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(१२) तत्सेधने साधुगृहस्थमुख्पैरात्माववोधे परियत्न एष्यः।
१६ अ. ३३ श्लो. ते (निराकारमा चित्तनी स्थिरता) साधवाने साधु अने गृहस्थ प्रमुखोएं आत्माववोध-आत्मज्ञानमा समस्तप्रकारे यन्न करवो. यदात्मबोधान्न परोऽस्ति सिद्धये हेतुस्ततोऽत्रैव यतध्वमध्वनि,
२० अ. २२ श्लो. सिद्धि-मुक्ति माटे आत्मबोधधी अन्य हेतु नथी माटे एज मार्गमां-आत्मज्ञानमा प्रयत्न करो. वळी ज्ञानमात्रथी नहि पण साये चारित्र-क्रियानुं आराधन करवायी ज मोक्षनी प्राप्ति थायछे अने त्यारे ज आत्मज्ञान प्रकट थयु एम समजाय एवो प्रघोप करवा पण चुक्या नथी. इत्यादिका ये भगवद्गुणौघाः शास्त्रेषु दृष्टा अथ तान्प्रकल्प्य। मुमुक्षवोऽसी अपि शक्तियोग्यमादृत्य सिध्यन्त्यपिते क्रमेण ॥
१६ अ. १७ श्लो. इत्यादि प्रकारे जे गुणो सिद्धभगवंतमा होवानु शास्त्रोमां जोवामां आवेछे ते गुणोने मुमुक्षुओ धारीने यथाशक्ति आदरी क्रमे करी सिद्ध थायछे. यावत्कषायान्विषयान्निषेवते संसार एवैष निगद्य आत्मा। एतद्विमुक्तोऽजनि यावदात्मावबोधयुग्मोक्ष इतीहितोऽयम् ॥
२० अ. १७ श्लो. ज्यांसुधी कषाय अने विषयो, सेवन करे त्यांसुधी आ आत्मा संसारमा ज छे अने आत्मज्ञान थयाथी ज्यारे कषाय तथा विषयथी मुक्त थाय त्यारे तेज मोक्षमा छे एम विचारवं. कषाय अने विषयथी