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देवासयराइयपडिक्कमणसुत्तं। (श्रीदेवसिक-रात्रिकप्रतिक्रमणसूत्र)
संक्षिप्त हिंदी अर्थ सहित
संपादक: मुनिराज श्रीजयन्तविजयजी
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श्रीयतीन्द्रसूरि साहित्यमाला-पुष्पांक १२
श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयदेवसिय-राइयप्रतिक्रमणसूत्र
( सविधि, सचित्र, सार्थ)
६
उगमराज सुखराज आहोर निवासी । तथा शा. भारतमलसी भगाजी रेवतड़ा
निवासी की ओर से, वर्षीतप का पाणा के निमिते......।
-: प्रकाशक :
अखिल भारतीय श्रीराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्
केन्द्रीय कार्यालय श्रीमोहनखेड़ातीर्थ, पो. राजगढ
(जि० धार-म० प्र०)
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प्रकाशकश्रीसौभाग्यमलजी सेठिया. B. A. LL. B निम्बाहेड़ा (राज.)
शाश्वत -धर्म प्रकाशन कार्यालय जनकुपुरा पो० मन्दसौर (म. प्र.)
संघवी छोटालाल हालचन्द रतनपोल, नगरशेठ मार्केट अहमदाबाद (गूज०)
मूल्य१, ५० नया पैसा द्वितीयावृत्ति वीरसं. २४८९ राजेन्द्रसं. ५९ विक्रमसं. २०२०
मुद्रकस्वामी श्रीत्रिभुवनदासजी शास्त्री श्रीरामानन्द प्रिन्टिंग प्रेस कांकरियारोड भहमदाबाद
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इच्छामि खमासमणो। वंदिउँ जावणिज्जाए निसीहिआए,
मत्थरण वंदामि
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आभार
जिनेन्द्र शासन में क्रियाओं का महत्त्व कम नहीं है ।
इन्हीं क्रियाओं में तदाकार बनने के बाद स्वस्वरूप प्राप्ति का राह सुगम हो जाता है । अवश्य करने की क्रिया होने से उसे 'आवश्यक क्रिया' कहा गया है ।
आवश्यक क्रिया के सूत्रों को बोलने के साथ उस के अर्थ, भावार्थ और हार्द को समझने का प्रयास ही नहीं, नियम बना लिया जाय तो निश्चित है ये क्रियाएँ करने के साथ आत्मप्रगति के पथ पर चलने में विलम्ब नहीं होगा ।
प्रस्तुत 'देवसिय-राईयप्रतिक्रमण सूत्र' की भी मूल में एकाधिक आवृत्तियाँ प्रकाश में आई और आ रही हैं, किन्तु सार्थ संस्करण की अतीव ही आवश्यकता महसूस की गई और धार्मिक पठन-पाठन के लिये यह जरूरी भी था । स्व० गुरुदेव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म० ने सार्थ प्रतिक्रमणसूत्र का प्रथम संस्करण प्रकाशित करवा कर समाज में चेतना लाई थी । किन्तु वह संस्करण समाप्त हो जाने से हमने द्वितीय संस्करण संस्थाद्वारा प्रकाशित करने का निर्णय किया और अहमदाबाद चातुर्मास स्थित श्रीजयन्तविजयजी म० ' मधुकर' को लिखा, और सहयोग से यह प्रकाशन हम आप की सेवा में कर रहे हैं।
मुनिराज -
उन्हीं के
प्रस्तुत
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इस अवसर पर हम मुनिश्री का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं साथ ही जिन जिन महानुभावों ने इस प्रकाशन में आर्थिक सहयोग प्रदान किया है उन को हादिक धन्यवाद देकर यह आशा करते हैं कि उन के द्वारा भविष्य में इसी प्रकार सहयोग सदैव बना रहेगा। इस की किम्मत लागत से कम रखी गई है जिन जिन महानुभावों को आवश्यकता हो उन्हें चाहिये कि पुस्तक में पते दिये गये हैं वहाँ से मंगवा लें । जय जिनेन्द्र । केन्द्रीय कार्यालय
श्रीसौभाग्यमल सेठिया श्रीमोहनखेडातीर्थ
बी. ए. एलएल. बी. फाल्गुन कृष्णा ३ सं० २०२० अ० भा० श्रीराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्
अध्यक्ष
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विषय-प्रदर्शन ।
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विषय १ परमेष्ठिमन्त्रसूत्रम् २ पंचिंदियसुत्त ३ खमासमणसुत्तं ४ सुगुरु को सुखशाता पृच्छासूत्रम् .... ५ इरियावहियसुत्तं .... ६ तस्स उत्तरीकरणसुत्तं .... ७ अन्नत्थसुत्तं ८ लोगस्स(चतुर्विशतिस्तव)सुत्तं ९ सामायिकसुत्तं ..... १० सामायिक पारने का सूत्र ११ जगचिंतामणिचैत्यवन्दनसुत्तं १२ जं किंचिसुत्तं .... १३ नमोत्थु णं( शक्रस्तव )सुत्तं .... १४ जावंति चेइयाइसुत्तं .... १५ जावंत केवि साहूसुत्तं... १६ पञ्चपरमेष्ठिनमस्कार( नमोऽहत् सूत्रम् १७ उवसग्गहरं स्तवनसुत्तं १८ जय वीअरायसुत्तं ....
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2022
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१९ अरिहंतचेइयाणंसुत्तं .... २० कल्लाणकन्दंस्तुतिसुत्तं ... २१ श्रीपंचजिनेन्द्रस्तुतिसुत्तं २२ संसारदावानलस्तुतिसुत्तं २३ पुक्खरवरदी(श्रुतस्तव)सुत्तं २४ सिद्धाणं बुद्धाणं(सिद्धस्तव)सुत्तम् २५ भगवानादिवन्दनसुत्तं ... २६ देवसियपडिक्कमणे ठाउसुत्तं २७ इच्छामि ठामिसुत्तं .... २८ अतिचारगाथासुत्तम् .... २९ सुगुरु वंदनसुत्तम् ३० देवसिअं आलोउसुत्तं... ३१ सातलाखादियोनिसुत्तं... ३२ अष्टादशपापस्थानकालोचनसुत्तं ३३ वंदित्तु(श्राद्धप्रतिक्रमण)सुत्तं ३४ गुरुखामणा (अब्भुट्ठिओ)सुत्तम् .... ३५ आयरिय उवज्झाएसुत्तम् ... .... ३६ नमोऽस्तु वर्द्धमानाय सूत्रम् .... ३७ वीरस्तुति (विशाललोचनदल) सूत्रम्... ३८ वरकनक( सप्ततिशतजिनस्तुति )सूत्रम् ३९ मुनिवन्दन (अड्डाइज्जेसु)सुत्तम् .... ४० चउक्कसायसुत्तम्
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४१ भरहेसरसज्झायसुत्तम्... ४२ मन्नह जिणा सज्झायमुत्तम् ४३ नमुकार - मुट्ठिसहिअं का पच्चक्खाण
४४ पोरिसी, साढपोरिसी का
४५ पुरिमड्ढ, अवढ का
४६ एगासणा, बियासणा का ४७ आयंबिल का ४८ तिविहारोपवास का ४९ चौविहारोपवास का ५० देसावगासियं का ५१ पाणाहारदिवसचरिमं का
५२ संध्या चोविहार का
५३ संध्या तिविहार का
५४ संध्या दुविहार का ५५ देसावगा सियपौषध का
५६ तीर्थचन्दनासूत्रम्
५७ श्रीमहावीरजिनछन्द ५८ द्वादशावर्त - गुरुवन्दनविधि ५९ सामायिक लेने की विधि ६० सामायिक पारने की विधि ६१ दैवसिक-प्रतिक्रमणविधि
६२ राइअ - प्रतिक्रमणविधि
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१०८
१०९
१०९ ११०
११०
६३ श्री सीमन्धरजिन चैन्यवन्दनम् ....
, स्तुतिः
स्तवनम् ६४ सिद्धाचल चैत्यवन्दनम्
" स्तुतिः
स्तवनम् ६५ बीजतिथि चैत्यवन्दनम्
" स्तुतिः
स्तवनम्
सज्झाय ६६ पंचमीतिथि-चैत्यवन्दनम्
" स्तुतिः
स्तवनम्
सज्झाय ६७ अष्टमीतिथि–चैत्यवन्दनम्
स्तुतिः... स्तवनम्
सज्झाय ६८ एकादशीतप-चैत्यवन्दनम्
स्तुतिः
स्तवनम् __ .
सज्झाय
or wwwwwwwwwrom Mar or or or
१११ १११ ११४ ११४ ११५
११५
११७
११७
११८ १२०
१२०
१२१
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Marorar rrr mr mr m
६९ व्यसननिषेधोपदेश पद ....
१२९ ७० 'मूंजीपन को दो भगाई' पद ....
१२९ ७१ श्रीआदिनाथ स्तवन
१२८ ७२ श्रीशान्तिनाथ स्तवन
१२९ ७३ नमस्कारमन्त्रधून
१३० ७४ नवकारमहिमा स्तवन ७५ नमस्कार स्तवन ७६ श्रीअरिहंत स्तवन ७७ परमेष्ठिस्तवन ७८ परमेष्ठिस्तवन ७९ दैवसिक - षडावश्यक की सीमा ....
१२९ ८० रात्रिक पड़ावश्यक की सीमा ....
१२९ ८१ सामायिक के ३२ दोष .... १३२ ८२ सिर पर कम्बल रखने का काल ८३ गरम जल वापरने का काल ८४ सातम तथा तेरस के दिन कहने की सज्झाय.... १३४ ८५ जिनमन्दिर की ५ बड़ी आशातनाएँ .... १ ८६ श्रावक को नित्य धारने योग्य १४ नियम ८७ मुहपत्ति और अंगपडिलेहण के ५० बोल ८८ जन्म सम्बन्धी संक्षिप्त सूतक विचार
२४१ ८९ मृतक सम्बन्ध संक्षिप्त सूतक विचार .... १४३ ९९ मतक सम्बन ९० ऋतुवंती सम्बन्धी संक्षिप्त सूतक विचार ९१ जैन दीवालीपूजन विधि ९२ प्रासङ्गिक प्रश्नोत्तरी
१५३
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१४७
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प्रस्तुत पुस्तक में आर्थिक सहयोग देनेवाले
महानुभावों की शुभ नामावली ।
श्रीजैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, भीनमाल (राज.) __ , , , , , सूरा (राज.)
ज्ञानभण्डार, राजगढ (म० प्र० ) शा. चन्दाजी चम्पालालजी ( अहमदाबाद ) आकोली (राज.) शा• हिम्मतमलजी हीराचन्दजी , डूडसी ( ,, ) शा० मङ्गलचन्दजी चुनीलालजी , जालोर ( ;) शा. भूरमलजी नरसींगजी,
हरजी (राज.) शा. अचलचन्दजी बाबुलाल पारसमल
अंबालाल चमनाजी ,, ( ,) संघवी सांकलचन्द बाबुलाल एण्ड कुं. (बेंगलोर ) हरजी (राज.) शा० कुन्दनमलजी कुशलराजजी, बेंगलोर, आहोर ( , ) शा० चमनाजी उदाजी, कल्याण कारपोरेशन, (बेंगलोरसीटी)
धानसा (राज.) शा. हेमराज एण्ड बधर्स, (बेंगलोर सीटी) आहोर शा० हजारीमलजी वजींगजी, , , धानसा ( ,, ) शा० सरेमलजी जुहारमलजी, .
,, (, ) शा० देसमलजी सरेमलजी, , , मोदरा (,) शा० हीराचन्दजी बाबुलालजी, ,, सूरा (,) शा. मिश्रीमलजी वछराजजी एण्ड ब्रधर्स,
धानसा ( ,, ) शा. गोकलचन्दजी कस्तूरचन्दजी, लालोर वाला (राज.) श्रीराजेन्द्र जैन पाठशाला
आहोर (,)
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82,
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પ્રાતઃસ્મરણીય આચાયપ્રવર શ્રીમદ્ વિજયરાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ
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' चित्रपरिचय चित्र-१, नमस्कार मंत्र
___नमस्कार महामंत्र की आराधना के लिये ध्यान करना परम आवश्यक है और उस में मंत्राधिराज का ही चित्र स्वस्थिति में स्थिर होने के लिये प्रबल सहायक होता है । अनादि परम्परा से प्राप्त नमस्कार मन्त्र को इस चित्र में मूल लिखने के साथ इस के प्रत्येक पद को चित्र में भावपूर्वक खींचा गया है। क्रमशः एक एक पद का ध्यान करते हुए अष्टदलकमल में महामन्त्र को अधिष्ठित कर हृदय कमल की भी इसी प्रकार कल्पना करना चाहिये । चित्र-२, वंदन कैसे ?
जिनशासन में वन्दन की बहुत ही महत्ता वर्णित की गई है, किन्तु वह शास्त्रज्ञानुसार विधिवत् किया जाय तब ही अधिक लाभदायक होता है। 'इच्छामि खमासमणो' आदि वाक्य बोलते समय किस प्रकार खडे रहना और 'मत्थएण वंदामि' बोलते समय कैसी मुद्रा होना चाहिये यह चित्र नं. २ से ज्ञात होता है। चित्र-३, कायोत्सर्ग की मुद्राएँ
आत्मशुद्धि के प्रत्येक उपाय में कायोत्सर्ग का स्थान सर्वश्रेष्ठ है, क्याकि उससे आत्मा के दूषणां का शोधन होता
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चित्र - ५,
१२
है । यह कायोत्सर्ग खडे रह कर या बैठ कर किस प्रकार करना चाहिये उसका निर्देश चित्र नं. ३ करता है ।
चित्र - ४, सामायिक की मुद्रा
सामायिक में किस प्रकार बैठना : कितने उपकरण रखना और वस्त्र किस प्रकार रखना ? साथ ही मुँह पास प्रतिलेखन किस प्रकार बैठ कर करना चाहिये ? इस बात का ज्ञान चित्र नं. ४ करता है ।
६, तीन मुद्राएँ
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आराधना में मुद्राओं का अत्यन्त ही महत्त्व है । चैत्यवन्दन में तीन मुद्राओं का उपयोग होता है । जिन में पहली 'योगमुद्रा' नमोत्थुणं बोलते समय होती है, दूसरी 'मुक्ताशुक्तिमुद्रा' का उपयोग 'जावंती चेहयाई' 'जावंत के वि साहू' और 'जय वीयराय' बोलते समय होता है जो चित्र नं. ५ में दिखाया गया है । 'जिनमुद्रा' का उपयोग 'अरिहंतचेइयाणं' और अन्नत्थ ० बोलते वक्त होता है जो चित्र नं. ६ में स्पष्ट गोचर होता है ।
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.
MAHARA
॥श्री नमस्कार महामंत्र॥
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पावप्पणासणी की णमोअरिहंताणं णमा सिद्धाणं। णमो आयरियाणं। णमो उवज्झायाणं। णमी लोएसव्यमांडूणां ।
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દલસુખ
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प्रभुश्रीराजेन्द्रसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥
श्रीदेवसियराइयपडिक्कमणसूत्र |
१. परमेष्ठिमन्त्र-सूत्रम् ।
नमो अरिहंताणं- अष्टकर्म को जीतनेवाले अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो ।
नमो सिद्धाणं - सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो । नमो आयरियाणं- पंचाचार पालन करनेवाले ३६ गुणयुक्त आचार्य भगवन्तों को नमस्कार हो । नमो उवज्झायाणं- द्वादशाङ्गी के सूत्रार्थ को पढ़ानेवाले उपाध्याय भगवन्तों को नमस्कार हो ।
नमो लोए सव्वसाहूणं-ढाई द्वीप रूप मनुष्यक्षेत्र में विचरनेवाले, कंचन कामिनी के त्यागी, पंचर महाव्रतों के पालक समस्त साधुमहाराजों को नमस्कार हो ।
एसो पंचनमुक्कारो -- इन पाचों को किया हुआ
नमस्कार
सव्वपावप्पणासणो- सर्व पापों का नाश करनेवाला है । मंगलाणं च सव्वेसिं-- और समस्त मंगलों में
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पढमं हवह मंगलं-प्रथम (मुख्य) मंगल है। अर्थात
इस मंगल के बराबर संसार में कोई भी मंगल नहीं है।
२. पंचिंदिय-सुत्तं । पंचिंदियसंवरणो--पांच इन्द्रियों और उनके विषय
विकारों को रोकनेवाले, तह नवविहबंभचेरगुत्तिघरो--तथा नव प्रकार की
ब्रह्मचर्य की गुप्तियों के धारक, चउविहकसायमुक्को--क्रोधादि चार कषायों से रहित
अर्थात्-क्रोध, मान, माया, लोभ को
- जीतनेवाले, इअ अट्ठारसगुणेहिं संजुत्तो—इस प्रकार अठारह गुणों
से संयुक्त ॥१॥ पंचमहन्वयजुत्तो--पांच महाव्रतों से युक्त, पंचविहायारपालणसमत्थो--पांच प्रकार के प्राचारों
को पालन करने में समर्थ, पंचसमिओ तिगुत्तो-पांच समिति और तीन गुप्तियों
से युक्त, छत्तीसगुणो गुरु मज्झ--इस प्रकार छत्तीस गुणों के
धारक आचार्य मेरे गुरु हैं ॥२॥
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३. खमासमण-सुत्तं । इच्छामि--मैं चाहता हूँ खमासमणो-हे क्षमाश्रमण-क्षमावन्त तपस्वी ! वंदिउं-चन्दन करने के लिये, जावणिज्जाए-अपनी शक्ति के अनुसार निसीहिआए-सब पाप कर्मों का त्याग करके मस्थएण वंदामि-मस्तकादि नमा कर वन्दन करता
४. सुगुरु को सुखशाता पृच्छा । इच्छकार-इच्छा करता हूँ सुहराइ-सुख से रात्रि में सुहदेवसो-मुख से दिवस में सुखतप-सुखपूर्वक तपस्या में शरीर निरायाध--शारीरिक पीड़ा से रहित हो ? सुखसंजमयात्रा--संयमयात्रा में मुख पूर्वक निर्वहो छो जी-निर्वाह करते हो, आप वरतते हो ? स्वामी शाता छे जी--हे स्वामिन् ! आपको मुखशाता है ? भात पाणीनो लाभ देजो जी--आहार, पानी आदि का
__ लाभ देने की कृपा करिये ।
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( ४ )
५. इरियावहि सुतं ।
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इच्छाकारेण - अपनी इच्छा से
संदिसह भगवं— आज्ञा दीजिये हे पूज्य गुरुदेव ! इरियावहियं -- गमनागमन में होती हुई जीवविराधना से पडिक्कमामि -- अलग होउं ?
इच्छं - आपकी आज्ञा प्रमाण है ।
इच्छामि पडिक्कमिडं-- मैं चाहता हूँ मार्ग की पापक्रिया से निवृत्त ( अलग ) होने के लिये ।
इरियावहियाए - - मार्ग सम्बन्धि विराहणाए - - जीवों की विराधना से गमणागमणे -- जाने और आने में
पाणक्कमणे--किसी जीव को दबा देने में - उस पर दाट बताने में
बीक्कमणे -- धान्यादि बीजों के दबाने में - ( कुचलने में ) हरियक्कमणे - वनस्पतिकाय को दबाने में
ओसा - उत्तिंग -- ओस, झाकल तथा कीडीनगरा पणगदग -- पांच वर्ण की नीलफूल, सचित्त जल और सचित्त कीचड़
मट्टी मक्कडा -- अनेक प्रकार की सचित्त मिट्टी, मकड़ी के जाला आदि
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(५) संताणा--करोलिया के जाले संकमणे--खूदने में, कुचलने में, मसलने में जे मे जीवा विराहिया--जो मैंने जीवों की विराधना
__की हो, उनको तकलीफ दी हो एगिंदिया--एक ही इन्द्रियवाले जीव-पृथ्वी, जल, अग्नि,
वायु और वनस्पति आदि बेइंदिया--दो इन्द्रियवाले जीव-शंख, पूरा, अलसिया,
लारिया आदि तेइंदिया--तीन इन्द्रियवाले जीव-कीड़ी, कुंथुआ, मकोड़ा
जं, लीख आदि चरिंदिया--चार इन्द्रियवाले जीव-मक्खी, बिच्छु,
भमरा, भमरी आदि पंचिंदिया--पांच इन्द्रियवाले जीव-मनुष्य, पशु, पक्षी,
सांप, मच्छ, मछली आदि अभिहया--एकेन्द्रियादि जीवों को सामने आते हुए
मारे हों वत्तिया--धूल आदि से ढांके हो लेसिया--आपस आपस में या जमीन से मसले हों संघाइया--एक दूसरे को इकट्ठे और छू कर दुःख दिया हो संघट्टिया--संघट्टा किया या डराये हों
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परियाविया--नाना प्रकार के कष्ट दिये हों किलामिया--थकाये हों, या मृतमाय किये हो उदविया-हेरान करके त्रास दिया हो ठाणाओ ठाणं संकामिया---स्वस्थान से दूसरे स्थान
पर ले जा कर बुरी तरह रक्खे हों। जीवियाओ ववरोविया--जीवित से छुड़ाये-मारे हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं---उस पाप का मैं मिथ्यादुष्कृत
देता हूँ-मेरा वह किया हुआ पाप मिथ्या हो।
६. तस्स उत्तरीकरणसुत्तं। तस्स उत्तरीकरणेणं--किये हुए उस पाप की फिर से
विशुद्धि करने के निमित्त पायच्छित्तकरणेणं--प्रायश्चित्त करने के निमित्त विसोहीकरणेणं--आत्मा का आभ्यन्तर मैल साफ करने
के निमित्त विसल्लीकरणेणं---आत्मा को शल्य रहित करने के
निमित्त पावाणं कम्माणं--सर्व पापकर्मों का णिग्घायणट्ठाए--नाश करने के निमित्त
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(७)
ठामि काउसग्गं-पापव्यापार का त्याग करने रूप में
कायोत्सर्ग करता हूँ।
७. अन्नत्थ-सुत्तं । अन्नत्थ ऊससिएणं--उछ्वासादि आगारों के सिवाय
अन्य क्रियाओं द्वारा ऊँचा स्वास लेने से नीससिएणं--नीचा स्वास लेने से खासिएणं--खांसी आ जाने से छीएणं-छींक आ जाने से जंभाइएण-उबासी आ जाने से उड्डुएणं--डकार आ जाने से वायनिसग्गेणं--वायु सरने से-पादने से ममलिए--चक्कर आ जाने से पित्तमुच्छाए--पित्त की मूर्छा आ जाने से सुहमेहिं अंगसंचालेहिं--शरीर की सूक्ष्म हलन चलन
क्रिया होने से सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं--मूक्ष्म कफ या थूक के संचार से सुटुमेहिं दिहिसंचालेहि--दृष्टि के सूक्ष्म संचार से
नेत्र कीकी, पाँपण के हलन चकन से
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एवमाइएहिं आगारेहिं--इत्यादि आगार रूप अपवाद
. कारणों से अभग्गो अविराहिओ--अभंग और विराधना रहित हुन्ज मे काउस्सग्गो--मेरा कायोत्सर्ग हो जाव अरिहंताणं भगवंताणं--जब तक अरिहंत भग
वन्तों को नमुक्कारेणं--नमस्कार से अर्थात् 'नमो अरिहंताणं'
गिन कर न पारेमि--कायोत्सर्ग नहीं पारु-पूर्ण न करूं ताव कायं-तब तक अपनी काया को ठाणेणं--स्थिर रख कर मोणेणं--मौन रह कर झाणेणं--ध्यान धर कर अप्पाणं वोसिरामि--अपनी काया को अशुभ व्यापार
से अलग करता हूँ-चोसिराता हूँ।
८. लोगस्स-सुतं । लोगस्स उज्जोअगरे,--स्वर्ग मर्त्य और
लोक में प्रकाश करनेवाले, धम्मतित्थयरे जिणे---धर्मतीर्थ की स्थापना करनवाले
और राग द्वेष को जीतनेवाले
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( ९ )
अरिहंते कित्तइस्सं, - तीर्थंकरों की मैं स्तवना करूंगा, चवीस पि केवली । चोवीसों तीर्थंकर केवलज्ञानी और सर्वज्ञ हैं ||१||
उसभमजियं च वंदे, -- श्री ऋषभदेव और अजितनाथ प्रभु को वन्दन करता हूँ,
संभवमभिणंदणं च सुमई च । संभवनाथ, अभिनन्दननाथ और सुमतिनाथ प्रभु को और पउमपहं सुपासं, - - पद्मप्रभनाथ, सुपार्श्वनाथ प्रभु को, जिणं च चंदष्पहं वंदे । - रागद्वेष को जितनेवाले चन्द्रप्रभस्वामी को वन्दन करता हूँ ||२||
सुविहिं च पुष्कदंतं, - और सुविधिनाथ जिनका दूसरा नाम पुष्पदन्त भी है उनको,
सीयलसिज्जंस वासु पुज्जं च । -- शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ और वासुपूज्यस्वामी को
विमलमणतं च जिणं, -- विमलनाथ और अनन्तनाथ जिनेन्द्र को,
धम्मं संतिं च वंदामि । -- धर्मनाथ और शान्तिनाथ स्वामी को मैं वन्दन करता हूँ ||३||
कुंथुं अरं च मल्लि, - - कुंथुनाथ, अरनाथ और मल्लिनाथ, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । - - जिनेश्वर मुनिसुव्रत
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(१०) स्वामी और नमिनाथ प्रभु को मैं वन्दन
करता हूँ। चंदामि रिट्टनेमि,--अरिष्टनेमि प्रभु जिनका दूसरा नाम
नेमिनाथ भी है उनको वन्दन करता हूँ, पास तह वद्धमाणं च । --श्रीपार्श्वनाथ तथा वर्द्धमानस्वामी
(महावीर) को वन्दन करता हूँ ॥४॥ एवं मए अभिथुआ,--इस प्रकार मैंने स्तवना की, विहुयरयमला पहीणजरमरणा। --कर्मरूप रज के मैल
से और बुढापा तथा मरण से रहित । चउवीसं पि जिणवरा,--चौवीसों ही जिनवर सामान्य
केवलज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, तित्थयरा मे पसीयंतु । --ये तीर्थङ्कर भगवान मेरे ऊपर
प्रसन्न हो ॥५॥ कित्तियवन्दियमहिया,--ये प्रभु कीर्तन किये गये, वन्दन
किये गये और पूजन किये गये हैं। जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । --जो ये तीर्थंकर तीनों
लोक में उत्तम हैं और ये सिद्ध हुए हैं और
मोक्ष में विराजमान हैं। आरुग्गबोहिलाभ,--ये भगवान् मुझ को आरोग्यता,
बोधिलाभ ( सम्यक्त्वरत्न )
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( ११ ) समाहिवरमुत्तमं दिंतु । -- और ऊत्तम प्रकारकी आत्मसमाधि को अर्पण करें ॥ ६ ॥
चंदेसु निम्मलयरा, - ये सिद्ध चन्द्रमा से भी विशेष निमल हैं, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । - - सूर्योंसे भी अधिक प्रकाश करनेवाले हैं और
सागरवरगंभीरा, स्वयम्भूरमण समुद्र से भी अधिक गंभीर हैं
सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु-- ऐसे सिद्ध भगवान् मेरे को सिद्धिपद (मोक्षपद ) प्रदान करें ||७||
९. सामायिक - सुत्तं ।
करेमि भंते ! सामाइयं, - - हे भगवन् ! मैं सामायिक क्रिया ग्रहण करता हूँ
सावज्जं जोगं पच्चक्खामि - - सर्व सावद्य ( पापरूप व्यापार) का त्याग करता हूँ
जाव नियमं पज्जुवासामि - जब तक मैं दो घडी (४८ मिनिट) तक नियम का सेवन करूं तब तक दुविहं तिविहेणं-दो करण और तीन योग से नीचे मुताबिक प्रतिज्ञा करता हूँ
मणेणं वायाए काएणं-- मन, वचन और काया से
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मुक्ता शुक्तिमुद्दा
योगमुद्रा
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ALL
Ai
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ERE SANASA.
सामायिककी मुद्रा । मुहपत्ति पडिलेहण मुद्रा
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(१२) न करेमि, न कारवेमि। -खुद पाप व्यापार को नहीं करूं
और दूसरों से नहीं कराऊँ तस्स भंते ! पडिक्कमामि--हे भगवन् ! उस पहले किये
हुए पापकर्म से निवृत्त होता हूँ निंदामि, गरिहामि--आत्मसाक्षी से उस पाप की निन्दा
और गुरुदेव की साक्षी से उस पाप की
विशेष निन्दा करता हूँ अप्पाणं वोसिरामि--इस प्रकार मैं उस पापक्रिया से
अपनी आत्मा को अलग करता हूँ। १०. सामायिक पारने का सूत्र । सामाइयवयजुत्तो,--सामायिक व्रत सहित जाव मणे होइ नियमसंजुत्तो।--जहाँ तक समताभाव
में वरतूं वहाँ तक छिन्नइ असुहं कम्मं,--अशुभ पापकर्म का नाश होता है सामाइय जत्तिया वारा। --जितनी वार सामायिक करे
उतनी वार कर्म से मुक्त होता है ॥१॥ सामाइयंमि उ कए,-सामायिक व्रत में रहा हुआ समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।--श्रावक साधु के
समान होता है-माना जाता है ॥१॥ .
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(१३)
एएण कारणेणं,--इस कारण बहुसो सामाइयं कुज्जा । --अनेक वार (वारंवार) सामा
यिक करना चाहिये ॥२॥ सामायिक विधे लीg-~सामायिक व्रत विधि से लिया विधे पाल्यु--विधि से पालन किया विधि करतां जे कोई अविधि हुई-विधि करते हुए जो
कुछ अविधि की हो ते सवि हुं मन वचन कायाए करी--उस सब अविधि
___ की क्रिया का मन, वचन और काया से मिच्छा मि दुक्कडं-मिथ्या दुष्कृत देता हूँ अर्थात्-उस
अविधिजन्य क्रिया को निष्फल मानता हूँ।
११. जगचिंतामणि-चैत्यवन्दनकसुत्तं ।
इच्छाकारेण--आप अपनी इच्छा से संदिसह भगवन् !- हे भगवन् ! आज्ञा दीजिये चैत्यवंदन करूं?--चैत्य वन्दन करता हूँ इच्छं--आप की आज्ञा प्रमाण है। जगचिंतामणि !, जगनाह !-जगत् में चिन्तामणि रत्न
. के समान, जगत् के स्वामी.
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(१४)
जगगुरू! जगरक्खण !-जगत् के गुरु, जगत्वासी
प्राणियों की रक्षा करनेवाले जगबंधव ! जगसत्थवाह !--जगत् में भाई के समान,
हितैषी, जगत् के सार्थवाह अर्थात् नेता
अगुआ जगभावविअक्षण--जगत् के · चराचर पदार्थों को
जानने और कहने में विचक्षण अट्ठावय-संठवियरूव--अष्टापद पर्वत के ऊपर प्रतिमा
रूप से स्थापित कम्मट्ठविणासण--आठ कर्मों का सर्वनाश करनेवाले चउवीसं पि जिणवर जयंतु-चोवीसों तीर्थङ्कर भगवान्
__ जयवन्ता वर्तों अर्थात्-जिनेश्वरों की जय हो अप्पडिहयसासण--जिनकी आज्ञा और उपदेश अस्ख
लित एवं बाधा रहित है ॥१॥ कम्मभूमिहिं कम्मभूमिहिं--जिसमें असि, मसि और
कृषी रूप तीन कर्म प्रवर्तित हैं उन कर्म
भूमियों में पढमसंघयणि--प्रथम 'वज्रऋषभनाराच' नामक संघ
यणवाले उक्कोसयसत्तरिसय---उत्कृष्टकाल में एकसो सित्तर
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(१५) जिणवराण विहरत लब्भइ-तीर्थङ्कर प्रभु विचरते हुए
पाये जाते हैं नवकोडिहिं केवलीण-जिनके साथ नव क्रोड़ सामान्य
केवलज्ञानी, कोडिसहस्स नव साहु गम्मइ--और नब हजार क्रोड
_____सामान्य ( ९० अर्ब ) साधु पाये जाते हैं संपइ जिणवर वीसमुणि-वर्तमान में श्रीसीमन्धरस्वामी
__ आदि वीस तीर्थङ्कर प्रभु हैं: जो 'बीस विहर
माण जिनेश्वर' कहाते हैं विहं कोडिहिं वरनाण--जिनके साथ दो क्रोड सामान्य
केवलज्ञानियों का और समणह कोडिसहस्स दुअ--दो हजार क्रोड ( २० अर्ब)
सामान्य मुनियों का परिवार है थुणिज्जइ निच्च विहाणि ।-उन सब की में प्रतिदिन
प्रातःकाल में स्तवना करता हूँ॥२॥ जयउ सामिय--हे स्वामिन् ! आप जयान्ता वतों,
आप की जय हो । जयउ सामिय रिसह सत्तुंजि- सिद्धाचलतीर्थ के नायक !
हे ऋषभदेवस्वामी ! आपकी जय हो
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(१६) उन्जिति पहु नेमिजिण-गिरनार तीर्थ के अधिष्ठाता
(नायक) हे श्रीनेमिनाथ प्रभो ! और जयउ वीर सच्चउरिमंडण-सांचोर (सत्यपुरी) के मंडन
हे महावीरस्वामिन् ! आप की जय हो, आप
जयवन्ता वतों भरुअच्छहिं मुणिसुव्वय-बडौदा और सूरत के बीच में
नर्मदानदी के तट पर स्थित भरुअच्छ नगर
में हे मुनिव्रतस्वामिन् ! और मुहरि पास-मुहरीगाँव में हे पार्श्वनाथपभो ! आपकी
सदा जय हो दुहदुरिअखंडण-ये पांचों जिनेश्वर दुःख एवं खोटे
पापकर्मों का नाश करनेवाले हैं, अवरविदेहिं तित्थयरा--दूसरे भी जो महाविदेद क्षेत्र
में तीर्थङ्कर भगवान् हैं, तथा चिहुं दिसि विदिसि जि केवि--चारों दिशाओं में
और चार विदिशाओं में जो कोई तीआणागयसंपइय-- भूतकालीन, भविष्यत्कालीन और
वर्तमानकालीन, तीर्थङ्कर हुए, होंगे, एवं वंदु जिण सव्वे वि--उन सभी जिनेश्वरों को मैं वन्दन
करता हूँ ॥३॥
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( १७ )
सत्ताणवइसहस्सा -- सत्यानवे (९७) हजार, लक्खा छपन्न अट्ठकोडिओ - छपन्न लाख, आठ क्रोड बत्तीसय बासीआई -- बत्तीससो ब्यासी
तिलोए चेइए वंदे -- तीन लोक में स्थित जिनमन्दिरों को मैं वन्दन करता हूँ ॥ ४ ॥
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पनरसकोडिसयाइं -- पन्द्रहसो कोड ( १५ अर्ब ) कोडी बायाल लक्खअडवन्ना- बयालीस क्रोड, अठा
वन लाख
छतीस सहस असीइं - छत्तीस हजार और अस्सी इतने सासयबिंबाई पणमामि -- शाश्वता जिनेश्वरों की प्रतिमाओं को वन्दन करता हूँ ॥ ५ ॥ १२. जं किंचि सुतं ।
जं किंचि नाम तित्थं - जो कोई नामरूप जैन तीर्थ सग्गे पायालि माणुसे लोए - - ऊर्ध्वलोक में. अधोलोक में और मनुष्यलोक ( तीच्छ लोक ) में प्रसिद्ध हैं
२
जाई जिणबिंबाई- उनमें जितने जिनेश्वर बिम्ब हैं ताई सच्चाई वंदामि-- उन सब को मैं वन्दन करता हूँ अर्थात् उन सभी जिनबिम्बों को मेरा नमस्कार है।
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- (१८) १३. नमो स्थु णं (शक्रस्तव) सुत्तं । नमो स्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं ।--नमस्कार हो
अरिहन्त भगवन्तों को। आइगराणं-वे धर्म की आदि के करनेवाले तित्थयराणं--तीर्थ(संघ) की स्थापना करनेवाले और सयंसंबुद्धाणं ।- स्वयं बोध को पाये हुए हैं, पुरिसुत्तमाणं--पुरुषों में उत्तम हैं पुरिससीहाणं--पुरुषों में सिंह के समान निर्भय हैं, पुरिसवरपुंडरीआणं--पुरुषों में श्रेष्ठ पुंडरीककमल के
समान निलेप हैं, पुरिसवरगंधहस्थीणं ।--पुरुषों में गन्धहस्ती के समान
सहनशील या कर्मरूप वैरियों को हठाने में
बडे पराक्रमी हैं, लोगुत्तमाणं--लोगों में उत्तम हैं, लोगनाहाणं--लोगों के नाथ हैं, लोगहियाणं--लोगों का निःस्वार्थ हित करनेवाले हैं लोगपईवाणं--लोगों में ज्ञान से दीपक के समान प्रकाश
करनेवाले हैं लोगपज्जोअगराणं ।--लोक में ज्ञान से सूर्य के समान
मिथ्यान्धकार का नाश करके प्रकाश करनेवाले हैं.
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――――
( १९ )
अभयदयाणं - - प्राणीमात्र को अभयदान देनेवाले हैं, चक्खुदयाणं -- ज्ञानरूप नेत्रों के देनेवाले हैं, मग्गदयाणं -- आत्मकल्याणकर मार्ग को देनेवाले हैं, सरणदयाणं -- शरणागत की दया रखनेवाले हैं, बोहिदयाणं - - सम्यक्त्वदान देनेवाले हैं, धम्मयाणं --- विशुद्धधर्म का उपदेश देनेवाले हैं, धम्मदेसयाणं- असली धर्म का मार्ग बतानेवाले हैं, धम्मनायगाणं धर्म के नायक (नेता) हैं,
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धम्मसारहीणं-- धर्मरूपी रथ को चलाने में सारथी के
समान हैं,
धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं- धर्मरूप चक्र से चार गति का नाश करने में चक्रवर्ती के समान हैं, अप्पडिय - वरनाणदंसणधराणं-- किसीसे बाधित नहीं ऐसे केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करनेवाले हैं, जिनसे चर या अचर किसी पदार्थ का स्वरूप छिपा हुआ नहीं है. वियट्टछउमाणं । - - छद्मस्थ अवस्था से रहित हैं अर्थात् जिन्होंने घातिकर्मों का सर्वथा विनाश कर दिया है ।
जिणाणं जावयाणं- स्वयं राग, द्वेष और कर्म रूप दुश्मन को जीतनेवाले और दूसरों को जितानेवाले हैं
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(२०) तिन्नाणं तारयाणं--संसारसमुद्र को स्वयं तिरनेवाले और
दूसरों को तारनेवाले हैं, बुद्धाणं बोहयाणं-स्वयं वास्तविक तत्व को जाननेवाले
और दूसरों के तत्त्व का ज्ञान करानेवाले हैं, मुत्ताणं मोअगाणं---स्वयं कर्म से रहित हैं और दूसरों
को कर्म से रहित करनेवाले हैं, सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं--आप स्वयं सब वस्तु को
जाननेवाले सर्वज्ञ हैं और सब वस्तु को
देखनेवाले सर्वदर्शी हैं, तथा । सिवमयलमरुअमणंत--निरुपद्रव, अचल, नीरोग, अनन्त, मक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्ति-अक्षय (अविनाशी),
पीडा रहित और जन्म-मरण से रहित, सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं-ऐसे मोक्षगति
नामक स्थान को पाये हुये हैं. नमो जिणाणं जिअभयाणं--समस्त भयों को जीतने
वाले जिनेश्वरों को मेरा नमस्कार हो। जे अ अईया सिद्धा-भूतकाल में जो सिद्ध हो चुके हैं जे अ भविस्संति णागए काले-जो आगामी काल में
सिद्ध होंगे और संपइयवट्टमाणा---वर्तमानकाल में जो सिद्ध हो रहे हैं सव्वे तिविहेण वंदामि--उन सब को मैं त्रिविधयोग
से वन्दना करता हूँ ॥१॥
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( २१ ) १४. जावंति चेइयाइं सुत्तं । जावंति चेइयाई -जितने चैत्य और उनमें जिनबिम्ब उड्ढे अ अहे अ तिरियलोए अ--ऊर्ध्वलोक, अधोलोक
और तिरछालोक में हैं सव्वाई ताई वंदे, इह संतो तत्थ संताई।--वहाँ रहे
हुए उन सब चैत्यों एवं प्रतिमाओं को
यहाँ रहा हुआ मैं वन्दन करता हूँ॥१॥
१५. जावंत के वि साहसुत्।। जावंत के वि साहू--जितने कोई भी साधु भरहेरवयमहाविदेहे अ--पांच भरत, पांच ऐरवत और
पांच महाविदेह, इन १५ क्षेत्रों में हैं सव्वेसिं तेसिं पणओ--उन सभी साधुओं को मैं
नमस्कार करता हूँ, जो तिविहेण तिदंडविरयाणं ।--त्रिविध ( करन, कारापन
और अनुमोदन रूप ) योग से तथा मन, वचन, काया रूप तीन दंडों से निवृत्त ( अलग ) हुए हैं ॥१॥
१६. पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारसूत्रम् । नमोऽहत्-सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः--अरिहन्त,
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(२२) सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु महाराज को मेरा नमस्कार हो।
१७. 'उवसग्गहरे' थोत्तं। उवसग्गहरं पासं--उपसगों का नाश करनेवाला पार्श्व
यक्ष जिनका सेवक है, उन पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं--कर्मों के समूह से रहित
श्री पार्श्वनाथप्रभु को मैं चन्दन करता हूँ विसहरविसनिन्नासं-जो नामस्मरण मात्र से सौ के
विष का नाश करनेवाले हैं और मंगलकल्लाणआवासं-मंगल तथा कल्याण के आवास
(घर) हैं ॥१॥ विसहरफुलिंगमंतं--पार्श्वनाथप्रभु के विषधरस्फुलिंग
नामक मंत्र को कंठे धारेइ जो सया मणुओ-जो मनुष्य अपने कंठ में
सदा धारण करता है जपता है तस्स गहरोगमारी-उस मनुष्य के दुष्ट ग्रह, रोग,
___ महामारी, और दुट्ठजरा जंति उवसाम-दुष्ट ज्वर आदि सब उपद्रव
शान्त होते हैं या अपने आप मिट जाते हैं ॥२॥
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(२३ ) चिट्ठउ दूरे मंतो-हे भगवन् ! आपका विषधरस्फुलिंग
मंत्र तो दूर रहो, परन्तु तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ--आपको किया हुआ
वन्दन भी बहुत शुभफल को देनेवाला है नरतिरिएसु वि जीवा-नामको स्मरण करने से कोई भी
प्राणी नरक और तियचों की गति में
नहीं जाते पावंति न दुक्खदोगच्च-और वे दुःख तथा दरिद्र
अवस्था को नहीं प्राप्त करते ॥ ३ ॥ तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणिकप्पपायकन्भहिए--
चिन्तामणिरत्न और कल्पवृक्ष से भी अधिकाधिक महिमावाला आपका सम्यग्दर्शन मिल
जाने पर पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं--भव्यजीव
निर्विघ्नता से अजर अमर स्थान (मोक्षपद)
को प्राप्त करते हैं ॥४॥ इअ संथुओ महायस-हे महायशस्वी प्रभो ! इस प्रकार
आपकी स्तवना की, जो भत्तिभरनिन्भरेण हियएण--भक्तिसमूह से परिपूर्ण
हृदयवाली है
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(२४) ता देव ! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पासजिणचंद--हे
पार्श्वप्रभो ! भवोभव में मुझे वही सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) प्रदान करिये ॥ ५ ॥
१८. जय वीयरायसुत्तं । जय वीअराय ! जगगुरु--हे वीतराग ! हे जगतगुरो !
आपकी जय जय हो. होउ ममं तुहप्पभावओ भयवं--आपके प्रभाव से हे
भगवन् ! मुझको होओ भवनिवेओ मरगाणुसारिया इट्ठफलसिद्धि । --संसार
से निर्वेद (वैराग्य ), धर्ममार्ग का अनुसरण
और इष्टफल (वांछित लाभ) की सिद्धि ॥१॥ लोगविरुद्धच्चाओ-लोक में निन्दाजनक व्यवहार का त्याग, गुरुजणपूआ परत्थकरणं च--पूज्य बड़ीलों की सेवा,
बहुमान और परोपकार करने की बुद्धि, सुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा--सद्गुरु का समागम
तथा उनके शुभ वचनों का सेवन. आभवमखंडा--ये सभी बातें अखंडित रूप से जीवन
पर्यन्त मुझ को प्राप्त हो ॥ २ ॥ वारिज्जइ जइ वि नियाणबंधणं वोयराय ! तुह समए
हे वीतराग ! यद्यपि आपके सिद्धान्त में नियाणा बांधने का निषेध किया है
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(२५) तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं-- __ तो भी आपके चरणों की सेवा भवोभव में
मेरे को प्राप्त हो, मिले ॥३॥ दुक्खखओ कम्मक्खओ-दुःखों का नाश, कर्मों
का क्षय, . समाहिमरणं च बोहिलाभो अ--समभाव रूप समाधि
मरण और सम्यकत्व का लाभ, संपज्जउ मह एअं, तुह नाह पणामकरणेणं--हे नाथ !
आपको वन्दन करने से ये सब मेरे को
प्राप्त हो ॥४॥ सर्वमंगलमाङ्गल्यं--सर्वमंगलो में प्रथम मांगलिक । सर्वकल्याणकारणम्।--समस्त कल्याणों का कारण, निमित्त प्रधानं सर्वधर्माणां--और सर्व धर्मों में श्रेष्ठतम जैनं जयति शासनम् --जैन शासन जयवन्ता वर्तों ॥५॥
१९. अरिहंतचेइयाणं सुत्तं । अरिहंतचेइयाणं करेमि काउसग्गं-- अरिहन्त भग
वन्तों के वन्दनादि के निमित्त कायोत्सर्ग
करता हूँ. वंदणवत्तिआए-चन्दन से होते हुए फल के निमित्त, पूअणवत्तिआए-पूजा से मिलनेवाले फल के निमित्त,
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( २६ ) सक्कारवत्तिआए-वस्त्राभूषणादि सत्कार से प्राप्त फल
के निमित्त, सम्माणवत्तिआए-स्तवन, स्तुति, स्तोत्रादि से सन्मान
करने के निमित्त, बोहिलाभवत्तिआए–सम्यक्त्व की प्राप्ति के निमित्त, निरुवसग्गवत्तिआए-उपसर्ग रहित मोक्षस्थान की प्राप्ति
करने के निमित्त, सद्धाए मेहाए धिईए-अटूट श्रद्धा से, निर्मल बुद्धि से
और चित्त की स्थिरता से, धारणाए अणुप्पेहाए-स्मृति से, वार वार तत्व की
विचारणा से, और । वढमाणीए-बढती हुई शुभ भावना से, ठामि काउसग्गं ।---मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।
२०. कल्लाणकंदं थुई। कल्लाणकंदं पढमं जिणिदं-कल्याण के मूल कारण
प्रथम जिनेश्वर श्री ऋषभदेवस्वामी को, संतिं तओ नेमिजिणं मुर्णिदं-श्री शन्तिनाथ प्रभु
को, तथा मुनिवरों के इन्द्र श्री नेमिनाथ
प्रभु को, पासं पयास सुगुणिक्कठाणं-तीनभुवन में प्रकाश कर
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(२७) नेवाले और सद्गुणों के एक स्थानभूत
श्री पार्श्वनाथ प्रभु को, भत्तीह वंदे सिरिवद्धमाणं- और श्री महावीरस्वामी
प्रभु को मैं भक्ति से वन्दन करता हूँ ॥२॥ अपारसंसारसमुद्दपारं--अपार संसार रूप समुद्र के
पार को पाये हुए। पत्ता सिवं दितु सुइक्कसारं--ये जिनेन्द्र एक सार
स्वरूप मोक्ष मेरे को देखें सव्वे जिणिंदा सुरविंदवंदा,--ये सभी जिनेन्द्र देवों
के समूह से वन्दनीय एवं पूजनीय हैं कल्लाणवल्लीण विसालकंदा ।--कल्याण रूप लताओं के
विशाल गोड के समान हैं ॥२॥ निव्वाणमग्गे वरजाणकप्पं--मोक्षमार्ग में जाने के
लिए उत्तम वाहन के समान हैं पणासियासेसकुवाइदप्पं ।--समस्त कुवादियों के
अभिमान को तोड़नेबाले हैं। . मयं जणाणं सरणं वुहाणं,--जिनेश्वरों के सिद्धान्त
विद्वानों के आधारभूत हैं । नमामि निच्चं तिजगप्पहाणं । और हमेशां तीनों
जगत् में मुख्य हैं, उनको मैं वन्दन करता हूँ ॥३॥
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(२८) २१. श्रीपञ्चजिनेन्द्रस्तुतिसुतं । जिणिंदरायं पढमं मुणिंद-प्रथम जिनेश्वर श्री ऋषभ
देवस्वामी, संतितहा तित्थयरं च नेमि ।--और तीर्थकर श्री शान्ति
नाथस्वामी तथा श्री नेमिनाथस्वामी, पासं जिणं सव्वगुणिप्पहाणं-सर्वगुणी जनों में मुख्य
श्री पार्श्वनाथस्वामी और नमामि देवं तिसलातणुअं।—त्रिशलानन्दन श्री महा
वीरस्वामी को नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अणतणाणोदहिकण्णधारा,—अनन्तज्ञान रूप समुद्र के
कर्णधार ( नेता) मंगल्लमूला जिअरागदोसा । सर्वमंगलों के मूल
कारण और राग तथा द्वेष को जीतनेवाले सव्वे जिणिंदा सुरसंघपुज्जा,---देवसमूहों के पूज्य
चोवीसों जिनेन्द्र भगवान् । सिवं सया मे विअरंतु लोए । संसार में नित्य मेरे
__ कल्याण का विस्तार करें ॥२॥ अणंतविण्णाणणियाणभूअं,--अनन्त विज्ञान के
निदानभूत मिच्छत्तसम्मत्तविवेयकारिं-मिथ्यात्व और सम्यक्त्व
का विवेचन करनेवाले
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(२९) जैणं सुअं सव्वसुअप्पहाणं,-समस्त शास्त्रों में प्रधान- तम जैनश्रुत ( जैनागम) को वंदे सया सव्वगुणोदहिं च।-मैं सदा वन्दन करता हूँ
जो जैनागम सर्वगुणों का दरिया है ॥३॥
२२. संसारदावानलथुई। संसारदावानलदाहनीरं-संसार रूप दावानल के सन्ताप
को शान्त करने के लिये जल के समान संमोहधूलिहरणे समीरम्-मोहनीयकर्म रूप धूल को
उडाने-हठाने में वायु के समान मायारसादारणसारसीरम्-माया रूप पृथ्वी को
खोदने के लिये तीखे हल के समान नमामि वीरं गिरिसारधोरम्-और सुमेरुपर्वत के
समान अचल श्री महावीरप्रभु को नमस्कार
करता हूँ ॥१॥ भावावनामसुरदानवमानवेन-भावपूर्वक नमन करते
हुए देवेन्द्रों, दानवेन्द्रों और नरेन्द्रों के चूलाविलोलकमलावलिमालितानि ।--मुकुटों में रहे हुए
चपल कमलों की पंक्ति से सुशोभित, और संपूरिताभिनतलोकसमीहितानि-सम्यक् प्रकार से
नमे हुए लोगों के मनोवांछितों को पूर्ण करनेवाले
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(३०) कामं नमामि जिनराजपदानि तानि-जिनेन्द्रदेव के
चरणकमलों को मैं अत्यन्त 'भक्ति से वन्दन
करता हूँ ॥२॥ बोधागाधं सुपदपदवीनीरपूराभिराम-ज्ञान से गंभीर,
सुन्दर पदों की रचना रूप जल के प्रवाह
से मनोहर, जीवाहिंसाविरललहरीसंगमागाहदेहम्-जीवरक्षा रूप
बिना रुकावट की तरंगों के संगम से कठि
नाई से प्रवेश करने योग्य चूलावेलं गुरुगममणीसंकुलं दूरपारं-और चूलिका
रूप तटवाले, बडे बडे आलावा रूप रत्नों
से व्याप्त और जिसका पार नहीं आ सकता, सारं वीरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे ।-उत्तम
श्री महावीरमभु के आगमरूपी समुद्र की आदर पूर्वक अच्छी तरह से सेवा करता हूँ ॥३॥
२३. पुक्खरवरदोसुत्तं। पुक्खरवरदीवड्ढे—आधे पुष्करवर द्वीप, धायइसंडे अ जंबदीवे अ-धातकीखण्ड द्वीप और
जम्बूद्वीप, इन ढाई द्वीप के भरहेरवयविदेहे-पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच
महाविदेह, इन पन्द्रह क्षेत्रों में रहे हुए
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(३१) धम्माइगरे नमंसामि-धर्म की आदि करनेवाले जिन
श्वरों को मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ तमतिमिरपडलविद्धंसणस्स-अज्ञान रूप अन्धकार
के समूह को नाश करनेवाले सुरगणनरिंदमहियस्स-और देवसमूहों से तथा नरेन्द्रों
से पूजित (पूजे हुए) सीमाधरस्स बंदे, पप्फोडिअमोहजालस्स–मोहनीय
कर्म के जाल को नाश करनेवाले और मर्यादा के धारण करनेवाले आगमसूत्रों को
मैं चन्दन करता हूँ ॥२॥ जाईजरामरणसोगपणासणस्स–जन्म, जरा, मरण
और शोक का नाश करनेवाले. कल्लाणपुक्खलविसालसुहावहस्स-कल्याणकारी एवं
अति विशाल मोक्षसुख को देनेवाले, को देवदाणवनरिंदगणचिअस्स–देव, दानव और
नरेन्द्र समूहों से पूजित, धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं । -श्रुतधर्म के सार को
प्राप्त करके प्रमाद कोन करे ? कोई नहीं ॥३॥ सिद्धे भो! पयओ णमो जिणमए-बहुमानपूर्वक नय
प्रमाणों से सिद्ध जिनमत को हे विद्वानो ! नमस्कार करो!
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(३२) नंदी सया संजमे-वह निजमत नित्य हमारे संयम की
वृद्धि करो देवनागसुवण्णकिन्नरगण-वो जिनमत देवों, नाग
कुमारों, सुवर्णकुमारों और किन्नरों के
समूह द्वारा सम्भूअभावच्चिए-उत्तम भाव से पूजित है लोगो जत्थ पइटिओ जगमिणं तेलुकमच्चासुरं
जिस जैन सिद्धान्त (जिनमत ) में तीनों काल सम्बन्धि ज्ञान, यह जगत् , तीनों लोक मनुष्य, और असुरादि का स्वरूप प्रतिष्ठित
( वर्णित ) है. धम्मो वड्ढउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ
ऐसा शाश्वत और विजयशाली श्रुतधर्म वृद्धि
करो ॥४॥ सुअस्स भगवओ करेमि काउसरगं वंदणवत्तिआए.
अन्नत्थ०-ऐसे श्रुतधर्म रूप भगवान् की आराधना और वन्दनादि के निमित्त में
कायोत्सर्ग करता हूँ।
२४. सिद्धाणं बुद्धाणं सुत्तं । सिद्धाणं बुद्धाणं-सिद्धिपद को पाये हुए, ज्ञान से सब
वस्तु को जाननेवाले १ यहाँ 'अन्नत्थ०' सूत्र का पाठ पूरा बोल कर कायोत्सर्ग करना ।
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( ३३ )
पारगयाणं - - संसारसमुद्र से पार पहुंचे हुए परंपरगयाणं-- अनुक्रम से मोक्ष में गये हुए लोअग्गमुवगयाणं -- लोक के अग्रभाग को प्राप्त किए हुए नमो सया सव्वसिद्धाणं -- ऐसे सर्वसिद्ध भगवानों को सदा मेरा नमस्कार हो ॥ १ ॥
जो देवाण वि देवो -- जो देवों के भी देव देवाधिदेव हैं जं देवा पंजली नमसंति - जिनको समस्त देवता भी हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हैं
तं देवदेवमहिअं—और वे इन्द्रों से भी पूजित हैं सिरसा वंदे महावीरं । - उन महावीरप्रभु को मस्तक नमा कर वन्दन करता हूँ ॥ २ ॥
इक्को वि नमुक्कारो - एन भी नमस्कार अर्थात् एक बार भी किया हुआ वन्दन
जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स -- सामान्य केवलज्ञानियों में श्रेष्ठ श्रीवर्द्धमानस्वामी का
संसारसागराओ-संसाररूप समुद्र से
तारेइ नरं व नारिं वा । - मनुष्य तथा स्त्रियों को तारनेवाला है, इसलिये बहुत बन्दन करने से प्राणी तिरे इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ॥ ३ ॥
उज्जित सेलसिहरे -- गिरनार पर्वत के शिखर पर
३
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( ३४ )
दिक्खानाणं निसीहिआ जस्स-जिसके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये तीन कल्याणक हुए हैं
तं धम्मचक्कवहिं - उन धर्मचक्रवर्ती अरिनेमिं नम॑सामि । - - बाईसवें श्रीअरिष्ट नेमिनाथ को मैं वन्दन करता हूँ ॥ ४ ॥
चत्तारि अट्ठ-दस दोअ -- अष्टापद पर्वत के ऊपर चार, आठ, दश और दो
वंदिया जिणवरा चउव्वीसं-- ये चोबीस जिनेश्वरों के बिम्ब इन्द्रादि देवों से पूजित हैं
परमट्ठनिट्ठिअट्ठा - परमार्थ से कृतकृत्य हैं सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु- वे सिद्ध हुए सिद्धभगवान् मुझको मोक्षपद देवें ॥ ५ ॥
२५. भगवानहंसुत्तं ।
भगवान्हं, आचार्यहं, उपाध्यायहं सर्वसाधुहंभगवन्तों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को और समस्त साधुओं को मेरा वन्दन ( नमस्कार ) हो । २६. पडिक्कमणठावणासुतं ।
" इच्छाकारेण संदिसह, भगवं ! देवसिअ पडि क्कमणे ठाउं ?, इच्छं " – हे भगवन् !
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( ३५ )
आपकी इच्छा से आज्ञा दीजिये, जिससे मैं दैवसिक प्रतिक्रमण शुरू करूं ? आपकी आज्ञा प्रमाण है ।
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सव्वस्स वि देवसिअ - - समस्त दिवस सम्बन्धी दुचिंतिय दुग्भासिअ - - दुष्ट चिन्तन से, खराब भाषण से दुच्चिठि -- और खोटी चेष्टा करने से लगा हुआ सब पाप मिच्छामि दुक्कडं -- मेरा मिथ्या (निष्फल ) हो ।
२७. इच्छामि ठामि सुत्तं ।
इच्छामि ठामि काउसग्गं-- चाहता हूँ कायोत्सर्ग ठाने ( करने ) को
जो मे देवसिओ अइयारो कओ -- जो मेरे को दिवस सम्बन्धी अतिचार ( दोष ) लगे
काइओ वाइओ माणसिओ - - काया सम्बन्धी, वचन सम्बन्धी और मन सम्बन्धी
w
उस्तो उम्मग्गो अकप्पो -- मूत्रविरुद्ध, जिनमार्ग विरुद्ध और आचार विरुद्ध,
अकरणिज्जो नहीं करने योग्य कार्य का
दुज्झाओ दुव्विचितिओ -- दुष्ट ध्यान ध्याया हो, दुष्ट
चिन्तन किया हो ।
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( ३६ )
अणायारो अणच्छिअच्वो -- नहीं आचरने लायक और नहीं इच्छने लायक काम किया हो
असावगपाउग्गो - - श्रावक ( जैनी ) को योग्य न हो ऐसा कार्य समाचरण किया हो
नाणे दंसणे चरित्ताचरिते - ज्ञान में, दर्शन में और देशविरति चारित्र ( श्राद्धधर्म ) में
सुए सामाइए - - श्रुतधर्म में तथा सामायिक में जो अतिचार दोष लगे हों ।
--
तिन्हं गुत्तीणं, चउन्हं कसायाणं - - क्रोधादि चार कषायों के द्वारा तीन गुप्ति सम्बन्धी पंचमणुव्वाणं - - पांच अणुव्रत स्थूल प्राणातिपात
१, स्थूल मृषावाद २, स्थूल अदत्तादान ३, स्थूल परदारागमननिषेध, या स्वदारासन्तोष ४, और स्थूल परिग्रह परिमाण ५, तिन्हं गुणव्वयाणं -- तीन गुणत्रत - दिग्परिमाण १, भोगोपभोग २, और अनर्थदण्ड ३,
चउन्हें सिक्खावयाणं चार शिक्षाव्रत - सामायिक १, देशावकासिक २, पौषधोपवास ३, और अतिथिसंविभाग ४,
बारसविहस्स सावगधम्मस्स - - इस मुताबिक बारह प्रकार के श्रावकधर्म की
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( ३७ )
जं खंडिअं जं विराहिअं-- जो कोई खंडना हुई हो और जो कुछ विराधना हुई हो,
तस्स मिच्छामि दुक्कडं उसका लगा हुआ पाप मेरा मिथ्या हो ।
२८. अतिचारगाथासुत्तम् ।
नाणम्मि दंसणम्मि अ-- ज्ञान और सम्यक्त्व में चरणम्मि तवम्मि तह य वीरियम्मि — चारित्र, तप, तथा वीर्य में
आयरणं आयारो -- जो आचरण करना वह आचार कहाता है ।
इय एसो पंचहा भणिओ । -- वह ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इस प्रकार पांच प्रकार का कहा गया है ।। १ ॥
काले विणए बहुमाणे -- कालोकाल सूत्रों का अभ्यास करना १, ज्ञानी और ज्ञान का विनय करना २, ज्ञानियों के और ज्ञान के उपकरणों पर अतरङ्ग प्रेम - ( अधिक आदर ) रखना ३,
उवहाणे तह अनिहवणे -- तपश्चरण और क्रिया पूर्वक सूत्रों को पढ़ना ४, पढ़ानेवाले गुरु का नाम
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( ३८ )
नहीं छिपाना अथवा मिथ्याभाषण नहीं
करना ५, वंजण-अत्थ-तदुभए- - सूत्रों के अक्षरों का शुद्ध उच्चारण करना ६, सूत्रों या उनके पदों का शुद्ध अर्थ करना ७, और सूत्रार्थ को शुद्ध पढना एवं शुद्ध समझना ८,
अट्ठविहो नाणमायारो । - इस प्रकार ज्ञानाचार आठ प्रकार का है ।। २ ॥
निस्संकिr निक्कंखिअ - - वीतराग के वचनों में शंका न रखना १, जिनमत के सिवाय अन्यमत की चाहना नहीं करना २,
निव्वितिमिच्छा अमूढदिट्टी अ--धर्म के फल में सन्देह
नहीं रखना या साधुओं के मल-मलिन शरीर और वस्त्रों को देख कर घृणा न करना ३, मिध्यावियों के चमत्कार देख कर व्यामोहित न होना ४,
उबवूह थिरीकरणे -- सम्यक्त्वधारी पुरुष - स्त्रियों के गुणों की प्रशंसा करना, अदेखाई न करना ५, धर्मप्राप्त पुरुष स्त्रियों को चल विचल देख कर पुनः धर्म में स्थिर करना ६,
वच्छल्लपभावणे अड्ड - स्वधर्मी भाईयों का अनेक प्रकार से हित ( सुखी) करना ७ और अन्यमतियों
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( ३९ )
में भी जैनशासन की प्रशंसा - अनुमोदना करने लायक कार्य करना ८, इस प्रकार ये आठ तरह का दर्शनाचार है ॥
३ ॥
पणिहाणजोगजस्तो मनोयोग, वचनयोग और काय - योग इन तीन गुणों की एकत्रता सहित पंचहिं समिईहिं तिहिं गुन्तिहिं--पांच समितियों के और तीन गुप्तियों के भेदों से
एस चरित्तायारो -- यह चारित्राचार
अविहो होइ नायव्वो । आठ प्रकार का होता है ऐसा समझना ॥ ४ ॥
बारसविहम्मि वि तवे -- बारह प्रकार के तपाचार में सभितर बाहिरे कुसलदिट्ठे-छः आभ्यन्तर और छः बाह्य भेद तीर्थङ्करोंने कहे हुए हैं ।
अगिलाइ अणाजीवी - तप में कायरता या खेद नहीं लाना और आजीविका - तप करने से मेरी उदरपूर्ति चलेगी इस आशा से रहित
तप करना
नायो सो तवायारो । -- वह तपाचार है ऐसा जानना ॥५॥ अणसणमूणोअरिआ - थोडे समय या बहुत समय तक आहार का त्याग करना १, पांच या सात
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(४०) कवल कम खाना अथवा वस्त्र, पात्रादि उप
करण अल्प रखना २, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ--खाने, पीने और भोगोपभोग
की वस्तुएँ अल्प रखना ३, घी, दूध दही आदि विगयों का त्याग करना और उनके
उपर आसक्ति नहीं रखना ४, कायकिलेसो संलीणया-केशलुंचन आदि कायक्लेश को
सहन करना ५ और इन्द्रियों के विषयविकारों को, शारीरिक अंगोपाङ्गो को और
उनकी कुचेष्टाओं को रोकना ६, य बज्झो तवो होइ।यह छः प्रकार का बाह्यतप समझना
चाहिये ॥६॥ पायच्छित्तं विणओ-किए हुए दोषों को गुरुदेव के सामने
प्रकट करके उनकी आलोयणा लेना १, गुरुदेवादि पूज्यों, ज्ञानियों और शास्त्रों की आशा
तना न कर विनय एवं आदर सन्मान करना २, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ-गुरु, वृद्ध और ग्लान आदि
की आहार, पानी, औषध आदि से सेवाभक्ति करना ३, तथा वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा रूप स्वाध्याय ( शास्त्राभ्यास) करना ४,
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(४१) झाणं उसग्गो वि अ--आर्त रौद्र ध्यान का त्याग करके
धर्मध्यान और शुक्लध्यान में प्रवृत्त रहना ५, और कर्मक्षय के निमित्त कायोत्सर्ग करना
या मूर्छा का त्याग करना ६, अभितरओ तवो होइ।—ये छः प्रकार का आभ्यन्तर
तप होता है । इन तपों का आचरण करने वाला व्यक्ति साधारण की दृष्टि से नहीं,
शास्त्रदृष्टि से भी तपस्वी समझा जाता है ॥७॥ अणमूहिअ-बलवीरिओ-जो अपने बल-पराक्रम रूप
शक्ति को न छिपा कर प्रभुभाषित धर्म में उद्यम, पडिक्कमह जो जहुत्तमाउत्तो---और जो शास्त्रोक्त रीति
से धर्मक्रियाओं में सावधानी से प्रतिक्रमण
करता है, और जुजइ अ जहाथामं--यथाशक्ति प्रवृत्ति करता है, उस नायव्वो वीरियायारो।--आचरण को वीर्याचार जानना
चाहिये ॥ ८॥
२९. सुगुरुवंदणसुत्तं । इच्छामि खमासमणो ! बंदिउं--चाहता हूँ हे क्षमाश्रमण
पूज्य ! वन्दन करने के लिये जावणिज्जाए निसीहिआए--शक्ति के अनुसार शरीर
को पापक्रिया से हटा कर
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(४२) अणुजाणह मे मिउग्गह--मुझको परिमित अवग्रह की
आज्ञा दीजिये निसीहि--गुरुवन्दन के सिवाय अन्य पापव्यापार को
छोड़ कर मैं अवग्रह में बैठता हूँ अहोकायं--आपके चरणकमल का कायसंफासं--अपने उत्तमाङ्ग से स्पर्श करता हूँ खमणिज्जो--क्षमा के योग्य मे किलामो--आपको मेरे स्पर्श करने से कोई भी बाधा
उत्पन्न हुई हो तो क्षमा करें अप्पकिलंताणं-अल्प ग्लानिवाले बहुसुभेण भे---आपका बहुत सुख शान्ति से दिवसो वइक्कतो-दिवस व्यतीत हुआ ? जत्ता भे-आपकी तप, नियम, संयम और स्वाध्याय
रूप यात्रा में किसी प्रकार की बाधा तो
नहीं है ? जवणिज्जं च भे--आपका शरीर, मन और इन्द्रियाँ तो
पीडा रहित हैं ? खामेमि खमासमणो--हे क्षमाश्रमण ! यदि कोई अप
राध हुआ हो तो उसको खमाता हूँ, देवसिअं वहक्कम-दिवस सम्बन्धी अपराध से,
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( ४३ )
आवस्सिआए आवश्यक क्रिया सम्बन्धी अतिचार दोषों से
पडिक्कमामि -- निवृत्त ( अलग ) होता हूँ. खमासमणाणं --- आप क्षमाश्रमण पूज्य गुरुदेव की देवसियाए आसायणाए - दिवस सम्बन्धी आशातनाओं के द्वारा
तित्तीसन्नपराए— गुरु सम्बन्धी तेंतीस आशातनाओं में से कोई भी आशातना द्वारा
जं किंचि मिच्छाए - - जो कुछ मिथ्याभाव में मणदुक्कडाए - मानसिक खोटे विचारों से, कायदुक्कडाए -- खोटे वचनों से कायदुक्कडाए -- खोटी काया की प्रवृत्ति से, कोहाए माणा -- क्रोध और अभिमान से, मायाए लोभाए - - कपट और लोभ-लालच से सच्चकालियाए - - सर्वकाल सम्बन्धी सव्वमिच्छोवयाराए - - समस्त प्रकार के मिथ्या उपचार - मय व्यवहारों से सव्वधम्माइक्कमणाए सभी प्रकार के धर्मों के उल्लंघन करने से
आसायणाए - - आशातना हुई हो तो और तत्सम्बन्धी जो मे अइयारो कओ - जो मेरे अतिचार दोष लगा हो
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ACI
(४४) तस्स खमासमणो--हे क्षमाश्रमण ! उससे पडिक्कमामि--मैं निवृत्त होता हूँ-फिर वैसा दोष न
लगने देने का निश्चय करता हूँ। निंदामि गरिहामि-आत्मसाक्षी से उस दोष की निन्दा
और गुरुसाक्षी से गर्दा करता हूँ, अप्पाणं वोसिरामि ।---और मेरी आत्मा को पापक्रियाओं
से बोसिराता हूँ-अलग करता हूँ। दूसरा वांदणा देते समय “आवस्सियाए' पद नहीं बोलना एवं रात्रिक प्रतिक्रमण में 'राइवइक्कंता,' चतुर्मासिक प्रतिक्रमण में 'चउमासि वइक्कतो,' पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'पक्खो वइक्कतो' और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 'संवच्छरो वइक्कतो' कहना ।
३०. देवसिअं आलोउं सुत्तं । इच्छाकारेण संदिसह भगवं!--हे भगवन् ! आपकी
- इच्छापूर्वक आज्ञा दीजिये । देवसिअं आलो-दिवस सम्बन्धी पाप की आलोचना
करने के लिये इच्छं, आलोएमि---आपकी आज्ञा प्रमाण है, मैं आलो.
चना करता हूँ, 'जो मे देवसिओ अइआरो०'--इत्यादि, यहाँ 'इच्छामि
ठामि' सूत्र का पाठ पूरा बोलना ।
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( ४५ )
३१. सातलाखसूत्र |
सात लाख पृथ्वीकाय सचित्त मिट्टी, पाषाण आदि पृथ्वी के जीवों की योनि सात लाख हैं,
सात लाख अकाय-- सचित्त भूमि का पानी, आकाश का पानी आदि अपकायिक जीवों की योनि सात लाख हैं,
सात लाख ते काय -- अङ्गारा, भोभर, विजली, आदि अग्निकायिक जीवों की योनि सात लाख हैं, सात लाख वाउकाय -- उद्भ्रामक, महावात आदि वायुकायिक जीवों की योनि सात लाख हैं, दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय- -वृक्ष, फल, फूल, पत्र आदि प्रेत्येक वनस्पतिकायिक जीवों की योनि दश लाख हैं,
चौद लाख साधारण वनस्पतिकाय-- जमीकन्द, कोमलफल, पत्र, नीलफूल, आदि साधारण वनस्पतिकायिक जीवों की योनि चौदह लाख हैं,
दो लाख बेइन्द्रिय--शंख, सीप, कोड़ा, कोड़ी, अलसिया आदि द्वीन्द्रिय जीवों की योनि दो लाख हैं
१ जिसके एक शरीर में एक ही जीवस्थान हो वह प्रत्येक वनस्पस्ति समझना । २ जिसके एक शरीर में अनन्त जीवस्थान हो उसको साधारण
वनस्पति जानना |
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( ४६ )
दो लाख तेइन्द्रिय-- कानखजूरा, खटमल जं, कीड़ी, आदि त्रीन्द्रियजीवों की योनि दो लाख है, दो लाख चउरिन्द्रिय--विच्छु, ढींकुण, भँवरा, तीड, मक्खी आदि चार इन्द्रियवाले जीवों की योनि दो लाख हैं,
चार लाख देवता -- देवों की योनि चार लाख है चार लाख नारकी - नरक के जीवों की योनि चार लाख हैं,
चार लाख तिर्यच पंचेन्द्रिय-- पशु, पक्षी, मच्छ, मछली आदि पञ्चेन्द्रियतियच जीवों की योनि चार लाख है,
चौदह लाख मनुष्य - - कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तद्वपज मनुष्यजीवों की योनि चौदह लाख है,
एवंकारे चौरासी लाख जीवयोनि मांहे- इस प्रकार कुल चौराशी जीवयोनियों के जीवों में से
लाख
१ जीवों के उत्पत्तिस्थान को 'योनि' कहते हैं । सब मिला कर जीवों के चौरासी लाख उत्पत्तिस्थान हैं । यद्यपि उत्पत्तिस्थान इनसे भी अधिक हैं । किन्तु वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से जितने स्थानक समान हों वे एक ही स्थानक माने गये हैं ।
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(४७) माहरे जीवे जो कोई जीव-किसी जीव को मैंने हण्यो होय, हणाव्यो होय, हणता प्रत्ये अनुमोद्यो होय--मारा हो, मराया हो, और मारनेवाले की
प्रशंसा की हो तो ते सवि हुं मन वचन कायाए करी तस्स मिच्छा मि दुक्कडं--उस पाप का मैं मन, वचन, काया से मिच्छामि
दुक्कडं देता हूँ, उसको बुरा समझता हूँ।
३२. अष्टादश-पापस्थानकसूत्र ।
१ पहले प्राणातिपात--किसी भी जीव को मारना या
मारने की इच्छा और विचार करना. २ दूजे मृषावाद-झूठ बोलना, अमिय और अहितकर
भाषण करना. ३ तीजे अदत्तादान--किसीकी वस्तु को बिना पूछे ले
लेना, चोरी की आजिविका करना, कराना. ४ चौथे मैथुन--कामभोग करना और उसकी वांछा का
परिणाम रखना. ५ पांचमे परिग्रह-प्रमाण उपरान्त द्रव्यादि रखना या
उसके ऊपर मूर्छा रखना.
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(४८) ६ छट्टे क्रोध--गुस्से होना, अपना परिणाम तीव्र क्रोधी
रखना. ७सातमे मान--प्राप्त या अप्राप्त वस्तु का घमण्ड रखना ८ आठमे माया--स्वार्थिक बुद्धि से कपट-प्रपंच करना. ९ नवमे लोभ--धनादि समृद्धि का लालच रखना या
उसके संग्रह करने में लगे रहना. १० दशमे राग--पौद्गलिक वस्तु पर प्रेम रखना. ११ ग्यारमे द्वेष--अनिष्ट पदार्थों पर अरुचि रखना या
ईर्ष्या से हृदय में जलन १२ बारमे कलह-टंटा, फिसाद करना, कराना. १३ तेरमे अभ्याख्यान-किसी पर झूठा कलङ्क चढाना. १४ चौदमे पैशून्य-किसीकी चुगली खाना, नारद
विद्या धन्धा करना, १५ पन्द्रहमे रति अरति-सुख मिलने पर आनन्द मानना
और दुःख मिलने पर शोक संताप करना. १६ सोलमे परपरिवाद-दूसरों की निन्दा (झूठी
कथनी करना) १७ सत्तरमे मायामृषावाद-कपट सहित झूठ बोलना
या कपट की वृत्ति रखना.
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(४९)
१८ अढारमे मिथ्यात्वशल्य — कुदेवादि खोटे तत्वों का आग्रह ( हठाग्रह ) रखना,
ए अदार पापस्थान माहिं माहरे जीवे—इन अष्टादश पापस्थानों को या इनमें से मेरे जीवने
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जे कोई पाप सेन्युं होय, सेवराव्यं होय जो कोई भी पापस्थान आचरण किया हो, दूसरों को आचरण काराया हो
सेवता प्रत्ये अनुमोद्यं होय - आचरण करनेवालों को अच्छा माना हो तो
ते सवि हुं मन वचन कायाए करी—उन पापस्थान का मन, वचन और काया से
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं उनको या उसको खोटा मानता हूँ । इस आलोचना से वह पाप निष्फल हो । " सव्वस्व देवसिभ दुच्चिति दुब्भासिअ दुच्चिट्ठिअ इच्छाकारेण संदिसह भगवं ! इच्छं, तस्स मिच्छा मि दुकडं " इसका अर्थ पहले लिखा जा चुका है ।
३३. वंदित्तु (श्राद्धप्रतिक्रमण ) सुत्तं ।
वंदित् सवसिद्धे -- सर्वसिद्ध भगवानों को नमस्कार करके धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ-तथा धर्माचार्यों को और सर्व साधुओं को वन्दन करके
―――
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(५०) इच्छामि पडिक्कमिउं—निवृत्त होने के लिये चाहता हूँ सावगधम्माइयारस्स ।-श्रावधर्म सम्बन्धी अतिचारों
से ॥१॥ जो मे वयाइआरो-जो मेरे व्रतों के अतिचार में नाणे तह दसणे चरित्ते अ---ज्ञानसम्बन्धी, तथा दर्शन
सम्बन्धी, चारित्रसम्बन्धी और च शब्द से
तप, वीर्य एवं संलेखना सम्बन्धी, सुहुमो अ बायरो वा-छोटा अथवा बड़ा दोष लगा हो तं निंदे तं च गरिहामि। उसकी मैं आत्मसाक्षी से निन्दा
और गुरुसाक्षी से गर्दा करता हूँ ॥ २ ॥ दुविहे परिग्गहम्मी-घोडा, हाथी, नौकर, स्त्री आदि
सचित्त और सोना, चांदी वस्त्र, मकान
आदि अचित्त इन दो प्रकार के परिग्रह को सावज्जे बहुविहे अ आरंभे-और पापकारी अनेक
प्रकार के आरम्भ को, कारावणे अ करणे-दूसरों के पास कराने में, स्वयं
करने में और करनेवालों की अनुमोदना
करने में जो अतिचार दोष लगा हो, पडिक्कमे देसि सव्वं ।-उन दिवस सम्बन्धी अतिचार
दोषों का में पडिक्कमण करता हूँ-उन दोषों से निवृत्त ( अलग) होता हूँ॥३॥
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(५१) जं बद्धमिदिएहिं-इन्द्रियों के द्वारा मैंने जो कर्म बाँधा, चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहि-अप्रशस्त चार क्रोधादि
कषायों के द्वारा कर्म बाँधा, रागेण व दोसेण व-और राग के और द्वेष के द्वारा
जो कर्म बाँधा, तं निंदे तं च गरिहामि-उनकी मैं निन्दा और गर्दा
___ करता हूँ॥४॥ आगमणे निग्गमणे-आने में, जाने में ठाणे चंकमणे अणाभोगे--ठहरने में, घूमने में, अन
जानपन (उपयोग नहीं रहने ) से अभियोगे अनिओगे-किसीके बलात्कार ( दबाव )
से और नौकरी आदि की पराधीनता से
सम्यग्दर्शन में पडिक्कमे देसि सव्वं ।--दिवस सम्बन्धी जो अतिचार
लगा हो उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ॥५॥ संका कख विगिच्छा-जिनवचन में सन्देह १, अन्य
मत की चाहना और धर्म का फल मिलने में संशय होना २, अथवा मलमलिन गात्र,
वस्त्रवाले साधुओं पर अभाव होना ३, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु-कुलिंगी मिथ्यात्वियों
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( ५२ )
की प्रशंसा करना ४, तथा उनका परिचय
रखना ५,
सम्मत्तस्सइआरे-- ये पांच सम्यक्त्व के अतिचार दोष पडिक्कमे देसिअं सव्वं -- दिवस सम्बन्धी लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ॥ ६ ॥
छक्कायसमारंभे— पृथ्वी आदि छः काय के आरम्भ में पयणे अ पयावणे अ जे दोसा- अशनादि को पकाने और दूसरों से पकवाने और पकाते हुए लोगों का अनुमोदन करने से जो दोष लगा हो
अन्तट्ठ य परट्ठा - अपने वास्ते, दूसरों के वास्ते उभयट्ठा वेव तं निंदे । और स्वपर दोनों के वास्ते जो आरंभ हुआ हो उसकी मैं निन्दा करता हूँ ||७||
पंचण्हमणुव्वयाणं-पांच अणुव्रतों के
-
च तिण्हमइयारे — और तीन गुणवत के अतिचारों में
गुणव्वपाणं
सिक्खाणं च उण्हं तथा चार शिक्षाव्रतों के अतिचार या उनमें से कोई अतिचार दोष लगा हो
पडिक्कमे देखिअं सव्वं । उन दिवस सम्बन्धी अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ॥ ८ ॥
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-
( ५३ )
पढमे अणुव्यवम्मी – पहले अणुव्रत में धूलगपाणाइ वायविरईओ - स्थूलप्राणातिपात की विरति
संबन्धी आयरिअमप्पसत्थे—– अप्रशस्त भाव में वर्तते जो कुछ विरुद्ध
आचरणा हुई हो
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इत्थ पमायप्पसंगेणं - इसमें प्रमाद के प्रसंग से इस व्रत का उल्लंघन किया हो ||९|| वो यह किवह-बंध - छविच्छेए मनुष्य, पशु, पक्षी आदि को चाबुक, लकडी आदि से पीटना १, उनको रस्सी, सांकल आदि से बांधना २, और उनके नाक, कान, पूंछ आदि शरीरावयवों को छेदना ३,
अहमारे भक्त पाण-वुच्छेए- पशु, नौकर या हमाल आदि पर शक्ति उपरान्त बोझा लादना ४, उनको समय पर खाने पीने को न देना, या कम खाने पीने को देना ५,
पढमवयस्सइआरे - प्रथम व्रत के इन पांचों या इनमें से लगे कोई भी
पक्किमे देसिअं सव्वं । - दिवस संबन्धी अतिचार दोष की मैं प्रतिक्रमण रूप आलोचना करता
॥ १० ॥
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(५४) बीए अणुव्वयम्मि-दूसरे अणुव्रत में परिथूलगअलियवयणविरहओ-स्थूल मृषावाद की
विरति सम्बन्धी आयरिअमप्पसत्थे-अशुभ भाव में वरतते आचरण
किया हो और इत्थ पमायप्पसंगणं । -प्रमाद के प्रसंग से इसमें जान,
अजान में दोष लगा हो ॥११। वो यह किसहस्सा-रहस्सदारे--बिना. विचारे किसी पर कलंका
रोपण करना १, एकान्त में बात करनेवालों पर कोई दोषारोप करना २, अपनी स्त्री की
गुप्त बात प्रकट करना ३, मोसुवएसे अ कूडलेहे अ—किसीको खोटी सलाह देना
४, और जाली खोटा लेख बनाना ५,
४, आर जाला खाद बीयवयस्सइआरे--दूसरे व्रत के पांच अतिचार या इनमें
__ से कोई भी अतिचार दोष पउिक्कमे देसि सव्वं ।--दिवस संबन्धी लगे हों या
... लगा हो उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ॥१२॥ तइए अणुव्वयम्मी-तीसरे अणुव्रत में थूलगपरदव्वहरणविरहओ--स्थूल परद्रव्यहरण (अद
त्तादान) की विरति सम्बन्धी
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आयरियमप्पसत्थे-अप्रशस्त भाव में वरतते हुए जो
विरुद्ध आचरण इत्थ पमायप्पसंगणं ।--प्रमाद के प्रसंग से इस व्रत में
किया हो ॥ १३॥ वो यह कितेनाहडप्पओगे--चोर को चोरी करने की प्रेरणा करना,
और उसको सहायता देना १, तप्पडिस्वे विरुद्धगमणे अ-असली चीज दिखा कर
नकली ( खराब ) चीज देना २, राज्य विरुद्ध दाणचोरी करना या राजा के हुक्म
विरुद्ध प्रवृत्ति करना ३, कूडतुल-कूडमाणे-तराजू, तोल ऐसा रखना जिससे कम
दिया जाय और अधिक लिया जाय ४, तथा खोटे माप रखना जिससे माप में कम
दिजा जाय और अधिक लिया जाय ५, पडिक्कमे देसिअंसव्वं ।-दिवस सम्बन्धी ये अतिचारदोष
लगे हो उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ॥१४॥ चउत्थे अणुव्वयम्मी--चौथे अणुव्रत में निच्चं परदारगमणविरईओ--पराई स्त्री के साथ हमेश
भोगविलास करने की विरति संवन्धी आयरियमप्पसत्थे--अप्रशस्त भाव में जो कुछ आचरण
किया हो-अतिचार दोष लगा हो,
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(५६) इत्थ पमायप्पसंगणं ।--इस व्रत में प्रमाद के प्रसंग से
कुछ भी उल्लंघन किया हो॥१५॥ वो यह किअप्परिग्गहिआ इत्तर--किसी ने ग्रहण न की हुई कुमारी
कन्या, विधवा और वेश्या के साथ भोग करना १, द्रव्य देकर या नौकर रखकर स्वल्पकाल के लिये किसीने पासवान रूप से
कायम की हुई स्त्री से भोग करना २, अणंगवीवाहतिव्वअणुरागे-सृष्टि विरुद्ध कामक्रीडा
या परस्त्री के साथ आलिंगन, चुम्बनादि करना ३, दूसरों का विवाह करना या कराना ४, और कामभोग की प्रबल अभिलाषा
( बांछा) रखना ५, चउत्थवयस्सइआरे--चौथे व्रत के पांच अतिचार पडिक्कमे देसि सव्वं ।-दिवस सम्बन्धी सब या एकादि
लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ॥१६॥ इत्तो अणुव्बए पंचमम्मि--इसके बाद पांचवें अणुव्रत में आयरिअमप्पसस्थम्मि--अप्रशस्त (अशुभ) भाव में वरते परिमाणपरिच्छेए--परिग्रह के प्रमाण का उल्लंघन करने से इत्थ पमायप्पसंगेणं।--इस व्रत में प्रमाद के प्रसंग से
जो कुछ दोष लगा हो ॥१७॥ वो यह कि
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(५७) धण-धन्न-खित्त-वत्थू-धन, धान्य-अनाज, क्षेत्र, घर,
दुकान, न्योरा, आदि वस्तु, रुप्पसुवन्ने अ कुविअ-परिमाणे-चांदी, सोना और ताँबा,
पीतल, लोह आदि धातु के प्रमाण का और दुपए चउप्पयम्मि य-दौ पैरवाले-दास, दासी, नौकर
आदि और चार पैरवाले-गाय, बलद, घोड़ा, भैंस, बकरी आदि के प्रमाण का उल्लंघन
किया हो पडिक्कमे देसिअंसव्वं ।-दिवस सम्बन्धी उन दोषों का
मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ॥ १८॥ गमणस्य य परिमाणे,—गमन के प्रमाण का उल्लंघन
किया हो, दिसासु उड्ढे अहे अतिरिअं च-चार दिशाओं, चार
विदिशाओं, ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और
तिरछी दिशा के प्रमाण में घुड्ढी सइ अंतरद्धा--याददास्त के विस्मरण (भूल) से
कोशों की वृद्धि या कमी की हो। पढमम्मि गुणव्वए निंदे। प्रथम गुणव्रत में मैं उन
दोषों की निन्दा करता हूँ ॥ १९ ॥ मज्जम्मि य मंसम्मि अ-मदिरा और · मांस आदि
अभक्ष्य वस्तुओं के
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पुप्फे अ फले अ गंधमल्ले अ -तथा फूल, सुगंधी
पदार्थ और पुष्पमाला के उवभोग-परीभोगे--एक वार उपभोग में आनेवाले
अन्न, जल आदि और बार बार काम में आनेवाले-घर, वस्त्र, स्त्री आदि के लगे हुए
अतिचार दोषों की बीयम्मि गुणव्वए निंदे।-दूसरे गुणव्रत में मैं निन्दा
__ करता हूँ॥ २०॥ सच्चित्ते पडिबद्धे--प्रमाणाधिक सचित्त वस्तु वापरने से,
और सचित्त से मिली हुई वस्तु के वापरने
से तथा अपोल-दुप्पोलिअं च आहारे--अपक्क और अर्धपक
वस्तु के खाने से, तुच्छोसहि भक्खणया-तुच्छ वनस्पति, फल के भक्षण
करने से पडिक्कमे देसि सव्वं ।-दिवस सम्बन्धी जो अतिचार
दोष लगे हों उन सब का मैं पतिक्रमण
करता हूँ ॥ २१ ॥ इंगाली-वण-साडी--अङ्गारकर्म-अग्निसंबन्धी कामधंधा
कुम्हार, मुनार, चूनार, भड़भूजा आदि का, जंगल को ठेके लेने, उसको काटने, कटवाने
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या लक्कड़ बेचने का धन्धा-वनकर्म, और गाड़ी, ऊंट, इक्का, मोटर आदि का धन्धा
शकटकम, भाडी-फोडीसु वज्जए कम्मं--घोड़ा, ऊँट, बैलगाड़ी,
मोटर भाडे फेरने का धंधा-भाटककर्म, कूआ, तलाव, खान आदि खोदने, खुदवाने का धंधा-स्फोटककर्म, पांच पाप कर्म श्रावक
के त्याग करने योग्य हैं। वाणिज्जं चेव दंत-फिर वाणिज्यकर्म में हाथीदाँत..
सीप, मोती प्रमुख का लक्ख-रस-केस-विस-विसयं ।--लाख, हरताल, गोंद
आदि, दुध, गुड़ आदि, पशु, मनुष्य, तोता, हंस आदि के केस एवं पांखे आदि सोमल, अफीम आदि जहरीले पदार्थों का और शस्त्रास्त्र का धन्धा श्रावक को छोड़ देना
चाहिये ॥ २२॥ एवं खु जंतपीलण--इसी प्रकार यन्त्रपीलनकम्मं निल्लंछणं च दवदाणं--कर्म में चक्की, चरखा,
घाणी, घट्टी, झीण, मील आदि का धन्धा, बैल आदि पशुओं के नाक, कान आदि अवयवों
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( ६० )
को छेदना - निलांछनकर्म, घर, जंगल, गाँव आदि में आग लगाना - दवदानकर्म,
सर- दह-तलाय- सोसं, - - सरोवर,
द्रह, बडे तलाव और
जलाशयों को सुखाना- शोषणकर्म, असईपोसं च वज्जिज्जा । - हिंसक बिल्ली, नोलिया,
व्यभिचारी पुरुष स्त्रियों का पालन करना, इन सब पापजनक कामों का श्रावक को त्याग कर देना चाहिये ॥ २३ ॥
सत्थरिंग मुसल जंतग --शस्त्र, मूसल, यंत्र, तण-कट्टे मंतमूलभे सज्जे-तृण ( बुहारी )
भारवट के लिये काष्ठ, वशीकरणादि मंत्र, नागदमनी आदि जडी जडी अथवा गर्भपातादि मूलकर्म, और उच्चाटनादि चूर्ण गोली बनाने की औषधियाँ,
दिन्ने दवाव वा -- ये हिंसा के साधन देने, दूसरों को दिलाने और देनेवालों को अच्छा जानने से
--
पडिक्कमे देसिअं सव्वं । - दिवस सम्बन्धी जो दोष लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ॥ २४ ॥ पहाणुव्वट्टण वन्नग — बिना छाने हुए जल से या अयतना से स्नान करने, अयतना से शरीर का मैल उतारने, रंग लगाने या वस्त्रादि रंगने,
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विलेवणे
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( ६१ )
से चन्दनादि
सदरूवरसगंधे - अयतना विलेपन लगाने, वाद्यादि के विविध शब्दों को सुनने, अनेक तरह के रूपों में मोहित होने, अनेक रसों का स्वाद लेने और सुगंधी पदार्थों को सूंघने,
वत्थासण- आभरणे -- वस्त्र, आसक्त होने आदि में,
आसन और आभूषणों में
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पडिक्कमे देसिअं सव्वं । - - दिवस सम्बन्धी जो अतिचार दोष लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ॥ २५ ॥
कंदप्पे कुक्कुइए - - कामवासनाजनक
कथा या बात
कहना १, लोगों की हँसी, नकल और भाँडचेष्टा करना २,
मोहरि अहिगरणभोगअइरिते -- निरर्थक
अनुचित वचन बोलते रहना ३, हथियार, औजार तैयार करना, कराना ४, और भोगने की वस्तुओं को जरूरत से अधिक रखना ५,
दंडम्मि अणट्टाए, – अनर्थदंड नामक
-
तइअम्मि गुणव्वए निंदे । -- तीसरे गुणव्रत के पांच या न्यूनाधिक अतिचार लगे हों. उनकी मैं निन्दा करता हूँ || २६ ॥
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(६२) तिविहे दुप्पणिहाणे--सामायिक में मनको अपने काबू
में नहीं रखा, वचन को संयम में नहीं रखा और काया की चपलता को नहीं रोकी, इन
तीन प्रकार के प्रणिधान में अणवट्ठाणे तहा सइविहणे--सामायिक का काल
पूरा हुए पहले पार लेना ४, तथा प्रमादवश
सामायिक करना भूल जाना ५, सामाइय(ए) वितहकए--सामायिकवत भलीरीत से नहीं
करने से पढमे सिक्खावए निंदे।-प्रथम शिक्षावत में जो अति
चार लगे हों उनकी मैं निन्दा करता हूँ ॥२७॥ आणवणे पेसवणे--नियम में रक्खी हुई भूमि के बाहर
से कोई वस्तु मंगाने १, कोई चीज बाहर
भेजने २, सद्दे ख्वे अ पुग्गलक्खेवे-अपना कोई कार्य कराने वास्ते
खांसी, खंखारा आदि शब्द करने ३, अपने अवयवों को दिखाने ४ और कंकर आदि फेंकने ५ आदि से किसी व्यक्ति को अपना
कार्य जनाना आदि से देसावगासिअम्मी--दिशावकासिक' नामक
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(६३) बीए सिक्खावए निदे।--दूसरे शिक्षावत में अतिचार दोष
लगे हों उनकी मैं निन्दा करता हूँ॥ २८ ॥ संथारुच्चारविही-१ संथारा और २ स्थंडिल मात्रा की
विधि करने, पमाय तह चेव भोअणाभोए --३ प्रमाद करने, तथा
४ भोजन की चिन्ता करने और पोसहविहि-विवरीए--५ पौषध की विधि में विपरीत
__ आचरण करने आदि से तइए सिक्खावए निंदे। -तीसरे शिक्षाव्रत में जो अति
चार दोष लगे हों उनकी मैं निन्दा करता
हूँ ॥ २९ ॥ सचित्ते निक्खिवणे--देने योग्य वस्तु को सचित्त पर
रखना या अचित वस्तु में सचित्त का
मिश्रण कर देना १, पिहिणे ववएस मच्छरे चेव --अचित्त वस्तु को सचित्त
वस्तु से ढंक देना २, पराई वस्तु को अपनी या अपनी को पराई वस्तु कहना ३, ईर्ष्यादि
कषाय पूर्वक आहारादि दान देना ४, और कालइक्कमदाणे--गोचरी लाने का समय बीत जाने पर
गोचरी के लिये आमंत्रण देना ५,
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(६४ ) चउत्थसिक्खावए निंदे ।-चौथे शिक्षाव्रत में ये पांच
अतिचार दोष लगे हों तो मैं उनकी निन्दा
करता हूँ ॥ ३० ॥ सुहिएसु अ दुहिएप्सु अ--संयमगुण और वस्त्रादि उपधि
संपन्न सुविहित मुनिवरों की, तथा व्याधिपीडित तपस्या से खिन्न और वस्त्र पात्रादि उपधि से रहित दुःखी सुविहित साधुओं की
लाभ बुद्धि से दयाभक्ति न की हो, जा मे असंजएसु अणुकंपा--और पार्थस्थादि असं
जती ( पतित ) साधु नामधारी असंयतियों
की जो मैंने अनुकम्पा (दया-भक्ति) की हो, रागेण व दोसेण व-अथवा वह भक्ति राग के वश हो
या द्वेष के वश हो कर की हो, तथा यह साधु नीच कुल का है कंगाल है निर्लज्ज है वार वार यहाँ आता है इसको कुछ देकर रवाने किया जाय इस घृणा की दृष्टि से
भक्ति की हो, तं निंदे तं च गरिहामि ।--उस अभाव और अनादर
दृष्टि से हुई भक्ति एवं अनुकंपा के दोषों की मैं आत्मसाक्षी से निन्दा और गुरुसाक्षी से गाँ करता हूँ ॥ ३१ ॥
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( ६५ )
सासु संविभागो - यथार्थ साधुओं का आतिथ्य - सत्कार न किया हो,
न कओ तवचरणकरणजुत्तेसु तपस्वी, चरणसित्तरी और करण सित्तरी गुण युक्त मुनिराजों का सन्मान न किया हो,
-dum
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संते फासुअदाणे, विशुद्ध आहारादि मौजूद होने पर भी साधुओं को आहारादि दान नहीं दिया हो, तं निंदे तं च गरिहामि । —उससे लगे हुए अतिचारदोषों की मैं निन्दा और गर्दा करता हूँ || ३२ ॥ इह लोए परलोए - धर्म के प्रभाव से इस लोक में सुख की इच्छा १, परलोक में देवेन्द्रादि वैभव मिलने की वांछा २,
जीविअ मरणे अ आसंसपओगे-अनशनादि का प्रभाव देखकर जीने की इच्छा ३, अपमान से घबरा कर मरने की इच्छा ४, और कामभोग की तीव्र इच्छा करना ५,
पंचविहो अहआरो- ये संलेखना व्रत के पांच अतिचारदोष मा मज्झ हुज्ज मरणंते ।-मरण के
अन्तिम समय तक
मुझे मत लगो ॥ ३३ ॥ कारण काइअस्सा — काया से लगे हुए अतिचारदोष को काया के शुभ योग से
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पडिक्कमे वाइअस्स वायाए-वचन से लगे हुए अतिचार
दोषों को वचन केशुभयोग से मैं पडिक्कमता हूँ। मणसा माणसिअस्सा-मन से लगे हुए अतिचारदोषों
को मन के शुभ योग से मैं पडिक्कमता हूँ। सव्वस्स वयाइयारस्स । इस प्रकार सब व्रतों के जो
अतिचार दोष लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ और उन दोषों को आत्मा से
हटाता हूँ॥ ३४॥ वंदण-वय-सिक्खा -दो प्रकार का वन्दन, श्रावक के
बारह व्रत और दो प्रकार की ग्रहण,
आसेवन रूप शिक्षा, गारवेसु सण्णा-कसाय-दंडेसु-ऋद्धिगारव, रसगारव
और शातागारव ये तीन प्रकार के गारव, आहा- रादि चार संज्ञा और क्रोधादि चार कषाय के
और मन वचन काया रूप तीन दंडों के वश से गुत्तीसु अ समिईसु अ--तथा मन, वचन, काया रूप
तीन गुप्तियों में और ईर्यासमित्यादि पांच
समितियों में, जो अइआरो अ तं निंदे।--जो अतिचार दोष लगे हों
उनकी मैं निन्दा करता हूँ ॥ ३५ ॥ सम्मदिही जीवो,-समकितवन्त जीव-स्त्री, या पुरुष
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( ६७ )
जह विहु पावं समायरे किंचि - अपने निर्वाह ( आजीविका ) के निमित्त जो भी कुछ पापव्यापार अवश्य आचरण करता है अप्पो सि होइ बंधो, तो भी उदासीन परिणाम से उसको कर्मों का बन्धन अल्प होता है
जेण न निद्धंधसं कुणइ । —क्योंकि वह निर्दयभाव से अति पाप व्यापार को नहीं करता ॥ ३६ ॥
तं पि हु सपडिक्कमणं ---- अल्प कर्मबन्धक कार्य को भी श्रावक प्रतिक्रमणक्रिया के और गुरुदत्त प्रायश्चित्त के द्वारा
सप्परिआवं सउत्तरगुणं च-- पश्चात्ताप और उत्तरगुण के सदाचरण से
खिष्पं उवसामेई -- शीघ्र शान्त (नाश ) करता है वाहि व्व सुसिक्खिओ विज्जो ।-जैसे कुशल - वैद्य व्याधि ( रोग ) को नाश करता है उसीके समान ।। ३७ ।।
जहा विसं कुछ गयं -- जिस प्रकार कोष्ठगत ( पेट में गये हुए ) विष ( जहर ) को
मंतमूलविसारया - मंत्र और जडी-बूटी के जानकार विज्जा हणंति मंतेहिं - वैद्यलोग मंत्रों से उतार देते हैं
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(६)
तो तं हवह निव्विसं । उससे पेट विष रहित हो जाता है ॥ ३८ ॥
एवं अडविहं कम्मं -- इसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म रूप जहर को
रागदो ससमज्जिअं -- जो राग और द्वेष से बाँधा हुआ है आलोअंतो अ निंदंतो—उसको गुरुदेव के समीप आलोचना और आत्मसाक्षी से निन्दा करता हुआ विप्पं हणइ सुसावओ । - - सुश्रावक जल्दी से नाश कर देता है ॥ ३९ ॥
कयपावो वि मस्सो - पाप करनेवाला मनुष्य भी आलोइअ निंदिअ गुरुसगासे -- गुरुमहाराज के पास पाप की आलोचना और निन्दा करता हुआ होइ अइरेगलहुओ -- अतिशय हलका (स्वल्प भारवाला ) हो जाता है - उसके बहुत थोडे कर्म रह जाते हैं,
ओहरिअरु व भारवहो । —जैसा कि बोझा उठानेवाला मजूर बोझा उतारने से हलका हो जाता है ॥ ४० ॥
आवस्सएण एएण- इस आवश्यक ( प्रतिक्रमण ) क्रिया
के करने से
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सावओ जइ वि बहुरओ होइ--यद्यपि श्रावक अनेक
आरंभ, समारंभ और परिग्रहादि आश्रववाला
होता है दुक्खाणमंतकिरिअं--तो भी वह दुःखों का अन्त (नाश) काही अचिरेण कालेण ।--स्वल्प काल में ही कर
लेगा ॥ ४१ ॥ आलोअणा बहुविहा--आलोचना बहुत प्रकार की है न य संभरिआ पडिक्कमणकाले--वह प्रतिक्रमण के
समय में नहीं याद आती, इसलिये मूलगुण-उत्तरगुणे---अणुव्रत रूप मूलगुण और सात
अणुव्रत रूप उत्तरगुण के विषय में कोई अति
चारालोचना शेष रह गई हो तो तं निंदे तं च गरिहामि ।--उसकी मैं निन्दा और गहीं
करता हूँ ॥४२॥ . तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स--केवली भगवान के
कहे हुए उस श्रावकधर्म की अन्भुडिओ मि आराहणाए--आराधना करने के लिए
____ मैं ( उद्यत ) सावधान हुआ हूँ और विरओ मि विराहणाए--श्रावकधर्म की विराधना से
निवृत्त ( अलग) होता हूँ
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(७०) तिविहेण पडिक्कंतो-मन, वचन, काया रूप त्रिविध
__ योग पूर्वक अतिचार दोषों से निवृत्त हो कर वंदामि जिणे चउव्वीसं । ऋषभदेवादि चौवीस जिनेश्वर
भगवन्तों को भक्तिभाव से वन्दन करता
हूँ ॥४३॥ जावंति चेइआई–जितने चैत्य ( मन्दिर ) और बिम्ब उड्ढे अ अहे अतिरिअलोए अ-ऊर्वलोक, अधो
लोक और तिरछा लोक में मौजूद हैं। सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई ।--वहाँ रहे
हुए उन सब चैत्यों और जिनबिम्बों को
मैं यहाँ रहा हुआ वन्दन करता हूँ॥४४॥ जावंत के वि साहू--जितने कई साधु । भरहेरवयमहाविदेहे अ-भरत, ऐरवत और महावि
देह रूप पन्द्रह कर्मभूमि क्षेत्र में विद्यमान हैं सव्वेसिं तेसिं पणओ--उन सब को नमस्कार हो तिविहेण तिदंडविरयाणं ।—जो त्रिविध अशुभ योग रूप
तीन दंडो से रहित हैं ॥ ४५ ॥ चिरसंचियपावपणासणीइ--बहुत काल से इकट्ठे किये
हुए पापों को नाश करनेवाली और भवसयसहस्समहणीए-लाखों भवों के भ्रमण को
मिटानेवाली
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(७१) चउवीसजिणविणिग्गयकहाइ-चोवीस जिनेश्वरों के
मुख से निकली हुई कथा के द्वारा वोलंतु मे दिअहा ।--मेरे दिन व्यतीत हो ॥४६॥ मम मंगलमरिहंता ।--मुझको अरिहन्त भगवान् मंगळ
करनेवाले हों सिद्धा साहू सुअंच धम्मो अ--सिद्धभगवान् साधु
महाराज, श्रुतधर्म (आगमसूत्र ) और संयम
धर्म ये सब मेरे लिये मंगल रूप हों और ये सम्मत्तस्स य सुद्धि-सम्यक्त्व की शुद्धि को। दितु समाहिं च बोहिं च ।--और समाधि (चित्त
स्वास्थ्य) और बोधि (जिनधर्म) की प्राप्ति
को देवें ॥४७॥ पडिसिद्धाणं करणे--निषेध किये हुए हिंसाजनक पाप
कार्यों को करने से किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं--सामायिक, पूजादि करने
योग्य कार्यों को नहीं करने से जो दोष लगता है उसके प्रायश्चित्त के निमित्त प्रति
क्रमण किया जाता है, असदहणे अ तहा--जिनेन्द्र भाषित तत्वों में अवि
श्वास और
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(७२) विवरीअपरूवणाए अ ।--जिनागमों से विरुद्ध प्ररूपणा
करने से जो पापदोष लगता है उसको हटाने के निमित्त प्रतिक्रमणक्रिया की जाती
है ॥ ४८ ॥ खामेमि सव्वजीवे---सर्व जीवों को मैं खमाता हूँ सव्वे जीवा खमंतु मे--सर्व जीव मुझे क्षमा देवें, मित्ती मे सब्वभूएसु--समस्त जीवों के साथ मेरी
मैत्री है-सभी जीव मेरे मित्र हैं, वेरं मज्झ न केणइ ।--किसी जीव के साथ मेरा वैरभाव
(दुश्मनावट ) नहीं है ॥ ४९ ॥ एवमहं आलोइअ—इस प्रकार मैंने आलोचना करके, निदिअ गरहिअ, दुगंछिअं सम्म--आत्मसाक्षी से
निन्दा करके, गुरुसाक्षी से गर्दा करके और
पापों से घृणा करके तिविहेण पडिक्कंतो--मन, वचन, काया रूप त्रिविध
शुभयोग पूर्वक पापों से निवृत्त होता हुआ वंदामि जिणे चउव्वीसं ।--मैं चोवीसों तीर्थंकरों को वार
बार बन्दन करता हूँ ॥ ५० ॥ ३४. गुरुखामणा( अब्भुट्टिओ )सुत्तं । इच्छाकारेण संदिसह भगवं !--हे भगवन् ! आप
अपनी इच्छा से आज्ञा देवें
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(७३) अब्भुडिओ हं अभितरदेवसिअं खामेलं-मैं उद्यम
वन्त हुआ हूँ दिन के अन्दर किये हुए
अपराधों को खमाने के लिये इच्छं, खामेमि देवसिअं--आपकी आज्ञा प्रमाण है, में
भी दिवस सम्बन्धी अपराधों को खमाता हूँ जं किंचि अपत्तिअं परपत्तिअं-जो कुछ अभीति और
विशेष अप्रीति पेदा करनेवाला अपराध, भत्ते, पाणे, विणए, वेआवच्चे--आहार, पानी, विनय
__ अभ्युत्थानादि और सेवाभक्ति रूप वैया
कृत्य करने में आलावे, संलावे उच्चासणे समासणे-आप के साथ
बातचीत या कथारूप एक वार बात करने, वार वार बात करने, आपसे ऊँचे आसन
पर बैठने, और बराबरी के आसन पर बैठने अंतरभासाए, उरिभासाए-किसीके साथ वार्ता
लाप करते हुए, बीच में बोलने और गुरुने जो
विस्तार से बोलने में, जं किंचि मज्झ विणयपरिहीणं-जो कोई मुझ से विनय
रहितपने से
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(७४) सुहुमं वा बायरं वा-अल्प प्रायश्चित्तवाला थोडा, अथवा
बहुत प्रायश्चित्तवाला बड़ा अपराध हुआ हो तुम्भे जाणह अहं न जाणामि--उसको आप जानते
हो, मैं नहीं जानता तस्स मिच्छामि दुक्कडं-उस अपराध से लगे हुए पाप
का मैं मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ। ३५. आयरिय-उवज्झाए सुत्तं । आयरिय-उवज्झाए---आचार्य और उपाध्याय पर, सीसे साहम्मिए कुलगणे अ-शिष्य, साधर्मिक साधु,
गच्छ, कुल और गण पर, जे मे केइ कसाया--जो मैंने कोई क्रोधादि कषाय भाव
किया हो, सव्वे तिविहेण खामेमि ।--तो उन सब को त्रिविध योग
से मैं खमाता (माफी मांगता) हूँ॥१॥ सव्वस्स समणसंघस्स--समस्त श्रमणसंघ रूप भगवओ अंजलिं करिअ सीसे-पूज्य साधुओं को मस्तक
पर हाथ जोड़ कर १. एक आचार्य के शिष्य समुदाय को 'गच्छ', अनेक गच्छों के समुदाय को 'कुल' और अनेक — कुलों' के समुदाय को 'गण' अथवा एक आचार्य के परिवार को 'कुल', तथा अनेक आचार्य के परिवार को 'गण' कहते हैं ।
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(७५) सव्वं खमावइत्ता--सभी अपराध की क्षमा माँग कर खमामि सव्वस्स अहयं पि।---मैं भी उनके अपराधों को
___ खमता हूँ, वे सब साधु मुझे माफी देवें ॥ २ ॥ सव्वस्स जीवरासिस्स--समस्त जीवराशि के जीवों से भावओ धम्मनिहिअनियचित्तो--धर्म में अपने चित्त
को स्थापन करके विशुद्ध भाव से कृत
अपराधों की क्षमा मांगता हूँ। सव्वं खमावइत्ता-सर्व जीवों से क्षमायाचना करके खमामि सव्वस्स अहयं पि।--उन जीवों के अपराधों
को मैं भी खमता हूँ॥३॥
३६. नमोऽस्तु वर्द्धमानसूत्रम् । इच्छामो अणुसहि, नमो खमासमणाणं- हे गुरुदेव !
आपकी आज्ञा को हम चाहते हैं, क्षमा
श्रमणों को नमस्कार हो। नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः--अरिहन्त,सिद्ध
भगवान् , आचार्य, उपाध्याय और सर्व
साधुओं को नमस्कार हो । । नमोऽस्तु वर्धमानाय–श्रीमहावीरप्रभु को नमस्कार हो, स्पर्द्धमानाय कर्मणा ।-कर्मों के साथ सामना करनेवाले
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( ७६ ) तज्जयावाप्तमोक्षाय, - - और अन्त में कर्मों को जीत कर मोक्ष प्राप्त किया जिन्होंने तथा
परोक्षाय कुतीर्थिनाम् । जिनका सार्वज्ञीय स्वरूप कुतीथि - मिथ्यावियों को आगम्य है वे जान नहीं पाते, ऐसे श्री वर्धमानस्वामी को नम - स्कार हो ॥ १ ॥
येषां विकचारविन्दराज्या, -- जिन जिनेश्वरों के देवचरित खिले हुए कमलों की पंक्तियों के निमित्त से ज्यायः क्रमकमलावलिं दधत्या । —अतिशय सुन्दर चरणकमल की पंक्ति तत्सादृश्य को धारण करनेवाली है
सहशैरिति सङ्गतं प्रशस्यं, -- इस प्रकार समान के साथ समानता ( सरीखों) का मेल प्रशंसनीय है । अर्थात् भगवन्तों के चरणकमल और देवरचित कमल दोनों का समान समागम अत्यन्त शोभाधारक हैं
कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः । - ऐसा विद्वानोंने
कहा है । वे समस्त जिनेन्द्र भगवान् कल्याण ( मोक्ष ) के लिये हों ॥ २ ॥
कषायतापादितजन्तुनिर्वृतिं, कषाय रूप ताप पीडित प्राणियों को शान्ति
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से
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(७७) करोति यो जैनमुखाम्बुदोद्गतः जो जिनेश्वर
प्रभु के मुख रूप मेघ से पैदा हुई वाणी
देती है। स शुक्रमासोद्भववृष्टिसन्निभो—वह ज्येष्ठ मास में
वर्षा के समान दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् ।--आपकी वाणी
का विस्तार मेरे ऊपर अनुग्रह करे ॥३॥ ३७. वीरस्तुति( विशाललोचन )सूत्रम् । विशाललोचनदलं--विशाल नेत्र ही जिसके पत्ते हैं प्रोद्यहन्तांशुकेसरम्-चमकती हुई दांतों की किरणें
जिसका पराग हैं प्रातरिजिनेन्द्रस्य--पात:काल में श्री महावीरप्रभु का मुखपद्म पुनातु वः।-मुखरूपी कमल तुम को पवित्र
करो ॥१॥ येषामभिषेककर्म कृत्वा-जिन जिनेन्द्रों के अभिषेक
( स्नात्रक्रिया ) को करके मत्ता हर्षभरात् सुखं सुरेन्द्राः -हर्ष के समूह से
उन्मत्त (तल्लीन) बने हुए देवेन्द्र सुखस्वरूप हो
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( ७८)
तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं देवलोक सम्बन्धी सुख को तृण के बराबर भी नहीं गिनते,
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प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः । - वे जिनेन्द्र भगवान् प्रातःकाल में कल्याण (मोक्ष) के लिये हो ॥ २ ॥ कलङ्कनिर्मुक्तममुक्त पूर्णतं - कलंक (दोष) रहित, पूर्णता को नहीं छोड़ने वाले,
कुतर्क राहुग्रसनं सदोदयम् कुतर्क रूपी राहु को दूर करनेवाले, निरन्तर उदयवाले,
1
अपूर्वचन्द्र जिनचन्द्र भाषितं -- जिनेन्द्र प्ररूपित अलौकिक आगम रूप चन्द्र की
दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् - प्रातःसमय में मैं स्तुति करता हूँ, वह आगम पंडितों के द्वारा नमस्कार किया हुआ है || ३ || अर्थात्-लोक में रहे हुए चन्द्र में कलंक हैं, उसका उदय घट वध युक्त है, वह राहु से ग्रसित है, और हानि-वृद्धि सहित हैं । परन्तु जिनागम रूपी चन्द्र कलंक से रहित हैं, सदा स्थायी हैं, हा वृद्धि से रहित है और सदा समान उदयशील है । इसीसे वह अलौकिक और विद्वानों से प्रशंसित है ।
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( ७९ )
३८. वरकनकसूत्रम् । वरकनकशङ्कविद्रुम--श्रेष्ठ सुवर्ण, शंख, प्रवाल, मरकतघनसन्निभं विगतमोहम्--नीलमणि और मेघ
इनके समान वर्णवाले तथा मोह से रहित सप्ततिशतं जिनानां, सर्वामरपूजितं वन्दे ।--सर्व देवों
.. से पूजित एकसो सित्तर (१७०) जिनेश्वरों
को में वन्दन करता हूँ॥ १॥ एकसो सित्तर जिनेश्वरों में कोई सोने के समान पीले वर्णवाले, कोई शंख के समान सफेद वर्णवाले, कोई मुंगे के समान लाल वर्णवाले, कोई नीलमणि के समान नीलवर्णवाले और कोई मेघ के समान श्याम वर्णवाले इस प्रकार
भिन्न-भिन्न वर्णवाले तीर्थङ्कर होते हैं । ३९. मुनिवन्दन(अड्ढाइज्जेसु) सुत्तं । अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु-ढाईद्वीप और दो समुद्र के पण्णरससु कम्मभूमीसु-~-पन्द्रह कर्मभूमि क्षेत्रों में जावंत के वि साहू--जितने जो कोई साधु महात्मा हैं रयहरणगुच्छपडिग्गहधारा-रजोहरण ( ओघा ),
गुच्छा, और पात्र के धारण करनेवाले,
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(८०)
पंचमहव्वयधारा--पांच महाव्रतों के धारण करनेवाले अट्ठारससहस्ससोलंगधारा-अठारह हजार शीलाङ्ग
रथ के धारण करनेवाले और अक्खयायारचरित्ता--अखंडित साध्वाचार एवं चारित्र
के पालन करनेवाले हैं ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि ।--उन सब
मुनिवरों को सिर झुका कर भावपूर्वक मस्तक से वन्दन करता हूँ ॥१॥
४०. चउक्कसायसुतं । चक्कसायपडिमल्लुल्लूरणु--क्रोधादि चार कषाय रूप
शत्रुओं का नाश करनेवाले, दुजयमयणबाणमुसुमूरणु--कठिनाई से जीते जाने
वाले कामदेव के बाणों को तोड़नेवाले, सरसपियंगुवण्णु गयगामिउ--रस सहित प्रियंगु(रायन)
वृक्ष के समान नीलवर्णवाले और हाथी के
समान सुन्दर गति करनेवाले जयउ पासु भुवणतंयसामिउ ।-तीन भुवन के स्वामी
श्रीपार्श्वनाथमभु जयवान् हो ॥१॥ जसु तणु-कंतिकडप्प सिणिद्धउ-जिसके शरीर की
कान्ति का समूह चिकना ( चकचकित)
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( ८१ )
सोहह फणिमणिकिरणालिद्धड - शोभायमान है, और नागेन्द्र की फणि पर रही हुई मणियों की किरणों से व्याप्त है
नं नवजलहर तडिल्लयलंछिउ - जो मानो कि नवीन मेघ की बिजली रूप लता से अंकित हो सो जिणु पासु पयच्छउ वंछिउ । वे श्रीपार्श्वनाथप्रभु मेरे को वांछित फल प्रदान करें ।। २ ॥ ४१. भरहेसरज्झायसुत्तं ।
भरहेसर बाहुबली -- भरतचक्रवर्त्ती, बाहुबलीजी, अभयकुमारो अ ढंढणकुमाररो । - अभयकुमारजी और ढणकुमारजी,
सिरिओ अणियाउत्तो— स्थूलभद्र का छोटाभाई श्रीयक, अन्निकापुत्र आचार्य,
अइमुक्तो नागदत्तो अ । --अतिमुक्तकुमारजी तथा नागदत्तकुमारजी ॥ १ ॥ मेअज्ज धूलिभद्दो- - मेतार्यमुनि, स्थूलिभद्रजी,
१ अदत्तादानवत को यथार्थ रीति से पालन करने में अतिदृढ और अपनी अटूट श्रद्धा के प्रभाव से शूली को भी सिंहासन बनानेवाले पहेला, तथा सर्पक्रीड़ा में अतिकुशल, और जातिस्मरणज्ञान से दीक्षा लेकर कषाय रूपी सर्पों को दमन करनेवाला दूसरा ये दो नागदत्त हुए हैं ।
६
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( ८२ )
वयररिसी नंदिसेणे सीहगिरी । - वज्रस्वामीजी, नन्दिषेणजी, सिंहगिरि आचार्य,
कयवन्नो अ सुकोसल — कृतपुण्यकुमार, और सुकोशल मुनिवर,
पुंडरिरओ केसि करकंडू । - - ऋषभदेवप्रभु के प्रथम गणधर पुंडरीकस्वामी, केशीकुमार और कंडरीक प्रत्येकबुद्ध ||२||
हल्ल विहल सुदंसण - श्रेणिक के पुत्र हल्लकुमार, विहल्लकुमार और सुदर्शन सेट,
साल महासाल सालिभद्दो अ । - शालमुनि, महाशाल मुनि और शालिभद्रजी,
भो दसणभदो — भद्रबाहुस्वामी, दशार्णभद्रजी, पसण्णचंदो अ जसभदो । - प्रसन्नचन्द्रराजर्षि तथा यशोभद्रसूरीश्वरजी ||३||
जंबुपहु वंकचूलो-- जम्बूस्वामी, बँकचूलकुमार,
श्रेणिकराजा का पुत्र लब्धिधारक महातपस्वी जिसने भोगावली किया और वहाँ दिलाई । अन्त में
कर्मोदय से चारित्र - पतित होकर वेश्या के घर निवास पर प्रतिदिन १० आदमियों को प्रतिबोध देकर दीक्षा खुद पुनः दीक्षा लेकर मोक्षपद पाया यह पहला, तथा साधुओं की वैयावृत्य प्रेम से करनेवाला और देवों की परीक्षा में उत्तीर्ण होनेवाला ये दो नन्दिषेण हुए है ।
दूसरा
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(८३) गयसुकुमालो अवंतिसुकुमालो ।-गजसुकुमालजी,
____ अवन्तिसुकुमालजी, धन्नो इलाइपुत्तो-धन्नासेठ, इलाचीपुत्र, चिलाइपुत्तो अ बाहुमुणी।--चिलातीपुत्र और युगबाहु
मुनि ॥ ४ ॥ अज्जगिरी अजरक्खिअ–आर्यमहागिरिजी, आर्य
रक्षितमूरिजी, अन्जसुहत्थी उदायगो मणगो ।-आर्यमुहस्तिसूरिजी,
उदायनराजा, मनकपुत्र, कालयसूरी संबो----कालिकाचार्य, शाम्बकुमार पज्जुण्णो मूलदेवो अ । प्रद्युम्नकुमार और मूलदेव
राजा ॥५॥ पभवो विण्हुकुमारो--प्रभवस्वामीजी, विष्णुकुमारजी, अदकुमारो दढप्पहारी अ ।--आर्द्रकुमारजी, और दृढ
प्रहारी, सिज्जंस कूरगडू अ—श्रेयांसकुमारजी और कूरगड-मुनि, सिज्जंभव मेहकुमारा अ।--शय्यंभवस्वामीजी तथा मेघ
कुमारजी ॥६॥ १ दत्त नामक प्रधान राजा को सच्ची बात कहनेवाले १, चौथ की संवत्सरी स्थापना करनेवाले २, और गर्दभिल्ल राजा के चंगुल से उनको सा देकर सरस्वती साध्वी को छुड़ानेवाले ३, ये तीन कालिकाचार्य हुए हैं।
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( ८४ )
एमाइ महासत्ता -- इत्यादि और भी महासत्वशील दिंतु सुहं गुणगणेहिं संजुत्ता । -- ज्ञानादिगुण संपन्न महापुरुष हो गये हैं वे सब हमको सुखसंपत्ति देवें,
जेसिं नामग्गहणे -- जिन महापुरुषों के नाम लेने मात्र से पावपबंधा विलय जंति । पापकर्म के बन्धों का समूल नाश हो जाता है ॥ ७ ॥
सुलसा चंदणबाला - मुलसाश्राविका, चन्दनबालाजी, मणोरमा मयणरेहा दमयंती । -- मनोरमा, मदनरेखा, दमयन्ती, नमयासुंदरी सीया - नर्मदासुन्दरी, सीताजी,
नंदा भद्दा सुभद्दा य । नन्दाजी, भद्राजी और सुभद्राजी ॥ ८ ॥
राइमई रिसिदत्ता - - राजीमती, ऋषिदत्ता,
पउमावइ अंजणा सिरीदेवी । -- पद्मावती, अंजनाजी, श्रीदेवी,
जिड सुजिट्ट मिगावइ-- ज्येष्ठा, सुज्येष्ठा, मृगावती, पभावई चिल्लणादेवी । - प्रभावती, चेलनादेवी ॥ ९ ॥ बंभी सुंदरी रुप्पिणी -- ब्राह्मी, सुंदरी, रुक्मिणी,
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(८५)
रेवह कुंती सिवा जयंती अ । रेवती, कुन्ती, शिवा और जयन्ती,
देवह दोवह धारणी-देवकीजी, द्रौपदीजी, धारेणी, कलावई पुष्कचूला य । -- कलावती और पुष्पचूला ॥ १० ॥ पउमावई य गोरी - और पद्मावती १, गौरी २, गंधारी लक्खमणा सुसीमा य । गान्धारी ३, लक्ष्मणा ४, और सुसीमा ५,
जंबूवई सच्चभामा - जम्बूवती ६, सत्यभामाजी ७, रुप्पिणी कण्हड महिसीओ | - रुक्मिणी ८- ये श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ ॥ ११ ॥
जक्खा य जक्खदिन्ना - और यक्षा, यक्षदत्ता, भूआ तह चेव भूअदिन्ना य-भूता, तथा भूतदत्ता और सेणा वेणा रेणा सेना, वेणा, रेणा,
भइणीओ धूलिभद्दस्स । - स्थूलिभद्रस्वामी की ये सात बहिनें ॥ १२ ॥
इच्चाइ महासईओ-इत्यादि अनेक महासतियाँ जयंति अकलंकसीलकलिआओ । -- निष्कलङ्क, पवित्र और अखंड शीलगुण से युक्त संसार में जयवन्ती हुई है
१ दधिवाहन राजा की पटरानी, दूसरी श्रेणिकपुत्र मेघकुमार की माता ये दो धारणी रानीयाँ हुई हैं ।
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( =६)
अज्ज वि वज्जह जासिं—आज तक भी जिन महासतियों का बाजा बज रहा है और
जसपडहो तिहुअणे सयले । - - यश रूपी पटह समस्त त्रिभुवन में बज रहा है ॥ १३ ॥
४२. मन्नह जिणाणं सज्झायसुतं ।
मन्नह जिणाणमाणं - जिनेश्वर भगवन्त की आज्ञा मानो, मिच्छं परिहरह धरह सम्मतं - मिथ्यात्व का त्याग करो, सुगुरु, सुदेव और सुधर्म रूप सम्यक्त्व को धारण करो ।
छव्विह- आवस्यम्मि छ प्रकार की आवश्यक (प्रतिक्रमण ) रूप क्रिया करने में
उज्जुत्ता होह पइदिवसं । -- प्रतिदिन उद्यमवन्त रहो ॥१॥ पवेसु पोसहवयं -- पर्वतिथिओं में पौषघव्रत करो,
दाणं सीलं तवो अ भावो अ-सुपात्र में दान दो, ब्रह्मचर्य पालन करो यथाशक्ति तपस्या करो और मानसिक परिणाम सदा शुद्ध रक्खो | सज्झाय-नमुक्कारो—स्वयं पढो, दूसरों को पढ़ाओ, नवकार मंत्र का जाप करो.
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(=9)
पोषयारो अ जयणा अ । परोपकार करो और जाने आनेकी क्रिया में उपयोग रक्खो ॥ २ ॥
जिणपूआ जिणथुणणं-- जिनेन्द्रप्रभु की प्रतिमाओं की पूजा करो, जिनेश्वरों की शुभभाव से स्तुति ( स्तवना) करो,
गुरुथुअ-साहम्मिआण वच्छलं - गुरुदेव की प्रशंसा करो, स्वधर्मी भाइयों की भक्ति - सेवा करो । ववहारस्सय सुद्धी - सब तरह से शुद्ध व्यवहारों का आचरण करो
रहजत्ता तित्थजत्ता य । - जुलुस के साथ रथयात्रा का वरघोडा निकालो, और जिनतीर्थधामों की शुद्धान्तःकरण से यात्रा करो ॥ ३ ॥
उवसम-विवेग-संवर- क्रोधादि कषायों को जीतो,
तच्च तथा अतत्व पदार्थों का जानपना करो और बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग या उसकी मूर्छा कम करो,
भासासमिई छज्जीवकरुणा य-बोलने में विवेक रखना सीखो कौर षड्जीवनिकार्यों पर दया रक्खो । धम्मिअजणसंसग्गो - धर्मात्मा, सदाचारी पुरुषों का समागम ( सोबत ) करो,
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(८८) करणदमो चरणपरिणामो।-पांच इन्द्रियों और उनके
विषय विकारों को जीतो, और चारित्र ग्रहण
करने की भावना रक्खो ॥ ४ ॥ संघोवरि बहुमाणो–साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका
रूप चतुर्विध संघ का बहुमान करो, पुत्थयलिहणं पभावणा तित्थे--शास्त्र लिखो, लिखाओ . और तीर्थस्वरूप जैनशासन की प्रभावना
करो। सड्ढाण किच्चमेअं-- अटूट श्रद्धावाले श्रावकों के इत्यादि
धार्मिक शुभ कृत्य हैं निच्चं सुगुरुवएसेणं।--इसलिये सद्गुरु महाराज के सदु
पदेश से ये कृत्य श्रावकों को हमेशां आचरण करना और इनको अपने कल्याण कारक समझना चाहिये ॥५॥
४३. नमुक्कार-मुडिसहिअं का पच्चक्खाण ।
उग्गए सूरे नमुक्कारसहि मुट्ठिसहि पच्चक्खाइ । चउ
१ नमुक्कारसहि पच्चक्खाण दो घडी दिन व्यतीत होने तक ही है परन्तु उसके पारने में विलम्ब हो और दो घडी उपरान्त खाने में समय हो आय इसीसे साथ में मुट्ठिसहि बोला जाता है और चार आगार इसमें बोले जाते हैं।
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(८९) विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं , अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सन्चसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ । ४४. पोरिसी साढपोरिसी का पच्चक्खाण ।
उग्गए मरे नमुक्कारसहि पोरिसिं साइडपोरिसिं मुडिसहि पच्चक्खाइ । उग्गए सूरे चउन्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ।
४५. पुरिमड्ढ अवड्ढ का पच्चक्खाण ।
मूरे उग्गए पुरिमड्ढं अवड्ढं मुद्विसहि पच्चक्खाइ । चउन्बिई पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुक्यणेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ।
४६. एगासणा का पच्चक्खाण । उग्गए मूरे नमुक्कारसहि पोरिसिं साइढपोरिसिं मुद्धिसहि पच्चक्खाइ । उग्गए सूरे चउन्विहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नथणाभोगेणं सहसागारेणं, पच्छन्न
१ पच्चखाण लेनेवाले को सर्वत्र वोसिरह के ठिकाने वोसिरामि' कहना । २ पोरिसि के पच्चखाण में यह पद नहीं बोलना ।
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(९०)
कालेणं दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, वव्च समाहिषत्तियागारेणं, एगासेणं पच्चक्खाइ । तिविहंपि आहारंअसणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं, सागारियागारेणं आउंटणपसारेणं गुरुअन्भुट्टाणेणं पारिहावणियागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, पाणस्स लेवेण वा अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थेण वा, असित्थेण वा वोसिरह ।
४७. आयंबिल का पचक्खाण |
उगए सूरे नमुक्कारसहिअं पोरिसिं साड्ढपोरिसिं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ | उम्गए सूरे चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं आयंबिलं पच्चक्खाइ | अन्नत्थणाभोगेणं सहसा गारेणं लेवालेवेणं गिहत्थसंसट्ठेणं उक्खित्त विवेगेणं पारिहावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिबत्तियागारेण एगासणं पच्चक्खाइ । तिविहं पि आहारं असणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणा भोगेणं सहसागारेणं सागारियागारेणं आउंटणपसारेण गुरुअन्भुट्ठाणेणं पारिद्वावणियागारेणं महत्तरागारेणं
१ बिसाया करना हो तो एगासणं के ठिकाने बियासणं और एकलठाणा करना हो तो ' एकलठाणं ' कहना और एकलठाणा में आउंटणपसारेणं पद नहीं बोलना ।
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सव्वसमाहिवत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा अलेवेण वा बहुलेवेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा बोसिरइ ।
४८. तिविहारोपवास का पञ्चक्खाण । सूरे उग्गए चउत्थभत्तं अब्भतह पच्चक्खाइ । तिविहं पि आहारं-असणं खाइमं साइम, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पारिद्वावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्यसमाहित्तियागारेणं पाणहार पोरिसिं साड्ढपोरिसिं मुट्टिसहियं पच्चक्खाइ। अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं, पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा ससिस्थेण वा, असित्थेण वा वोसिरइ ।
४९. चोविहारोपवास का पच्चक्खाण । सूरे उग्गए अब्भत्तटुं पच्चक्खाइ। चउचिहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं पारिठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं, बोसिरह।
१ साधुओं के गोचरी में आहार अधिक आ जाय और वह न उपड सकता हो, उसको गुरुआज्ञा से उपवासी खा लेवे तो प्रत्याख्यान भंग नहीं होता, इसीलिये यह आगार है । अगर संध्या के समय इस उपवास का पच्चक्खाण लेना पडे तो उसमें यह आगार नहीं कहना ।
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(९२) ५०. देसावगासिय का पच्चक्खाण । देसावगासियं उवभोग परिभोग पच्चक्खाइ। अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागा. रेणं वोसिरह।
५१ पाणहार का पञ्चक्खाण । पाणहारदिवसचरिमं पच्चक्खाइ । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महरागात्तरेणं, सव्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ।
५२. सांझे चोविहार का पच्चक्खाण । दिवसँचरिमं पच्चैक्खाइ चउविहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ ।
५३. संध्या तिविहार का पच्चक्खाण। दिवसचरिमं पच्चक्वाइ । तिविहं पि आहारं-असणं,
१ प्रातःकाल चौदह नियम विचार कर रखनेवालों के लिए यह पच्चक्खाण सदा लेने का है। २ तिविहारोपवास, आयंबिल, नीविगइ, एकासणा और बियासणवालों को सांझे यह पच्चक्खाण लेना ।
३ थोड़ा आयु बाकी रहने पर यदि चार आहार का त्याग करना हो तो इस पद के ठिकाने । भवचरिम ' पद कहना । ४ स्व ही पच्चक्खाण पाठ लेना हो ' पच्चक्खामि । सभी प्रत्याख्यानों में बोलना । तिविहार आर दुविहार पच्चक्खाण का अधिकारी वही है जो बियासणा एका
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( ९३ )
खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं महत्तरागारेणं. सत्रसमावित्तियागारेणं, वोसिरs |
५४. संध्या दुविहार का पच्चखाण ।
दिवसचरिमं पच्चक्खाइ । दुविहं पि आहारं असणं खाइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिबत्तियागारेणं वोसिर ।
५५. देसावगासिय का पच्चक्खाण |
अहन्नं भन्ते ! तुम्हाणं समीवे देसावगासिय पच्चक्खाइ Goaओ, खित्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओणं देसावगासियं खित्तणं इत्थं वा अन्नत्थं वा, कालओणं जाव रतं दिवसं अहोरतं वा, भावओणं छलेणं न छलिज्जामि जाव सन्निवाएणं न भविज्जामि दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं, न करेमि, न कारवेमि तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिर ।
५६. तीर्थवंदनसूत्रम् ।
सकल तीर्थ वन्दू कर जोड़, जिनवर नामे मङ्गल कोड़ । पहिले स्वर्गे लाख बत्रीस, जिनवर चैत्य नमुं निशदीस ॥ १ ॥ सणा आदि प्रत्याख्यान नहीं कर सकता | १ रात्रि, दिवस और अधिक सामायिक का दिशावकासिक लेना हो तो उसीका यहाँ नाम बोलना ।
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(९४) बीजे लाख अहावीश कयां, त्रीजे बार लाख सद्दयां । चोथे स्वर्गे अडलख धार, पांचमे बन्दु लाख ज चार ॥२॥ छठे स्वर्गे सहस पचास, सातमे चालीस सहस प्रासाद । आठमे स्वर्गे छ हजार, नव दशमे वन्दु शत चार ॥३॥ अग्यार बारमे त्रणसे सार, नवग्रेवेयके त्रणसे अढार । पांच अनुत्तर सर्व मली, लाख चोराशी अधिका वली ॥४॥ सहस सत्ताणुं वीश सार, जिनवर भुवन तणो अधिकार । लांबा सो जोजन विस्तार, पचास ऊंचां बहोतेर धार ॥५॥ एकसो एंशी बिंब प्रमाण, सभासहित एक चैत्ये जाण । सो कोड बावन कोड संभाल, लाख चोराणुं सहस चौ आल॥६॥ सातसे ऊपर साठ विसाल, सवी बिंब प्रणमुं त्रण काल । सात कोडि ने बहोतेर लाख, भुवनपतिमां देवल भाख ॥७॥ एकसो एंशी बिंब प्रमाण, एक एक चैत्ये संख्या जाण । तेरसे क्रोड नेव्याशी क्रोड, साठ लाख वंदू कर जोड़ ॥ ८॥ वत्रीशे ने उगुणसाठ, ती लोकमां चैत्यनो पाठ ।। त्रण लाख एकाणुं हजार, त्रणसे वीश ते बिंब जुहार ॥९॥ व्यंतर ज्योतिषीमां वली जेह, शाश्वता जिन वन्दं तेह । ऋषभ चन्द्रानन वारिषेण, बर्द्धमान नामे गुणसेण ॥१०॥ सम्मेतशिखर वन्दं जिन वीश, अष्टापद वन्दं चोवीश । विमलाचल ने गढ गिरनार, आबु ऊपर जिनवर जुहार ॥११॥ शंखेश्वर केसरियो सार, तारंगे श्री अजित जुहार । अंतरीक परकाणो पास, जीरावलो ने थंभणपास ॥१२॥
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(९५) गाम नगर पुर पाटण जेह, जिनवर चैत्य नमुं गुणगेह । विहरमान वंदं जिन बीश, सिद्ध अनन्त नमुं निशदीश ॥१३॥ अढी द्वीपमा जे अणगार, अढार सहस सिलांगनाधार । पंच महाव्रत समिति सार, पाले पलावे पंचाचार ॥ १४ ॥ बाह्य अभितर तप उजमाल, ते मुनि वन्दं गुणमणिमाल । नित नित ऊठी कीर्ति करूं, 'जीव' कहे भवसायर तरूं ॥१५॥ - ५७. श्रीमहावीरजिन छन्द । सेवो वीरने चित्तमां नित्य धारो। अरिक्रोधने मन्नथी दूर वारो। संतोष वृत्ति धरो चित्त मांहि, राग द्वेषथी दूर थाओ उच्छाहि
पड्या मोहना पाशमा जेह प्राणी,शुद्धतत्त्वनी वात तेणे न जाणी। मनुज जन्म वृथा कां गमो छो, जैन मार्ग छंडि भूला कां
भभो छो ॥ २ ॥ अलोभी अमानी निरागी तजो छो, सलोभी समानी सरागी
भजो छो। हरि-हरादि अन्यथी शु रमो छो, नदी गंग मूकी गलीमां
पड़ो छो ॥ ३ ।। केई देव हाथे असी चक्रधारा, केई देव घाले गले रुण्डमाला । केई देव उत्संगे धरे रीझ वामा, केई देव साथे रमे वृन्द
रामा ॥ ४ ॥
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( ९६ ) केइ देव जपे लेइ जापमाला, केइ मांसभक्षी महा विकराला । केइ योगिणी भोगिणी भोग रागे, केइ रुद्रणी छागनो होम
मांगे ॥ ५ ॥ इस्या देव देवी तणी आशराखे, तदा मुक्तिना मुखने केम चाखे? जदा लोभना थोकनो पार नाव्यो, तदा मधुनो विदुओ मन्न
भाव्यो ॥ ६ ॥ जेह देवलां आपणी आश राखे, तेह पिंडने मन्नशु लेय चाखे। दीन हीननी भीड ते केम भांजे, फूटो ढोल होय ते कहो केम
वाजे ? ॥ ७ ॥ अरे! मूढ भ्राता भजो मोक्षदाता,अलोभी प्रभुने भजो विश्वख्याता रत्नचिंतामणि सारिखो एह साचो, कलंकी काचना पिंडद्यु
मत राचो ॥ ८ ॥ मंदबुद्धि शुंजेह प्राणी कहे छे, सवि धर्म एकत्व भूलो भमे छे । किहाँ सर्षवा ने किहाँ मेरुधीरं, किहाँ कायरा ने किहाँ
शूरवीरं ? ॥ ९ ॥ किहाँ स्वर्णथालं किहाँ कुंभखंडं, किहाँ कोद्रवा ने किहाँ खीरमंडं किहाँ क्षीरसिंधु किहाँ क्षारनीरं, किहाँ कामधेनु किहाँ छाग
खीरं ? ॥ १० ॥ किहाँ सत्यवाचा किहाँ कूड़वाणी,किहाँ रंकनारी किहाँ रायराणी। किहाँ नारकी ने किहाँ देवभोगी, किहाँ इन्द्रदेही किहाँ कुष्ठ
रोगी ? ॥ ११ ॥
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किहाँ कर्मघाती किहाँ धर्मधारी,नमोवीरस्वामी भजो अन्य वारी। जिसी सेजमां स्वप्नथी राज्य पामी, राचे मन्दबुद्धि धरी जेह
स्वामी ॥ १२ ॥ अथिर सुख संसारमा मन्न माचे,ते जना मूढमां श्रेष्ठ | इष्ट छाजे। तजो मोहमाया हरो दम्भरोषी, सजो पुण्यपोषी भजो ते
अरोषी ॥ १३ ॥ गति चार संसार अपार पामी,आव्या आश धारी प्रभुपाय स्वामी। तुहीं तुही तुहीं प्रभु परमरागी, भवफेरनी शृंखला मोह
भांगी ॥ १४ ॥ मानिये वीरजी अरज छे एक मोरी दीजे दासकू सेवना चरण तोरी पुण्य उदय हुओ गुरु आज मेरो, विवेके लह्यो में प्रभुदर्श
तेरो ॥ १५ ॥ ५८. द्वादशावर्त्तगुरुवन्दनविधि । धोती की एक लांग खोल, उत्तरासंग कर तीन वार निसीहि कहते हुए गुरु अवग्रह में प्रवेश करना । फिर वन्दन के लिये आज्ञा मांग कर 'इरियावहि०, तस्स उत्तरी० अन्नस्थ०' कह कर, चार नवकार या एक लोगस्स का काउस्सग्ग कर, पार कर 'लोगस्स०' कहना । बाद दो वांदणा देना, दूसरे वांदणा में 'आवस्सिआए' पद नहीं कहना । फिर दो हाथ जोड़ 'इच्छकार ' बोल कर एक
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(९८) खमासमण देकर, भूमि पर या गुरुचरण पर जिमना हाथ रख कर 'अन्भुडिओ०' का पाठ कहना ।
इस प्रकार की गुरुवन्दनविधि से दिन में आचार्य, उपाध्याय, गणि, गणावच्छेदक और स्थविरादि पदस्थ को ही वंदन करना चाहिए, सामान्य साधु को नहीं वांदना चाहिये।
५९. सामायिक लेने की विधि ।
प्रथम स्थापनाचार्य स्थापित न हो तो ऊंचे आसन पर पुस्तकादि ज्ञानोपकरण रखना। फिर अबोट वस्त्र पहन कर, कटासण बिछा कर, उस पर बैठ कर, बाँये हाथ में मुहपत्ति मुखके सामने रख कर और जिमना हाथ स्थापनाचार्य के सम्मुख करके, एक नवकार गिन कर 'पचिंदिय' का पाठ बोलना । बाद में द्वादशावतविधि से गुरुवन्दन करना । फिर खामासमण दे कर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक लेवा मुहपत्ति पडिलेहुं इच्छं' कह कर मुहपत्ति पडिलेहना। फिर एक खमासमण दे कर 'इच्छाकारेण. सामायिक संदिसाऊं ? इच्छं' एक खमासमण दे कर 'इच्छाकारेण० सामायिक इच्छं' कह कर दोनों हाथ जोड़ कर 'इच्छकार। भगवन् ! पसाय करी सामायिक दंडक ऊचराओजी ?' बोल कर गुरु या वडिल हो तो उनसे, न होय तो खुद सामायिकदंड (करेमि भंते) उच्चरना। बाद एक खमासमण
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( ९९ ) दे कर 'इरिआवहि, तस्स उत्तरी०, अन्नत्थ' कह कर एक लोगस्स या चार नवकार का कायोत्सर्ग कर, पार कर 'लोगस्स.' कहना । फिर एक खमासमण दे कर 'इच्छाकारेण बेसणे संदिसाउं ? इच्छं एक खमासमण दे कर 'इच्छाकारेण. बेसणे ठाउं ? इच्छं' फिर एक खमासमण दे कर ' इच्छाकारेण० सज्झाय संदिसाऊं? इच्छं' फिर एक खमासमण दे कर 'इच्छाकारेण सज्झाय करूं ? इच्छं' कह कर तीन नवकार गिनना । फिर दो घडी तक वांचना, पहना, अथवा माला फेरना परन्तु दन्तकथा नहीं करना ।
६०. सामायिक पारने की विधि । प्रथम एक खमासमण देकर, इरिआवहि से अन्नत्थ तक बोल कर चार नवकार का काउस्सग्ग करके 'लोगस्स." कहना । फिर एक खमासमण दे कर 'इच्छाकारेण० सामायिक पारवा मुहपत्ति पडिलेहुं ? इच्छं' कह कर मुहपत्ति पडिलेहन करना । बाद एक खमासमण दे कर 'इच्छाकारेण सामायिक पारूं? 'यथाशक्ति' फिर एक खमासमण देकर, 'इच्छाकारेण सामायिक पार्यु ? 'तहत्ति' कर चरवला या कटासण पर जिमना हाथ थाप कर, एक नवकार गिन कर 'सामाइयवयजुत्तो। पाठ बोलना और जिमना हाथ स्थापनाचार्य के सामने • करके एक नवकार गिनना ।
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( १०० ) दो या तीन सामायिक करनी हो तो उनके पूर्ण होने पर प्रत्येक में सामायिक लेने की विधि करना, लेकिन बीच में पारने की विधि करने की जरूरत नहीं है । अधिक सामा-यिक में तीन सामटी सामायिक पूरी करके पारना चाहिये ऐसी प्रवृत्ति है ।
६१. देवसिक प्रतिक्रमणविधि । प्रथम ऊपर लिखे प्रमाणे गुरुवन्दन फर सामायिक लेना । फिर एक खमासमण देकर, 'इच्छाकारेण. परच
खाण लेवा मुंहपत्ति पडिलेहुंजी ? इच्छं' कह कर मुहपत्ति की पडिलेह कर, दो वांदणा देना । फिर एक खमासमण देकर, 'इच्छाकारी भगवन् ! पसाय करी पच्चक्खाण कराओ जी ? इच्छं' बोल कर गुरु या वडिल से पच्चक्खाण लेना, इनका योग न हो तो खुद पञ्चक्खाणपाठ बोलना । फिर एक खमासमण देकर, इच्छाकारेण० चैत्यवन्दन करूं ? इच्छं' कह कर, चैत्यवन्दन बोलना । बाद 'जं किंचि०, नमुत्थुणं' कह कर खडे हो 'अरिहंत चेहआणं० अन्नत्थ०' बोल कर एक नवकार का काउसग्ग करके पार कर 'नमोहत्सिद्धा' कह कर प्रथम थुइ
१ जलपान किया हो तो केवल मुहपत्ति पडिलेहना और आहार किया हो तो मुहपत्ति पडिलेहन के बाद दो वांदणां देना, दूसरे वांदणा में 'आवस्सियाए ' पद नहीं कहना चाहिये ।
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ACI
(१०१) ( स्तुति ) कहना । फिर 'लोगस्स०, सव्वलोए अरिहंतचेहआणं० अन्नत्थ० ' कह कर एक नवकार का काउस्सग्ग कर, पार कर, दूसरी थुइ कहना । फिर 'पुक्खरवरदी, सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्ति०, अन्नत्थ. ' कह कर, एक नवकार का काउस्सग्ग कर 'नमोऽहत्सि०' बोल कर, तीसरी थुइ कहना । फिर 'सिद्धाणं बुद्धाणं' कह कर, बैठके 'नमुत्थुणं० , जावंति, इच्छामि खमा०, जावंत०, इच्छामि खमा ०, इच्छाकारेण स्तवन भणुं ? इच्छं, नमोऽर्हत्सिद्धा०' कह कर 'उवसग्गहरं० ' बोल कर 'जयवीयराय० ' कहना ।
फिर खमासमण पूर्वक 'भगवान् है' आदि पाठ बोलना, बाद में 'इच्छामि खमा० इछाकारेण देवसिअ पडिक्कमणे ठाउं ? इच्छं' कह कर दाहिना हाथ चरवला या आसन पर रख कर 'सव्वसस्सवि देवसिअ०' का पाठ कहना । फिर खडे हो कर करेमि भन्ते०, इच्छामि ठामि०, तस्स उत्तरी०, अन्नत्थं बोल कर अतीचार की आठ गाथा का, या आठ नवकार का काउस्सग्ग कर पार कर · लोगस्स०' कहना । फिर मुहपत्ति की पडिलेहन कर दो वांदणा देना । बाद में खडे हो 'इच्छाकारेण देवसिअं आलोउं ?, इच्छं आलोएमि जो मे देवसिओ' कह कर ' सात लाख' और ' अठारह ' पापस्थान का पाठ बोलना । फिर 'सव्वस्सवि देवसिअ०' कह कर वीरा
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( १०२ ) सन या जिमना गोडा ऊंचा रख कर एक नवकार बोल कर, 'करेमि भंते०, इच्छामि पडिक्कमिऊं जो मे देवसिओ अड्यारो०' पढ़ कर वंदित्तु' कहना । उसमें 'तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स ' बोलते समय खडे हो कर वंदित्तुं पूरा करना । फिर दो वांदणा देकर, 'इच्छामि खमा०, इच्छाकारेण० अब्भुडिओहं' का पाठ चरबला या आसन पर जिमना हाथ थाप कर कहना । फिर दो वांदणा दे कर, हाथ जोड कर खड़े खड़े 'आयरिय उवज्झाए , करेमि भंते०, इछामि ठामि०, तस्स उत्तरी०, अन्नत्थ० ' कह कर दो लोगस्स या आठ नवकार का काउस्सग्ग कर, पार कर 'लोगस्स० ' कहना । फिर 'सव्वलोए अरिहंतचेइआणं०, अन्नत्थ० ' बोल कर एक लोगस्स या चार नवकार का कायोत्सग कर, पार कर, 'पुक्खरवरदी० सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्तियाए० अन्नत्थ० ' कह कर एक लोगस्स या चार नवकार का काउस्सग्ग कर. पार कर 'सिद्धाणं बुद्धाणं०' बोल कर छठे आवश्यक की मुहपत्ति पडिलेह कर, दो वांदणा देना ।
पीछे 'सामायिक, चउविसत्थो, वंदण . पडिक्कमण, काउस्सग्ग, पच्चक्खाण कयु छे जी, इच्छामो अणुसहि' कह कर, बैठ कर 'नमो खमासमणाणं नमोऽर्हत्सिद्धा०' बोल कर 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय'
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( १०३ )
पाठ कहना और स्त्रियोंको 'संसारदावा श्लोक बोलना |
का तीन
फिर 'नमुत्थुणं' कह कर ' इच्छाकारेण० स्तवन भं ? इच्छं ' बोल कर स्तवन कहना । फिर ' वरकनक, ' कह कर खमासमण पूर्वक 'भगवान् हं' आदि पाठ कहना फिर जिमना हाथ चरवला या आसन पर थाप कर 'अड्ढाइज्जेसु० ' कहना ।
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बाद खडे होकर ' इच्छाकारेण० देवसिअ पायच्छित्तविसोहणत्थं काउस्सग्ग करूँ ? इच्छं देवसिअ पायच्छित्तविसोहणत्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नस्थ० ' कह कर चार लोगस्स या सोल नवकार का कायोत्सर्ग करके ' लोगस्स ० ' कहना | फिर 'इच्छामि खमा० इच्छाकारेण० सज्झाय संदिसाउं ? इच्छं, इच्छामि खमा० इच्छाकारेण० सज्झाय करूँ ? इच्छं' कह कर एक नवकार गिन कर ' सज्झाय ' कहना । फिर एक खमासमण देकर ' इच्छाकारेण० दुक्खक्खय कम्मक्खय निमित्तं काउस्सग्ग करूं ? इच्छं, दुक्खक्खय कम्मक्खय निमित्तं करेमि कासगं अन्नत्थ० ' कह कर संपूर्ण चार लोगस्स या सोलह नवकार का कायोत्सर्ग करके पार कर 'लोगस्स ० ' कहना | फिर 'इरियात्रद्दि ० ' कर नीचे बैठकर "चक्कसाय०' नमुत्थुणं, जावंति ०, इच्छामि खमा०, जायंत.
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( ०४) नमोऽहत्सि०, उवसग्गहरं' हाथ जोड कर 'जयवीयरायः' कहना । एक खमासमण देकर इच्छाकारेण सामायिक पारवा मुहपत्ति पडिलेडं ? इच्छं। कह कर मुहपत्ति की पडिलेहन करके इच्छामि खमा०, इच्छाकारेण० सामायिक पारुं ? यथाशक्ति, इच्छामि खमा० इछाकारेण सामायिक पायें ? तहत्ति' कह कर सामायिक पारने की विधि से सामायिक पार कर स्थापनाचार्य के सामने सबला जिमना हाथ रख कर एक नवकार गिनना, इति ।
६२. राइ प्रतिक्रमणविधि। पहले लिखी विधि प्रमाणे द्वादशावर्त वन्दन से गुरु वन्दन करके सामायिक लेना । फिर एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण कुसुमिण दुसुमिण उड्डावणी राइअपायच्छित्तविसोहणत्थं काउस्सग्ग करूं ? इच्छं, कुसुमिण दुसुमिण उड्डावणी राइअपायच्छित्तविसोहणत्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ' कह कर काम भोगादि के स्वप्न आये हो तो सागरवरगंभीरा तक और दूसरे कुस्वप्न आये हों तो 'चंदेमु निम्मलयरा' तक चार लोगस्स का या सोलह नवकार का काउस्सग्ग कर, पार कर 'लोगस्स' कहना । फिर एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण० चैत्यवन्दन करूं ? इच्छं' कह कर 'जगचिं
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( १०५) तामणि' का चैत्यवन्दन 'जय वीयराय०' तक कहना। बाद में भगवान् हं आदि पाठ बोल कर इच्छाकारेण सज्झाय संदिसाउं ? इच्छं' कह कर 'इछाकारेण सज्झाय करूं ? इच्छं कह कर नवकार एक गिनके 'भरहेसर' की सम्झाय बोल के एक नवकार गिनना । बाद में 'इच्छकार०' पूछ कर 'इच्छाकारेण राइअपडिक्कमणे ठाउं ? इच्छं' कह कर जिमना हाथ चरवला या आसन पर थाप कर 'सव्वस्सवि०' का सूत्र कहना ।
फिर 'नमुत्थुणं' कह कर खडे हो ‘करेमि भंते ०, इच्छामि ठामि०, तस्स उत्तरी० अन्नत्थ०, बोल कर एक लोगस्स या चार नवकार का काउस्सग्ग करना । फिर पुक्खरवरदी० सुअस्स भगवओ०, वंदणवत्ति अत्थ०' कह कर दो लोगस्स या आठ नवकार का काउस्सग्ग करना । फिर सिद्धाणं युद्धाणं०' कह कर, बैठकर तीसरा आवश्यक की मुहपत्ति पडिलेह कर दो वांदणा देना । फिर 'इच्छाकारेण. राइअं आलोउं ? इच्छ आलोएमि जो मे राइओ अइयारो कओ०' कह कर सातलाख और अठारह पापस्थान का पाठ बोल कर 'सव्वस्सवि राइअदुञ्चितिअ० ' कह कर जिमना गोठा ऊंचा रख कर एक नवकार कह कर ‘करेमि भंते०, इच्छामि पडि
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(१०६) क्कमिउं जो मे राइओ अड्यारो०' बोल कर 'चंदितु' सूत्र कहना । फिर दो वांदणा देकर 'इच्छाकारेण अब्भुट्टिओमि अभितर राइअं खामेलं ? इच्छं खामेमि राइअं' पाठ पढ कर दो वांदणा देना । फिर 'आयारिय उवज्झाए०, करेमि भंते० , इच्छामि ठामि०, तस्स उत्तरी०, अन्नत्थ' कह कर तपचिंतवणी का या सोलह नवकार का काउस्सग्ग कर पार कर 'लोगस्स' कहना । फिर बैठ कर छठे आवश्यक की मुहपत्ति पडिलेह कर दो वांदणा देना । बाद में हाथ जोड कर 'सकल तीर्थ वंदु करजोड०' कह कर इच्छा. कारेण पच्चक्खाण कराओजी ? इच्छं' बोल कर यथाशक्ति पच्चक्खाण लेना। फिर 'सामायिक, चव्विसस्थो, वंदण, पडिक्कमण, काउस्सग्ग, पच्चक्खाण कयु छे जी, इच्छामो अणुसहि नमो खमासमणाणं नमोऽर्हत्सि०' कह कर 'विशाललोचनदलं ' पाठ बोल कर ‘नमुत्थुणं' कहना ।
फिर 'अरिहंतचेइआणं० , अन्नत्थ० कह कर एक नवकार का काउस्सग्ग कर पार कर 'नमोऽहत्सि' कह कर 'कल्लाणकंद' की पहली थुइ कहना फिर 'लोगस्स० सव्वलोए अरिहन्त० अन्नत्थ' बोल कर एक
१ स्त्रियों को संसारदावानल का तीन लोक कहना ।
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(१०७)
नवकार
का काउस्सग करके पार कर दूसरी थुई कहना, और 'पुखरवरंदी०' सुअस्स भगवओ० बंदणवत्ति०, अन्नत्थ०' कह कर एक नवकार का काउस्सग्ग कर, पार कर 'नमोऽर्हत्सि ० ' बोल कर तीसरी थुइ कहना । फिर 'सिद्धाणं बुद्धाणं ० ' कह कर नीचे बैठ कर 'नमुत्थुणं० जावंति०, इच्छामि खमा०, जावंत०, इच्छामि खमा०, इच्छाकारेण, स्तवन भणुं ! इच्छं, नमोऽईत्, उवसग्गहरं० जय वीयराय' कहना । फिर खमासमण पूर्वक 'भगवान् हं' आदि चार को वन्दन करना ।
"
फिर कटासण पर जिमना हाथ थाप कर 'अड्ढाज्जेसु० बोलना । फिर ईशान कोण तरफ मुख करके दो खमासमण देकर सीमन्धरस्वामी का चैत्यवन्दन कह कर ' जं किंचि० नमुत्थुणं०, जावंति०, इच्छामि खमा०, जावंत केवि०, इच्छामि खमा०, इच्छाकारेण ० स्तवन भणुं ? इच्छं, नमोऽर्हत् ० ' कह कर सीमन्धर प्रभु का स्तवन बोल कर 'जय वीयराय' कहना और खडे हो ' अरिहंत चेइ० अन्नत्थ० ' कह कर एक नवकार का कायोत्सर्ग करके पार कर' नमोऽर्हत०' कह कर सीमन्धर प्रभु की एक थुइ कहना | फिर सिद्धाचल की दिशा तरफ इसी प्रकार की विधि
१ खराब स्वप्न के काउस्सग्ग के सिवाय दूसरे सभी लोगस्स के कायोत्सर्गों में चंदेसु निम्मलयरा
'
>
तक ही लोगस्स कहना चाहिये ।
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(१०८) से सिद्धाचलजी का चैत्यवन्दन, स्तवन, स्तुति कहना । बाद में सामायिक पारने की विधि से सामायिक पारना, इति ।
६३. श्रीसीमन्धरजिनचैत्यवन्दन । परम शुद्ध परमात्मा, परमज्योति परवीन । परमतत्व ज्ञाता प्रभु, चिदानन्द सुख लीन ॥१॥ विद्यमान जिन विचरतां, महाविदेह मझार । सीमन्धर आदि सदा, वन्दु वारंवार ॥ २ ॥ जे दिन देखश्युं दृष्टि में, ते दिन धन्य गिणेश । सूरिराजेन्द्रना संगथी, काटीश सकल किलेश ॥ ३॥
सीमन्धरजिनस्तुति सीमन्धर सेवो, कर्मविदाहरण देव भविजीवां तारक, वारक मिथ्या टेव । अतिशय धुनि गाजे, राजे बहु गुणवन्त सूरिराजेन्द्र बन्दे, विहरमान भगवन्त ॥ १ ॥
सोमन्धरजिनस्तुति ( कपूर होय अति उजलो रे, ए राह ) महाविदेह में विचरता रे, सीमन्धर जिनराय । सुर नर विद्याधर सहु रे, वन्दे जेहना पाय ॥१॥ जिनेश्वर तुम दरिसण चित चाह, पुन्य उदयथी थाय जि० ॥टेर ॥ भरत माहीं भवि प्राणिया रे, तुम विण संशय माहीं । धरम
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१०९) सत्य साधनतणो रे, मारग पामे नाहीं ॥ जि०॥२॥ मतिभेदे भमता फिरे रे, सत्य न भाषे मूढ । सूत्र परम्परा छेदीने रे, भाषे स्वीयमत रूढ ।। जि० ॥३॥ अपवाद थापे पापीया रे, छन्दे वदे स्याद्वाद । बहु अन्नाणी प्राणिया रे, तेहने बहु विषवाद ।। जि० ।। एहवामां मुझने तुमो रे, सत्य स्वरूप बताय । सरिराजेन्द्रजी धारश्यो रे, तारण विरुद धराय ॥ जि० ॥ ५॥
६४. सिद्धाचलचैत्यवन्दन । सिद्धाचल बन्दो भवि, सिद्ध अनन्तनो ठाम । अवर क्षत्रमा एहवो, तीर्थ नहीं गुणधाम ॥१॥ पूर्व नवाणुं ऋषभजिन, आव्या तीरथ एह ।। नेम विना सहु जिनपति, फरसे गिरि शुभ नेह ॥ २॥ नाम इंगवीस जपे भवि, पामे भवनो पार । सूरिराजेन्द्रपणो लही, मोक्ष श्री भरतार
सिद्धाचलजिनस्तुति । विमलाचल शिवसुख दाता, भाव धरी नित वन्देजी। शत्रुजादिक इगवीस नामे, जपतां दुरित निकन्देजी । सिद्ध अनन्ता इण गिरि सिद्धा, कहेतां पार न आवेजी । मन वच काया शुद्ध करीने, सेव्यां शिवमुख पावेजी ॥१॥
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(११०) सिद्धाचलजिनस्तवन । श्रीसिद्धाचल दिये, पाप निकंदिये रे । भेटिये प्रथम जिणंद, समकित संपजे रे ॥ टेर॥ सिद्धक्षेत्र छे शाश्वतो, भवि मन भास्वतो रे, भेटयां भव भय जाय ॥स०॥१॥ सिद्ध अनन्ता शिव लह्या, जिनवर कह्या रे, भवजल तारण नाव ॥ स० ॥ २ ॥ विमलवसी वखते वणी, मोहनमणी रे । चउसुख प्रतिमा चार ॥ स० ॥३॥ रायणरूंख सुराजतो, गज अति गाजतो रे । मरुदेवी मात विख्यात ।। स०॥४॥ सुर सेवा जिहाँ सारता, विधन निवारता रे, आज प्रत्यक्ष प्रभाव ॥ स० ॥ ५॥ सूरजकुंड सोहामणो, दीपे घणु रे, वाघनपोल विशाल ॥ स० ॥ जिनेन्द्रटोंक मोतीवसी, मुरघर जिसी रे, आइठाण अनेक ॥ स० ॥७॥ विमलगिरि गुण गावता, लहे सुख शाश्वता रे, फरसे चरण गिरीन्द ॥ स० ॥८॥ दरिसण भाव सुबोधता, रुचिप्रमोदता रे, समप्पे सूरिराजेन्द्र ॥ स० ॥९॥
६५. बीजतिथि-चैत्यवन्दन । परमेष्ठी श्री अजितजिन, बीजा प्रणमो बीज । दुविध धर्म भवि आदरो, समकित गुण रीझ ॥१॥ चवण सुमति अरनाथजी, श्रावण फागुण शुद्ध । माघसित जनी केवली, चउथम बारम लुद्ध ॥२॥
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( १११ ) शीतल माधववदि मुगति, कल्याणक तिय काल । जे जे हुआ ते ते नमो, पामो जय उजमाल ॥३॥ ऊर्ज बीज सुदिथी करो, गुणणा दोय हजार । उपदेशी जिनवर अजित, छावीस मासज धार ॥४॥ दुग बन्धन दुग ध्यान तज, भजो दुनय सह नाण । इन्दुकला नित प्रति बढ़े, तिम सूरिभूपेन्द्र प्रमाण ॥५॥
बीजतिथि-जिनस्तुति। सहु दिवस शिरोमणि, बीजतणो दिन होय । सीमन्धर वंदो, शिवसुख साधे सोय ॥ १ ॥ चन्द्र उदय विमाने, वन्दो प्रतिमा चार । शाश्वती जिन भाखी, चार निकाय मशार । बदि मुदिनी बीजे, जे जे जिन कल्याण । ते सवि हुं वन्दु, दोय धरी शुभ झाण ॥ २ ॥ सहु जिनवर भाषे, दोय प्रकारे धर्म । बीज समकित भाख्यो, भव्य लहे तमु मम । दोय भेदे सूत्रनी, रचना करे गणधार । तेहने जे जाणे, सो लहे भवनो पार । नय दोय प्रकाशे, संक्षेपे जिनराज । सूरिराजेन्द्र दाखे, धनमुनि धारण काज ॥३॥
बीजतिथि-स्तवन ।
(ढाल पहली, ललनानी राह में ) प्रणमुं वीरजिणिन्दने, निज गुरुना नमि पाय भवियाँ। बीजतिथिना गायश्युं, कल्याणक सुखदाय भवियाँ ॥१॥
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(११२) "बीजतिथि व्रत आदरो ।” महासुदि बीजे जनमिया, अभिनंदन गुणखाण भवियाँ । श्रावणमुदि बीजे चलो, सुमतिनो चवण प्रमाण भवियाँ ॥ बी० ॥२ ॥ सम्मेतशिखर गिरि ऊपरे, पाम्या पद निरवाण भवियाँ । शीतल दशमो साहिबो, वैशाखबदि बीज जाण भवियाँ । बी० ॥ ॥ ३ ॥ फाणशुदि द्वितीया दिने, चवण अछे अरनाथ भवियाँ । शुभ ध्याने भवि ध्यावजो, जिम लहो शिवपद आथ भवियाँ ॥ बी० ॥ ४॥ माघमुदि बीजे लह्यो, उत्तम केवलनाण भवियाँ । वासुपूज्य जिन बारमा, नमिये नित्य विहाण भवियाँ ॥ बी० ॥५॥ पंच कल्याणक वरतता, अतीअ अनागत जेह भवियाँ । कल्याणक सहु समरीये, इण दिन आणी नेह भवियाँ ।। बी० ॥ ६॥ करणी रूपिया खेत में, समकित रोपो वाव भवियाँ । खातर किरिया नाखीये, खेड़ समता करी दाव भवियाँ । बी०॥ ७ ॥ उपशम नीरे सींचता, प्रगटे समकित छोड़ भवियाँ । सन्तोष वाड़ज कीजिये, पच्चक्खाण चोकी जोड़ भवियाँ ॥ बी० ॥ ८॥ कर्म चोर नाशे सहु, समकित वृक्ष फलंत भवियाँ । अनुभव रूपी मंजरी, चारित्र फल दिपंत भवियाँ ॥ बी० ॥९ । शान्ति सुधारस वारीये,
१ जिस दिन जिस प्रभु का जो कल्याणक हों उन्ही के नाम की बीस माला फेरना । जैसे माघसुदि २ को अभिनन्दन प्रभु का जन्म कल्याणक है तो उस दिन 'अभिनन्दनस्वामिने नमः' इस पद की माला गुणना । इसी प्रकार अष्टमी, एकादशी तप में भी समजना ।
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( ११३ )
पान करी सुख साध भवियाँ । शम तम्बोलने चावतां, नवि रहे कोई उपाध भवियाँ ॥ वी० ॥ १० ॥ प्रवचनपुर में दाखीया, धर्मना दोय प्रकार भवियाँ । तिण कारण भवि बीजने, आराधी तुम सार भवियाँ ॥ बी० ॥ ११ ॥
(ढाल दूसरी - आछीलालनी राह में )
बीजतिथि आराध, छावीस मास लग साधं, सोभागी लाल उत्कृष्टी जिनवर कहीजी । चोवीहार उपवास, पालिये शील उल्लास, सो० शुभमते जिनवाणी लहीजी ॥ १ ॥ पक्किमणा दोय वार, पडिलेहण सार, सो० देव वांदो ऋण कालना जी । तप पूरणथी ताम, उजमणो अभिराम, सो० करिये भगति भावनाजी ॥ २ ॥ राग द्वेष दोय टाल, इणविध बीज तुं पाल, सो० मुक्ति मंदिर पामीयेजी। जिनपूजा गुरुभक्ति, करीये जेवी शक्ति, सो० सकल परभावने वामीयेजी ॥ ३ ॥ ये जिनशासन रीत, आदरे भवि शुभ प्रीत, सो० ते पामे सहु संपदाजी । सूरिराजेन्द्रनी वाण, धरिये चतुर सुजाण, सो० तहत्त करी रहिये मुदाजी ॥ ४ ॥ ( हरिगीत कलश )
हम सहज संपति दाइ ए तिथि, गाई गुण गिरुवा गुणी, इक अधि नव शशि वर्ष वर्ते, मास श्रावण में भणी । वर भौम वासर तिथि अमावस, लहिय कूकसी शहर में, संवेग धारी रचिय सारी, रायचंदे हर्ष में ॥ १ ॥
८
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(११४) बीजतिथिसमाराधन-सज्झाय ।
(शमदम गुणना आगरू जी रे- ऐ राह) आर्त रौद्र दुग ध्यानने जी रे, बन्धनदोय निवार। मिथ्या भाव विभावनें जी रे, तजिये समकित धार रे प्राणी, आराधो भली वीज, तपस्या करो दिल रीझ रे प्राणी ॥आ० ॥१॥ समकित सहित जे आचरे जी रे, तप जप करणी प्रमाण । भगवन्ते इम भाषियो जी रे, रहस्य मन में आण रे प्राणी आ०॥ ॥ २ ॥ इण दिन कल्याणक थया जी रे, जिनवर केरा अनेक । तिणसं आराधक तिथि कही जी रे, आराधो मन धरी टेक रे प्राणी॥ आ०॥ ३॥ निश्चय ने व्यवहारथी जी रे, द्विविध धर्म आचार । संवर भावे पालतां जी रे, मिटे कर्म प्रचार रे पाणी ।। आ० ॥ ४ ॥दो हजार गुणनो गणो जी रे, देववन्दन त्रण काल। प्रतिक्रमण पौषध करो जी रे, मन राखी उजमाल रे प्राणी ॥ आ० ॥५॥ विधि सह तप आदयों जी रे, मिलसी फल जयकार । सूरियतीन्द्र पदने ध्यानने जी रे, लहे शिवपद सार रे प्राणी ॥ आ० ॥६॥
६६. पंचमीतिथि चैत्यवन्दन । सेवो अरिहंत सिद्धने, आचारिज उवझाय । साधु सयलने वंदतां, सुख संपति सवि थाय ॥१॥ पंचमी कार्तिकसुदि पखे, आराधो भवि नाण । ज्ञानीने सहु जग नमे, नाणतणो गुण जाण
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( ११५ )
पेख्या पंच
प्रकार ।
मनुहार ।
नन्दीसूत्र में ज्ञानना, मति श्रुत अवधि मन सही, केवल एक आकार पंच ज्ञान में प्रथम छे, मतिज्ञान प्रणमुं सोहगपंचमी, दिन छे ज्ञान दातार पाटले पुस्तक थापीने, वंदो धरिय विवेक । सूरिराजेन्द्रे भाखिया, सूत्र अछे इह केक
पंचमीतिथि स्तुति ।
पंचमी दिन प्रणमो अरिहा नेमि दयाल | राजुलपति सेवो, टालो कर्म कुचाल ॥ भवि पौषध पूजा, अतिही कीजे रसाल | पंचमी तप करीने, वरिये शिववधू माल ॥ १ ॥ पंचमी गतिगामी, पंच नाण धरनार । अरिहंत अनोपम, जेह थया सुखकार || आगामी थाशे, वली वरतित जयकार | सहु जिनवर दरशित, ए तप पंचमी सार ॥ २ ॥ सूरिराजेन्द्र राजा, शोभित त्रिभुवन भाणं । उपदेशे बूझे, रायचन्द्र गुणखाण || आगम में भाखी, अईन्मुख इम वाण । जिनसम जिनप्रतिमा, जाणो चतुर सुजाण ॥ मूरख नवि माने, ताने निज गुरु आण । ते कुगुरु चेला, पत्थर नाव प्रमाण ॥ ३ ॥ पंचमीतप स्तवन ।
( नेम की जावन बनी भारी - ए राह )
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॥ ३ ॥
11 8 11
॥५॥
सुनो श्रीसुमतिनाथ भगवान, दिला दो मुझको केवलज्ञान || टेर || सुमतिमभु सुमति के दाता, पूजतां जीव लहे
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शाता। मन मेरा आज हुलसाया, प्रभु के चरणों में आया। “समवसरण देवां रच्यो, सोहे सुमतिजिणिन्द । छत्र चामर सिंहासन आदि, सेवे सुर नर इन्द" दुन्दुभि बाज रही असमान ॥ सु० ॥१॥ ज्ञान के भेद बतलावे, मति श्रुत अवधि मन भावे । मुनि के मनपर्यव जानो, पंचम केवलज्ञान पहेचानो । “मति अठवीस श्रुत चौदह, अवधि भेद असंख। दोय भेद मनपर्यव दाख्या, पंचम पद निष्कलंक ।" एकलो कहिये केवलज्ञान ॥ सु० ॥ २ ॥ ज्ञान या गुरुनाम को गोपे, आगम अरु अर्थको लोपे। पढ़ते को अन्तराय देवे, अक्षर पद कविनय से लेवे । “करे आशातना ज्ञान की भगवती में अधिकार । ज्ञानी ऊपर द्वेष मत्सरता, ते रुले या संसार ।" आतमा इम पावे अज्ञान ॥ सु० ॥२॥ आशातना ज्ञान की करता, पशु जिम चौरासी भमता । अहिंसा सिद्धान्ते भाखी, ज्ञान के पीछे ही राखी "देश आराधक क्रिया कही, सर्व आराधक ज्ञान । ज्ञान आराधन कारणे सरे, इम भाषे भगवान ।"बढावो ज्ञान-द्रव्य अरु ज्ञान ॥ सु०॥४॥शुक्लपक्ष पञ्चमी साधो, भलीपरे ज्ञान आराधो। ज्ञान से क्रिया भी शोभे, दर्शन से कभी नहीं क्षोभे । "करो उद्यापन भाव से, राखो चित्त उदार । मूत्र लिखावो ज्ञान सिखावो, उपकरण दो श्रीकार।" जिन्होंसे पामो निरमल ज्ञान ॥ सु० ॥५॥ धातकीखंड मझारी, सुन्दरी जिनदेव की नारी । ज्ञान के उपकरण दिये बाल, हुई गुणमंजरी बेहाल ।
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(११७)
"आचार्य वसुदेवजी, दियो कर्म झकझोर । ज्ञान ऊपर द्वेष परंतां, बांध्या कर्म कठोर ।” वरिया वरदत्तजी अज्ञान ॥सु० ॥ ६॥ आराधी पंचमी भारी, उप्पन्ना स्वर्ग मोझारी विदेह में और भी धारी, मोक्ष गया केवल ले लारी । "एम अनेक उद्धर्या, आगम में परिमाण । जो करसी सो बरसी प्राणी, पंचमी तप निर्वाण । " चरण के शरणे आयो ज्ञान ॥ सु० ।। ७ ॥
पंचमीतिथि तपसज्झाय। . (तेह पुरुष हवे वोनवेजी- ए राह )
पंचमीतप भवि प्राणिया रे, कीजे अधिक उल्लास । गुणमंजरी वरदत्तजी रे, कीनो जिम तप खास ॥ पं० ॥१॥ ए तिय कल्याणक सुणो रे, संभव केवलज्ञान । सुविधि नेमिजिन जनमिया रे, चवण चन्द्रप्रभ मान ॥ ५० ॥ २॥ अजित संभव अनन्तजी रे. वली श्रीधर्मनिन मोक्ष । संयम कुन्थुनाथनो रे, नव कल्याणक सौख्य ॥ पं० ॥३॥ कल्याणक दश क्षेत्रना रे, नेऊ जिनना जाण । मास वर्ष ते पांचनो रे, तप आराधो नाण ॥ ५० ॥४॥ किरिया गुरुगम पामीने रे, कीजे शुद्ध आचार । सूरिराजेन्द्र पद ध्यायने रे, रायचन्द अवधार ॥ पं० ॥ ५ ॥
६७. अष्टमीतिथि चैत्यवन्दन । पर्वतिथि दिन अष्टमी, आराधी शुभ चित्त । देववन्दन तप जप युत, पूजावश्यक नित्त ॥ १ ॥
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(११८) सशक्ति उद्यापन करो, मन राखी उजमाल । अष्ट सिद्धि गुणबुद्धिनी, प्रकटे ज्योति विशाल ॥ २ ॥ ऋषभादिक जिनवरतणा, कल्याणक चित लाय । इस कारण ए वर तिथि, आराध्यतम के'वाय ॥ ३ ॥ दंडवीर्यप आराधीने, पाम्या मोक्ष निधान । सरियतीन्द्र भवि ते लहे, अन्ते पद निरवान ॥४॥
___ अष्टमीतिथितपस्तुति । भवनिधि वर तारण अष्टमी, निविड बन्ध निवारण उत्तमी । धवलमंगल माल सुसंपदा, प्रचुर शाश्वत सौख्यकरी सदा ॥१॥ करम अष्ट विदारण सन्तती, मदविभंजन अस्त्र समो तिथि । ऋषभ आदि जिनेश्वर भावनं, कुमतिमार्ग तजी शिवपावनम् ॥ २ ॥ प्रवचनामृतपानसुमंडितं, निखिलशास्त्रसुज्ञानविगुम्फितं । विजयमूरिराजेन्द्र सुनायकं, सरियतीन्द्र सदा सुखदायकम् ॥ ३ ॥
___ अष्टमीतिथि-स्तवन । ( ढाल पहली, चन्दाप्रभु इन स्वाम- ए राह )
श्रीराजगृही नयरी उद्यान, अतिशय छाजे रे । विचरंतां वीर जिणिंद, आवी विराजे रे ॥ तिहाँ चोत्रीस ने पांत्रीस, वाणीगुण गाजे रे। पधार्या श्रेणिकराय, वन्दन काजे रे ॥१॥ तिहाँ चौसठ सुरपति आय, त्रिगड़ो रचावे रे । तिहाँ
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बेसीने उपदेश, प्रभुजी सुनावे रे ॥ तिहाँ सुर नर नारी तिरियंच, निज निज भाषा रे । भेद समझीने भवि जीव, लहे मुखवासा रे ॥२॥ तव इन्द्रभूति महाराज, कहे प्रभु वीरने रे। कहो अष्टमीनो महिमाय, प्रभुजी अमने रे ॥ तव भाषे वीरजिणिंद, सुणो भवि प्राणी रे। अष्टमीदिन जिनकल्याण, धारो चित आणी रे ॥३॥
(ढाल दूसरी, चालो सखी वीरने वन्दन- ए राह )
पहेलु ऋषभनो जन्मकल्याण रे, चारित्र लहे शुभ वाण रे, त्रीजा संभवनो निरवाण, भवि तुमे अष्टमी तिथि सेवो रे, ए छे शिववधू मलवानो मेवो ॥ भ० ॥१॥ अजित सुमति जिन जनम्या रे, जिन सातमा चवणकुं पाम्या रे, अभिनन्दन शिव विसराम्या ॥ भ० ॥२॥ वीसमा मुनिसुव्रतस्वामी रे, तेनो जन्म कल्याण मोक्षधामी रे, नमि नेम जनु शिवगामी ।। भ०॥३॥ श्रीपाश्र्वजिन मोक्ष महन्ता रे, इत्यादिक जिन गुणवन्ता रे, कल्याणक मोक्ष कहन्ता ॥ भ० ॥४॥ तेथी अडकर्मदल पलाय रे, एथी अडसिद्धि अडबुद्धि थाय रे, तेणे कारण शिव चित लाय ॥ भ० ॥ ५॥ एवी वीरजिणिंदनी वाणी रे, मुणी समज्या केई भवि प्राणी रे, इत्यादिक छे जिनगुणखाणी ॥ भ० ॥ ६॥ श्रीउदयसागर मुनिराया रे तस शिष्य विवेके ध्याया रे, श्रीन्यायसागर गुण गाया ॥ भ० ॥ ७ ॥
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( १२० )
अष्टमी तपसज्झाय ।
( पश्चमी तप तमे करो रे प्राणी- ए राह ) अष्टमी तप तमे करो रे भवियाँ, अष्टमी गति दातार रे । अष्ट महासिद्धि एहथी पामे, जगमें जय जयकार रे ॥ अ० ॥ १ ॥ अष्टविध कर्मना मूलने कापे, अष्ट महामद संहार रे । केवल समृद्धि प्रगटे अंगे, आपे जिनपद श्रीकार रे ॥ अ० ॥२॥ वरस आठ लग अड मासे, ए तपविधि करिये रे । देववन्दन शुभ क्रिया साथे, विधिविधान आचरिये रे ॥ अ० ||३|| संवरभावे रहिये नितप्रति, ब्रह्मचर्य व्रत धारो रे । सुदेव गुरुनी श्रद्धा राखी, जिन आणा शिर धारो रे ॥ अ० ॥ ४ ॥ तप पूरण करिये उद्यापन, निज निज शक्ति अनुसार रे । तप फल पूरण पावो प्राणी, एहज तपनो सार रे ।। ५ ।। ऋषभा - दिक जिनवर केरा, कल्याणक दिन जाग रे । इण हेतु ए दिन छे आराधक, सूत्रतणे परमाण रे || अ० ॥ ६ ॥ सूरिराजेन्द्र पदने ध्यावो, मन थिर राखी ठाम रे । सूरियतीन्द्र पदभोगी थइने, लहो शिव पद अभिराम रे ॥ अ० ॥ ७ ॥ ६८. एकादशी तपचैत्यवन्दन ।
एकादशी तिथि उत्तमा, जिनवर बहु कल्याण । कर्म खपावन कीजिये, ए तप शक्ति सुजाण ॥ १ ॥ मृगशिर शुक्ल एकादशी, तप विधि लीजे धार । रुद्र मास ग्यार वर्ष में, व्रत धारन सुविचार ॥ २ ॥
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( १२१ ) पौषधोपचासे करी, पडिक्कमण चैत्य जुहार । मुव्रत सेठ जिम पामिये, अविचल वास सुधार ॥ ३ ॥ सूरीश्वरराजेन्द्रजी, शोभित रूप अनूप । सरियतीन्द्र पद पामवा, ग्यारस तप वडभूप ॥ ४ ॥
एकादशी तपस्तुति । दिन एकादशी दीपतो ए, काटे भवनी कोड़ तो । नेमि नाथ जिनवर कह्यो ए, तप नहीं एहनी जोड तो ॥ १ ॥ तीन चोवीसीना थया ए, अतीत अनागत लेय तो । दश क्षेत्रोमां दोढसो ए, कल्याणक आदेय तो ॥ मृगशिरशुदि एकादशी ए, मौन लही उपवास तो। सुत्रत जिम पोसह करे ए शिवसुखनी लहे रास तो ॥ २ ॥ इग्यारे पडिमा श्राद्धनी ए, अंग इग्यारे चंग तो । अनुमोदे मुणि आदरे ए, भांगी सर्व विभंग तो॥ भेद अग्यारमो ते बरे ए, छूटे भव दव ताप तो। इग्यार मास वरसां लगे ए, मौन धरी करे जाप तो ॥ समकितधर तप आदरे ए, लहे फल कहे सिद्धान्त तो। रिराजेन्द्रना मूत्रने ए, धनमुनि धरे तजी भ्रान्त तो ॥ ३॥
. एकादशी तपस्तवन । ( ढाल १, सुरपति इन्द्र करे महोत्सव- ए राह )
जगपति नायक नेमिजिणिन्द, द्वारिका नयरी समोसाँ। जगपति वांदवा कृष्ण नरिन्द, यादव कोडीमुं परवर्या ॥१॥
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( १२२ ) जगपति धीगुण फूल अमूल, भक्तिगुणें माला रची। जगपति पूजी पूछे कृष्ण, क्षायक, समकित शिवरुचि ॥ २॥ जगपति चारित्र धर्म अशक्त, रक्त आरंभ परिग्रहे । जगपति मुज आतम उद्धार, कारण तुम बिन कोण कहे ।। ३ ॥ जगपति तुम सरिखो मुज नाथ, माथे गाजे गुणनिलो। जगपनि कोई उपाय बताव, जिम करे शिववधू कन्तलो ॥४॥ नरपति उज्ज्वल मगसिर मास, आराधो एकादशी। नरपति एकसौ ने पचास, कल्याणक तिथि उल्लसो ॥ ५ ॥ नरपति दश क्षेत्रे त्रण काल, चोवीसी तीसे मली। नरपति नेऊ जिनना कल्याण, विवरी कहुं आगल वली ॥ ६॥ नरपति अर दीक्षा नमि नाण, मल्लि जन्म व्रत केवली । नरपति वर्तमान चोवीसी, माहे कल्याणक आवली ॥ ७ ॥ नरपति मौनपणे उपवास, दोढसौ जपमाला गणो। नरपति मन वच काय पवित्र, चरित्र सुणो सुत्रत तणो ॥ ८ ॥ नरपति दाहिण धातकीखंड, पश्चिम दिशि इक्षुकारथी। नरपति विजय पाटण अभिधान, साचो नृप प्रजापालथी॥९॥ नरपति नारी चन्द्रावती तास, चन्द्रमुखी गजगामिनी । नरपति श्रेष्ठी शूर विख्यात, शीलसलिला कामिनी ॥ १० ॥ नरपति पुत्रादिक परिवार, सार भूषण चीवर धरे । नरपति जाये नित्य जिनगेह, नमन स्तवन पूजा करे ॥ ११ ॥ नरपति पोषेपात्र सुपात्र, सामायिक पौषध करे । नरपति देववन्दन आवश्यक, काल वेलाये अनुसरे ॥ १२ ॥
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( १२३ )
( ढाल २, रामचन्द्र के बाग - ए राह )
एक दिन प्रणणी पाय, सुव्रत साधुतणारी । विनये वनवे सेठ, मुनिवर करी करुणारी ॥ १ ॥ दाखो मुज दिन एक, थोडो पुण्य कियोरी । वाधे जिम वडबीज, शुभ अनुबन्ध धरोरी || २ || मुनि भाखे महाभाग्य, पावन पर्व घणारी एकादशी सुविशेष, तेहमां सुण सुमनारी ॥ ३ ॥ सित एकदादशी सेव, मास इग्यारे लगेरी । अथवा वरस इग्यार, ऊजवी तपसुं वरेरी ॥ ४ ॥ सांभली सद्गुरु वेण, आनन्द अति उल्लस्योरी । तप सेवी ऊजवीय, आरण स्वर्ग वस्योरी ॥ ५ ॥ एकवीस सागर आयु, पाली पुण्य वसेरी । सांभल केसवराय अगल जेह थ सेरी ॥ ६ ॥ सौरीपुरम सेठ, समृद्धिदत्त बड़ोरी । प्रीतिमती प्रिया तास, पुण्ये जोग जड़ोरी ॥ ७ ॥ तस कूंखे अवतार, सुदिन शुभ सुपनेरी । जनम्यो पुत्र पवित्र, उत्तम ग्रह शकुनेरी ॥ ९ ॥ नाल निक्षेप निधान, भूमिथी प्रगट थयोरी । गर्भ दोहद अनुभाव, सुव्रत नाम थयोरी || ९ || बुद्धि उद्यम गुरु योग शास्त्र अनेक भण्योरी । यौवन वय अग्यार, रूववती परण्योरी ॥ १० ॥ जिनपूजन मुनिदान, सुव्रत पच्चक्खाण घरेरी । इग्यारे कंचन कोड, नायम पुण्य भरेरी ॥ ११ ॥ धर्मघोष अणगार, तिथि अधिकार कहेरी । सांभली सुव्रत सेठ, जातिस्मरण लहेरी || १२|| जिन प्रत्यय मुनिसाख, भक्ति तप ऊचरेरी | एकादशी दिन आठ, पहोरो पोसो करेरी ॥ १३॥
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( १२४) ( ढाल ३, रणवंका रणमा चढिया- ए राह )
पत्नी संयुत्ते पोसह लीधो, सुव्रतसेठे अन्यदाजी । अवसर जाणी तस्कर आव्या, घरमां धन लूटे तदाजी ॥ १ ॥ शासनभक्त दैवीशक्ते, थंभाणा ते बापड़ाजी । कोलाहल सुणी कोतवाल आव्यो, भूप आगल धर्या रांकडाजी ॥२॥ पोसह पर देवजुहारी, दयावन्त लई भेटणोजी। रायने प्रणमी चोर मुकावी, सेठे कीधो पारणोजी ॥ ३ ॥ अन्य दिवस विश्वानल लाग्यो, सौरीपुरमा आकरोजी । शेठजी पोसह शमरस बेठा, लोक कहे हठ कां करोजी ॥ ४ ॥ पुण्ये हाट वखारो सेठनी, ऊगरी सहु प्रशंसा करेजी। हरखे सेठजी तप उजमगुं, प्रमदा साथे करेजी ॥ ५ ॥ पुत्रने घरनो भार भलावी, संवेगी शिरसेहरोजी । चउनाणी विजयशेखरसूरि, पासे तप व्रत आदरेजी ॥ ६ ॥ एक पट्रमासी चार चोमासी, दो सय छठ शत अट्टम करेजी । बीजां तप पण बहुश्रुत सुव्रत, मौन एकादशी व्रत धरेजो ॥७॥ एक अधम सुर मिथ्यादृष्टि, देवता मुव्रत साधुनेजी। पूर्वोपार्जित कर्म उदयसुं, अंगे वधारे व्याधिनेजी ।। ८॥ कर्मे नड़ियो पापे जडियो, 'सुर कहे जाओ औषध भणीजी । साधु न जाये रोष भराये, पाटु प्रहारे हण्यो मुनिजी ॥९॥ मुनि मन वचन काय त्रियोगे ध्यान अनल दहे कर्मनेजी । केवल पामी जिनपद रामी, सुव्रत नेम कहे श्यामनेजी ॥ १० ॥
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(१२५) (ढाल ४, नमो भवि भावसु ए-ए राह ) कान पयंपे नेमने ए, धन्य धन्य यादव वंश । जिहाँ प्रभु अवतर्या ए, मुज मन मानस हंस, जयो जिन नेमने ए ॥१॥ धन्य शिवादेवी मावडी ए, समुद्रविजय धन्य तात । सुजाती जगतगुरु ए, रत्नत्रयी अवदात ॥ ज० ॥२॥ चरण विरोधी ऊपन्यो ए, हुं नवमो वासुदेव ज० । तिणे मन नवि उल्लसे ए, चरण धरमनी सेव ॥ ज० ॥३॥ हाथी जेम कादव गल्यो ए, जाणुं उपादेय हेय ज० । तो पण हुन करी सकुं ए, दुष्ट कर्मनो भेय ॥ ज० ॥४॥ पण शरणुं बलियातणुं ए, कीजे सीझे काज ज० । एहवां वचनने सांभलीए, बांहे ग्रह्यानी लाज ॥ ज० ॥५॥ नेम कहे एकादशी ए, समकित युत आराध ज० । थाईश जिनवर बारमो ए, भावी चोवीसीये लाध ॥ ज० ॥ ६ ॥
(कलश) इय नेमिजिनवर नित्य पुरन्दर, रैवताचल मंडणो, बाण नन्द मुनि चन्द (१७९५) वरसे, राजनगरे संथुण्यो। संवेगरंग तरंग जलनिधि, सत्यविजय गुरु अनुसरी, कपूरविजय कवि क्षमाविजगणि जयविजय जयसिरिवरी॥१॥
एकादशी आरंभवर्जनसज्झाय ।। ( मारा हाथ में नोकारवालो मारे अरिहंत- ए राह ) भर्या निवाण में झीलण लागा, जल में कोगला जे
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(१२६) करसी । इण करणीमुं होय पखाल्यो, अणतोल्य पाणी भरसी ॥ १ ॥ “व्रत बड़ो रे भाइ एकादशी, प्रभुजीरा ज्ञान विना मुक्ति किसी" ॥टेर॥ परण्यो बाप बेटी साटे, ऊपर धमेड़ा उणरे पडसी । इण करणीमुं होय कागलो, करां करां करतो फरसी ॥७॥ २ ॥ गोखे बेसी दांतन मोड़े, परनारियां चित जे धरसी । इण करणीमुं होय भंडूरो, विष्टा में मुंडो भरसी॥७॥३॥ भरी सभा में झूठो बोले' कूड़ी कूड़ी साखा भरसी । इण करणीमुं होय गधेडो, गली गली भूकतो फरसी ॥ ७० ॥४॥ इग्यारसरे दिन माथो धोवे जुभां लीखा जो मरसी । भंगीरे घर बेटी होसी. तारतखानो सोरती फरसी ॥३०॥५॥ इग्यारसरे दिन लीपण गाले, कीड़ी मकोडी वहाँ मरसी। तेलीरे घर बलधो होसी, दोनो आंखां त्यां बन्धसी ॥७० ॥६॥ इग्यारसरे दिन छाणा बीने, उदेही माकड़ी ज्यां मरसी । इण करणीसुं होय रौंछनी, बन वन माहे भमती फरसी ॥ ७० ॥ ७ ॥ इग्यारसरे दिन उपास करीने, कोला सकरकन्द भखसी। इण करणीसु होय वांदरो, रूंख रूंख फरतो फरसी ॥७०॥८॥ कांदा मूला खाय बटाटा, राते भोजन जे करसी। इण करणीसुं होय चीचड़ो, ऊंधे माथे नित टरसी ॥७० ॥ ९ ॥ मन मेले थइ वावरा, परनारीने तकता फरसी । इण करणीमुं पडे नरक में, जमडा जाने विदरसी ॥ ब्र० ॥ १०॥ फूट फजीता घाले पापी, कूडा कलंक मन धरसी । इण करणीसुं
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( १२७ )
थइ बोकडा, जनम मरण बहु करसी ॥ ब्र० ॥ ११ ॥ इग्यार सरे दिन उपवास करीने, दया धरम दिल धरसी । शुभ रमणी संतति लीला, सुखपालां बेठा फरसी ॥ ० ॥ १२ ॥ जिन आगम सरधा लावी, मौन धरी तप आदरसी । सकळ कर्मारो अंत करीने, शिव सजनी सेजां वरसी ॥ ० ॥ १३ ॥
६९. व्यसननिषेधोपदेश पद ।
जिन्दगी बिगड जायगी, व्यसनों को छोड़ो भाई ॥ टेर ॥ द्यूत रमण से पांडव पांचों, बारा वरस भटकाई | मांसादन से राजा श्रेणिक, पहली नरक सिधाई ॥जि०॥१॥ मदिरा पान से द्वारिका नगरी, खिण में दाह कराई । वैश्यागमन करतां कृतपुन्ये, लज्जा माल गमाई ॥जि० ॥२॥ शिकार खेलते रामचन्द्रने, सती सीता छिटकाई । चोरी कार्य मंडिक तस्कर, शूलिपे आरोपाई ॥ जि० ॥३॥ परत्रिया रमण लालच में, रावण राज्य गमाई । मरके वो गया नरक में, वेदना परवश पाई ॥ ज० ॥ ४ ॥ व्यसनों के फल सुनके यारो, करो त्याग चित लाई । सूरियतीन्द्र की सीख सयानी, मानो तो सुख पाई || जि०||५||
७०. मूंजीपन दो भगाई पद |
लक्ष्मी चली जायगी, सुकृत कर लो भाई ॥ टेर ॥
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(१२८) मम्मनसेठने महनत करके, लक्ष्मी खूब उपाई । आखिर मरके गया नरक में, अकेला दुख पाई ॥ ल० ॥१॥ नन्दराय स्वर्ण डूंगरियाँ, अतिहूंसे निरमाई । चन्द्रगुप्तने निकाल उसको, छीनी खिन में आई। ल० ॥२॥ रत्नद्वीप में गया सागर, लालच मन में लाई। मर कर वो गया श्वभ्र में, मनुज जन्म गमाई ॥ल० ॥३॥ दानवीर बनो इस जगमें, मूजीपन दो भगाई। सूरियतीन्द्र सीख सयानी, धर लो हीयके माई ॥ ल० ॥४॥
७१. श्रीआदिनाथ स्तवन । ( मन डोले मेरा तन डोले मेरे दिल का -तर्ज) सुखकर्ता भवदुःखहर्ता तुम दर्शन ओ ! भगवान रे, दर्शनसे दर्शन पानेको, ज्ञान दर्शन चरित्र मैं, जन्म अनन्ते पाया, फिर फिर करते इस चक्करका,
अन्त न अब तक आया, प्रभुजी० फिरते फिरते श्रद्धा धरते, पाया है देवसद्गुरु योग रे, दर्शनसे० । १ रागीके संसर्गसे बढता, राग महादुःखकारी, नाथ निरंजन तुम दर्शनसे,
आत्मा बने अधिकारी, प्रभुजी० तुम त्यागी मैं हूँ रागी, धरता निशदिन तुम ध्यान रे, दर्शनसे ।२
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(१२९) क्रोध मान माया लालच से, मुक्ति न कोई पाया, इनको तजकर देव गुरु और,
धर्म धरूं सुखदाया, प्रभुजी० मुक्ति मिलती आतम तिरती, तुम शरण में आया आज रे । दर्शनसे० ३ तीर्थपतिके दर्शन करने, गच्छपति संग आया, मोहनखेडा आदि जिनन्द को,
पाकर दिळ हर्षाया, प्रभुजी. मुद्रा सोहत जनमन मोहत, तुम एक हो आदिनाथ रे । दर्शनसे० ४ सूरीश्वर 'राजेन्द्र' प्रभुजी, नाव पडी मझधार, 'यतीन्द्र' चरण की सेवा से यह, हो जावे भवपार;
प्रभुजी० भव भव वन में जङ्गल में स्थल में, 'जयन्त' तुम्ही आधार रे। दर्शनसे० ५
७२. श्री शांतिनाथ स्तवन ।
( दिल में बजी प्यार को शहनाईयां-तर्ज ) जग में बजी शांति की शहनाईयां, आ गई हां वीर जयन्ति भाई ।-जग में० १
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(१३०) चैत्र सुदि त्रयोदशी का दिवस था आया, जन्म ले प्रकाश दिया जग को जगाया, पाठ अहिंसा का दिया दूर की बिमारियां ।-जग में० २ अशांति जो छाई थी, दूर हो गई सारी, मूक प्राणी मर रहे थे, यज्ञ में भारी, महावीर ने संदेश दे, हटाई आतताईयां ।-जग में० ३ पंचशील सिद्धांत दिया वीर ने प्यारा, सत्य अहिंसा से किया जग में उजारा, उसी से ही झूम ऊठी, मनकी बाडियां ।-जग में० ४ त्याग करो चोरी का व ब्रह्मव्रत धार लो, तृष्णा से ही दुःखी होना सब निहार लो; सुखी बनने सुखी, रखो येही गवाहियां । - जग में० ५ 'राजेन्द्र' महावीर की जयन्ति मनाये, जग में 'जयन्त' बीर की जयजयकार लगाये शांत होगी युद्ध की चिनगारियां । जग में. ६
७३. नमस्कारमन्त्रधून । ओम् नमो अरिहंताणं, भजो नमो अरिहंताणं, आतमरिपु पर विजयी, हो गये परमातम । ओम् नमो० १ कर्म कठोर हटाकर के जो, पाये आनन्द, प्रभु० । अखिलानन्दी प्यारे, श्री नमो सिद्धाणं । ओम् नमो० २
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(१३१) शासनपति की आज्ञा में ही, चलते मुविचारं, प्रभु० गच्छपति गणधारी, नमो आयरियाणं । ओम् नमो० ३ अलग रहे जो सर्व क्लेश से , उत्तम पद धारं, प्रभु० सदधर्म के उपदेशक, नमो उवज्झायाणं। ओम् नमो० ४ समता धारक ममता मारक, सब जनहित कारं, प्रभु० मित्रो प्रति पल रटना, नमो सव्वसाहूणं । ओम् नमो० ५ सब मंगल में पहला है यह, मंगल सुखकारं, प्रभु० सूरि राजेन्द्र'को ध्यावें, 'जयन्तविजय'कारं । ओम् नमो०६
७४. नवकारमहिमा स्तवन । मंगलमय नवकार, जीवनमा मंगलमय नवकार, दूर करे अन्धकार, जीवनमा मंगलमय नवकार । नव नवकारनी महिमा मोटी,
कही श्रीजिन गणधार । जीवनमां० १ भाव सहित नव लाख जपे ते,
जाय न नरक मशार । जीवनमां० २ नवनिधि सहेजे सांपडे एहने,
रहे न दुःख लगार । जीवनमां० ३ फुलवाडी जीवननी विकसे,
परिमल पसरे अपार । जीवनमा० ४
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(१३२) पार्श्व प्रभु पण ए ज सुणाव्यो,
नागने श्री नवकार । जीवनमां० ५ नाग बन्यो धरणेन्द्र एहथी,
महिमा अपरम्पार । जीवनमा० ६ दुःखिया मुखिया होय एहथी,
होय नित मंगलमाल । जीवनमां० ७ प्रगट प्रभावी ज्योतिर्मय जे,
__अन्तर झाकझमाल । जीवनमां० ८ सूरि 'राजेन्द्र' अनादि बताव्यो,
सूरि 'यतीन्द्र' अवधार । जीवनमा० ९ कल्याणकारी मंगलकर्ता,
'जयन्त' जलनिधि पार । जीवनमां० १०
७५, नमस्कार स्तवन ।
( पंचमी तप तुमे करो रे प्राणी-राग ) नवकार मंत्र आराधो रे भवियां आतमशान्ति के काज रे, विधियुत कर लो साधना इस की,
संसारसिन्धु जहाज रे । नवकार पंच परमेष्ठी सम इस जग में,
उपकारी नहीं कोय रे,
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(१३३) शीतल छाया हो जब इस की,
दुःख कभी नहीं कोई रे । नवकार० कई नर मंत्रप्रभाव से अपने,
जीवन में लही सार रे; मुखिया अनन्ता सिद्ध थया कई
ले इस का आधार रे । नवकार० शेठ सुदर्शन शूली चढे पर,
छोडा नहीं नवकार रे; देव आये हुई शूली सिंहासन,
धन्य धन्य अवतार रे । नवकार० अशरण को शरण प्रदाता,
__अमरकुमार प्रमाण रे; आदि अनादि शाश्वत है जो, परमानन्द इसी से . पावे,
सूरि 'राजेन्द्र' की चाख रे; सूरि 'यतीन्द्र' सदा शुभ ध्याने,
____ करते अमृत पान रे । नवकार० ७६. श्री अरिहंत स्तवन ।
(सारी सारी राते-त ) अरिहंत प्रभु तो तमने ज ध्यावं, तमने ज ध्यावं तुम ध्यान लगा रे। तमने ज० १
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( १३४) जगमां चिंतामणि रत्नना जेवा,
जगतना नाथ छो देवाधिदेवा, देवाधिदेवा हुं तो तुम गुण गावू रे । तमने ज० २ त्रण जगतना गुरुवर प्यारा,
दुःखी जीवोना रक्षणहारा, रक्षणहारा तन मनमा वसावू रे । तमने ज० ३ दुःखी जनोना बन्धवबेली,
रटण करुं हुं तो ममताने मेली, ___ ममताने मेली मन मन्दिर गजावू रे । तमने ज०४ सार्थवाह तमे साथने आपो,
क्रोध मानादिनी वेलने कापो, वेलने कापो प्रभो ज्योति जगावं रे । तमने ज० ५ जगतना भावने जाणो विचक्षण,
ज्ञान छे आपनुं खूब ज तीक्ष्ण, 'जयन्त' 'यतीन्द्र' ने चित्त लगावू रे । तमने ज० ६
७७. परमेष्ठिस्तवन ।
(राग-प्रभाती) सुन लो ओ भाई हमारे, परमेष्ठी मन धरना रे, उज्ज्वल अविकल अकल है महिमा, भक्ति उनकी करनारे।
सुन० १
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( १३५) अरिहंत जिनशासन संस्थापक, केवलज्ञान प्रकाशी रे, आत्मगुणों की शान्ति प्रसारक, पदवी ली अविनाशी रे।
मुन० २ सिद्धशिला पे अविचल पद ले, नित्य निरंतर सुख में रे, सिद्धप्रभु करुणा के सागर,सुमरण कर मन मुख में रे।
सुन० ३ अनुशासक शासन में हैं जो, श्री आचार्य प्रतापी रे, स्थिर रह कर सबको स्थिर करते, मुदुवाणी आलापी रे।
सुन० ४ सब जन को सदज्ञान के दाता, अंगोपांग के पाठी रे, उवज्झाय बहु गुणधारक, दूर करे भव घाटी रे ।
सुन० ५ समताभावे वरते निशदिन, मुनिवर आनंदकारी रे, समभावी बन ध्यावो हरदम, होगा नैया पारी रे।
सुन० ६ मंगल में यह उत्तम मंगल, पूरव सार कहाया रे, सरि यतीन्द्र' प्रमोदित भावे, परमेष्ठिपद गाया रे।
सुन० ७ ७८. परमेष्ठिस्तवन ।
(मारा माथाना मोड रे मनडांनी–तर्ज) करी हैयानो हार जिन आगमनो सार,
रुडा नवकार मन्त्र ने आराधीए;
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(१३६ ) एनी शक्ति अगम्य अपार छे;
एनी भक्ति जीवनमा सार छे, ए छे आतम आधार, करे नावरियां पार । रुडा० १ एमां तत्त्व गहन गृढ छे कडं,
एथी भव्योए शिवमुखने लहां कारी भाव उदार, तजी मोह जंजाल । रुडा नवकार० २ पुरुषोत्तम प्रभु अरिहंत छे,
सिद्ध प्रभु सिद्धिवधूकंत छे, जेनुं करतां स्मरण, मटे जन्म मरण रुडा । नवकार० ३ शोभा आचार्यवयं वधारता,
अनाचारोथी सर्वने वारता, श्री वाचक महान, करे स्वपर कल्याण । रुडा नवकार०४ साधु साधक नाम ओपावता,
पंच परमेष्ठीना गुण गावता, थाय पापोनो नाश, मले मंगल प्रकाश । रुडा नवकार०५ करे आराधना भवि भावथी,
मले शान्ति राजेन्द्र प्रभावथी, जागेज्योति 'जयन्त' थशे भवोनो अन्त । रुडा नवकार०६ ७९. देवसिक षडावश्यक की सीमा ।
१ सामायिकावश्यक-प्रतिक्रमण ठाने बाद करेमि भंते०, इच्छामि ठामि०, तस्स उत्तरी०, अन्नत्थ० कह कर
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( १३७ ) दो लोगस्स का कोयोत्सर्ग करने तक । २ चतुर्विशतिस्तवावश्यक-कायोत्सर्ग पार कर ऊपर लोगस्स कहने तक । ३ वन्दनावश्यक-फिर मुहपत्ति पडिलेहण करके दो वांदणा देने तक । ४ प्रतिक्रमणावश्यक-बाद इच्छाका. कारेण संदिसह भगवन् ! देवसि आलोउं० से सात लाख, १८ पापस्थानक, सवस्सवि देवसिअ० १ नवकार, करेमि भन्ते०, इच्छामि पडिक्कमिडं जो मे देवसिओ०, वंदित्तु० दो० वांदणा, अब्भुटिओ०, दो वांदणा, आयरिय उवज्झाए। कहने तक । पाक्षिक, चतुर्मासिक, तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का समावेश इसी चौथे आवश्यक में है। ५ कायोत्सर्गावश्यक-आयरिय उवज्झाए बाद दो, एक, एक लोगस्स का काउस्सग्ग कर सिद्धाणं बुद्धाणं कहने तक । ६ प्रत्याख्यानावश्यक-सिद्धाणं बुद्धाणं बाद मुहपत्ति की प्रतिलेखना कर दो वांदणा देने तक । आज कल की प्रथा के अनुसार प्रत्याख्यान दैवसिक प्रतिक्रमण के आरम्भ में कर लिया जाता है । यहाँ पर अन्त में उसका स्मरण कर लिया गया समझना चाहिये।
८०. रात्रिक षडावश्यक की सीमा
१ सामायिकावश्यक-प्रतिक्रमण ठाने बाद नमुत्थुणं, करेमि भंते. कहने तक । २ चतुर्विशतिस्तवावश्यक-इच्छामि ठामि० तस्स उत्तरी०, अन्नत्थ० आदि
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(१३८) सूत्र पाठ बोलते हुए क्रमशः एक, एक और दो लोगस्स के काउस्सग्ग कर सिद्धाणं बुद्धाणं कहने तक । ३ वन्दनावश्यक-मुहपत्ति की प्रतिलेखना कर दो वांदणा देने तक । ४ प्रतिक्रमणावश्यक-राइयं आलोउँ जो मे राइओ अइयारो० सव्यस्सवि राइअ०, एक नवकार, वंदित्तु०, वांदणा दो, अभुडिओ०, दो वांदणां, आयरियउवज्झाए० कहने तक । ५ कायोत्सर्गावश्यक-बाद में फरेमि भंते, इच्छामि ठामि०, तस्स उत्तरी०, अन्नत्थ० कह कर चार लोगस्स का कायोत्सर्ग पारके लोगस्स कहने तक तथा ६ प्रत्याख्यानावश्यक-फिर मुखवस्त्रिका पडिलेहण कर दो वांदणा, सकलतीर्थ, पञ्चक्खाण लेकर, समाप्ति सूचक विशाललोचनदलं०, नमुत्थुणं० बोलने तक ।
प्रतिक्रमणक्रिया में छः आवश्यक के अलावा जो क्रिया की जाती है, वह सब सामायिक युक्त प्रतिक्रमण का काल पूर्ण करने के लिये समझना चाहिये । दैवसिक एवं रात्रिक प्रतिक्रमण में स्त्रियों (साध्वी-श्राविकाओं) को 'नमोऽस्तु. वर्द्धमानाय' और 'विशाललोचनदलं' के एवज में 'संसारदावानल० का तीन श्लोक बोलना । नमोऽहत्सि० तथा 'वरकनक' नहीं बोलने की शिष्ट मर्यादा है।
८१. सामायिक के ३२ दोष । मन के दश-१ वैरी को देख कर क्रोध करना, २ अविवेक (खोटा) विचार करना, ३ अर्थ-विचार न करना,
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(१३९ ) ४ मन में उद्वेग पैदा करना, ५ प्रशंसा काराने की इच्छा रखना, ६ नियम न करना, ७ भय की चिन्ता रखना, ८ व्यापारिक चिन्ता करना, ९ धर्मफल का सन्देह रखना और १० नियाणा करना।
वचन के दश-१ कुवचन बोलना, २ हुकारा करना, ३ पापकारी आदेय देना, ४ बकवाद करना, ५ कलह करना, ६ आओ, जाओ, बैठो उठो, कहना, ७ गालीगलोच बोलना, ८ छोरा छरी को रमाना, ९ विकथा (व्यर्थ पापकारी कथा) कहना और १० हँसी, मजाक करना ।
काया के बारह-१ आसन स्थिर न रखना, २ दिशा विदिशाओं में ताकना, ३ सावध कार्य करना, ४ आलस्य से अंग मरोड़ना, ५ अविनय करना, ६ बैठे बैठे चाला करना, ७ शरीर का मैल उतारना, ८ खुजली खड़ना-खड़ाना. ९ पैर पर पैर चढा कर बैठना, १० लज्जित शरीरावयवों को उघाड़े रखना, ११ सारे शरीर को कपडे से ढांक लेना, और १२ निद्रा लेना। इस प्रकार इन बत्तीस दोषों को टाल कर सामायिक करना चाहिये ।
८२. शिर पर कम्बल रखने का काल।
आषाढ मुदि १५ से कार्तिक मुदि १४ तक सुबह और शाम को छः छः घड़ी, कार्तिक मुदि १५ से फाल्गुन सुदि १४ तक सुबह और शाम को चार चार घडी, तथा फाल्गुन
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(१४०)
सुदि १५ से आषाढ मुदि १४ तक सुबह और शाम को दो दो घडी पर्यन्त सामायिकादि क्रियाओं में बाहर जाते समय मस्तक पर कम्बल ओढ़ कर जाना, आना चाहिये ।
८३. गरम जल वापरने का काल ।
आषाढ़ मुदि १५ से कार्तिक मुदि १४ तक चूल्हा से उतरने बाद तीन प्रहर का, कार्तिक सुदि १५ फाल्गुन सुदि १४ तक चार प्रहर का और फाल्गुन सुदि से आषाढ़ सुदि १४ तक पांच प्रहर का गरम जल का काल है। इस काल के उपरान्त का गरम जल सचित्त माना गया है। इसलिये नियमित काल के पहले गरम जल में चूना डाल देने से दो घड़ी दिन चढे तक वह जल वापरने के काम में आ सकता है, पीने योग्य नहीं।
८४. सातम तथा तेरस के दिन कहने की सज्झाय।
धम्मो मंगल महिमानिलो, धर्मसमो नहि कोय । धर्म मुसानिध्य देवता, धर्मे शिवसुश होय ॥ध० ॥१॥ जीवदया नित पालीये, संयम सतरे प्रकार । बारह भेदे तप तपे धर्मतणो ए सार ॥ ध० ॥ २ ॥ जिम तरुवरने फूलडे भमरो रस लई जाय । तिम सन्तोषे मुनि आतमा, फूलडे पीडा नवि थाय ॥ ५० ॥३॥ इणविध विचरे मुनि गोचरी,
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(१४१) लेवे शुद्ध आहार । ऊंचे नीचे मध्यम कुले, धन धन ते अणगार ॥ ध० ॥४॥ मुनि मधुकर सम कह्या, नहीं तृष्णा नहीं लोभ । लाधे तो भला देहीने, अणलाभे मन थोभ ॥१०॥ ॥५॥ प्रथम अध्ययन द्रुमपुष्पिका, सखरा अर्थ विचार । पुण्यकलश शिष्य जेतसी, धर्मे जय जयकार ॥ ४०॥६॥ ८५. जिनमन्दिर की पांच आशातनाएँ ।
१ अवर्णाशातना-प्रभु के सामने या मन्दिर में पग पर पग चढा कर बैठना, प्रभु के तरफ पूंठ रख कर बैठना, पैर लम्बे कर या विपरीत आसन से बैठना. जिनवचन विरुद्ध भाषण करना और एक दूसरे के मर्मघाती वचन बोलना या दूसरों की निन्दा करना ।
२ अनादराशातना-मलमलिन घृणाजनक अशुचि वस्त्र पहिन कर मन्दिर में जाना, शून्य मन से प्रभु पूजा, दर्शन करना, बिना अदब का व्यवहार करना, खाली बकवाद या पापकर्म बन्धक बातें करना और प्रपंची मामले खडे करना ।
१ मांस मदिरादि परित्यक्त बहुसुखी श्रीमन्त महाजनादि कुलऊंचकुल । २ गरीब जो मांसादित्यक्त महाजनानि कुल-नीचकुल । ३ मांसादि परिभोग रहित महाजनादि अल्पसुखी श्रीमन्त कुछ-मध्यम कुल । अथवा जिन वर्णवाले कुलों के साथ ऊंचे वर्णवालों का खान पान व्यवहार चालु हो उन कुलों में गोचरी के लिये जाना और जिनकुलों में मांस मदिरा खाने पीने का व्यवहार हो उन कुलों में साधुओंको भिक्षा नहीं लेना चाहिये।
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(१४२ ) ३ भोगाशातना-मन्दिर में बालक बालिकाओं को रमाना, स्त्री से संभोग करना, दृष्टिभोग या कुचेष्टा करना हास्य कुतूहलजनक प्रसंग खडे करना, सगाइ सम्बन्ध जोड़ना और तत्सम्बन्धी बात विचार की योजना गढ़ना और खान, पान या जीमन का आयोजन करना ।
४ दुष्प्रणिधानाशातना-मोह के वश मनोवृत्ति दृषित करना, मानसिक, वाचिक, कायिक चाला करना या विकार भावना पैदा करना, और राग द्वेष के कारण ठंडे हुए कलहों की उदीरणा करके बैमनस्य उत्पन्न करना ।
५ अनुचित्तवृत्ति आशातना-मन्दिर में लेणदेण या किसी कार्य की सिद्धि के लिये धरणे बैठना लंघन करना, रुदन या आत रौद्र ध्यान करना, राजकथादि विकथा करना, अपने गाय, भैंस, घोडे, उँट आदि मन्दिर की जगह में बांधना, अन्नादि, सुखाना पिसाना या संभराना गालियाँ देना, दुनियादारी की पंचायत करना, जूते सहित मन्दिर में जाना या उसकी हद में फिरना, शारीरिक अवयव उघाडे रखना, भोजन या जलपान करना, बीडी पीना और लघुनीत बडीनीत करना इत्यादि । जघन्य १०, मध्यम ४० तथा उत्कृष्ट ८४ आशातना भी हैं जो श्राद्धविधि आदि ग्रन्थों से समझ कर टालने की खप रखना चाहिये।
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८६. श्रावक को नित्य धारने योग्य १४ नियम ।
सचित्त दव्व विगई, बाणह तंबोल वत्थ कुसुमेसु । वाहन सयण विलेवण, बंभ दिसि न्हाण भत्तेसु ॥१॥
१ सचित्त में-पृथ्वीकाय-माटी, नमक, गोबर, खडी, हरताल, हरमची, मनसिल आदि वस्तुओं का बजन प्रमाण और उनको वापरने की गिनती करना।
अपकाय-पीने, न्हाने आदि में जल वापरने का प्रमाण करना और पणेरा तथा निवाग की गिनती करना।
तेउकाय-चूल्हा, भट्टी, सगडी, दीपक, कंडील, ग्यास, बिजली, तापनिया, अबाडा, पिलसोद आदि लगाने की नियम गिनती करना ।
. वायुकाय--पंखा, वस्त्रखंड, बींजना वृक्षडाली, झूला. हिंचोडा आदि से हवा लेने, फूंक देने, कचरा साफ करने की बुहारी और भूगली से फूंकने की गिनती, एवं उन चीजों का प्रमाण करना ।
वनस्पतिकाय-पत्र सम्बन्धी शाग, भाजी बीज सम्बन्धी और फल सम्बन्धी वस्तु खाने की चीजों का प्रमाण और गिनती करना।
२ द्रव्य-जो चीजें अलग अलग स्वाद के लिये खाने में आवें और मुखशुद्धि के वास्ते दाँतन आदि की गिनती एवं प्रमाण करना ।
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( १४४ )
३ विगई - मधु, माखन, मांस, मदिरा, इन चार महावियों का सर्वथा त्याग करना । दूध, दही, घी, तेल, गुड, कढाई इन विगयों में से प्रतिदिन वारा फिरती एक बिग का त्याग, अथवा वापरने की गिनती करना ।
४ उवाणह— उवाणह - पगरखी - जूता, बूट, मोजा, पंजा आदि पहरने की गिनती करना ।
५ तम्बोल - पान, सुपारी, लौंग इलायची, डोडा, चूरण आदि मुखत्रास की वस्तुओं के वापरने की गिनती
तथा वजन प्रमाण करना ।
६ वस्त्र -- मखमल, रेशमी, शनिया, ऊनी, सूती आदि वस्त्रों के गलपट्टे, टोपी, अंगरखी, कोट, धोती, दुपट्टे, खमीज, बंडी आदि पंचांग पोषाक या एकादि की और ओढने आदि के वस्त्र वापरने की गिनती करना ।
७ कुसुम - सूङ्घने योग्य पुष्प, इत्र, तेल, फुलेल,, छींकनी, नासिका आदि को वापरने की गिनती और ममाण करना ।
८ वाहन - हाथी, घोड़ा, पाडा, बैल, खच्चर, ऊंट, रथ, पालखी, गाडी, रेल, मोटर, भगवोट नाव, हवाई जहाज आदि पर बैठ कर जाने आने का प्रमाण करना ।
९ शयन - शय्या, पाट, पाटळा, पलंग, खाट, गादी तकिया, जाजम, मचली गादी, टाट आदि पर बैठने या सोने का प्रमाण और इनकी गिनती रखना ।
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१० विलेपन पीठी, चन्दन, केर, तेल आदि शरीर पर लगाने और मसलने की चीजों का प्रमाण या गिनती करना ।
११ ब्रह्म-रात्रि या दिवस में अपनी स्त्री से मैथुन सेवने का प्रमाण करना और कुदरत विरुद्ध या लोकनिषिद्ध मैथुन का सर्वथा त्याग करना ।
१२ दिशि-पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, विदिशा, ऊंचे, नीचे, इनमें गाँव, ग्रामान्तर जाने आने का कोशप्रमाण करना।
१४ भक्त-भोजन के योग्य जो जो वस्तु खाने में आवें उनका वजन प्रमाण अलग अलग या शामिळात करना ।
(१) असि-तरवार, छुरी, कटारी, कतरनी, सरोंता, गेती, कुहाड़ी, तमंचा, चक्कू, चीपिया, सई, चिमटा, मूसल हलवानी आदि शस्त्रों की गिनती एवं प्रमाण करना ।
(२) मसी--सर्वजात की श्याही, दवात, कलम, पेंन्सिल, होल्डर, सिलेट, पट्टी, चोपडा, नोट पेपर, कागद आदि वापरने का प्रमाण करना ।
(३) कृषि--खेत, घर, हाट, हवेली, टांका, तलघर तालाब, कुआ, बावडी, होद आदि बनवाने और बगीचा, खेत बोने,झाड रोपने, जंगल व घास कटवाने आदि काप्रमाण करना-कराना। ऊपर लिखे मुताबिक सांझ सवेरे दोनों वख्त
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(१४६ ) नियम धारण करना। प्रातःकाल में धारण की हुई वस्तुओं को संध्या समय और रात्रि में धारण की हुई वस्तुओं को प्रातः समय याद कर लेना चाहिये। यदि नियम में रक्खी हुई चीजों में से कोई चीज अनायास अधिक वापरने में आ गई हो तो उसका गुरु के पास दंड लेकर शुद्ध होना चाहिये । इन नियमों से नियमित वस्तु रखनेवाले श्रावक श्राविका को पन्द्रह उपवास के जितना लाभ मिलता है। ८७. मुँहपत्ति और अंगपडिलेहण के ५० बोल। दृष्टिपडिलेहण करते समय--
१ सूत्र, अर्थ, तत्व करी सद्दई । मुहपत्ति के पट उलट-पलट करते समय
४ सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहन्यी, मिश्रमोहनीय, परिहरु । ७ कामराग, स्नेहराग, दृष्टिराग परिहरूं । बाँये हाथ को पडिलेहते समय
१० सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदरं । १३ कुदेव, कुगुरु, कुधर्म परिहरु । १६ ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदरूं। दाहिने हाथ को पडिलेहते समय
१९ ज्ञानविराधना, दर्शनविराधना, चारित्रविराधना परिहरु।२२ मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति आदरुं । २५ मनदंड, वचनदंड, कायदंड परिहरु । बाँई भुजा के नीचे पडिलेहते समय
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(१४७) २८ हास्य, रति, अरति परिहरु । दहिनी भुजा के नीचे पडिलेहते समय
३१ भय, शोक, दुगंच्छा परिहरूं। शिर और ललाटको पडिलेहते समय-- .
३. कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या परिहरु । मुख को पडिलेहते समय--
३७ ऋद्धिगारव, रसगारव, शातागारव परिहरु । छाती को पडिलेहते समय
४० मायाशल्य, नियाणशल्य परिहरु । ४२ क्रोध, मान परिहरु ( बांई भुजा के पीछे ) । ४४ माया, लोभ परिहरु ( दाहिनी भुजा के पीछे )। चरवला से बाँये पैर को पडिलेहते समय
४७ पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय की रक्षा करूं। चरवला से दाहिने पैर को पडिलेहते समय
५० वायुकाय, वनस्पतिकाय, सकाय की रक्षा करूं।
मुखवस्त्रिका और अंगपडिलेहण करते समय उक्त ५० बोलों को ध्यान में रख कर दिखलाये हुये स्थानों की पडिलेहण करना चाहिये। इनमें तीन लेश्या, तीन शल्य और चार कषाय, ये दश बोल श्राविकाओं को नहीं बोलना, शेष चालीस बोल बोलना चाहिये ।
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(१४)
८८. जन्म सम्बन्धी संक्षिप्त
१ पुत्र जन्मे तो दश दिन का और पुत्री दिन में जन्मे तो ११ दिन का और रात्रि में जन्मे तो बारह दिन का सूतक जानना । जन्मदात्री को चालीस दिन का और सुवावड़ करनेवाली को सत्तावीस दिन का सूतक जानना । जन्मदात्री एक महिना तथा सुवावड़कर्त्री बारह दिन होने बाद प्रदर्शन कर सकती है, किन्तु प्रभु का पूजन नहीं कर सकती ।
२ जन्मदात्री के घरके कुटुम्बी दूसरे घर में बनी हुई रसोई जीमें उनको और उनके यहाँ आनेवाले सम्बन्धी जो साथ में खाते पीते हों उनको पांच दिन का सूतक लगता है । दूसरे गाँव से आनेवाले लोग जन्मदात्री के घर जितने दिन जीमे उनको उतने दिन का सूतक लगता है और नहीं जीमे तो सूतक नहीं लगता ।
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सूतकविचार |
|
३ लड़की अपने पीयर में जन्मे तो उस के पति को तथा कुटुम्बियों को पांच दिन का सूतक जानना । दासी एवं नौकरानी जो अपने खुद के घर रहते हों और उनकी वहीं प्रसूति हुई हो और उनका जाना आना तीन दिन का सूतक जानना, वे आते-जाते सूतक नहीं लगता ।
होता हो तो नहीं हों तो
४ सुवावड़ करनेवाली पांच सात दिन जन्मदात्री के यहाँ रह कर वापिस अपने घर चली जाय, फिर नहीं आती
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(१४९ ) हो उस को बारह दिन का सूतक लगता है। जिस घर में जन्म हुआ हो, उसी घर में एक चूल्हे पर बनी हुई रसोई को जीमनेवाले कुटुम्बियों को सत्तावीस दिन का सूतक जानना, अगर उसी घर में दूसरे चूल्हे पर बनी हुई रसोई जीमे तो बारह दिन का सूतक लगता है। अगर किसी को प्रभुदर्शन और प्रतिक्रमण करने का नियम हो तो वह दूरसे प्रभुदर्शन और मन में प्रतिक्रमण कर सकता है, जन्मदात्री नहीं।
५ परदेश या परगाँव से जन्म होने का समाचार आया हो तो उसके कुटुम्बियों को एक दिन का सूतक जानना । गाय, भैंस, बकरी, ऊंटनी, घोड़ी का घर में प्रसव हो तो दो दिन का और जंगल में प्रसव हुआ हो तो एक दिन का सूतक जानना । प्रसवकाल से गाय, ऊंटनी का दूध दश दिन के बाद, भैंस का पन्द्रह दिन के बाद और बकरी का दूध आठ दिन के बाद खाया जा सकता है, पहले नहीं।
६ एक गुआड़ी या एक घर में दो या अधिक निवास हो, उनका निकास द्वार एक ही हो, उनमें से किसी के घर जन्म हुआ हो और परस्पर आभड़छेट न हो तो जन्मघर सिवाय के लोगों को सूतक नहीं लगता। यदि आभड़छेट हो किन्तु गोत्री हो तो उसको ५ दिन का और बिना गोत्री को ३ दिन का सूतक लगता है। गोत्री और गोत्र बिना के लोग जन्मदात्री के लिये चूल्हे पर बनी हुई ही रसोई जीमते
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(१५. ) हों तो उनको २७ दिन का और दूसरे चूल्हे पर बनी हुई रसोई जीमते हों तो १२ दिन का सूतक लगता है। ८९. मृतक सम्बन्धी संक्षिप्त सूतकविचार ।
१ जन्मते ही पुत्र, पुत्री मर जाय तो एक दिन का, दो तीन महिना तक के ही बालक, बालिका मर जाय तो तीन दिन का, चार मास से ग्यारह मास तक के होकर मर जाय तो पांच दिन का और एक साल से आठ साल तक के होकर मर जाय तो आठ दिन का सूतक उस के कुटुम्बियों को तथा उन के साथ में जीमनेवाले सम्बन्धियों को लगता है।
२ अपने अपने घर जीमनेवाले कुटुम्बियों के पुत्र, पुत्री जन्मते ही मर जाय तो तीन पीढ़ी तक चार प्रहर का, तीन मास तक के होकर मर जाय तो बारह प्रहर का, ग्यारह मास तक के होकर मर जाय तो बीस प्रहर का और आठ वर्ष तक के होकर मर जाय तो चार दिन का सूतक लगता है । सात पीढ़ी तक के कुटुम्बियों को एक दिन का सूतक समझना ।
३ जिस घर में आठ वर्ष उपरांत के बालक बालिका मर जाय तो बारह दिन का सूतक जानना । मृतक के पास सोनेवाले, उसको छूनेवाले और लास को उठा ले जानेवालों को तीन दिन का सूतक है, लेकिन नियमवाले हों तो वे दूर से प्रभुदर्शन तथा मनमें प्रतिक्रमण कर सकते हैं । स्थापनाचार्य, माला या पुस्तक के भेले नहीं होना चाहिये।
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( १५१ ) ४ मुर्दे को उठानेवाले कांधिया से अड़नेवालों को दो दिन का, मुर्दे को स्मशान में ले जाते समय साथ जानेवालों को यदि वे कांधियाओं से अड़नेवालों से अड़े हों तो एक दिन का सूतक लगता है, भेले न हुए हो तो स्नान कर लेने बाद सूतक नहीं लगता । देशान्तर या ग्रामान्तर से किसी गोत्री के मरने के समाचार आये हों तो एक दिन का सूतक जानना और घर में दास, दासी या नौकर, नौकरानी का मृत्यु हो जाय तो तीन दिन का सूतक समझना, वे अपने खुद के घर में मर जावें तो सूतक नहीं लगता।
५ मृतक के घर जीमनेवालों को बारह दिन का, चार पीढीवालों को ५ दिन का, पांच पीढीवालों को चार दिन का, छः पीढीवालों को दो दिन का, एवं सात पीढीवालों को एक दिन का सूतक लगता है। दूसरे गाँवों से मृतक के घर मुकाणिया जितने दिन जीमे उतने दिन का सूतक जानना, किन्तु बारह दिन होने वाद जीमे तो सूतक नहीं लगता । बारह दिन के अन्दर भी नहीं जीमनेवालों को सूतक लगता नहीं है।
६ जन्मदात्री को पुत्र पुत्री जन्मते ही मर जाय तो बारह दिन का सूतक, तथा जितने महिने का गर्भ गिरे उतने ही दिन का सूतक लगता है। गाय, भैस, उंट घर में मर जाय तो उनको बाहर निकाले बाद एक दिन का सूतक
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(१५२) लगता है और दूसरे कोई जानवर मर जाय तो उसको बाहर निकालने के बाद सूतक नहीं लगता। ९०. ऋतुवंती संबन्धी संक्षिप्त सूतकविचार ।
१ कारणवाली स्त्रियों को तीन दिन का सूतक लगता है। कारणवाली स्त्री कारण में पहले दिन चण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिन मानी गई है। इसलिये कारण के दिनों में स्त्रियों को रसोई बनाना, धान्य साफ करना, उसको पीसना, लोपन छावन करना, मोगर दाल बनाना, कपडे सीना, अपने वस्त्र सिवाय के अन्य वस्त्र धोना, घर का बायदा निकालना, पापड, बडी, खीचा बनाना, गाय, भैंस, बकरी को दोहना, दूध जमाना, बिलोना करना, धर्मकथा कहना, ज्ञातिभोजनादि में जीमने को जाना, लग्नादि प्रसंग में गीत गाना, दानादि देना मेलाखेला में जाना, ढोरादि के लिए बांटा वाफना, खानादि से मिट्टी लाना, झूले पर झूलना, स्वपर का शिर गन्थना गुन्थाना, रुदन हास्यादि करना, खाट, पलंग पर सोना बैठना, तैलादि लगाना, नदी तालावादि पर जाकर नहाना, घर में इधर उधर घूम कर पड़ी हुई चीजों को छूना इत्यादि कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये।
२ कारणवाली स्त्रियों को पांच दिन तक प्रभुदर्शन, प्रभुपूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण, आदि धर्मक्रिया नहीं करना चाहिये । पर्वतिथि सम्बन्धी तपस्या हो सकती है, परन्तु
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(१५३) उसकी खमासमण, माला गुणना, देववन्दन क्रिया पांच दिन बाद कर लेने से उसका व्रतमङ्ग नहीं होता।
३ रोगादि कारण में तीन दिन पूरे होने बाद भी रुधिर दिखाई देवे तो उसका कोई दोष नहीं माना जाता, लेकिन पांच दिन बाद ही पवित्र हो अबोट वस्त्र पहिन कर प्रभुपूजादि धार्मिक क्रिया आचरण करना चाहिये, पेश्तर नहीं।
९१. जैनदीवाली-पूजनविधि । प्रथम अच्छा मुहूर्त चोघडिया में बाजोट के ऊपर चोपडा को स्थापना कर, उसके दोनों तरफ घी का दीपक और धूप रखना, फिर अपने जिमने हाथ में मौली बांध कर नयी निकाली हुई बरु की कलम से नये चोपडे में नीचे मुताबिक लेख लिखना। *७४॥०००
श्रीपरमात्मने नमः । श्रीसरस्वत्यै नमः । श्रीगौतमस्वामीजी की लब्धि होजो, श्रीकेशरियाजी का भण्डार भरपूर होजो, श्री बाहुबलिजी का बल होजो,श्री अभयकुमारजी की बुद्धि होजो, श्री कवयन्नाजी का सुख होजो, श्री धन्नाजी और शालिभद्रजी की संपत्ति होजो । श्री वीरनिर्वाण संवत २४...., विक्रम सं० २००...., शुभ मास कार्तिक....
शिखराकार श्री कर के नीचे जो साथिया करना उसको कुंकुम से मांडना और ऊपर अखण्ड नागरवेल का पान रख कर उसके ऊपर सोपारी, इलायची, लोंग और एक
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( १५४) रूपिया रखना । फिर चोपड़ा के चारों ओर फिरती जलधारा देकर, चावल की पुष्पमिश्रित कुसुमांजली हाथ में लेकर “ मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमप्रभुः। मङ्गलं स्थूलिभद्राधाः जैनो धर्मोस्तु मङ्गलम् ॥ १ ॥ स्वःश्रियं श्रीमदर्हन्तः सिद्धाः सिद्धिपुरीप्रदम् । आचार्याः पञ्चधाचाराः वाचका वाचनां वराम् ॥ २ ॥ साधवः सिद्धिसाहाय्यं वितन्वन्तु विवेकिनाम् । मङ्गलानां च सर्वेषामाद्यं भवति मङ्गलम् ॥ ३ ॥ अहमित्यक्षरं मायाबीजं च प्रणवाक्षरम् । एनं नानास्वरूपं च ध्येयं ध्यायन्ति योगिनः ॥ ४ ॥ हृत्पद्मषोडशदलस्थापितं षोडशाक्षरम् । परमेष्ठिस्तुतेर्वीजं ध्यायेदक्षरदं मुदा ॥ ५ ॥ मन्त्राणामादिमन्त्रं तन्त्रं विघ्नौघनिग्रहम् । ये स्मरन्ति सदैवैनं ते भवन्ति जिनप्रभाः ॥ ६ ॥
ऐसा बोल कर चोपड़ा के ऊपर कुसुमांजली उछालना । फिर हाथ में जल का कलश लेकर--
"ॐ हीं श्रीं भगवत्यै केवलज्ञानस्वरूपायै लोकालोकप्रकाशिकायै श्रीसरस्वत्यै जलं समर्पयामि स्वाहा ।"
इस मंत्र को बोल कर चोपडा के ऊपर जल का छांटा डालना। फिर हाथ में घिसी हुई चन्दन-केशर की वाटकी लेकर
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( १५५ ) “ॐ ह्रीं श्री भगवत्यै केवलज्ञानस्वरूपायै लोकालाकप्रकाशिकायै श्रीसरस्वत्यै चन्दनं समर्पयामि स्वाहा।"
इस मंत्र को बोल कर चौपडा के ऊपर चन्दन-केसर से पूजा करना । फिर हाथ में सुगन्धी पुष्प लेकर--
“ॐ ह्रीँ श्री भगवत्यै केवलज्ञानस्वरूपायै लोकोलोकप्रकाशिकायै श्रीसरस्वत्यै पुष्पं समर्पयामि स्वाहा।"
इस मंत्र को बोल कर चोपडा के ऊपर फूल चढाना। फिर हाथ में अगरबत्तीधूप लेकर---
"ॐ ह्रीँ श्री भगवत्यै केवलज्ञानस्वरूपायै लोकालोकप्रकाशिकायै श्रीसरस्वत्यै धूपं समर्पयामि स्वाहा ॥"
इस मंत्र को बोल कर चोपडा के ऊपर धूप उखेवना। फिर हाथ में दीपक लेकर--
“ॐ ह्रीं श्री भगवत्यै केवलज्ञानस्वरूपायै लोकालोकमकाशिकायै श्रीसरस्वत्यै दीपं समर्पयामि स्वाहा ।"
इस मंत्र को बोल कर चोपडा के ऊपर दीपक फिरा कर उसके सामने रखना । फिर हाथ में अखंड चावल लेकर---
“ॐ ह्रीं श्री भगवत्यै केवल ज्ञानस्वरूपायै लोकालोकमकाशिकायै श्रीसरस्वत्यै अखण्डाक्षतं समर्पयामि स्वाहा ।"
इस मंत्र को बोल कर चोपडा के ऊपर चावल चढाना । फिर हाथ में नैवेद्य लेकर--
ॐ ह्रीँ श्री भगवत्यै केवलज्ञानस्वरूपायै लोकालोकप्रकाशिकायै श्रीसरस्वत्यै नैवेद्यं समर्पयामि स्वाहा ।"
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ACI
इस मंत्र को बोल कर चोपडा के सामने पाटला पर नैवेद्य चढाना । फिर हाथ में फल या श्रीफल लेकर--
"ॐ ह्रीँ श्री भगवत्यै केवलज्ञानस्वरूपायै लोकालोक"प्रकाशिकायै श्रीसरस्वत्यै फलं समर्पयामि स्वाहा ।"
इस मंत्र को बोल कर चोपड़ा के सामने बाजोट पर फल चढाना । बाद में दोनों हाथ जोड कर नीचे का 'शारदास्तोत्र' बोलना। जिनादेशजाता जिनेन्द्रावदाता, विशुद्धा प्रबुद्धानना लोकमाता। दुराचारदुनिहरा शंकराणी, नमो देवी वागेश्वरी जैनवाणी ॥१॥ सुधा धर्मसंसाधिनी धर्मशाला, मुधा धर्मनिर्नाशिनी मेघमाला। महामोहविध्वंसिनी मोक्षदानी ॥ न० ॥ २ ॥ अखे वृक्षशाखा वितीर्णाभिलाषा,कथासंस्कृता प्राकृता देशभाषा। चिदानन्दभूपस्य या राजधानी ॥ न० ॥ ३ ॥ समाधानरूपा अनूपा अतन्द्रा, अनेकान्तवादाङ्कितहस्तमुद्रा । त्रिधा सप्तधा द्वादशाङ्गी वखानी ॥ न० ॥ ४ ॥ अकोपा अमाना अदम्भा अलोभा, श्रुतज्ञानरूपी प्रतिज्ञानशोभा। महापावना भावना भव्यमानी ।। न० ॥ ५ ॥ अतीता अभीता सदानिर्विकारा, स्मरा वाटिका खण्डिनी
खड्गधारा । पुरा पापविच्छेदकी कृपाणी ॥ न० ॥ ६ ॥ अगाधाअबाधा निरन्ध्रानिराशा, अनन्ता अनादीश्वरा कर्मनाशा । निशङ्का निरङ्का चिदङ्का भवानी ॥ न० ॥ ७ ॥
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( १५७)
अशोकामुदोका विवेकाभिधानी, जगज्जन्तुमित्रा विचित्रावसानी । समस्तावलोका निरस्ता निदानी ॥ न० ॥ ८ ॥ "
फिर आरती उतार के दोनों हाथ जोड कर नीचे लिखे मुताबिक 'गौतमस्तोत्राष्टक' बोल कर याचकों को यथाशक्ति दान देना ।
"
अंगूठे अमृत वसे, लब्धितणा भंडार |
ते गुरु गौतम समरिये, वांछित फल दातार ॥ १ ॥ प्रभुवचन त्रिपदी लही, सूत्र रचे तिण बार । चौदे पूरवमां रचें, लोकालोक विचार ॥ २ ॥ भगवती सूत्रे कर नमी, बंभीलिपि जयकार | लोक लोकोत्तर सुख भणी, भाषा लिपि अठार || ३ || वीरप्रभु सुखिया थया, दीवाली दिन-सार | अन्तर्मुहूर्त्त ततखिणे, सुखियो सहु संसार ॥ ४ ॥ केवलज्ञान लहे तथा, श्री गौतमगणधार । सुर नर हर्ष भरी प्रभु, करे अभिषेक उदार ॥ ५ ॥ सुर नर परषदा आगले, भाषे श्रीश्रुत नाण । ज्ञानथकी जग जानिये, द्रव्यादिक चौठाण ॥ ६ ॥ ते श्रुतज्ञानने पूजिये, दीप धूप मनुहार । वीरागम अविचल रहो, वरस इकवीस हजार ॥ ७ ॥ दीवालीदिन समरिये, गोयम नाम पवित्त । सुख संपद लीला लहे, पामे बहुलो वित्त ॥ ८ ॥ परंमोपकारी पूर्वाचार्यांने संसारी जैनगृहस्थों की सांसा
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( १५८ )
'रिक उन्नति के लिये स्वरचित शास्त्रों में 'दीवालीपूजन' का जिस प्रकार विधि विधान बतलाया है उसीको उसी प्रकार समाराधन करने से विशेष लाभ होता है । जो अपने धर्म में विहित मार्ग को छोड़ कर विधर्मीय विधान का आचरण करते हैं, उन्हें लाभ के बजाय हानि ही होती है । अतः व्यावहारिक लाभ मर्यादा भी अपने धर्मशास्त्र के अनुसार ही करना चाहिये । जैनी लोग जैनविधि से दीवालीपूजन करें, इसीलिये यहाँ दीवालीपूजन विधि लिखी गई है ९२. प्रासङ्गिक प्रश्नोत्तरी ।
I
प्रश्न – सामायिक में पहले इरियावहि करना, या सामायिक दण्डकोच्चार के बाद ? |
उत्तर - अगर शास्त्रदृष्टि से विचार किया जाय तो सामायिक दण्डकोच्चार के बाद ही इरियावहि करना युक्तिसंगत है । क्योंकि सामायिक- विधान में आवश्यक सूत्रबृहट्टीका, हारिभद्रीय आवश्यकसूत्रटीका, यशोदेवसूरिकृतपञ्चाशक चूर्णि, विजयसिंहाचार्यकृत - श्रावकमतिक्रमणचूर्णि, श्रावकधर्म विधिप्रकरण, वर्द्धमानसूरिकृत - कथाकोश, श्रावकदिनकृत्य आदि प्रामाणिक सूत्र - ग्रन्थाकारीने सामायिक पाठोच्चार के बाद ही इरियावहि पडिक्कमण करना लिखा है । प्रश्न – सामायिक गुरुवन्दनपूर्वक करना, या गुरुवन्दन के बिना भी की जा सकती है ? | उत्तर- 'तिविहेण साहुणो णमिऊण पच्छा
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(१५९ ) सामाइयं करेइ' श्रीआवश्यकसूत्रबृहट्टीका के इस वाक्य से स्पष्ट है कि गुरुवन्दन किये विना सामायिक नहीं हो सकती। इसलिये सामायिक लेने के पहले गुरुवन्दन अवश्य करना चाहिये । गुरुवन्दन के तीन भेद हैं-फेटावन्दन, थोभवन्दन और द्वादशावर्तवन्दन । हाथ जोड़ कर मस्तक नमाने से फेटावन्दन, दो खमासमणपूर्वक पञ्चाङ्ग नमस्कार करने से थोभवन्दन और इरियावहि पडिक्कमण कर दो खमासमण, दो वांदणा, खमासमण अब्भुटिओ, इच्छकार पूछने से द्वादशावर्त वन्दन होता है । सामायिक लेने के पहले निष्कारण द्वादशावर्त चन्दन से गुरु को, उनके अभाव में स्थापनाचार्य को अवश्य वांद लेना चाहिये । कारण विशेष में फेटा या थोभ बन्दन भी कर लिया जाय तो कोई हरकत नहीं हैं। संलग्न एकाधिक सामायिक करना हो उसमें प्रथम गुरुवन्दन कर लेना, बाद में बार बार गुरुवन्दन की आवश्यकता नहीं है।
प्रश्न- सामायिक बैठे-बैठे उच्चारना, या खड़े होकर उच्चारना ?
उत्तर—सामायिकविधान में 'बेसणे संदिसाउं, बेसणे ठाउं' यह आदेश लेना लिखा है। इससे साफ जाहिर होता है कि सामायिक खडे होकर ही उच्चारना चाहिये तभी उक्त आदेश सार्थक होंगे । बैठा हुआ मनुष्य बैठने का आदेश मांगे यह उपहास्य जनक है और अविनय का भी
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(१६०) घोतक है। धर्म विनयकमूलक है, अतएव गुरु के विनयार्थ सामायिक, प्रत्याख्यान आदि खडे होकर ही उच्चरना चाहिये।
प्रश्न-प्रतिक्रमण में श्राद्धव्रतों के अतिचारों की आलोचना है, इसलिये व्रतधारियों के सिवा प्रतिक्रमण करना क्या व्यर्थ है ?
उत्तर-एसा मन्तव्य क्रियाशिथिल और धर्माभास लोगों का है श्राद्धप्रतिक्रमण (वंदित्त) सूत्र में साफ लिखा गया है किपडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं । असदहणे अ तहा, विवरीयपरूवणाए अ॥४८॥
अर्थात्-१ आगम-निषिद्ध हिंसादि कार्य करने, २ करने लायक कार्य को न करने, ३ निगोदादि सक्ष्म पदार्थों के अस्तित्व में श्रद्धा न रखने और ४ जिनवचन विरुद्ध मरूपण करने में जो दोष ( अतिचार) लगे हों उनकी शुद्धि के पश्चात्ताप के लिये प्रतिक्रमण किया जाता है। इससे व्रतधारी हो या अव्रतधारी, दोनों को प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये । प्रतिक्रमण से मिथ्याभाष का अभाव, सम्यक्त्व की उज्ज्वलता, कषायों की मन्दता, विरतित्व, क्षमादिगुण का प्रादुर्भाव और सपाप मायिक व्यापारों में उदासीनता आदि लाभ की प्राप्ति होती है-जिससे कर्म की लाघवता हो कर संसार-भ्रमण का परिताप कम होता है। अतः इसके मूल
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( १६१ )
हेतुओं को लक्ष्य में रख कर अर्थज्ञान और शुद्धोच्चारण पूर्वक प्रतिक्रमणक्रिया की जाय तो विशेष लाभकारक है । प्रश्न – चैत्यवन्दनक्रिया प्रतिक्रमण में की जाना ठीक है या जिनमन्दिर में ?
उत्तर - - प्राचीनकाल में श्रावक-श्राविका जिनमन्दिर में चैत्यवन्दनक्रिया करके पौषधशाला आदि में प्रतिक्रमण करते थे और रात्रिक-प्रतिक्रमण करके जिनालय में जाकर चैत्यवन्दनक्रिया करते थे । परन्तु प्रमाद के कारण लोगोंने जिनालय में चैत्यवन्दनक्रिया छोड़ना शुरू की, तब सुबि - हिताचार्योंने उक्त क्रिया को प्रतिक्रमणविधि में सम्मिलित कर दी जब से यह क्रिया प्रतिक्रमेण में शुरू हुई, जो सुविहिताचार्य समाचरित होने से अनुचित नहीं है ।
प्रश्न - चार स्तुति प्राचीन है या तीन, और चौथी स्तुति के कहने में क्या दोष है ? |
उत्तर -- हरिभद्राचार्यरचित ' श्रीपञ्चाशकप्रकरण ' के टीकाकार श्री अभयदेवाचार्य ने 'चतुर्थस्तुतिः किलार्वाचीना' इस वाक्य से चौथी स्तुति को निश्चय से नवीन कही है, तीन स्तुति को प्राचीन कहना उचित है । यदि 'किल' शब्द का ' संभावना' अर्थ माना जाय तो भी अभयदेवाचार्य के कथन से चौथी स्तुति नवीन ही संभवित होती है । अगर वह प्राचीन होती तो उसकी संभावना क्यों करना पडती ? | १२
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( १६२) इसलिये आगम और प्रामाणिक सुविहिताचार्यों के मन्तव्य से तीन स्तुति ही प्राचीन है, चार नहीं ।
तुर्यगाचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजीने भी स्वरचित 'गच्छमतप्रबन्ध अने संघप्रगति' पुस्तक के पृष्ठ १६९ में लिखा है कि “विद्याधरगच्छना श्रीमान हरिभद्रसरि थया" ते जाते ब्राह्मण हता, तेणे जैनदीक्षा ग्रहण करी, याकिनी साध्वीना धर्मपुत्र कहेवाता हता । तेमणे १४४४ ग्रन्थो बनाव्या, श्री वीरनिर्वाण पछी १०५५ वर्षे स्वर्गे गया त्यारपछी चतु:स्तुति मत चाल्यो ।"
चौथी स्तुति में देव-देवियों से मुख और समाधि आदि कार्यों की याचना की गई है । देवदेवी स्वयं विषयकषायसंपन्न होने से मोक्षसुख और मोक्षलायक आत्मसमाधि देने में असमर्थ हैं। वास्तविक सुख समाधि तो पंचपरमेष्ठी के सच्चे आलम्बन से ही मिल सकती है। प्रतिक्रमणक्रिया भावानुष्ठान है, उसमें सांसारिक सुखसमाधि की याचना करना दोष जनक ही है, इसीसे प्रतिक्रमण में देवों की स्तुति नहीं कहना चाहिये । जो मोक्षदायक सुखसमाधि से स्वयं वंचित है, उसके पास उस सुखसमाधि की याचना करने से निराशा के सिवा और क्या फल मिल सकता है ? ।
'तीन स्तुति करने का मत श्रीराजेन्द्रसूरिजीने नया निकाला है' ऐसा जो लोग कहते या लिखते हैं वे या तो जैनागम-ग्रन्थों से अपरिचित (अनभिज्ञ) हैं, या अंगत
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( १६३)
द्वेषी हैं । त्रिस्तुतिक सिद्धान्त के प्रतिपादक अनेक प्रामाणिक - सूत्रग्रन्थ विद्यमान हैं- जिनके अवलोकन से इस सिद्धान्त की सत्य स्थिति का भलीभाँति पता लग सकता है । आचार्यदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने लोगों को वास्तविक मार्ग समझा कर त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का पुनः प्रचार किया है । नया मत तो वह है जो शास्त्रोक्त न हो और गतानुगतिक से चल पड़ा हो ।
प्रश्न -- प्रतिक्रमण में लघुशान्ति क्यों नहीं कहना ? | उत्तर - लघुशान्ति के कर्त्ता श्रीमानदेवसरि हैं, उन्होंने इसकी रचना शाकंभरीसंघ के कहने से मरकी ( महामारी ) रोग की निवृत्ति के लिये की है, इनके पहले लघुशान्ति नहीं थी । मानदेवसूरि के बाद लोग इसका मांगलिक के लिये पाठ किया करते थे । वृद्धवाद ऐसा है कि आज से पांचसौ वर्ष पहले उदयपुर ( मेवाड़ ) के उपाश्रय में एक यतिजी दर्शनार्थ आनेवाले श्रावक-श्राविका को मांगलिक के लिये लघुशान्ति सुनाया करते थे । उनको मांगलिक सुनाते एक बजे तक बैठक लगाना पडती थी, इससे घबरा कर यतिजीने अपनी हमेश की दिकत को मिटाने लिये प्रतिक्रमण में 'दुक्खक्कमक्खय' के कायोत्सर्ग में लघुशान्ति कहने का प्रस्ताव पास कराया । तब से प्रतिक्रमण में कहने की प्रथा चालु हुई, जो अब भी प्रचलित हैं ।
इस उल्लेख से यह तो साफ मालूम पड़ता है कि श्रीमानदेवसूरि के पहले और बाद में कई सौ वर्ष तक प्रतिक्रमण
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(१६४ ) में लघुशान्ति नहीं कही जाती थी। लेकिन उदयपुर के चोमासी ( स्थाई रहनेवाले ) यतिजी के कहने से यह प्रतिक्रमण में प्रविष्ट हुई और वह भी उनके उकता जाने पर । अमुविहित यति की प्रचलित मथा माननीय नहीं हो सकती।
इसी प्रकार सहस्रावधानी मुनिसुन्दरसूरिरचित 'संतिकरं स्तोत्र' और वादिवेताल शांतिसरिरचित 'बृहच्छान्तिस्तव' भी प्रतिक्रमण में गतानुगतिक से प्रविष्ट हुए हैं। इसलिये गतानुगतिकप्रथा भी मानना उचित नहीं है। 'संतिकरं' के विषय में तो तूर्यस्तुतिक-वयोवृद्ध-विजयदानमूरिजीने स्वरचित- श्रीविविधप्रश्नोत्तर ' ग्रन्थ के द्वितीयभाग के पृष्ठ १८१-८२ में स्पष्ट लिखा है कि-" पाक्षिकादि प्रति क्रमणमां अन्ते 'संतिकरं' कहेवानो रीवाज वर्तमानमां थोडा ज वर्षोथी शरू थयेल होवाथी पाक्षिकादि प्रतिक्रमणमां ते कहेबुं प्रमाणभूत लागतुं नथी. आ ऊपरथी ते देवसी प्रतिक्रमणमां कहेवू ए तो सुतरां निराधार साबित थाय छ ।'
दर असल में लघुशान्ति और संतिकरं ये स्तोत्र महामारी आदि रोगोपद्रव की शान्ति के लिये बनाये गये हैं, जो वैसे ही कारणों की उपस्थित होने पर इनका पाठ और इनसे सविधि अभिमंत्रित जलसिंचन कार्यकारी हो सकता है। प्रतिक्रमण में इनके बोलने मात्र से कुछ लाभ नहीं है।' प्रत्युत दोषापत्ति है। जिस भावना को लक्ष्य में रख कर इनका पाठ किया जाता है, वह भावना प्रतिक्रमण में होना
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( १६५ )
भी नहीं चाहिये । क्या ' दुष्टग्रहभूतपिशाचशाकिनीनां प्रमथनाय यह दुष्ट भावना प्रतिक्रमण में लाभकारक हो सकती है ? नहीं, नहीं, कदापि नहीं ।
"
“
प्रश्न- वंदित्सूत्र में सम्मद्दिद्विदेवा, दिंतु समाहिं च बोहिं च ' पद कहना उचित है या नहीं ? |
उत्तर - कतिपय प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में वंदितसूत्र ४३ गाथा का उपलब्ध होता है । ४३ वीं गाथा में समाप्तिसूचक ' वंदामि जिणे चउव्वीस ' यह अन्त्य मंगल भी है । इससे जान पडता है कि पहले वंदित्तसूत्र ४३ गाथात्मक ही था। बाद में उसमें सात गाथा अधिक प्रक्षेप कर दी गई हैं । और उसकी सिद्धि के लिये वंदित्तुसूत्र पर संस्कृतटीका आदि रच दिये गये हैं । प्रक्षिप्त सात गाथाओं में पौनी सात गाथा तो जुदेजुदे ग्रन्थों में मिलती हैं । परन्तु ४७वीं गाथा का तृतीय पद ' सम्मद्दिद्विदेवा' किसी सूत्र में नहीं मिलता। इससे जान पडता है कि 'सम्मदिद्विदेवा ' यह पद किसी देवोपासकने नया बना कर रक्खा है । अगर ऐसा नहीं होता तो पौने सात गाथा के समान सूत्रों में ' सम्मदिट्ठिदेवा ' पद भी उपलब्ध होता । वस्तुतः कर्ममुक्त होने के लिये समाधि, बोधि देने में अरिहंत, सिद्ध, श्रुत, और साधु ये चारों समर्थ हैं। इनके आलम्बन से ही प्रत्येक आत्मा कर्ममुक्त हो सकता है देव-देवी विषय निरत होने से स्वयं
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(१६६) कर्गमुक्त हो सकते हैं और न दूसरों को कर्ममुक्त कर सकते हैं। अत एव वंदित्तु में 'सम्मदिद्विदेवा' पद कहना उचित नहीं है । उसके स्थान पर ‘सम्मत्तस्स य सुदि' यही पद कहना अच्छा है, क्योंकि यह पद संगत और निर्दोष भी है।
प्रश्न-कायोत्सर्गावश्यक के अन्त में श्रुत-क्षेत्रदेव के कायोत्सर्ग एवं स्तुति कहना या नहीं।
उत्तर-पतिक्रमण की सूत्रोक्त विधियों में श्रुत क्षेत्रदेव के कायोत्सर्ग के अन्त में स्तुति कहना नहीं कहा और षडावश्यक के बीच ये हैं भी अनावश्यक । इसलिये श्रुतदेव और क्षेत्रदेव के कायोत्सर्गान्त में स्तुति नहीं करना चाहिये । लघुशान्ति के समान प्रतिक्रमण में ये भी गतानुगतिक से चल पड़ी है, अतः इनको सर्वथा अकरणीय समझना चाहिये । देवोपासक पल्लवग्राही लोगोंने अपना पकडा हुआ ढांचा सिद्ध करने के लिये प्रतिक्रमणविधियों में पीछे से यह घालमेल की है जो मानने लायक नहीं है।
सूत्रकार आचार्य भगवन्तोंने पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अन्त में 'दुक्खक्खय-कम्मक्खय' के कायोत्सर्ग करने बाद भुवनदेव, क्षेत्रदेव के कायोत्सर्ग करने की आज्ञा दी है, वह साधु साध्वियों के लिये है, श्रावकों के लिये नहीं । साधु-साध्वियों को विहार के दरमियान विश्रामस्थान और स्थंडिलभूमि के लिये : अणुजाणह जस्सग्गो' वाक्य बोल कर भुवन या क्षेत्रदेव की आज्ञा लेना चाहिये । उक्त आज्ञा लेने में यदि भूल हो गई
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( १६७ ) हो, तो उसके प्रायश्चित्त के निमित्त भुवन-क्षेत्रदेव का कायोत्सर्ग करना चाहिये, पर उनकी स्तुति नहीं कहना चाहिये।
प्रश्न-माणिभद्रयक्ष के सामने चावलों का साथिया और सिद्ध शिला मांड करके खमासमण देकर के वन्दन करना या नहीं ?
उत्तर-पालीताणा से प्रकाशित मासिक पत्र 'कल्याण' वर्ष ७ वे के अंक ३ के पृष्ठ ८३ में जेरामभाई पीताम्बरकी शंका के समाधान में चतुर्थस्तुतिक लब्धिमूरिने लिखा है कि “ मणिभद्रजी शासनना अधिष्ठायक होबाथी साधर्मी बन्धु तरीके श्रावक फेटावंदन करी शके छे, खमासमण दईने वंदन तो महाव्रतधारी गुरु तथा वीतरागदेवने ज थाय, अने मणिभद्रजी सन्मुख साथीओ करवानो होतो नथी, तो पछी सिद्धशिलानी वात ज क्यांथी होय ? " मई १९५०, वैशाख सं. २००६ । इससे साफ जान पडता है कि माणिभद्र अविरति सम्य- दृष्टिदेव है उसके साथ श्रावक का स्वधर्मीभाईपन का सम्बन्ध है । इसलिये श्रावक उसे खमासमण देकर वन्दन नहीं कर सकता सिर्फ हाथ जोड़ सकता है। माणिभद्र के सामने चावलों का साथिया भी नहीं किया जा सकता तो सिद्धशिला का आकार हो ही नहीं सकता। यही बात दूसरे अधिष्ठायक अधिष्ठायिकाओं के विषय में समझना चाहिये। आज के जमाने में श्रावक, साधु, श्राविका, साध्वी शासनदेवों को खमासमण देकर वन्दन करते हैं यह प्रथा अवांछनीय और अज्ञानमूलक है ।
- चतुर्थस्तुतिक रेलविहारी श्रीशान्तिबिजयजीने स्वरचित 'जैनमतप्रभाकर' पुस्तक के पृ० २८६ में लिखा है कि
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(१६८) चक्रेश्वरी, पद्मावती, गोमुख और मणिभद्र आदि शासन के रक्षक देव हैं उनकी पूजा, आरति, उनके सामने चावलों का स्वस्तिक नहीं करना चाहिये और न धन-दौलत मांगना, सिर्फ जिनमूर्ति के दर्शन किये बाद अधिष्ठायक देवों से जयजिनेन्द्र कह कर चले जाना । पूजा, आरति तीर्थकर देवों की होती है, अधिष्ठायक देवों की नहीं ।
अब समझो कि जब देवदेवियों की उपासना करनेवाले चतुर्थस्तुतिक आचार्य और साधु इस प्रकार लिखते हैं तब अधिष्ठायक, अधिष्ठायिका और शासनरक्षक देव-देवियों को खमासमण देकर वन्दन करना, केशर से उनकी पूजा करना, उनकी आरति उतारना और उनके सामने चाबलों का स्वस्तिक करना यह कितना अज्ञानमूलक और भूलभुलैया का खेल है ?, और यह सर्व विशुद्ध जैनधर्म को कलंकित बनानेवाला है। खरतरगच्छ में भेरुं भी अविरति, विषयी, और कषायप्रिय देव हैं, अतः उसको खमासमण देकर वन्दन करना और उसकी पूजा, आरति आदि करना जैनों के लिये अनुचित ही समझना चाहिये ।
आत्मीय दृढ़ता न रहने पर यदि कमजोरी के कारण किसी कामना सिद्धि के निमित्त देवदेवियों के सामने नैबेध या श्रीफलादि चढ़ाना पडे तो बात अलग है । कामना सिद्ध होना न होना हाथ की बात नहीं है । लेकिन यह मार्ग कायरों का है, दृढ़धर्मी आत्माओं का नहीं है।
-विजययतीन्द्रसूरि ।
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