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(२०) संहार करवामां कर्त्ताने मनःस्थ सक्रियता देखीती लागे ! सृष्टिसंहारना अभावे निष्क्रियता रहे ! तेमज जीवोने सुखदुःख देखायछे तेथी एनामां रागद्वेष पण सिद्ध थाय ! जो एवोज तर्क होय के जे कृत्य तेवु सुख दुःख तो पछी कानुं शुं पराक्रम ? त्यारे निश्चित थयुं के, स्व पुण्य पापज सुख दुःखना हेतुओ छे. जो जीवो ब्रह्मांश होय तो ब्रह्मांश सरखा होवाथी ते सर्वे सरखा होय. ज्यारे जीवो सुखी दुःखी इत्यादि बहु प्रकारना देखायछे त्यारे ते भेदनो : करनार ब्रह्मथी कोइ अन्य निश्चय होवो जोइए. जो जीवो ब्रह्मयी भिन्न होय अने सुखदुःखनो को ब्रह्म होय, तो जे हेतुथी ब्रह्म सुख दुःख करे छे ते हेतु ( पुण्यपाप ) नो कर्ता पण ते (ब्रह्म) ज हो ! ब्रह्मने निरञ्जन, नित्य, अमूर्त अने अक्रिय कहीने फरीथी तेनेज कर्ता, संहर्ता अने रागद्वेषादिनुं पात्र कहेवू ए परस्पर विरुद्ध होवाथी आ जगत् भिन्न छे अने ए ब्रह्म पण भिन्न छे एबुं मुनियोए विचार्यु अने तेथीज संसारस्थित मुनियो मुक्ति माटे परब्रह्मनुं - ध्यान करेछे.
*जे कोइ ईश्वरनी (विष्णुनी) मायाने जगत्नी रचनामा हेतुभूत कहेछे तेमने विचारवान के, ईश्वर मायामां आश्रित छ के माया ईश्वरमा आश्रित छ ? माया जड होवाथी पोतानी मेळे आश्रय लेवाने समर्थ नथी. ईश्वर ब्रह्मरूप होवाथी जाणता छतां मायानो आश्रय ले नहि. कारण के चेतन परतन्त्र होय तोज जडनो आश्रय ले. वळी विचारवानुं के, ईश्वर मायाने एकी वखते प्रेरेछे के दरेक जीवप्रति पृथक् पृथक् प्रेरेछे ? जो मायाने एकी वखतेज प्रेरवामां आवती होय तो तेनी एकरूपताने लीधे त्रणे लोक एकरूप
* विष्णूनी मायाथी जगत्नी रचनादि पायो-वैष्णवमत,