्रकारे अवलोकन करनारनी अर्हद्वचनमांज प्रतीति थशे, अन्यत्र नहि. वीजुं पण एक लागु पडतुं दृष्टान्त प्रमाणना जाणकारोए सांभळवा योग्य छे. कोइ बुद्धिशाळी जन्मथी मांडीन मरण पर्यन्त त्रण लोकनां सर्व शास्त्रोनू, हिंदुओनां छ दर्शन अने यवनशास्त्रोनु, आत्म शक्तिथी पठन करतो असंख्य आयुष्य निर्वहन करे तोपण तेना अश्रान्त पाठथी तेनुं हृदय कदी शास्त्राक्षरोथी पूर्ण थाय नहि. शास्त्राक्षरो खूटे नहि अने शास्त्रो खाली थाय नहि. तेवीज रीते संसारमाथी गमे तेटला भव्यो मुक्तिमां जाय तोपण मुक्ति पूराय नहि, भव्यो खुटे नहि अने संसार खाली थाय नहि. अर्थात, मुक्तिमार्ग अन्तराय विना वहतो रद्देशे. आ दृष्टान्त अने हाष्टन्तिकनी भावना विजोए स्वचित्तमां चिन्तवी लेवी अने एवां अनेक दृष्टान्तो योजत्रां. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) आठमो अधिकार. परब्रह्मनुं स्वरूप केवु छे ? परोपकारपरायण, वीतराग, सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी आप्तोए परब्रह्मनु निवेदन आ प्रमाणे कर्युछे. परब्रह्म निर्विकार, निष्क्रिय, निर्माय, निर्मोह, निर्मत्सर, निरहंकार, निःस्पृह, निरपेक्ष, निर्गुण, निरंजन, अक्षर, अनाकृति, अनंतक, अप्रमेय, अप्रतिक्रिय, अपुर्नभव, महोदय, ज्योतिर्मय. चिन्मय, आनंदमय, परमेष्ठि, विभु, शाश्वत स्थितियुक्त, रोधविरोधरहित, प्रभासहित, जगत् जेनुं निसेवन करेछे अने जेनाध्यानना प्रभावथी भक्तोनी निवृत्ति थायछे एवा ईश्वररूपछे. शुं परब्रह्म सृष्टिनुं कारण छे अने युगान्ते परब्रह्ममांज जगत लीन थायछे ? परब्रह्मने सृष्टि रचवानुं कंइ प्रयोजन नथी तेम तेमाटे तेने कोइ *मेरनार पण नथी. जो परब्रह्मे सृष्टि रची होय तो ते आवी केम रचे? आ जगत् जन्म, मरण, व्याधि, कषाय, जुगार, काम अने दुर्गतिनी भीतिथी व्याकुळ छे. परस्पर द्रोह अने विपक्षथी लक्षित छे. वाघ, हाथी, साप अने वींछीथी व्याप्त छे. पारधी, माछी अने खाटकीथी संचित छे. चोरी अने जारादि विकारोथी पीडित छे. कस्तुरी, चामर, दांत अने चामडा माटे हरिणो, गायो, हाथी अने चित्ताओ, घातक छे. दुर्भिक्ष, दुर्मारि अने विड्वरादिथी कलित छे. दुर्जाति, दुर्योनि अने कुकीटोथी पूरित छे. विष्टा, दुर्गन्ध अने फलेवरोधी आंकित छे. दुष्कर्मने निर्माण करनार मैथुनथी अंचित छे. सप्तधातुथी निष्पन्न शरीरोथी समाश्रित छे. प्रचण्ड पाखण्डघटाथी ___ * कालस्वभावादि सर्व ब्रह्मगत छ,-कर्तृवादी. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) विडम्बित छे. नास्तिकोए सहित अने सर्व मुनीशोए निंदित छे. वितर्कना सम्पर्कवाळा कुतर्कथी कर्कश छे. वर्णाश्रमना भिन्न भिन्न धर्म अने षड्दर्शनना आचारविचार संबंधी आडम्बरे युक्त छे. नाना प्रकारनी आकृतिवाळा देवताओनी एमां पूजा थायछे. पुण्य अने पापथी थता कर्मना भोगने आपनारुं छे. स्वर्गापवर्गादि भवान्तरनो एमां उदय वर्तेछे, श्रीमन्त अने निर्धन, हिंदु अने तुरुष्क ( मुसलमान ) आदि भेदोथी भरेलं छे. एमां केटलाक परब्रह्मनी साथे वैर धारण करनार, केटलाक परब्रह्मनुं खण्डन अने हास्य करनार अने केटलाक परब्रह्मनी पूजाना रागी जीवो होयछे. एनो विस्तार करवाथी शुं? केमके जे देखायछे ते विपरीतज छे. परब्रह्मना खरूपथी तद्दन भिन्न छे.. विद्वानो तो कहेछे के कार्यमा उपादान कारणना गुणो, होवा जोइए. संसारमा जे अनित्य वस्तु देखायछे ते जो सृष्टि समये ब्रह्ममांथी उत्पन्न थइ होय तो योगियो एने जुगुप्सनीय गणी शीघ्र त्यजीने वैराग्य केम लेछ ? जो द्वेषरागादिथी विरूप जगत्स्वरूप उत्तम योगविदोने त्यागवा योग्य होय तो तेजसर्व युगान्ते परब्रह्मने पोतानी अंदर धारण करवा योग्य केवी रीते थाय ? त्यारे क्यांतो ब्रह्ममा विवेक न होय अथवा शुकादि योगियोमा न होय ! जे ब्रह्मने करवा योग्य अने धारवा योग्य ते अन्य पुरुषोने-शुकादि योगियोने निंदवा अने त्यजवा योग्य ! सृष्टि ब्रह्ममाथी उत्पन्न थइ अने प्रलय पण तेमां थशे एवं कहेनार 'ब्रह्म अतिमृढ छे' एवं शुं नथी निवेदन करता ? शुं एमां ब्रह्मने वान्ताहतिनो (वमेलं खावानो) दोष नथी लागतो? लोकमां एकादा ब्राह्मणादिनी घात थाय तो मोटी हत्या थइ कहेवायछे त्यारे सृष्टिनो . संहार की ब्रह्मने ते हत्या केवी लागे ? दयालुने अदया ! स्वरचित सृष्टिनो संहार करतां ब्रह्मने हिंसा न लागे एम जो कहेता हो तो पुत्रोने उत्पन्न करीकरीने मारी नाखनार वापने पण कोइ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) दोष लागशे नहि. एतो ब्रह्मनी लीला छे माटे संहार करतां ब्रह्मने पाप न लागे एवं जो कहे होय तो मृगयाए (शिकारे) गयेला राजाने पण जीवो मारतां पाप नहि लागे. स्वभावथी अथवा कालथी प्रेराइने सृष्टिनो संहार करतां विभुने पाप लागतुं न होय अने आ अशस्त संहारमा बलिष्ठ स्वभाव अने काळ ब्रह्मने प्रेरता होय तो सृष्टिसंहारमा स्वभावने अने काळने ज हेतु रहेवा घो. युक्तिमा न बेसे एवा ब्रह्मनु शुं काम छे ? जे लोको सृष्टि रचवानुं अने संहार करवान ब्रह्ममां आरोपेछे ते ब्रह्मनो महिमा प्रकट करता नथी परंतु निर्दपणमां दषणनो आरोप करेछे. ब्रह्मने निष्क्रिय कहीने तेनेज पार्छ जगत् रचनार कहेवू ते ‘मारी मा वांझणी छे' एना संश छे. जे कोइ विज्ञानवंत छे ते सर्व ब्रह्मनु चिन्तन करेछे. जो तेओ ब्रह्मांश होय तो तेमनामां अने ब्रह्ममां शो भेद छे ? तेओ शेने माटे चिन्तन करेछे ? ए जीवो ब्रह्मांश हशे तो ब्रह्म पोतेज तेमने पोतानी पासे विना परिश्रमे लेइ जशे. जो ब्रह्मनी प्राप्ति माटे नीरागता, निःस्पृहता, निवता, निष्क्रियता, जितेन्द्रियता अनेसमानता इत्यादि करवा योग्य होय अने जो ब्रह्मनी एमांज प्रीति होय तो ब्रह्ममा निष्क्रियत्व सिद्ध थयु. जो एम कहेवामां आवे के ब्रह्मनो स्वभावज एवो सक्रिय निष्क्रियादि छे तो कत्र्ताना अनेक स्वभावने लीधे कदाचित् एनामां अनित्यता पण थाय ! द्वेष पण थाय ! राग पण थाय ! दृष्टिथी पण ए देखाय ! ब्रह्म नित्य छ एवी *पंचावयव वाक्यथी करेली व्याप्ति पण नहि थाय ! नित्य तेज छे जे एकरूप छे, जेमके आकाश. सृष्टि रचवामां अने युगांते * १ ब्रह्म नित्य छ, २ एकस्वभावत्व होवाथी. ३ जे एक स्वभाववालं होय ते नित्य, जेमके आकाश. ४ ब्रह्म तेवु छे. ५ माटे ब्रह्म नित्य छे. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) संहार करवामां कर्त्ताने मनःस्थ सक्रियता देखीती लागे ! सृष्टिसंहारना अभावे निष्क्रियता रहे ! तेमज जीवोने सुखदुःख देखायछे तेथी एनामां रागद्वेष पण सिद्ध थाय ! जो एवोज तर्क होय के जे कृत्य तेवु सुख दुःख तो पछी कानुं शुं पराक्रम ? त्यारे निश्चित थयुं के, स्व पुण्य पापज सुख दुःखना हेतुओ छे. जो जीवो ब्रह्मांश होय तो ब्रह्मांश सरखा होवाथी ते सर्वे सरखा होय. ज्यारे जीवो सुखी दुःखी इत्यादि बहु प्रकारना देखायछे त्यारे ते भेदनो : करनार ब्रह्मथी कोइ अन्य निश्चय होवो जोइए. जो जीवो ब्रह्मयी भिन्न होय अने सुखदुःखनो को ब्रह्म होय, तो जे हेतुथी ब्रह्म सुख दुःख करे छे ते हेतु ( पुण्यपाप ) नो कर्ता पण ते (ब्रह्म) ज हो ! ब्रह्मने निरञ्जन, नित्य, अमूर्त अने अक्रिय कहीने फरीथी तेनेज कर्ता, संहर्ता अने रागद्वेषादिनुं पात्र कहेवू ए परस्पर विरुद्ध होवाथी आ जगत् भिन्न छे अने ए ब्रह्म पण भिन्न छे एबुं मुनियोए विचार्यु अने तेथीज संसारस्थित मुनियो मुक्ति माटे परब्रह्मनुं - ध्यान करेछे. *जे कोइ ईश्वरनी (विष्णुनी) मायाने जगत्नी रचनामा हेतुभूत कहेछे तेमने विचारवान के, ईश्वर मायामां आश्रित छ के माया ईश्वरमा आश्रित छ ? माया जड होवाथी पोतानी मेळे आश्रय लेवाने समर्थ नथी. ईश्वर ब्रह्मरूप होवाथी जाणता छतां मायानो आश्रय ले नहि. कारण के चेतन परतन्त्र होय तोज जडनो आश्रय ले. वळी विचारवानुं के, ईश्वर मायाने एकी वखते प्रेरेछे के दरेक जीवप्रति पृथक् पृथक् प्रेरेछे ? जो मायाने एकी वखतेज प्रेरवामां आवती होय तो तेनी एकरूपताने लीधे त्रणे लोक एकरूप * विष्णूनी मायाथी जगत्नी रचनादि पायो-वैष्णवमत, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) सर्व सुखमयी अथवा सर्व दुःखमयी धाय, भिन्नरूप न थाय, जो मायाने दरेक जीवप्रति पृथक् पृथक् प्रेरवामां आवती होय तो मायाने अनंतता प्राप्त थाय, जेथी माया अनेक प्रकारनी थाय अने जीवो पण भिन्नरूप थाय. “ एम हो " एवं कदी कहेवामां आवे तो पण माया जड छे ते शुं करी शके ? ईश्वरनी शक्तिथी माया वधुं करवाने समर्थ होय तो ईश्वरज सुखदुःखनो दाता हो ! वारु जीवोए ईश्वरनो शो अपराध कर्योछे के ते दरेक जीव प्रति एवी मायाने प्रेरे ? निरपराध जीवोने जे ए प्रकारे दुःखादि दे ते ईश्वर शेनो ? जे ईश्वरतुं ध्यान करता नथी ते ईश्वरना अपराधी होवाथी ईश्वर तेमने दुःख करतो होय ने जे ईश्वरनी सेवा करेछे तेमने ए सुखनी श्रेणि आपतो होय तो जे एवी प्रतिक्रिया करे ते ईश्वर तो रागी द्वेषी गणाय ! " एम हो, " एवं कदी कथन थाय तो जे ईश्वरने निंदतोए नथी तेम वंदतो पण नथी तेनी शी गति ? लोकमां जीवो त्रण प्रकारना छे. सेवक, असेवक अने मध्यस्थ. ज्यारे पहेला बे प्रकारना जीवोनी गति छे त्यारे मध्यस्थ जीवनी पण कोइ गति होवी जोइए. मध्यस्थ जीवनी कोइ गति नियत होय तो तेनो कर्त्ता कोण छे ? त्यारे एमज कहेतुं योग्य छे के जेवुं कर्म कर्यु होय तेवुंज सुख दुःख प्रमुख मळेछे. जे कोइ एम कछे के ईश्वर ( कर्त्ता ) पोतामांथी जीवोने प्रकट करीने (सृजीने) संसारिभाव पमाडेछे अने महाप्रलय समये पाछो तेमनो संहार करेछे तेमने पूछवानुं के, ईश्वर विद्यमान जीवोने प्रकट करेछे के नवाज प्रकट करेछे ? जो प्रथम पक्ष होय तो वात सांभळो. जे ईश्वर जीवोने इष्ट स्थानकमां राखी मूकीने क्रियाबसरे मकट करे ते तो अमारा जेवो अवसरे नहि मळवाना Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) भयथी वस्तुनी रक्षा करनार होवो जोइए ! एथी तो ईश्वरनी अशक्ति प्रकट करी. जो ईश्वरनी अचिन्त्य शक्ति छे तो शुं ते लोभी छे एवं कहेतुं छे ! जो नवाज जीवोने रचीने संसारिभाव पाडता होय तो मूळना स्वरचित जीवोने मुक्त करवाने शुं समर्थ नथी के ए प्रकारे विडम्बना देछे ? जो ईश्वर स्वरचितनो पण ए प्रकारे संहार करे तो एनो ए विवेक केवो ?- वाळक पण स्वकृत वस्तुने शक्ति पहोंचे त्यांसुधी साचवे छे. जो ईश्वरनी ए लीला होय तो लीला करता लोकनी पण निंदा करवी न जोइए. तप यम ध्यान प्रमुखथी जो ईश्वर लभ्य होय अने ईश्वरने ए रुचतां होय तो जेने ए रुचे ते कदापि एवी लीला करे नहि. लोकमां पण जीवादिनो जेमां घात थतो होय एवी सर्व amrat ईश्वरे निषेध करेलो छे. 'वीजाने निषेध करे अने पोते आचरण करे 'ए तो कोइ अतीव निंदित होय तेज करे. एवं वगरे विचार्थी काम करनारने अमे ईश्वर कहेता नथी. जो ईश्वर पोते पवित्र, स्वजनने पावन करनार अने ज्योतिर्मयादि गुणोथी विशिष्ट होय तेम छतां एस्त्र अंशाने स्वरस्थी विमोह पमाडी संसारिभावम रचीने वहु दुःखनुं पात्र जीवत्व प्रेरता होय तो आ जीवो इश्वरांश नयी वीजा भले हो ! ईश्वर निजांशोने जाणता छतां पोताना रम्य स्वरूपमांथी पाडीने जेना उदरमां संकटनी पेटीछे एवा दौर्गत्य दौस्थ्यादिमय आ संसारमां सहसा केम प्रेरे ? जो ईश्वरनी ए लीला होय तो आ संसारज एने इष्ट छे, त्यारे संसारी जीवोए ईश्वरनी प्राप्ति माटे उग्र कष्टादिशा माटे करवुं ? एवी रीते असंबद्ध उद्गार काढनारना वचननी कदापि प्रतीति थाय नहि. • L 1 त्यारे शुं कहें छे ? 7+ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे कंइ कहेवानुं (वाच्य ) छे ते सांभळो. ज्योतिर्मय, चिन्मय, सदा एकरूप, लोकोनां सुखदुःखना हेतु जे जुवेछे अने योगीश्वरोने जेमनुं स्वरूप ध्येयतम छे एवा परमेश्वर छे. जीव तथापकारना कर्मना योगथी सुगति अथवा दुर्गति, सुख अथवा दुःख पामेछे. ज्यारे जीव समानभावने धारण करेछे त्यारे ब्रह्मत्वने पामेछे. परमेश्वर संबंधी सृष्टिसंहारनी कथानी प्रवृत्ति करवाथी जो लोकोनी तुष्टि थती होय तो स्फुर्ति अने प्रभावन प्रतिपादन करवा माटे ईश्वरनी स्तुति करवी योग्य छे. परमेष्ठि-परमेश्वरने कर्ता कहेवार्नु रहेवा यो. जेम लोकमां कोई शूरवीर पोताना स्वामीनां शस्त्रोवडे शत्रुओने जीतीने निज अंगमा सुख करवाथी कर्ता थाय तेम परमेश्वरखें ध्यान करनार परमेश्वरना ध्यानवडे आत्माने सुख करवाथी का छे अने आत्माना अंधकारनो अपहार करवाथी संहा छे. जेम शूरवीरे शस्त्र वापरवाथी शस्त्रना स्वामीने कंइ पण प्रयास पडतो नथी तेम भक्ते ईश्वरचं ध्यान करवाथी ईश्वरने पण. कंइ क्रिया करवी पडती नथी. आथी ईश्वरनी निष्क्रियता सिद्ध थायछे. जेम शूरवीर शस्त्रना प्रभाववडे सुख थवाथी सुख करनार तरीके शस्त्रना स्वामीने कथन करे तेम भक्त पण ध्यानना प्रभाववडे सुख थवाथी सुख करनार तरीके ध्यानना स्वामी परमेश्वरनेज कहेछे. एवां अनेक दृष्टान्तोवडे परमेश्वरखें ध्यान करनार भक्तने सृष्टिसंहारनो कर्त्ता प्रतिपादन ___करी शकाय. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) नवमो अधिकार. ब्रह्म एटले शुं ? ब्रह्म ते ज छे, जेने सिद्ध कहेवामां आवेछे, शुद्धचित्तवाला मुनियोने जे ध्यान करवा योग्य छे अने मुक्तिगृहप्रति जवानी इच्छावाळा योगियो जेने भवसमुद्रमा प्रवहण समान गणेछे. ___ जो आ सृष्टि ब्रह्ममाथी उत्पन्न थइ नथी तो ते क्याथी उत्पन्न थइ अने क्यां प्रलय थशे ? त्रिकाळज्ञानी वीतराग योगियोए कथन कर्युछे के काळ, स्वभाव, नियति, कर्म अने उद्यम (वीर्य ) ए समवायपंचकथी सृष्टि अने संहार थायछे. पुरातन तत्वविद् महात्माओ वदेछे के ब्रह्ममां ब्रह्म लीन थायछे अने ज्योतिमां ज्योति मळी जायछे, ए प्रवाद ब्रह्म विना केम घटे ? विज्ञो ज्ञानने ब्रह्म अथवा ज्योति कहेछे. एक सिद्धनुं ब्रह्म (ज्ञान अथवा ज्योति ) सर्व दिशाओमां जे अनंत क्षेत्रने आश्रि रघुछे तेज क्षेत्रने आश्रि वीजा सिद्धनुं त्रीजा सिद्धन यावत् अनंत * जेम प्रवहण-( आझ )नी मददथी समुद्रना किनारे पहोंची शकाय पण घेर पहोंचवा माटे झाझ छोडी चालवू विगेरे स्वालंबन करवू पडे तेम सिद्धना ध्यानथी संसारनो पार पामी शकाय पण मुक्तिमां पहोंचवामाटे सिद्धनुं ध्यान छोडी समभावलक्षण आत्मध्यान फरवू पडे.-पर्यायकार. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५) सिद्धोनुं पण ब्रह्म रहेलं छे अने तेथी एवं कहेवायछे के ब्रह्ममां ब्रह्म लीन थायछे अने ज्योतिमां ज्योति मळी जायछे. जो एम होय तो क्षेत्रतुं सांकर्य केम न थाय तथा परस्पर आलिंगित (मिलित) ब्रह्मने संकीर्णता केम न याय ? जेम कोई विद्वान्ना हृदयमा घणा शास्त्राक्षरोनो संग्रह छतां तेनी छाती संकीर्ण (सांकडी) थती नथी तथा अक्षरोने परिपिण्डता थती नथी तेम ब्रह्मपरंपराश्रित ब्रह्म (चिद् ) वडे सर्वतः आश्लिष्ट क्षेत्र ( दिव ) संकीर्ण यतुं नथी अने ब्रह्मने सांकर्य थतुं ( संकडामण पडती) नथी. एज प्रमाणे सिद्धोथी परिपूरित सिद्धक्षेत्र संकीर्ण थतुं नशी अने सिद्धपरंपराश्रित सिदो सांकर्यबाधा रहित जयवंता वर्तछे. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६) दशमो अधिकार. *निगोद जीवो अनंत काळ सुधी निगोदमा ज रहेछे. नारक जीवोने पडता दुःख करतां अनंत गुणुं दुःख ते अनुभवेछे अने • एक एक समयमां अनेक (-आठ-) वार जन्म मरण करेछे. एमने मन पण होतुं नथी. जे जीवो व्यवहार राशिमां आवेछे ते क्रमे करीने विशिष्ट होय छे. व्यवहार राशिमांथी जे जीवो पाछा जायछे ते फरीने निगोह जेवा थायछे. आ केवी रीते थायछे ? निगोदना जीवो तेमना जाति स्वभावथी अने महार्तिदायक उत्तरकाळनी तादृश प्रेरणाथी सदैव दुःख पामेछे. अत्र दृष्टांत. लवण समुद्रनुं पाणी सदाकाळ खालं होयछे. अनंत काळे पण पीवा योग्य यतुं नथी तेम वांतर पण पामतुं नथी. एम थतां थतां लवण समुद्रने अनंतानंत काळ थइ गयो. जेम लवण समुद्रनु पाणी मेघनु मुख प्राप्त थये गंगादि महानदीमा आववाथी पीवा योग्य थायछे, तेम निगोदाथी नीकळीने व्यवहार राशिमां आवेला जीवो मुखी थायछे. जेम गंगादि महानदीनुं पाणी लवण समुद्रमा पार्छ जवाथी समुद्र जळना रूप अने रस युक्त-खारुं थायछे तेम व्यवहार राशिमायो निगोदमां पाछा गयेला जीवो निगोद जेवा दुःखी थायछे. वीजें घटात. दान्त्रिक-(भुवाना) हृदयमां * निगोइना जीवो वे प्रकारनी राशियोमा छे, अव्यवहार अने व्यवहार. तेमां निगोद संज्ञायी सामान्यतः अव्यवहार राशिनुं ग्रहण थायछे. हिर्व एकोन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अने चतुरिन्द्रय जीवोने मन होतुं नवी. पंचेन्द्रिय जीवोमा जे संज्ञी छे तेमने मन होयछे, असंनीने मन होतुं नथी.-जैन सिद्धांत. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) दुर्मन्त्रना जे वर्णो होयछे ते उच्चाटन कहेवायछे. दुान्त्रिकना हृदय जेवू निगोदनुं स्थान छे. दुमन्त्रना वर्णो जेवा निगोदना जीवो छे. सन्मन्त्रना वर्णो जेवा व्यवहार राशिना जीवो छे. जेम दुमन्त्रमांना वर्णोमांथी जे वर्णो सन्मन्त्रमा आवे ते शुभ कहेवायछे, तेम निगोदना जीवोमांथी जे व्यवहार राशिमां आवेछे ते विशिष्ट थायछे. जेम सन्मन्त्रमांना जे वर्णो पाछा दुर्मन्त्रमा वपराय ते उच्चाटन दोषथी दुषित थाय, तेम व्यवहार राशिमाथी निगोदमां पाछा आवेला जीवो निगोद जेवा थायछे. पंडितोए स्वबुद्धिथी एवा नानां मोटां दृष्टांतो योजी लेवां. निगोदना जीवो समस्त लोकमां व्यापीने रहेला छे ते घनीभूत थतां दृष्टिपथमा केम आवता नथी ? निगोदना जीवो अतिसूक्ष्म नामकर्मना उदयथी एक शरीर आश्रि अनंत रहेला छे तथापि चर्मचक्षुथी देखाता नथी. जेम गंधा (वज), कलेवर अने हिंग वगैरेनी बहु प्रकारनी गंध परस्पर मळीने रह्याथी अन्य वस्तुने अथवा आकाशने सकोणता थती नथी, तेम निगोद जीवोना परस्पर आश्लेषथी तेमने पोताने सदाकाळ अति बाधा रहेछे पण अन्य वस्तुने तथा आकाशन सकाणता थती नथी जेम गंधादिक वस्तुनी सत्ता नाकथी समजायछे पण आंखथी जोइ शकाती ज नथी तेम निगोदना जीवो श्रीजिनवचनथी मनवडे जाणी (मानी ) शकाय पण जोइ शकाय नहि. केवलज्ञानी मात्र तेमने जोइ शके. जेम सर्वत्र उडती अति सूक्ष्म रज आंखे देखाती नथी अने राशीभूत थतो पण जणाती नथो परन्तु आच्छादित वस्त्रप्रदेशना ण्द्रिमा पडेलां सूर्यकिरणोनां प्रतिबियोमा उडती त्रसरेणु देखायछे, ते मत निगोदना जीवो दिव्य दृष्टिथी देखी.शकायछे. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) निगोदादि जॉब आहार करेछे छतां ते कया गुणने लीधे गुरुता पामता नथी ? जेम पारो विविध धातुओने खाता छतां गरिष्ठता पामतो नयी, चंपाना फुलथी वासित अथवा कृष्णागरु धूपथी धूपित वस्त्र मूलभारथी गुरुता पामतुं नथी, एक तोलो सिद्धकरेलो पारो सो तोला सोनुं पचावी जाय तोपण तेनुं तोल वधतुं नथी अने + पखालनी अंदर पवन भरवामां आवे तेम छतां तेनुं वजन वधतुं नथी तेम जीव पण आहार करता छतां गुरुतामां वघतो नथी. निगोदना जीवो कया कर्मथी अनंतकाळ सुधी अति दुःखित होयछे ? आ संबंधी संपूर्ण विचार जणाववाने केवली शिवाय कोइ समर्थ नथी. तोपण तेनो आशय समजाववा सारु किंचित् कर्मप्रकार कहेवामां आवे छे. निगोदना जीवो स्थूल आखव सेववाने समर्थ नथी परन्तु ते एक एकने विंधने एक एक शरीर आश्रि अनंत रहेलाछे, पृथक् पृथक् देहरूपी गृहथी रहित छे, परस्पर द्वेषना कारणभूत तैजस, कार्मण शरीरमां संस्थित छे अने अत्यंत संकीर्ण निवास मळवाथी अन्योन्य विंधीने निकाचित वैर बांधेछे, जे प्रत्येकने अनंत जीवो साथ उग्रपणे बंधायछे. हवे ज्यारे एक जीवे एक जीव साथे वांधेलं वैर अजेयछे त्यारे एक जीवे अनंत जीवो साथे बांधलं वैर अनंत काले केम न भोगवाय ? वळी ते वैर वर्धमान थतां तेथी पण अनंत काळ सुधी केम न पहोंचे ? अर्थात् निगोद जीवोनुं वैर दुष्कर्म अने ते भोगववानो काळ अनंत छे. * गुप्तिगृह - ( के दखाना ) मां I + Air-pump श्री तद्दन हवा रहित करेली - Vacuum युक्त वस्तु जेवी नहि पण साधारण रोते खाली कहेवाती अने पछीथी पवन भरेली परवाल समजवी. * ग्रंथकर्त्ताना समयना केढखानाने उद्देशी आ दृष्टांत छे ते ध्यानमां रास्त्रं, 1 1 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) पूरायला केदीओ जेम परस्पर संमर्दनथी पीडाया छता आमाथी कोइ मरे अथवा जायतो हुँ सुखे बेसुं ने भक्ष्य पण प्रमाणमां कंइक वधारे मळे एवी दुष्ट भावनाथी, एक एक प्रति निकाचित अत्यंत वैर पूर्वक कर्म बांधेछे-जे वर्धमान थतां तेमने अति दुष्कृत लागेछे, तेम निगोद जीवोना कर्मबंध विषे पण समजवु. जुओ ! अति सांकडा पांजरामा पूरायला पक्षीओ अने जाळ वगेरेमां सपडायलां माछलां परस्पर विवाधाथी देषयुक्त थया छतां अति दुःखी थायछे. बुधो कहेछे के, चोरने मरातो अथवा सतीने अग्निमां प्रवेश थती कुतूहलथी जोनारा द्वेष विना पण सामुदायिक कर्म बांधेछे, जे नियत (खरेखर ) अनेक प्रकारे भोगवतुं पडेछ. ए प्रमाणे कौतुकथी बंधायलां कर्मोनो विपाक अति दुःखदायी थायछे तो पछी निगोद जीवोए परस्परबाधाजन्य विरोधथी अनंत जीवो साथे बांधेलां कर्मोनो भोग (परिपाक ) अनंत काळ वीत्या छतां पण पूरो न थाय तेमां शुं आश्चर्य छे ? निगोद जीवोने मन नथी तेम छतां ते तंदुल मत्स्यनी पेठे, जेनो परिपाक अनंत काळ सुधी पहोंचे एवां कर्म शाथी बांधछे ? निगोद जीवोने मन नथी तोपण अन्योन्य विवाधाथी तेमने दुष्कर्म तो उत्पन्न थाय ज. विष जाणतां खाधुं होय अथवा अजाणतां खाधं होय तोपण ते मारे ज. जाणवामां होय तो पोते अथवा वीजा उपाय करे तेथी कदाचित् वची जाय परंतु अजाणपणे तो मारी ज नाखे. तेवीज रीते मन विना उत्पन्न थयेलुं परस्पर वैर अनंत काळे पण भोगवतां पुरुं थाय नहि. निगोदना जीवोने मन नथी पण मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने काययोग जे कर्मयोगनां वीज छे ते होयछे. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०) अगीआरमो अधिकार. सर्व विश्व निगोदना जीवोथी परिपूर्ण छे तेमां कर्मो, अन्य पुद्गलराशियो अने धर्मास्तिकायादि केवी रीते समायछे ? जेवी रीते गांधीनी दुकानमा कपूरनो गंध पसरेलो होयछे तेमां कस्तूरी तथा जायफलादि वस्तुनो गंध, पुष्पादिनो गंध, सूर्यनो तडका, थूपनो धूम, वायु, शब्द, त्रसरेणु वगेरे समायछे; जेवी रीते विचक्षण पुरुषना हृदयमां शास्त्रपुराणविद्या होयछे तेम छतां वेद, स्मृति, व्याकरण, कोप, ज्योतिष् , वैद्यक, आशिष्, राग, मंत्र, आम्नाय, ध्यान, मंत्र, तंत्र, कला, वार्ता, विनोद, स्त्रीविलास, दान, शील, तप, भाव, शान्ति, धृति, सुख, दुःख, सत्व, रज, तम, कषाय, मैत्री, मोह, मत्सर, शंका, भय, निर्भय, आधि वगेरे समाय छे; अने जेवी रीते वनखंड-जंगलमा रेणु, त्रसरेणु सूर्यनो तडको, अग्निनो ताप, पुप्पोनो गंध, वायु, पशुपक्षीना शद्व, वादिनना नाद, पांदडाना मर्मर (खडखडाट) वगैरे सर्व समाइ जायछे तथापि अवकाश रहेछे तेवीज रीते सर्व लोक निगोदथी सदा परिपूर्ण छतां सर्व द्रव्यो तेमां समायछे एटलुंज नहि पण द्रव्योथी निचित (खीचोखीच भरायलं) छतां तादृश अवकाश रहेछे. --women Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) बारमो अधिकार. c0000 जगत्ना जीवो कर्म प्रमाणे सुखदुःख भोगवे छे ते कर्मगणने प्रेरणा करनार कर्ता, विधि, ग्रह, यम, परमेश्वर अथवा भगवान् कोइ होवा जोइए. जीव स्वाभाविक रीते सुखनो रागी अने दुःखनो द्वेषी होय ते स्वेच्छाए शुभ अने अशुभ कर्मोने केम भोगवे ? ___ जीवनो स्वभाव छे के ते शुभाशुभ कर्मोंने ग्रहण करे. जीवने मुख दुःखनो आपनार स्वकर्म विना वीजो कोइ नथी. कर्मना सिद्धान्तने जाणनारा कर्मने ज भाग्य, स्वभाव, भगवान्, अदृष्ट, काल, यम, दैवत, दैव, दिष्ट, विधान, परमेश्वर, क्रिया, पुराकृत, विधा, विधि, लोक, कृतान्त, नियति, कर्ता, प्राक्कीर्ण लेख, प्राचीन लेख, विधाताना लेख इत्यादि नामोथी शास्त्रमा प्रतिपादन करेछे. ___ कर्मने कोइ प्रेरणा करनार तो होवो जोइए. कर्म अजीव अने जड छे ते शुं करी शके ? कर्मनो एवो स्वभाव ज छे के ते सदा कोइनी पण प्रेरणा विना पोतानी मेळे आत्माने स्वस्वरूप योग्य फल पमाडे. जे जीवो अजीवशरीरनी साथे संबंध राखी हाल जीवेछे, पूर्वे जीवता हता अने भविष्यमा जीवशे, ते सर्वने कर्मोनी साथे त्रैकालिक संगम होवार्नु ध्यानमा राखq. आ समस्त जगत् षड् द्रव्य अने पंच समवाय-मयछे. तदन्य कंइ नथी. जीव अने धर्मास्तिकायादि पांच अजीव-ए छ द्रव्यो छे. धर्मास्तिकाय जीवने चालवामां सहाय करेछे, अधर्मास्तिकाय स्थिति करवानी प्रेरणा करे छे, आकाशास्तिकाय अवकाश आपे छे अने पुद्गलास्तिकाय वडे जीव आहारविहारादि करे छे. पुद्गलास्तिकायमां कर्मोनो अंतर्भाव थाय छे. काळ आयुष्यादि सर्व ममाणयुक्त वस्तुनुं प्रमाण करवामां उपयोगी छे. काळादि पंचसम Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) वायना सामर्थ्यथी जीव कर्मोनुं ग्रहण, धारण, भोग अने शमन करे छे अर्थात् जीवो करतां अजीवो सबळ ! छे, जेमनाथी प्रेराइने जीवो सुखदुःखना भागी थाय छे. जीवो शुभाशुभ कर्मोने ग्रहण करेछे अने कर्मो स्वकालमर्यादा पामीने जीवोने सुखदुःख आपेछे - ए एमनो स्वभाव छे. जीव शुभाशुभ कर्मोने ग्रहण करेछे अने ग्रहण करवाना स्वभावथी ग्रहण करतां जाणेछे के हुं स्वाभिप्राय प्रमाणे इष्ट करूंं. ए वात मान्य करवा जेवी छे. परन्तु कर्मो जड होवाथी भोगकाळने केवी रीते जाणे के ते प्रगट थाय ? आत्मा पण शुं दुःख भोगववानो कामी छे के ते दुष्कर्मने आगळ करे ? माटे केटलाक लांबाकाळ सुधी विलंब कर्या पछी कर्मों स्वकर्त्ता जीवने सुखदुःख पमाडे छे ते प्रेरक विना केवी रीते बने ? कर्मो जड छे, निज भोगकाळने जाणता नथी अने आत्मा दुःख भोगववानो कामी नथी तथापि जीव दुःखने आश्रित थायछे अने कर्मो जड छतां द्रव्यक्षेत्रकाळभाव - सामग्रीनी तथाप्रकारनी अनिवार्य शक्तिथी प्रेराइने प्रगट थइ स्वकर्त्ता आत्माने बलात्कारे दुःख देखे, दृष्टान्त तरीके, कोइ पुरुष उष्ण काळमां शीतळ वस्तुनुं सेवन करे अने ते उपर मीठो खाटो करंभ खाय तो तेना शरीरमां वायु उत्पन्न थाय, जे वर्षा रुतु प्राप्त थतां प्रायः अत्यंत कोपायमान थइ शरद् ऋतुनो संयोग थवानी साथे ज पित्तना प्रभावथी प्रायः शान्त थाय. स्वेच्छित भोजनथी वातनी उत्पत्ति, वृद्धि (स्थिति) अने शांति (नाश ) ए ऋण दशाओ थवामां जेम काळ हेतु छे तेम आत्माने कर्मोनुं ग्रहण, स्थिति अने शांति थवामां काळ ज कारण छे. ए रीते आत्माए उपार्जन केरलां कर्मोनो काळे करीने भोग अने शांति थायले तोपण जेम उग्र उपायथी काळ माप्त Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यया पहेलां ज. वातादि शान्त थायछे तेम कर्मों पण शांत थायछे अने जेम केटलीक वखत स्वादिष्ठ भोजन शरीरमा तत्काळ उग्र वातादि उत्पन्न करेछे तेम उग्र कर्मो पण आत्माने कोईनी प्रेरणा विना तत्काळ फळ आपेछे. वीजुं दृष्टांत. कोइ स्त्री बीजानी प्रेरणा विना स्वेच्छाए पुरुषनी साथे संभोग करे तेनो विपाककाळ परिपूर्ण थये प्रसवतां जेम तेने सुख अथवा दुःख थाय तेम जीवे करेलां सारां नरसां कर्मो कोइनी पण प्रेरणा वगर स्वसमय पामीने प्रगट थतां जीवने सुख अथवा दुःख आपेठे. कोइ रोगी औषध लेछे त्यारे ते हितकारी छे अथवा अहितकारी छे एम जाणतो नथी तोपण जेम तेनो परिपाककाळ थतां ते सुख अथवा दुःख आपछे तेम कर्मोंने ग्रहण करतां ते शुभ छे अथवा अशुभ छ एम जीव जाणे नहि तोपण कर्मोनो परिपाककाळ थाय त्यारे ते सुख अथवा दुःख आपेछे. कृत्रिम विष जेम तत्काळ नाश करनारुं अथवा एक महिने, वे महिने, छ महिने, वर्षे, बे वर्षे के त्रण वर्षे नाश करनारूं होयछे तेम कर्मो पण घणा प्रका. रनां अने भिन्न भिन्न स्थितिनां होयछे, जे पोतपातानो काळ प्राप्त थये पोतानी मेळे ज पोताना करनार जीवने तादृश फळ आपेछे. सिद्ध अथवा असिद्ध पारो कोइ रोगीना खावामां आवे तेनो परिणामकाळ प्राप्त थतां जेम ते रोगी सुख अथवा दुःख पामेछे शरीरमां थयेला फोल्ला, वाळा, दुर्वात, शीतांगक अने सन्निपात जेम काळवळ पामीने पोतानी मेळे ते ते रोगथी युक्त जीवने दुःख देछे अने सर्वे ऋतुओ जेम पोतपातानो काळ पामीने मनुष्यलोकवर्ति प्राणीओने सुखदुःख आपेछे तेम कर्मो पण पोतपोतानो काळ पामीने वीजानी प्रेरणा विना आत्माने सत्वर सुखदुःख आपछे. शीतला, ओरी, अच्छवडा वगेरे वाळरोगनी गरमीनी असर जेम छमहीना सुधी शरीरमा रहेछे तेम कर्मो पण पोतानी मेळे आवीने स्थिति Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणे जीवनो आश्रय लेछे. जेम क्षय, अशिबिन्दु (मोतीओ), उद्धत पक्षघात, अर्धाग अने शीतांग वगेरे रोगोनो परिपाक हजार दिवसे शास्त्रविशारद वैद्यो ज्ञानबळथी जणावेछे तेम सैद्धान्तिकोमा हस्तिसमान पंडितोए कर्मोनो परिपाककाळ पण कहेलो छे. जेम पित्तथी थयेलो ज्वर दश दिवस, कफथी थयेलो बार दिवस, वातथी थयेलो सात दिवस अने त्रिदोषथी थयेलो पंदर दिवस रहेछे अर्थात जम ए ज्वरोनो परिपाककाळ जुदो जुदो होयछे तेय करेलां कर्मोनो पण स्थितिकाळ जुदो जुदो होयछे. आत्माए जे प्रमाणे पूर्व आचरण कर्यु होय ते प्रमाणे जन्मकुंडलीमां ग्रहो आवेछे, ते ग्रहोर्नु फल जेम महादशा तथा अन्तर्दशादिए सहित स्वस्थिति प्रमाणे कोइनी पण प्रेरणा विना स्वभावथी भोगवायछे, तेम अन्य कर्मोथी अंतरित जे कर्मो आत्माए कयौं होय तेमनुं फल परिपाककाळ प्राप्त थये कोइनी पण प्रेरणा विना भोगवाय छे. कर्म केटला प्रकारे ( भांगे ) उदयमा आवेछे ? कर्म चार प्रकारे भोगवायछे. पहेलो प्रकार-अहीं करेलं सारं अथवा नरमुं कर्म अहींज उदयमां आवेछे, जेमके कोइ सिद्ध पुरुषने, साधु पुरुषने अथवा राजाने आपली स्वल्प वस्तु पण कक्ष्मी मेळवी आपछे अने चोरी प्रमुख अशस्त काम अहीं ज नाशने माटे थायछे. वीजो प्रकार-अहीं करेलु कर्म परलोकमां उदय पामेछे. जेम तपोव्रतादि प्रशस्य आचरणथी देवत्वादि मळेछे . अने तेथी विरुद्ध आचरण नरकादि आपेछे*.त्रीजोमकार-परजन्ममां करेलुं कर्म आ जन्ममां सुखदुःख आपनाएं थायछे. जेम एक पुत्र * सती→ सत्त्व अने शूरातुं शौर्य परजन्ममा भोग आपेछे - - कोकोक्ति. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) जन्मे छते तेणे करेला कर्मने लीधे दारिद्य अने माता प्रमुखनो वियोग यायछे अने तेनी जन्मकुंडलीमां ग्रहो पण सारा आवता नथी. बीजो पुत्र जन्मे छते तेना सुकर्मथी संपत्ति, प्रभुता अने माता वगेरेनुं सुख थायछे अने तेनी जन्मपत्रिकामा ग्रहो पण सारा पडेछे. चोथो प्रकार-- परजन्ममां करेलु कर्म परजन्ममा फलदायी थायछे अर्थात् आ भवर्या करेलु कर्म आ भवमा अथवा वीजा भवमां नहि पण त्रीजा भवमां आत्माने फळदायी थाय छे. दाखला तरीके, कोई आ जन्ममां उग्र व्रत (तपस्यादि) करे पण ते पहेलां ते मनुष्ये, देव अथवा तिर्यचादिना भवनुं टुंकुं आयुष्य बांध्यु होय तो व्रतना प्रभावथी दीर्घायुष्य सहित भोगववा योग्य मोटुं फळ तेने ते पछीना भवमा द्रव्यादि सामग्रीनो तथाप्रकारनो उदय थाय त्यारे प्राप्त शायछे, कोइ पुरुषे कोइ वस्तु सवारे चालशे एम जाणीने ते दिवसे संजोगो जोइने वधारे वापरी न होय अने साचवी राखी होय तोते जेम बीजी वखते भोगवी शकाय तेवीज रीते कर्मनुं पण समजवू. ए रीते चतुर्भङ्गीथी स्वकर्म भोगवायछे एवं आप्तवचन छे. कर्मनुं स्वरूप यथार्थ निवेदन करवाने केवली विना कोइ समर्थ नथी. कर्मो केटला प्रकारनी अवस्थावाला होयछे ? कर्मो त्रण प्रकारनी अवस्थावाळां होय छे. युक्त, भोग्य अने भुज्यमान. शुभ अने अशुभ सर्वने माटे ए सरखुं समजवू. पृथ्वी उपर पडीने सुकाइ गयेलां वरसादनां बिन्दु जेवां युक्त कर्म समजवां. पृथ्वी उपर हवे पछी पडवानां अने सुकाइ जवानां विंदु जेवां भोग्य कर्म समजवां. पडता पडतां सुकाइ जतां विंदु नेवां भुज्यमान कर्म समजवां. अथवा, मुखमां ग्रहण करेला आहारना कोळिया जेवां भुक्त कर्म, ग्रहण करवाना कोलिया जवां भोग्य कर्म अने ग्रहण कराता कोनि Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) • या जेवां भुज्यमान कर्म समजवां व्रती अथवा अती सर्वे संसारी जीवोने युक्त, भोग्य अने भुज्यमान कर्म होयछे. केवलज्ञानी महन्तोने बंधातां कर्मा शिलाग्र उपर पडता वरसादना बिंदु जेवां अल्पस्थितिवाळां होय. तेमां पण ते जण अवस्था समजवी. अंतना पहेला समययां केवलज्ञानीने भाग्य कर्म होतां नथी, भुक्त अने भुज्यमान कम होय छे अने अंत समये तो सर्व कर्मनो क्षय करवाथी मात्र मुक्त कर्म होयछे. कर्तादि वीजानी प्रेरणा विना द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावना तेवा स्वभावथी कर्मनी भुक्तादित्रण दशा थाय छे. सिद्धात्माए कर्मोनो पूर्वे नाश करेलो होवाथी ए ऋण दशा तेमने संभवती नथी. भुक्त कर्म एवी दशा पण केवलज्ञान थयुं ते भवना अंत सुधी समजवी, सिद्धावस्थामा नहि. कर्म संबंधी आ विचार सामान्य लोकने प्रतिवोध थाय एटला माटे लोकप्रसिद्ध तो बडे कामां आव्योडे. प्रवीण पुरुषोए प्राचीन युक्तियो बडे समजी लेवो वीजानी भेरणा विना कर्मों भोगववानी वामां एवां अनेक उदाहरणो विचारनिपुणोए विचारो लेवां. परमेश्वरनी वाणी प्रमाण छे. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) तेरमो अधिकार. -- केटलाक कहेछे के—पुण्य नथी, पाप नथी, स्वर्ग थी, नरक नथी, मोक्ष नथी, पुनर्जन्म नथी, मनथी कंइ ग्रहण थइ शकतुं नथी अने जेमां पांचे इन्द्रियोनो विषय होय एवा प्रत्यक्ष शिवाय अन्य प्रमाण मानवा योग्य नथी. ए शुं युक्तिमत् छे ? जे वस्तु दृश्य ( इन्द्रियगोचर ) होय ते ज सत् अने बीजी असत् एवी मान्यता योग्य नथी. जेमां पांचे इन्द्रियोनो विषय होय एवी कइ वस्तु छे ते तेमने विचारखुं. जो कहे के, शुं रामादि (वी वगैरे ) वस्तुमां सर्व इन्द्रियोनो विषय नथी ? तो विचारवानुं के, रात्रिना वखते शब्रूपथी सरखी पण जे पूर्वे कहेली रामादि वस्तु नथी तेमां ते रामादि वस्तुनो भ्रम शुं नथी थतो ? जो कहे के, रात्रिना वखते सर्व इन्द्रियो अववोधनी हानि थवाथी प्रायः मोह पामे छे अने तेने लीधे रामादि नहि एवी वस्तुमां रामादि वस्तुनो-अतद्वस्तुमां तद्वस्तुनो भ्रम थाय छे, त्यारे तो सिद्ध युं के इन्द्रियो द्वारा थतुं ज्ञान हमेशां सत्य होतुं नथी. नीरोगी पुरुष शंख सफेद छे एम जोइने लेछे. पछी तेनेज ज्यारे काचकामळी रोग थायछे त्यारे ते शंख बहुरंगवाळो छे एम शुं ते नथी कहेतो ? पुरुषतुं मन ज्यारे स्वस्थ होयछे त्यारे ते स्ववन्धुओने ओळखेले पण ते ज ज्यारे मदिराथी उन्मत्त थयो होयछे त्यारे शुं ओळखी शकेछे? आ वे दृष्टान्तोमांना पुरुषोमां इन्द्रियो तेनी ते ज छतां एटलो विपर्यास शाथी थयो ? ए पुरुषोतुं कयुं ज्ञान साचुंप्रमाण : पुरातन - रोगादि थता पहेलांनुं के आधुनिक - रोगादि थमा पछीनुं ? आधुनिक नहि पण पुरातन साचुं एम जो कहे तो Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) इन्द्रियो तेनी ते ज छतां विशेषता शाथी थइ ? पूर्वे मन अविकारी हतुं ते पाछळथी विकारी थवाथी एटलो भेद पडयो एवो जो खुलासो करतो ए भेद शेमां थयो ? जो ए भेद मानसिक होय तो मन दृश्य नथी तेम वर्णोवडे पण ते निवेदन करी शकातुं नथी अने जे दृश्य नथी ते-नास्तिकनी मान्यता प्रमाणे छेज नहि. विकार तो साक्षात् थयो छे, ते केम थयो ? दृश्य पदार्थोमां ज जो इन्द्रियो मोह पामेछे तो कयो सत्पुरुष कहेशे के, इन्द्रियज्ञान सर्व सत्यछे ? दिव्यदृष्टि निःस्पृह उपकारी पुरुषोए जे उपदिश्युंछे ते ज सत्यछे. स्वस्थ चित्ते तत्त्वदृष्टिथी विचार करो के, ज्ञानवंते उपदेशेला *आनंद शोकादि घणा शब्दोने नास्तिक आस्तिक सरखी रीते यथार्थ मानेछे. ___*आनंद, शोक, व्यवहार, विद्या, आज्ञा, कला, ज्ञान, मन, विनोद, न्याय, अन्याय, चोरी, जारी, चार वर्ण, चार आश्रम, आचार, सत्कार, वायु, सेवा, मैत्री, यश, भाग्य, बल, महत्व, शब्द, अर्थ, उदय, भंग, भक्ति, द्रोह, मोह, मद, शक्ति, शिक्षा, परोपकार, गुण, क्रीडा, क्षमा, आलोच, संकोच, विकोच, लोच, राग, रति, दुःख, सुख, विवेक, ज्ञाति, मिय, अप्रिय, प्रेम, दिशा, देश, गाम, पुर, यौवन, वार्धक्य, सिद्धि, आस्तिक, नास्तिक, कपाय, मोष (चोरीनो माल), विषय, पराङ्मुख, चातुर्य, गांभीर्य, विषाद, कपट, चिन्ता कलंक, श्रम, गालि, लज्जा, संदेह, संग्राम, समाधि, बुद्धि, दीक्षा, परीक्षा, दम, संयम, माहात्म्य, अध्यात्म, कुशील, शील, क्षुधा, तृपा, मूल्य, मुहूंत, पर्व, सुकाल, दुष्काल, विकराल, आरोग्य, दारिद्य, राज्य, अतिषय, प्रतीति. प्रस्ताव हानि, स्मृति, वृद्धि, गृद्धि, प्रसाद, दैन्य, व्यसन, असूया (अदेखाइ), शोभा, प्रभाव, प्रभुता, अभियोग, नियोग, योग, आचरण, आकुल अने भावप्रत्ययान्त इत्यादि. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ आ शब्दो जिव्हादिवत् ? शब्दवाळा नथी, स्वर्णादिनी पेठे रूप वाळा नथी, पुष्पादिनी पेठे सुगन्धवाला नथी, शर्करादिनी पेठे रसवाळा नथी अने पवनादिनी पेठे स्पर्शवाळा नथी. परन्तु ताल्वोष्ठजिव्हादि स्थानकेथी बोलायछे, एक कर्णेन्द्रिय द्वारा एमना वर्णो ग्रही शकायछे, एमनाथी थती चेष्टादिवडे विशेष बोध थायछे अने स्वाभ्यासमां थयेला फळ उपरथी अनुमान थइ शकेछे. ए शब्दो स्वविरोधीनो नाश करेछे अने स्वविरोधीनो जन्म थतां वार ज पोताना नामनो शीघ्र नाश करेछे. स्वकीय उच्चारनी साथे उत्पन्न थता गुणविशिष्ट ए शब्दोने सर्वे एकसरखी रीते वापरेछे. जो आवा सिद्ध शब्दोनो साक्षात्कार स्वइंद्रियो वडे थतो नथी तो अप्रत्यक्ष पुण्य पापादि वस्तुमां कोनी इन्द्रियोनी प्रवृति थइ शके ? Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) चौदमो अधिकार. ___ एक प्रत्यक्षने ज प्रमाण मानवु, ते विचार करतां विवेकचक्षुवंतोने सर्व पदार्थनी सिद्धि माटे समर्थ लागतुं नथी. त्यारे सत्य शुंछे ? प्रवीणो कहे छे के, जे एक पद वडे वोली शकाय ते सत्पद अने जे सत्पद वडे वाच्य होय ते होय ज. दृष्टांत तरीके, आनंदशोकादि पूर्वे कहेला शब्दो. विशेषमां काल, स्वभाव, नियति, कर्म, उद्यम, प्राण, मन, जीव, आकाश, संसार, विचार, धर्म, अधर्म, स्वर्ग, नरक, विधि, निषेध, पुद्गल, परमाणु, सिद्ध, परमेश्वर इत्यादि. ए शब्दोमांना कोइ पण शब्दने बुद्धिमान् चेष्टा वडे प्रतिपादन करी शके एम नथी. पण वधा शब्दो सत्पद वडे प्ररूपवा योग्य छे. एमना वर्णो एक कर्णेन्द्रियथी ग्रहण थइ शके छे अने स्वस्वभावथी उत्पन्न थता ते ते प्रकारना फलथी अनुमान पण थइ शके छे. मात्र केवलज्ञानी जोइ शके छे. जे शब्दो वे अथवा वधारे पदोना संयोगयी थाय छे ते (तद्वाच्य वस्तु ? ) होय अथवा न पण होय. वंध्या अने पुत्र पृथक् पृथक् होय छे पण वंध्यापुत्र एवो युक्त शब्द (तद्वाच्य कोइ वस्तु विशेष ?) नथी. तेज प्रमाणे आकाशपुप्प, मरीचितोय (आझवानां पाणी), खरशृंग इत्यादि अनेक संयुक्त शब्दो युक्त नथी ( अर्थात् तद्वाच्य कोइ वस्तु नथी). कर्णेन्द्रिय वडे ग्रहण करवा योग्य भावथी पण एमनी सत्ता नथी. माटे इन्द्रियगोचर सर्व सत्य नथी. केटलाक संयोगज शब्द (तद्वाच्य वस्तु ?) होयछे, त्यारे तेमनो (संयुक्त शब्दोथी वाच्यनो ? ) Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) विरह प्रायः होतो नथी. जेमके गोशृंग, नरेन्द्रकेश, भूमिरुह, गोपति भूधर वगेरे. केटलाक शब्दो पृथक् पृथक् अने संयुक्त पण होयछे. आंख कान वगेरेथी ग्रहण थइ शके एवी वस्तु छतां पण खरा कर्पूरादिमां अने कर्पूरादि नहि पण तेना जेवा ज लवण शर्करादिमां आंख कान भेद पाडी शकतां नथी. आंख, कान, नाक ने जिहाथी जो के शर्कराकर्पूरादि सुगन्धी वस्तुओ विषे ज्ञान थायछे तो पण तेमांना केटलाक विषे जिह्वाथी थयेलं ज्ञान प्रमाण गणायछे. स्वर्णादि वस्तुमां, आंख अने काननुं ज्ञान स्फुरेछे खरं पण ते पदार्थनी खात्री माटे मात्र इन्द्रिय-ज्ञान नहि किन्तु कषादिथी थतुं ज्ञान ज प्रमाण गणायचे. रत्नपरीक्षको इन्द्रियो सरखी छतां रत्नपरीक्षिका नामना ग्रंथना आधारे माणिक्यप्रमुख रत्नराशियोनी किंमत अधिक ओछी करेछे पण एक सरखी करता नथी तेमां तेमनी प्रतिभाविशेष कारण छे, तेवीज रीते अफीणादि जोटक (केफ?) मां सर्व इन्द्रियो मोह पामेछे; पण ते खाधाथी थती उन्मत्तत्ता तेमना विषे निर्णय करवामां प्रमाण गणायछे. माटे इन्द्रियज्ञान सर्व सत्य नथी. औषधी, मंत्र, गुटिका अने अदर्शीकरण (नेत्रांजन) थी गुप्त रहेनारनुं शरीर लोकोना दृष्टिपथमां आवतुं नथी तेटला उपरथी ते नथी एवं शुं इन्द्रियो नथी ग्रहण करती? अर्थात् इन्द्रियोथी तेनुं अस्तित्व ग्रही शकातुं नथी. तो पण ते गुप्त पुरुष आनयमोचनादि-लाव_ मूकवू वगेरे कार्य करेछे तेथी तेनी सत्ता सिद्ध थायछे. * आथी परोक्षनी सिद्धि थायछे अने परोक्षनी सिद्धि थइ एटले स्वर्गनरकनी सिद्धि थइ ज. *शक्ति, महेश, वीर, भूत, सती, जांगुलिका, सपत्नी अने सिद्धायिकादिनी सिद्धि पण तेवीज रीते मनायछे. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) जे वस्तु चेष्टाथी पण न देखाय ते केवी रीते मनाय ? सर्वज्ञ भगवान् केवल-ज्ञानथी जेटली सत् वस्तु छे तेटली तमाम जाणी शकेछे माटे वीजाने अवबोध थवाना हेतुथी ते जेजे वचन कही गयाछे ते प्रमाण गणवां जोइए. जुओ! लोकमां पण अन्य जनोने जे नथी जणातुं ते खरेखर तज्ञाताने देखायछे. नैमित्तिको (ज्योतिर्विदो) ग्रहण, ग्रहोदय, गर्भ तथा मेघनुं आगमन वगेरे जाणी शकछे. चूडामणि ( रमळ ? ) शास्त्रना जाणकार वीतेली सर्व वात कही शकेले. निदानवैद्य सर्व रोगर्नु निदान निवेदन करी शकछे. परीक्षको ( परखिया ) नाणांनी परीक्षा करी शकेछे. पदज्ञ (पगी) पगलं काढी शकछे. शाकुनिक शकुन ओळखी शकछे. सामान्य लोको तेवू कइ करी शकता नथी. आटला उपरथी ज समजाशे के इन्द्रियोथी बीजो शो बोध थइ शके ? तात्पर्यके सर्व लोको परोक्ष पदार्थोने जाणी शके नहि, मात्र ज्ञानी जाणी शके. इन्द्रियो छतां पण मनुष्य आचार, शिक्षा, विद्या, मंत्र, आन्नाय, साधन, चरित्र, वृतान्त अने परदेशवार्ता पोतानी मेळे जाणी शकता नथी पण परोपदेशथी जाणी शकेले. माटे चित्त स्थिर करी अने विकल्प मुकी समजो के इन्द्रियो पोताने जे ग्रहण करवा योग्य होय तेनुं ज ग्रहण करेले. जे ज्ञान इंद्रियोने परोक्ष होय ते परोपदेशथी शीघ्र समजायछे. आ सर्व सारुं छे के नठारं हे ते विस्तारथी अथवा संक्षेपथी अन्यद्वारा ज समजी शकाय छे. अंऋद्धि (अंतरगळ), शुक्ररोग, कफ, पित्त, वात, नाडी, भ्रम, गुल्म, यकृत् , मलाशय, गंडोल (कृमि ? ), तापाधिक्य, वाळो, कपालरोग, गलरोग अने विधि इत्यादि म्बगरीरगत रोगोने सामान्य माणसो पोतानी इन्द्रियोवडे जाणी शकता नथी. पण परोक्ति सांभळवाथी तथा .... Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषधादिवडे शमन थवाथी रोगना अस्तित्व विषे तेमनी खात्री थायछे. जे वस्तु प्राणीना शरीरना अवयवभूत होय ते जोइ शकायछे परंतु अमूर्त जोइ शकाती नथी. आकृतिवाला प्राणीना अंग उपर जे वस्तु थइ होय अथवा जे तदंगभूत होय ते ज जोइ शकायचे. निराकार जीवना गुण जोइ शकाता नथी, केमके ते गुणो पण निराकार छे. आथी सिद्ध थयुं के इन्द्रियोने जे ग्रहण करवा योग्य होय तेनुं ज ते ग्रहण करेछे अने आप्तोए कपुछे जे सामान्य लोकनी इन्द्रियो सर्व जोइ-ग्रही शकती नथी ते सत्य छे. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) पंदरमो अधिकार. O C. .1 कोइ वस्तु शरीरना वहारना भाग उपर रहेली होय तेम छतां पण जो ते दृश्य-ग्राह्य होय तो ज प्राणीओ तेने स्वइन्द्रियोवडे देखी शकेछ. जे ग्राह्य नथी तेनुं ग्रहण थतुं नथी. ते मात्र बीजाना कहेवाथी मानवामां आवेछे. अत्र दृष्टान्त. कोइ पुरुषनी गरदनना पाछला भाग उपर के पृष्ठ-वांसाना मध्य भागमां भुंग ( भमरो) अथवा स्वस्तिकादि चिह्न अथवा तिल (तल) वगेरे होय तेने ते पोतानी इंद्रियोबडे जोइ शकतो नथी. ज्यारे तेनां मातृश्री प्रमुख आप्त-वृद्धो कहेछे के 'तने अहीं भंगादि छे' त्यारे ते मानेछे. परंतु कोइ पण प्रसंगे ते स्वइन्द्रियोवडे तेने जोइ शकतो नथी. तेवीज रीते स्वर्गादि विद्यमान छतां स्वइन्द्रियोवडे ग्राह्य नहि होवाथी देखी शकाता नथी. अहीं एवी शंका नहि करवी के, जेम भुंगादिने जोनारा घणा होय छे अने नहि जोनार मात्र ते भंगादिवाळो एकलो होयछे तेवी रीते स्वर्गादिने जोनारा घणा नथी. स्वशरीरमा रहेला चिह्नने नहि जोनारना जेवा नास्तिक छे अने आप्त वचनने प्रमाण माननारा अर्थात् परभवने माननारा आस्तिको नास्तिक करतां वधारे छे. एम पण नहि कहेवू के, पृष्ठ (पीठ) उपर आवेला चिह्नतुं फळ थायछे त्यारे तेनो निश्चय थायछे तेम स्वर्ग नरकनो कोइ पण चेष्टावडे बोध थतो नथी. शैवोने मान्य शक्ति, शम्भु, गणेश, वीर वगेरे देवसमूह अने तुरुष्को-(मुसलमानो) ने पूज्य फिरस्ता, पेगंवर, पीर प्रमुख तेमनी सेवाथी थता तादृश फळबडे-लोकोक्ति प्रमाणे जाणी शकायछे ते छे के नहि ? जो छे तो ने देव छे-मयं (मनुष्य ) नथी पण कलिकालना योगयी मायः देखी शकाता नयी अने तेमनी निवासभू Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रनो मार्ग पण मनुष्योने अगम्य छे. तेमनी सत्ता सिद्ध छे, जे आपणा जेवा अहीं रहेनाराथी दर्शावी शकाय तेम नथी. एज प्रमाणे पाप हेतुथी प्राप्त थवा योग्य नरकगतिनी सत्ता पण स्वयमेव विचारी लेवी. वळी 'स्वचित्तमां एवो विचार करो के, लंका छे अथवा नहीं? छे एम तो तमे अमे सर्वे सांभळीए छीए. वारु ते कोण मानतुं नथी? जो मानो छो तो अहीं रह्यां रह्यां बतावो. अहीं रह्यां रह्यां कोनाथी बतावाय एम जो कहेवू होय तो जेम अहीं रहेलाथी लंका न देखाय तेम अहीं रहेला छद्मस्थ (केवलज्ञान नहि पामेला) पुरुषोथी स्वर्गमोक्षादि स्थान पण न देखाय. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६ ) सोळमो अधिकार स्वर्गमोक्षादि प्राप्त करवा साधन शुं छे ? हिंसा, असत्य, चोरी, स्त्रीसंग अने परिग्रह ( पदार्थों उपरनी मी) ए सर्वनो सर्व प्रकारे त्याग करवाथी स्वर्गमोक्षादि प्राप्त थायछे. जगत्मसिद्ध भगवान् ए पांचने छोडीने ज सिद्ध थयाछे. मुमुक्षुओ ( मोक्षना अभिलाषी साधु-मुनियो ) मां सत्य, शील, क्षमा, उपकारिता, संतोष, निर्दूषणता, वीतरागता, निःसंगता, अप्रतिवद्धचारिता (विना प्रतिबंधे जवु आवq ) सज्ज्ञानिता, निर्विकारता, सद्गोष्ठिता, निश्चलता, प्रकाशिता, अस्वामिसेविता, अतीवसत्वता, निर्भीकता, अल्पाशनता (थोडं खावू ), विशिष्टता, संसारसंबंधजुगुप्सता इत्यादि जे अल्प गुणो होयछे ते ज ज्यारे ते मुमुक्षुओ सिद्धि पामेछे त्यारे क्षेनना प्रभावथी अर्थात् सिद्धस्वरुप शिव थवाथी अनंत थायछे. आमां केवलिनु वचन प्रमाण छे. सेवक स्वामीना शीलने अनुसरयूँ जोइए. आ बात लोकमां प्रतीत छे. तदनुसारे महानुभाव मुनियो सिद्धना गुणोने प्राप्त करवानी इच्छाथी सिद्ध जे अमूर्त, निराहार, गतद्वेष, वीतराग, निरंजन, निष्क्रिय, गतस्पृह, स्पर्धारहित, बंधनसंधिवर्जित, सत्केवलज्ञाननिधानसुंदर अने निरंतर आनंदामृतरसपूर्ण छ तेमना गुणोतुं यथाशक्ति अनुकरण करेछे. यद्यपि सिद्धना सर्व गुणोने पूर्णपणे सेववाने अहींआ भवमां ते समर्थ थता नथी तथापि आत्मयोग्य बल (वीर्य) फोरवीने सिद्धना गुणोनो आश्रय तो जरुर लेछे. ते आ प्रमाणे:सिद्धो अमृत प्रकाशे छे : साधुओ देह उपर ममत्व राखता नथी. सिद्धो अरू.पी छे : साधुओ शरीरना संस्कारनो तथा सत्कारना Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) निषेध करेछ. सिद्धो निराहार छे : आधुओ पण क्वचित् क्वचित् (पर्वदिवसोमां) आहारनो त्याग करेछे. सिद्धो द्वेषथी मुक्त छ : साधुओ सर्व जीवो उपर रुचि सहित मैत्री धारण करेछे. सिद्धो वीतराग छे : साधुओ बन्धुओना बंधनथी रहित थायछे. सिद्धो निरंजन छे : साधुओ प्रीतिविलेपनादिथी शून्य रहेछे. सिद्धो निष्क्रिय छे साधुओ आरंभसरंभना विलंभ (विशेष प्राप्ति) थी दूर रहेछे. सिद्धो निःस्पृह छे : साधुओ कोइ प्रकारनी आशा राखता नथी. सिद्धो अस्पर्धक छे : साधुओ वादविवाद करता नथी. सिद्धो निर्बन्धन छे : साधुओ स्वेच्छाविहारी छे. सिद्धो निःसंधि छे : साधुओ परस्परनी मित्रताथी विरक्त रहेछ. सिद्धो केवलदर्शी छे : साधुओ सर्व जगत्स्वभावनी अनित्यता जोनारा छे. सिद्धो आनंदथी परिपूर्ण छ । साधुओ अंतःकरण शुद्ध राखेछे अने संतोषथी समभाव भावेछे. इत्यादि प्रकारे जे गुणो सिद्धोमां होवार्नु शास्त्रोमां जोवामां आवेछे ते गुणोने मुमुक्षुओ प्रकल्पी (धारी) यथाशक्ति आदरीने क्रमे करी सिद्ध थायछे. वीजा गृहस्थो पण जे दुष्कर्मनी शांति माटे पोतानी शक्ति प्रमाणे ते गुणोने देशथी ( अंशतः-सर्वथा नहि ) अनुसरेछे ते पण अनुक्रमे सुखी थायछे* गृहस्थो त्यारे भले एज गुणोनो चिरकाळ देशथी आश्रय करो पण जे काममा जीवहिंसा थायछे तेनो आश्रय करेछे ते शुं सारं ? ___ गृहस्थो प्रायः स्थूलबुद्धि, अधिकचिन्तायुक्त, आरंभसहित अने परिग्रह-(धनधान्यादि) मां आदरवंत होयछे. तेथी सूक्ष्म * श्रीपरमेश्वर छे अने तेनी सेवाथी मुक्ति मळेछे एवं माननारा सर्व शासन ( मत-दर्शन ) ना लोको परब्रह्म पामवानी इच्छाथी परमेश्वरग्रीत्यर्थ ए ज गुणोने अनुसरेछे, Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) दृष्टी आलोकन करवामां तेमनी बुद्धि कुंठित रहेछ ( काम करती नथी). आलंबन विना तत्त्वत्रय - ( देव, गुरु अने धर्म ) मां ते विमोह पामेछे. माटे शुभार्थे भले निरंतर साकार देवपूजा, साधुओनी सेवा अने दानादि धर्म करो, उच्च ( उत्तम ) कुलाचारना यशना रक्षणार्थे गृहस्थो पूर्वे सर्व प्रकारना धर्मनुं सेवन करता माटे हाल पण गृहस्थो आत्मसंपदा माटे द्रव्यथी अने भावथी बने प्रकारे धर्मनो आश्रय ल्यो. गृहस्थो प्रायः सावद्य (पापमय व्यापार ) - मां रक्त, सदाकाळ ऐहिक अर्थप्राप्तिमां प्रसक्त, कुटुंबपोषणार्थे उच्च नीच घणी वार्त्ता - ( आजीविका ) मां आदरयुक्त, परतन्त्रताथी खिन्न अने मनमान्या पुण्यकार्यमा उद्यमवंत होयछे, ते आत्मरुचि प्रमाणे ज प्रवृत्ति करेछे. माटे स्वचित्तनी अभितुष्टि माटे जे पुण्य करे ते करवा द्यो. ए गृहस्थो हृदयमां जाणे एम धारीने द्रव्यधर्म करेछे के जेम आ मन द्रव्यवडे अन्य कर्मों कराव्याथी तुष्टि धारण करेछे तेमज द्रव्यवडे कोइ प्रकारना धर्म पण करीने स्व मनने प्रसन्न करीए. गृहस्थोना सर्व व्यापार द्रव्यथी सिद्ध थायछे तेथी द्रव्यवतोने द्रव्यवडे ज स्वधर्म साधवाने स्वाभाविक मन थायछे अने ते युक्त छे. केमके जेनुं जेमां वल होय ते ज वलवडे ते पोतानुं धार्यु करे. माटे द्रव्यधर्म करता गृहस्थोना मननी जे प्रकारे संसारकार्यथी संवृति थाय ते प्रकारे सालवन ( साकार देवपूजा, साधुसेवा अने दानादि ) द्रव्य धर्ममां - पुण्य विधियां ते मन- अपेक्षा राखो. स्वइन्द्रियोने संसार संबंधी क्रियामांथी रोकीने जेथी मन थोडं पण स्थिर थाय ते पूजादिनो ज आश्रय करो. ज्यांसुधी अनाकार पदार्थतुं चिंतन - सिद्ध परमात्मानुं निरालंबन ध्यान करवामां मन समर्थ न थाय अने मुसाधुकुसाधुनो निश्चय करवा योग्य ज्ञानोदय न थाय त्यांसुधी निश्चयदृष्टि कुलीन पुरुषे स्वव्यवहारनी · Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) रक्षा करवी. निश्चय उपर दृष्टि कायम राखी ए रीते व्यवहार साचवनार गृहस्थ बीजाथी निंदातो नथी, ज्यारे निराकार पदार्थमा पण चित्त स्थिर थाय त्यारे सिद्धन निरालंबन ध्यान करवू. ते साधवा माटे साधुओए अने गृहस्थ प्रमुखोए आत्मज्ञानमा प्रयत्न करवो. पूर्वे जे द्रव्य अने भाव ए प्रकारनो धर्म कहेवामां आव्यो ते सर्व निर्वाणधाम-( मोक्षरूप महेल) नी द्वारभूमि ( आंगणुं ) माप्त करवा माटे उत्तम यान ( वाहन ) समान छे अने आत्मज्ञान ए आंगणामां पहोंच्या पछी निर्वाणधामनी अंदर प्रवेश करवा माटे आंगणामांना पादविहार (पगे चालवा) सदृश महात्माओने शिवाल यमां अवस्थिति करी आपनार छे. अर्थात् आत्मज्ञान ए परमधर्म छे जे साधवाथी निति (मोक्ष) निश्चित थायछे. आत्मज्ञानमा ज्ञान दर्शन अने चारित्र प्रमुख सर्व गुणसमूह होयछे. आत्मज्ञान प्रकृष्टपणे जयवंत वर्तेछे केमके ज्ञानादि शुद्धि एमां अनंत थायछे. ते थवाथी अनंतचतुष्टय ( अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, • अनंत वीर्य अने अनंत सुख ) प्राप्त थायछे. जेम आकाशदर्शनयां तेम ए अनंतचतुष्टयनो पार पामवाने सर्वज्ञ विना कोई, ज्ञान सर्व प्रकारे शाश्वत समर्थ नथी. ... ........ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) सत्तरमो.अधिकार. भगवंतनी प्रतिमा पूजवाथी पुण्य थायछे ए कयन जरा पण केम संभवे ? अजीवथी फलसिद्धि केवी रीते थाय? __ अजीवनी सेवाथी शुं थाय एवी शंका मनमा बीलकुल लाववी नहि. केमके जेवा आकार- निरीक्षण थाय तेवा आकार संबंधी धर्मठे प्रायः सनमां चिंतवन थाय. संपूर्ण शुभ अंगे विराजित पुत्रिका (पूतळी) जोवामां आवतां. ते तादृश मोहर्नु कारण थायछे. कामासननी स्थापनाथी कामिजनो कामक्रीडा संबंधी विकारोने अनुभवे छे. योगासनना अवलोकनथी.. योगीओनी योगाभ्यासमां मति थायछे, भूगोलथी तद्गत वस्तुनी बुद्धि थायछे. लोकनालिथी लोकसंस्थिति (लोकनी रचना) समजायछे. कूर्मचक्र, अहिचक्र, सूर्यकालानलचक्र, चंद्रकालानलचक्र अने कोटचक्र ए आकृतियोथी अहीं रह्या रह्या तत्संबंधी ज्ञान थायछे. शास्त्र संबंधी वर्णों (अक्षरो)नो न्यास (स्थापना) करवाथी ते वर्णों जोनारने शाखनो बोध थायछे. नंदीश्वरद्वीपना पुट-(नकशा) थी तथा लंकाना पुटथी तद्गत वस्तुनी चिंता थायछे. एवीज रीते स्वईशनी प्रतिमा तेमना ते ते ( प्रसिद्ध) गुणोनी स्मृतिनं कारण थायछे, जे वस्तु साक्षात् दृश्य न होय तेनी स्थापना करवानुं संप्रति (हाल) लोकसिद्ध छे. अत्र दृष्टांत. पोतानो पति परदेश गयो होय त्यारे सती स्वी पतिनी प्रतिमान दर्शन करेछे. रामायणमां सांभळवामां आवेछे के, श्रीरामचंद्र परदेश (वनवास) गया त्यारे भरत नरेश्वर रामनी पादुकानी राम प्रमाणे पूजा करता हता. सीता पण रामनी आंगळीनी मुद्रिकानुं आलिंगन करी राममाप्तिनु मुख मानती हती. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम पण सीतार्नु मौलिरत्न पामीने सीता मळ्या जेटली रति (मुख) मानता हता. आमांना एके दृष्टांतमा कोइना शरीरनो आकार नहोतो तेम छतां ते अजीव वस्तुओथी तथाप्रकारचं मुख यतुं हतुं. त्यारे ईश्वरनी प्रतिमा पण सुखने माटे केम न थाय ? पांडवचरित्रमा लोकमतीत प्रसिद्ध बात छे के द्रोणाचार्यनी प्रतिमा पासेथी लव्य नामना भीले अर्जुनना जेवी धनुर्विद्या सिद्ध करी हती. चंचादिक (क्षेत्रमा उभी करवामां आवती पुरुषाकृति वगेरे) अजीव वस्तु छतां क्षेत्रादिनी रक्षा करवामां समर्थ थाय छे, वळी लोकमां मनायछे के अशोक वृक्षनी छाया शोक हरण करेछे, कलि-(बहेडा) नी छाया लोकमां कलह माटे थायछे, अजारज (बकरीनी खरीयोथी उडती धूल) वगेरे पुण्यहानि माटे थायछे, अस्पृश्य चंडाल वगेरेनी छाया पण उल्लंघाय तो पुण्यनी हानि करेछ, सगर्भा स्त्रीनी छाया उल्लंघन करनार भोगी पुरुष, पौरुष हणेके. अने महेश्वरनी छाया उल्लंघन करनार उपर महेश्वरनो रोप पायछे. ए प्रमाणे घणा पदार्थ अजीव छतां सुखदुःखना हेतु थायछे. त्यारे देवाधिदेव-(परमेश्वर) नी प्रतिमा पण अजीव छतां अहीं मुखनो हेतु कम न थाय? एवं पण मा कहो के परमेश्वरना दर्शनथी भरना पापन हरण थाय पण प्रतिमानी पूजा करवामां आवे. ने अजीव होवाथी शुं फल आपे ? परमेश्वरनी प्रतिमा अजीव पता पण तेने पूजवाथी पुण्य-फल जरुर थायछे. जेनी जेवी जेवी अवस्था-गुण विशिष्ट प्रतिमा चित्तमां होय, तेना ते ते गुणो ते मतिमायी संपादन थइ शकछे. लोकमां मनायछे के, ग्रहोनी प्रतिमाना पूजनधी ते संबंधी गुणो-फल थायछे सतीओनी, क्षेत्राधिपनी, पूर्वजोनी, ब्रह्मानी, मुरारिनी, शिवनी अने शक्तिनी स्थापनाने मानवाथी हित अने नहि मानवाथी अहित थायछे स्तूपो पण तेवी Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) रीने फल आपेछे रेवन्त, नागाधिप, पश्चिपेश अने शीतलादिनी प्रतिपाना पूजनथी पम कामिनि धायछे अने कार्मण तथा आकर्षण ( कामण टुपण ) जाणनामा पहनादिना निर्जीव पुतळा उपर जे जीवो नाम लेने विधि करेल ते जीवो ते विधिथी मूर्छित थइ जायछे. तेबीज रीत स्वदेशनी प्रतिमानी प्रचना नाम ग्रहण पूर्वक पूजा करनार कुशल पुरुष ज्ञानमय प्रभुने संप्राप्त करेछ. जेम कोइ स्वामी पोताना नोकरोने पोतानी मूर्त्तिनुं बहुमान करता जाणी तेमना उपर तुष्टिमान् थायछे तेम परमेश्वर पण तेमनी प्रतिमाना अर्चनथी अर्चित यतां मसान्न थाय छे. ___ उपर आपेलां दृष्टांतोमा अने हान्तिकमा महान् विशेष-अंतर छे. जे देवादि कहेवामां अव्या ते सर्व रागी अने' भगवान्-परमेश्वर तेत्रा नथी, तेनु केम ? त्यारे तो अतीव उत्तम. अनीहनी सेवा तो परमार्थनी सिद्धि- . माटे थायडे. जेमके स्पृहा रहित सिद्ध पुरुषनी सेवा इष्टलब्धिः . मादे थायछे. सिद्ध पुरुष तो साक्षात् वर आपेछे अने परमेश्वरनी प्रतिष्ठित प्रतिमा तो अजीव होयछे ते | आपी शके ? परिपूजनीय द्रव्यमा ए विचार जोवानो नथी. जे पूज्य होय . ते पूजायछे ज. दक्षिणावर्त (शंखादि), कामकुंभ, चिंतामणि अने चित्रावल्ली एमां कयी इंद्रियो छे के ते पूजातां लोकानुं मत-धारेलू करेछ ? जेम ए अजीव वस्तुओ दोवाथी स्पृहारहित छतों स्वभावथी प्राणीमोना कामितने परेछे तेम परमेश्वरनी प्रतिमा पण पूजातां पुण्यसिदि मादे वायछे, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) दक्षिणावर्त्त प्रमुख पदार्थों अजीव छतां पण विशिष्ट जातिना अने दुर्लभछे तेथी तेमनुं आराधन करणार प्राणी धायै ते करे - छे. पण परमेश्वरनी प्रतिमा तेवी नयी, ते तो मुच्य पाषाणादिनी बनावेली होयछे एटले ते एमना सदृश शीरीते थाय ? 1 जे वस्तु मूल - स्वभावथी गुण युक्त प्रतीत होय तेना करतां पण पंचकृत (पंचे मानेली - स्थापेली ) वस्तु विशेष गुणाढ्य गणायछे. अत्र दृष्टांत. कोइ राजपुत्र प्रायः वीर्यादि गुणलुं स्थान होय 'तेने पडतो मुकी वीजा कोइ दुर्बल वंशमां उत्पन्न थयेला पुरुषने तेना पुण्यना योगे प्रमाणिक पंचो राज्य उपर बेसाडे तो ते बीजो पुरुष मूलना राजवंशीय उपर पण शासन- हुकम चलावे अने जो ते तेनुं कां करतो नथी तो + नंदराजानी पेठे शिक्षा पायेडे हवे मनथी विचार करोके मूलनो राजपुत्र गुणी अने योग्य छतां पग क्षुद्र कुलमां उत्पन्न थयेल राजा पंच - पूजित ( मान्य ) होवाथी सेववा योग्य थायछे. तेज प्रमाणे चिंतामणि वस्तु निज स्वभावथी उत्तम छतां पण परमेश्वरनी प्रतिमा मामाणिक पंचोथी पूजित होवाथी पृथ्वी उपर विशेष मान्य थाय छे. जुओ वरराजा, महाजन, दचपुत्र अने एवी वीजी वाबतोमां पंच जेने भाग्यनी प्रेरणाथी संस्थापित करेछे ते ज मान्य थायछे तेमज स्त्र पूजाद ( सौभाग्य नाम : ) * आ कथन जे देशकाळमां पंचोनी सत्ता सर्वोपरि-पंच त्यां परमेश्वर एवी मनाती होय तेने लागु छे. + नंद नामना नव राजा पाटलीपुत्रषां राज करता इना. नंदने चाणाक्यादिए राज्य उपरथी दूर की चंद्रगुप्तने इ स. पूर्वे ३१५ मां गादिए बेसाड्यो हतो अने तेणे नत्रमा नंदने मारी नाख्यो हतो. - इतिहास. - Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मना प्रभावथी परमेश्वरनी जे प्रतिमा स्थापवामां आवी होय ते पूजवा योग्य थायछे. ____ उपर जे पदार्थो कहेवामां आव्याछे ते आकारयुक्त होवाथी तेमनी आकृतिने अन्तरात्मामां धारण करीने तेमना बिंब (मूर्ति)नी पूजा करवामां आवे छे ते युक्त छे. पण भगवान् तो निराकार प्रसिद्ध छे एटले तेमनुं विंव करीने केवी रीते पूजाय ? एम करवायी , अतदू वस्तुमा तद्ग्रहनो ( अभगवंतगां आ भगवान् छे एवी बुद्धि करवानो) दोष कम न लागे ? निराकार भगवंतनुं विंब तो अवताराकृतिनी रचनाछे. अर्थात् महात्माओए भगवंतनो संसारमा अवतार (छेल्लो भव) जेवो थयो हतो तेवी भगवंतनी स्थापना करेली छे अने भगवंतनी जे जे अवस्था जेमने रुची ते अवस्थामां तेना अर्थीओ भगवंतने पूजेछे.. , , Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमों अधिकार....... - - 'निराकार सिद्ध भगवंतनी प्रतिमा पण साक्षात् सिद्धनी पेठे स्वचित्ताशयमां चिंतवेली आशाने निःशंकपणे विस्तारेछे. स्थापना जे छे ते स्वचित्तथी कल्पायछे. ते सत् अथवा असत् (विद्यमान अथवा अविद्यमान ) वस्तुनी भले. हो. सर्व स्थापना. सेवती वखते जेवा पोताना भाव होय तेवु फल आपेछ. एम संशय नथी. लोकमां पण अनाकार वस्तुनो आकारभाव वतावायछे, जेमके, *आभगवंतनी आज्ञा छः एतुं जे उल्लंघन करे ते साधु नहि अने ने उल्लंघन न करे ते साधु. आम्नाय-(आगम अथवा मंत्र) शास्त्रमा 'पण आ वायुमंडळ अने आ आकाशमंडळ एवी आकृति लेखायछे. विचारशास्त्रमा पण स्वरोदयनां पृथ्वी, अप, तेज, वायुः अने आकाश ए पांच तत्त्वो आकृति काढीने वतावायचे. आ दृष्टान्तोर्मा जेम अनाकार वस्तु साकार बताववामां आवेछे तेम निराकार सिद्धनो पण आकार-प्रतिमा भले हो. वळी देखो! लोकमां पूर्वे जे महात्मा लब्धवर्ण (साक्षर) थइ गया तेमणे आकृति विनाना वर्णोने स्वचित्तनी कल्पनाथी आ 'क', आ 'ख', एवी रीते प्रत्येकने नाम दईने साकार वनाव्या छे. जो तेमान होत अने वर्णो नियत होत तो सर्वनी आकृति सरखी होत पण तेम छे नहि भिन्न भिन्न ज वर्णाकृति छे. कोइ तुल्य नथी विश्वमा जेटलां राष्ट्र (देश) छे ते सर्वमा वर्णाकृति जूदी नदी छे पण व्यक्ति-( पठन ) समये उपदेश * आ दृष्टांतमां भगवंतनो प्रताप अमूर्त छे अने तेनी आज्ञा पण अमूर्त छे तोपण सत्पुरुषो तेनी रेखा (आकृति) कल्पेछेपर्यायकार Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो सरखो थायछे अने कार्य पण सरखं थायछे. ए सर्व लिपियोने मिथ्या करवाने कोइ समर्थ नथी. जेमनामां जे लिपि सिद्ध छे ते ते लिपिबडे फलविधान करेछे. क्यारे शुं ? जेवी रीते बुध पुरुषोए आकार रहित अक्षरनी आकृति करी तेनी स्थापना पोतपोतानो मुगुप्त आशय जगाववा माटे जूदी जूदी करीछे अने जेवी रीते रागदारीना जाणकारोए रागो पण शब्दरूप होवाथी आकार रहित छतां ते सवेनी साकार स्थापना रागमाला नामना पुस्तकमां करीछे तेवीन रीते सत्पुरुषो अनाकार परमेश्वरनो आकार कल्पीने जेजे शुभ आशयथी पूजेछे ते सर्व आशय प्रायः तेमने फलेछे. अलिप्त परमेश्वरने जेम पूजा लागती नथी तेम निंदा पण लागती नथी. जेवी ते करे तेवी ज ते स्वकीय आत्याने लागेछे. वज्रमयी दीवालमां कोई पुरुष मणि फेंके अयवा पथ्थर फेंके तो ते बंने क्षेपकना भणी ज पाछा जाय, तेने छोडीने कदी बीजे जाय नहि. कोइ पृथिवी उपर उभो रहीने सूर्यनी सामे रज फेंके अथवा कर फेंके तो ते सर्व एना सन्मुख ज आवे, सूर्य तरफ किंवा आकाश तरफ कंइ जाय नहि. कोइ सार्वभौम (चक्रवर्ती) राजानी स्तवना करे तो ते करनारने ज फल थाय अने कोइ निंदा करे तोपण ते करनार ज जनसमूह समक्ष दुःखी थाय. सावभौम राजाले स्तुतिथी कंइ अधिक थतुं नथी तेम निंदायी कंइ ओछु पडतुं नथी. तेवीज रीते प्रभुने स्तुतिथी अथवा निहाथी कंह आधिक्य के हानि थतां नथी. वळी कोइ अपथ्य आहार ले तो ते लेनार दुःख भोगवेछे अने पथ्य आहार ले तो ते ( लेनार) मुख भोगवेछे. आहारमां वपरायली वस्तुने कंइ थतुं नधी. तेज प्रमाणे सिद्धनी पूजा ते-( पूजा ) ना करनार आत्माने लाभकारी थायछे. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) ___ओगणीसमो अधिकार. . . सिद्ध परमेश्वरनी पूजा पूजा करनारने पोताने फळदायी छे ए कथन योग्य छे. पण जेम चिंतामणि प्रमुख पदार्थो स्वपूजकोने तत्काळ अहींज फळ आपेछे तेम परमेश्वरनी प्रतिमानी पूजा तूर्त अहीं फळती नथी तेनुं शुं कारण ? __ए बाबत स्थिरचित्ते विचार करवा जेवी छे, जे वस्तुने फळवानो जे काळ होय ते काळे ज ते वस्तु फळेछे. अत्र दृष्टांत. गर्भ वहेलो नहि पण प्रायः नव महिने प्रसूति पामेछे. मंत्र विद्या कोइ लक्ष जापे तो कोइ कोटि जापे फळे छे. वनस्पतियो पण आपणी उतावळे नहि पण स्वकीय काळे फळेछ. कहेवत छे के, उतावळे आंवा पाके नहि. कोइ चक्रवर्तिनी अथवा इन्द्रादिनी सेवा करी होय ते पण काळे करीने फळेछे. पारो सिद्ध करवा मांडयो होय ते साध्यमान दशामां नहि पण काळे करी सिद्ध थाय त्यारे ज फळ आपछे. देशनां वीजां व्यावहारिक कामो पण तेनो काळ परिपूर्ण थायछे त्यारे ज सिद्ध थायछे. तेवीन रीते अहीं करेली पूजादिकपुण्य “स्वकाल-*भवान्तरमांज फलदायी थायछे. माटे फळ देनारा पदा ोना संबंधमा दक्ष पुरुषोए उत्सुकता राखवी योग्य नथी. चिंतामणि प्रमुख पदार्थो ऐहिक छे अने ऐहिक-तुच्छ फळने देवावाला छे. तेथी ते परभवमा नहि पण आ मनुष्यभव जे प्रायः तुच्छ काळनो होयछे * आ कथन यथास्थित भाव सहित करली द्रव्य पूजाना महत फलने उद्देशी समजवू. सामान्य पूजार्नु सामान्य फल तो अहीं-आ भवमां पण मळी शके. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) तेमां फळे छे. परंतु पूजाना पुण्यथी थनारूं फळ मोटुं होयछे तेथी ते बहुकाळ सुधी भोगववा योग्य थायछे अन बहुकाळ देवादि संबंधी भवान्तर विना वर्ततो नथी. माटे ए पुण्यनुं फळ प्रायः परजन्ममा गया पंछी जीवने उदयमां आवेछे. जो आ जन्ममा पुण्यनुं फळ उदयमां आवे तो ते जलदी नाश पामे. केमके, मनुष्यतुं आयुष्य प्रायः अतीव तुच्छ होयछे अने मनुष्य-देह विनश्वर-नाशवंत छे तेथी महत् पुण्यनुं फळ आ भवमा भोगवतां वचमा मृत्यु आववाथी त्रुटी (तुटी) जवानो भय रहेछे. मध्यमा दुःखनी उत्पत्ति हमेश महत्तर दुःखने माटे थायछे. अर्थात् मृत्यु जेवू अतिशय भीतिदायक कंइ नथी, जे पूजाना पुण्यनुं एवं महत् फळ भोगवतां थर्बु युक्त नथी. माटे पूजार्नु पुण्य मायः अन्य जन्ममा फळेछे. जेम अनेक प्रकारे परिश्रम वेठी उत्पन्न करेली वस्तु घणा काळसुधी अनेक प्रकारे उपभोगमा आववा छतां पण क्षय पामती नथी तेम पूजादिनुं पुण्य भोगव्या छतां ए प्रायः वीजा जन्ममां उदयमां आवेछे. अति उग्र पुण्य साक्षात् अहींज फळ आपछे. जुओ लोकमां कहेवायछे के, जे सत्यवादी होयछे ते गमे तेवा दिव्य-(भयंकर प्रतिज्ञा) मां कंचननी पेठे संशुद्ध नीकळी जायछे. जेम कोइ शुद्ध सिद्ध पुरुपने अथवा रााधु पुरुषने स्वल्प पण आप्युं होय तो ते सकलार्थनी सिद्धिने माटे थायछे अर्थात आ लोक परलोक संबंधी सर्व मुखर्नु कारण अने अनुक्रमे संसारना बंधनने छोडावनाएं धायछे अने जेम कोइ अनुत्तर (सर्वोत्तम) राजपुत्रादिने कोइ प्रसंगे एकादि वार जरा सर आप्यु होय तो ते आपनारनी इष्ट सिद्धि करेछे, वधारे शुं ? दुष्ट प्रतिपक्षी तरफथी थता मृत्यन्त काठमांशी पण तेनुं रक्षण करेछे; तेम कोइ अवसरे एकादिवार पूजादिथी महत् पुण्य उपार्जन कर्यु होय तेआ लोक तथा परलोकमां Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य सुखनी परंपरा प्राप्त करवामां हेतु थायछे. *शालिभद्रना जीवनी पेठे अथवा चोरनी पेठे एक पुरुषे उपार्जन करेलुं अतीव उग्र 'पुण्य अथवा पाप अनेक पुरुषोना भोगने माटे पण थायछे. जेमके राजानी सेवा करनार परिवार सहित सुखी थायछे अने रानानो अपराध करनार परिवार सहित मार्यो जायछे. जो ए प्रकारे परमेश्वरनी पूजादिनुं पुण्य सर्व प्रकारना स्वार्थने साधनारुं छे तो जनसमूह तेनोज आदर करो. परमेश्वरना नामनो जाप करवामां शामाटे प्रवृत्ति करवी? ___ - महापुरुषोए एवी योजना करवामां पण विवेक ज कर्योछे. गृहस्थो जे समर्थ छे ते द्रव्य अने भाव बंने प्रकारनी पूजाना अधिकारी * विक्रम संवत् पूर्वे ५४२-४७० ना अरसामा मगधदेशना राजगृह नगरमां श्रेणिक (बंभसार ) ना राज्यमा गोभद्र नामे शेठ रहेता हता. तेने भद्रा नामनी स्त्रीथी शालिभद्र नामे पुत्रनो जन्म थयो हतो. शालिभद्र पूर्वभवमा शालिग्रामने विषे धन्या नामनी गरीव स्त्रीनो संगम नामे पुत्र हतो. कोइ एक पर्वना दिवसे पाडोशीओने घेर खीर रंधाती जोइ संगमने ते खावानुं मन थयु. पाडोशणोना जाणवामां ए वात आववाथी तेमणे आपेला दुध चोखा साकर अने घीथी धन्याए खीर बनावी अने थोडी संगमने पीरसी वहार गइ. एटलामां कोइ एक महिनाना उपवासी साधु त्यां भिक्षार्थे आवी पहोंच्या. संगमे ते मुनिने भाव सहित पोताना भोजनमांनी खीर वहोरावी दीधी अने मनमा वह हर्ष पाम्यो. ते पुण्यना योगे ते मरीने शालिभद्र थयो हतो अने तेना पिता गोभद्र शेठ जे दीक्षा लेइ मरीने देवता थया हता ते दररोज तेने माटे अने तेनी स्त्रियादि परिवारने माटे नवा नवां दिव्य आभूपणादि मोकलता हता.-जैनशास्त्र. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे, परंतु जे महान् योगीओ द्रव्यप-परिग्रह विना आ संसारमा सदा शोभेछे तेमने माटे परमेश्वरनुं नामस्मरण ज युक्त छे. तेनाथी तेमनो सर्व स्वार्थ सिद्ध थायछे. जेम झेरी जनावरना विषयी मूछी पामेला जीवोनुं विप बीजाए करेला गारुड-हंस-जांगुली मंत्रना जापथी उतरी जायछे तेम तत्व नहि जाणनारनु पाप पण परमेश्वरना नामस्मरणथी नाश पामेछे. बीनी एक वात लोकमां एवी प्रसिद्ध छे के हुमाय नामर्नु पक्षी अस्थिभक्षी (हाडकां खानारूं) छतां संतत जीवनी रक्षा करेछे. ते उडतुं उडतुं जतुं होय त्यारे जे मनुष्यना मस्तक उपर तेनी छाया पडे ते राजा थायछे. आ दृष्टांतमा हुमायपक्षी जाणतुं नथी के हुं अमुकना मस्तक उपर छाया करुंछु तेमज जेना मस्तक उपर छाया थायछे ते पण जाणतो नथी के मारा मस्तक उपर हुमायपक्षी छाया करेछे. ए रीते बंने अज्ञान छ तथापि हुमायपक्षीनी छायाना माहात्म्यना उदयथी ते मनुष्यने दरिद्रतानुं हरण करनार अधीशता (राज्य) उदय पामेछे अर्थात् ते राजा थायछे. जेम आ दृष्टांतमा उभय अजाण छतां ए प्रकारे सिद्धि थायछे तेम परमेश्वरना नामस्मरणथी पाप केम न जाय ? अर्थात् जाय ज पाप जाय एटले सर्वतः आत्मशुद्धि थाय. आत्मशुद्धि थाय एटले परमात्मवोध-उत्कृष्टात्मज्ञान थाय. परमात्मबोध थाय एटले कोइ प्रकारनो कमबंध न थाय अर्थात् कर्मनो प्रणाश थाय कर्मप्रणाश थाय एटले मोक्षलक्ष्मी प्राप्त थाय. मोक्ष थाय एटले अक्षय स्थिति, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, अनंतसुख अने एकस्वभावता थाय. अर्थात् सज्ज्योति जागृत थाय. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) वीसमो अधिकार. मुक्तिना विषयमा सर्वनुं कथन एकसरखं थतुं नधी. उपरना अधिकारमां आत्मज्ञान विना मुक्ति नथी - आत्मज्ञानयी मुक्ति थाय छे एम कहेवामां आव्युंछे. वैष्णवो विष्णुथी, ब्रह्मनिष्ठो ब्रह्मयी, शैवो शिवथी अने शाक्तिको शक्तिथी मुक्ति थवानुं कहेछे. तेमना मते आत्मज्ञान मुक्तिनुं कारण नथी. अर्थात् आत्मज्ञानथी ज मुक्ति थायछे एवो निर्णय नथी. तेम छतां आत्मज्ञानथी मुक्ति थाय छे एवो निश्चय करवो ते शुं विचारवा योग्य नथी ? वैष्णवादिको लोकरूढिने लेइने विष्णुप्रमुख भिन्न भिन्न देखेछे. परंतु परमार्थथी विष्णु वगैरे शब्दोवडे आ आत्माज वाच्य-बोध्यसमजवा योग्य छे. आत्माने केवलज्ञान प्राप्त थाय छे त्यारे सर्व कोकालोकनुं स्वरूप तेना जाणवामां आवे छे. अर्थात् ज्ञान एज आत्मा ते वडे सर्वत्र व्यापवाथी आत्मा ज विष्णु छे. निज शुद्ध आत्मभाव जेने परब्रह्म एवी संज्ञा आपवामां आवेछे तेनी भावना भाववाथी आत्मा ज ब्रह्मा छे. शिव-निर्वाण - मोक्ष प्राप्त करवाथी अने शिवनुं कारण होवाथी आत्मा ज शिव छे. निज आत्मवीर्य-शक्ति फोरववाथी ( वापरवाथी ) आत्मा ज शक्ति छे. ए रीते विष्णु प्रमुख शब्दोवडे आत्मा ज समजवो अने आत्माथी - आत्मज्ञानथी ज मुक्ति छे-वीजा कशाथी मुक्ति प्राप्त थवा योग्य नथी एवं तत्त्व स्वहृदयमां चिंतaj, जो आत्मज्ञानथी मुक्ति थती न होय अने विष्णु प्रमुखथी मुक्ति थती होय तो वैष्णवादि संतो अने गृहस्थो विष्णु प्रमुखनी पूजा अने जान करो पण तप, संयम, निःसंगता : Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) रागरोषनुं निवारण, पंचेंद्रियोनो विषय थकी विराम, ध्यान अने आत्मज्ञान ए आदि शुं काम करेछे ? जो एम कहेवामां आवे के तपसंयमादि एज विष्णु प्रमुखनी सेवा छे तो ते कोनाथी प्रवृत्तिमा आवी ? जो विष्णु प्रमुखथी कहेवामां आवे तो तेमने वाणी नथी अने हाथ पण नथी के जेथी बीजाने जणावी शके. जो विष्णु प्रमुखनुं ध्यान करनारा योगियोथी ए प्रवृत्ति थइ तो तेमणे कोनाथी माप्त करी-जाणी ? जो अध्यात्मयोगथी होय तो तेनो प्रणेता कोण घइ गयो ? निरंजन अने निष्क्रिय विष्णु प्रमुख तो कहेवा योग्य नथी त्यारे अध्यात्मयोग कोनाथी आविर्भाव पाम्यो-प्रकट थयो? जो आदि योगियोथी एम कहे, थाय तो तेमणे पण आत्मज्ञानथी ज अध्यात्मयोग जाण्यो, वीजायी नहि; तेमज निरिंद्रय, निष्क्रिय, निरंजन अने एकस्वरुप विष्णु प्रमुखथी पण नहि-एम कहेवू पडशे. स्वआत्मायकी -समभाव भाववाथी, रागद्वेष जवाथी, अपूर्व आत्मलामथी अने सर्व द्रव्यना यथास्थित दर्शनथी जे ज्ञान-बोध थाय ते ज अध्यास्मयोग. एरीते अध्यात्मयोग स्वतःज सिद्ध छे. आवा आत्मज्ञानथीज मनुष्योने मुक्ति थायछे. विष्णु प्रमुख बीजो कोइ मुक्तिनो हेतु नथी. माटे आत्मज्ञाननी स्पृहा-इच्छा करवा योग्य छे. स्वभावथीं मुक्ति थायछे एम जे कहेवामां आवेछे तेमां पण - एज अर्थ निवेदन करेलो छे. स्त्र जे आत्मा तेनो भाव ते स्वभाव. भाव शब्द माप्ति अर्थमां वपराता भू धातु उपरथी थयेलो छे एटले तेनो अर्थ पण प्राप्ति एवो ज करवो योग्य छे. एम करवामां आवे एटले स्वभावनो अर्थ आत्ममाप्ति-आत्मलाभ-आत्मज्ञान एवो थाय अने आत्मज्ञानथी सिद्धिलक्ष्मी-मुक्ति निश्चित छे. ए रीते सर्वे मुक्तिना इच्छुओए आत्मज्ञानधी मुक्ति इच्छवा योग्य छे. प्रकृष्ट गुणयुक्त महात्माओए मुक्तिनुं निमित्त आत्मज्ञान विना वीजें कंइ निवेदन Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३.) कर्यु नथी.. तेमनु कथन आ प्रमाणे छे. ज्यां सुधी *कषाय अने विषयोनु सेवन करे त्यां सुधी आ आत्मा संसार ज छे अने आत्मज्ञान थयाथी ज़्यारे कषायविषयथी-कर्मथी मुक्त थाय त्यारे ते आत्मा ज़ मोक्ष छ. ज्ञान दर्शन अने चारित्र पण आ आत्मा ज छे. आत्माथी भिन्न कंइ नथी. ज्ञानादिमय आ आत्मा ज्यां सुधी कर्मयुक्त होयछे त्यांमुधी शरीरनो आश्रय लेछे अने ज्यारे मोहनो क्षय थवा पूर्वक आत्मशक्ति-आत्मज्ञान प्रकट थवाथी आत्मामा आत्माने सम्यक् प्रकारे जाणेछे त्यारे तेने ज्ञान, दर्शन अने चारित्र उदयमा आव्यु एम आत्मज्ञानी आतो कहेछे. आत्मज्ञान विनाना अनेक कष्टाचरणोथी पण अनिवार्य एवं अज्ञानपणाथी उत्पन्न थयेलं अनंतकालमुंजे दुःख ते आत्मज्ञानयी निवारण थायछे. चिद्रूप आ आत्मा कर्मना प्रभावथी ज्यां सुधी शरीरनं अधिष्ठान करे त्यां सुधी शरीरी अने ज्यारे ध्यानरूप अग्निवडे समस्त कर्मरूप इंधनने बाळीने शुद्ध थाय त्यारे ते ज निरंजन. अत्यार सुधीना प्रबंधथी एटलं सिद्ध थयुं के सिद्धि-मुक्ति माटे आत्मज्ञान विना वीनो हेतु-मार्ग नथी. माटे ए ज मार्गमा यत्न करवो के जेथी आत्माने महोदय-(मोक्ष) मां स्थान प्राप्त थाय. - उपर केवल राजयोगथी मोक्षलक्ष्मी मळे एवो मार्ग वताववामा आव्योछे, जे जैन आगम अने युक्तिथी सिद्धछे अने एकांत उत्सर्ग अथवा एकांत अपवाद रूप थी रहित छे. पण मुक्तिनो कोइ एवो सरळ मार्ग छे के जे सर्व मत-दर्शनने अनुसरतो अने अध्यात्मविद्यानी माप्तिमां हेतु होय अने जेवी श्रमविना शीत्र आत्मज्ञान थाय ? : * जेनाथी कप (संसारेनो आय प्राप्ति-लाभ) याय ते क्रोध, मान, माया अने लोभ कपाय कहेवायछे. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) सिद्धांत अने वेदांतना रहस्यभूत मुक्तिनो समर्थ मागें कहेवामां आवेछे ते सांभळो. मुक्तिना इच्छु मनुष्ये स्वचित्तमां आवो विचार करवो के, " आ आत्मा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, निरंजन इत्यादि छे एम योगियोनु कहेवु थायछे. त्यारे ते मुक्त छतां कोनाथी अने केम बंधायलो छ ?'' एटले तेना समजवामां आवशे के, "भ्रमथी." भ्रमने ज आद्य योगियोः कर्म, मोह, अविद्या, कर्ता, माया, गुण, दैव, मिथ्या, अज्ञान इत्यादि इत्यादि शब्दोवडे ओळखावी गयाछे अने तेने जाणनारा सद्योगियो पण आ शब्दोने भ्रमना अर्थमां ज वापरेछे. भ्रमथी ज आत्मा बंधायलो छे. *भ्रम अहीं पोतानी * अतद्वस्तुमा तद्वस्तुनो ग्रह-स्वीकार करवो ते भ्रम छे. अर्थात् स्त्री, पुत्र, मित्र, माता, पिता, द्रव्य, शरीर वगेरे अनात्मीय वस्तु छेआ भवमा सहवर्ति छतां आत्मानी साथे वीजा भवमां जतां नथी. तेम छतां तेमनामां जाणे के ते आत्मीय वस्तु पोतीकी होय एवी बुद्धि राखवी ते भ्रम छे. वीजा शब्दोमां संसारने विषे तथा शरीरने विपे वर्तमान मनोरम वस्तुमांराग करवो अने दुर्वस्तुमां दुष्ट मनोवृत्ति राखवी ते मिथ्या ज्ञान छे. सम्यग्ज्ञान तो मनमाथी रागद्वेष काही नाखी समभाव-वीतराग दशानो अनुभव करवो ते छे. शुक (पोपट) ने पकडवा माटे झाड उपर एक चक्र (पै९) गोठववामां आवेछे अने ते चक्रनी कर्णिका ( नलिनी-नायडी ? ) उपर एक कारेलु मुक्रवामां आवेछे. ते कारेलं पोतानु थक्ष्य छे एवा भ्रमथी शुक त्यां आवीने वेसेछे अने शुकना वेसवाथी ते चक्र भमवा मांडेछे. त्यारे शुक कोइए तेने पकडेलो नहि छतां भ्रमथी पकडयोछे अथवा पाश ( फांसा) मां नाख्योछे एवं मानी लइ चक्रनी साथे पोते पण भमवा लागेछे एटलं ज नहि पण चक्रने पोतानुं इष्ट गणी वळगी रहीने च च करेछे, एटले तेने पकडवावाला आवीन वाधी Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 30 मिथ्या ( असत् ) कल्पनाथी थयेली समजबी. जेथ नलिनीक अने मर्कट भ्रमथी बंधायछे तेम आ आत्मा पण भ्रमथी बंधायलोछे. ज्यारे मनमाथी भ्रम जाय छे त्यारे आ आत्मा मुक्त थायछे अने मुक्त थायछे एटले आत्मानो अने परमात्मानो अभेद थायछे. ज्यारे __आत्मानो अने परमात्मानो एकभाव देखायछे त्यारे योगी आत्मज्ञानी लेछ. पण जो ते वखते भ्रम-शंका राख्या वगर शुक उडी जायछे ___ तो मुक्त थायछे-बंधनमा आवतो नथी. मर्कट (वांदरा)ले पकडवा माटे पण चणा भरेलं एक पान ( वासण) मुकवामां आवेछे. त्यां चणा खावा माटे मर्कट आवे छे अने पात्रमा हाथ नांखी चणानी मुठी वाळी काहवा जायचे. पण पात्रतुं मुख नानुं होवाथी मुठी वाळेलो हाथ नीकळतो नथी. त्यारे मर्कट कोइए तेने पकडेलो न छता भ्रमथी अंदरथी पकड्योछे एवु मानी लइ चीची करवा लागेछे. एटले तेने पकडबावाला आवीने बांधी लेछ. पण जो भ्रम राख्या बंगर बठी वाळेली छोडी दइने मर्कट चाल्यो जायछे तो बंधनमा आवतो नथी. जेवी रीते शुक अने मर्केट अबद्ध छतां भ्रमथी पोताने बद्ध मानी लइ बंधायछे तेवी रीते आ आत्मा पण अनात्मीय वस्तुमा ए पोतीकी छे एवी बुद्धि करवाथी-बहिरात्मपणे अमुक पोताने हेय (त्यागवा योग्य ) छे ने अमुक उपादेय (आदरवा योग्य ) ले एवा विचारयी रहित थइ केवल इंद्रियोना विषयोमा आसक्ति राखवाथी कोंबडे बंधायछे अने ज्यारे शरीरादि वस्तुमां अनात्मीयता आचरी-अंतरात्माथी हेयोपादेयना विचार पूर्वक विषय सुखथी पराङ्मुख एटले के संसारवति वस्तुमा रागद्वेष रहित थायछे त्यारे ते संसारमा रह्या छतां पण शुक्त थाय छे अने ज्यारे तेवी रीते मुक्त थायछे त्यारे ते अंतरात्माने केवलज्ञान प्रकट थवाथी परमात्मता माप्त थायछे-पर्यायकार. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ opn (६६) कहेबायछे, ते न फेवलज्ञानमय कर्म--क्रिया-भ्रांतिथी विमुक्त मुनीश्वर कडेवायछ. आ आत्मा मुक्त-भ्रम रहित छे एबुं ज्यारे प्रसिद्ध थायछे त्यारे ते सर्वत्र ममत्व रहित होयछे. वधारे शुं ? मनेशरीर-सुख-दुःख-ज्ञान-विचारथी ते शून्य होयछे. ए रीते मुक्त यवादी तेने पुण्य पाप लागतां नथी. मननो जय करेलो होवाथी आ मारी क्रिया, आ मारो काळ, आ मारो संग (सहायक), आ मारुं सुकृत (पुण्य) इत्यादि भेद पण तेने होतो नथी. ज्यां सुधी ते आ लोकमां शरीरधारी होयछे त्यां सुधी तेने सूक्ष्म क्रिया होयछे एटलेके ते निष्क्रिय होतो नथी. ज्यारे सूक्ष्म क्रिया पण नष्ट थायछे त्यारे ते मुक्त-भ्रम रहित आत्मा सिद्धताप्राप्त थवाथी सिद्ध थायछे, सिद्ध क्रियावंत छे. के निष्क्रिय छे ते विचारवा योग्य छे. निष्क्रिय कहेवाता सिद्धमा ज्ञानधी अने दर्शनथी थती क्रिया शुं सिदन थाय ? ज्ञानथी अने दर्शनथी थती क्रिया सिद्धि पामेला-सिद्धोमां होती नथी. जो पूछवामां आवे के, केवी रीते ? तो समजाववानुं के, सिद्धि पामेला आत्मा आलोकमा छतां तेमने ज्यारे कैवल्यनी प्राप्ति था हती-केवलज्ञान अने केवलदर्शन थयुं हतुं त्यारे ज ज्ञानथी अने दर्शनथी थती वे क्रियाओ तेमने एकी वरखते थइ गइ हती अने माणवा योग्य तथा जोवा योग्य भूत, भविष्य अने वर्तमान प्रणे फाळना जे जे भाव ने सर्व प्रकट थया हता. तेमने नईं कंइ पण जाणवानुं अने जोवानुं होतुं नथी. अर्थात् मुक्त-भ्रमरहित जीवोने मनुष्यभवयां सक्रियत्व होयछे अने सिदिमां निष्क्रियत्व होयछे, ए रीने सिदोमांमसिद्ध रीने निश्चय पूर्वक निष्क्रियता सिद्ध थइ अने ए सर्वनो हेनु मनोनिगेध-योग छे गाटे ए ज मार्गमा रमण करो. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक. - ( भाषांतरनु. ).. 'शुद्ध. ' पृष्ठ. पंक्ति.. : अशुद्ध. ३ ८ .शशिरोर्नु ____ शरीरो -अपथ्थ अपथ्य .चक्षुरादि ७ १३ । खक्षुषादि कहवामा ८ १६ पायः निपजावेछ - कहेवामा प्रायः निपजावेछे स्थूल तेजस कर्मो ९...१४ , स्थल ९ १२ ___तेजस २४ . तैजस ?' ५ कर्मा बैजस ? सुखो १८ निष्क्रयादि १५ होजो २१ आखे २३--- ---- "किरणानां - २४ मेत १ १५ तैजस ? ७ देवयुक्त २४ करलां सुखी निष्क्रियादि होवीजोइए आंखे किरणोनां १९ २१ २७ २७ २७ २८ २९ २९ ३२ तेष माव जीव तेजस द्वेपयुक्त करेला Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ ३७ स्वर्ग (२) स्वग शकेछे. ३ २१ पाकेछ ? जवु or onr ५४ ५५ ५९ • अप आधुओ सरंभ ल यमां ७ वस्तुमा १२ २२ भोजन वीजायी २ . संसार ते आत्माज मोक्ष २४ संसार २१ प्राप्ति वांदरा ते साधुओ . संरंभ लयमा वस्तुमा অন্তু भाजन वीजाथी संसारमा तेज आत्मा मोक्षमा संसार) (प्राप्ति बांदराने ६३ ६३ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- _