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( ३४ )
दिक्खानाणं निसीहिआ जस्स-जिसके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये तीन कल्याणक हुए हैं
तं धम्मचक्कवहिं - उन धर्मचक्रवर्ती अरिनेमिं नम॑सामि । - - बाईसवें श्रीअरिष्ट नेमिनाथ को मैं वन्दन करता हूँ ॥ ४ ॥
चत्तारि अट्ठ-दस दोअ -- अष्टापद पर्वत के ऊपर चार, आठ, दश और दो
वंदिया जिणवरा चउव्वीसं-- ये चोबीस जिनेश्वरों के बिम्ब इन्द्रादि देवों से पूजित हैं
परमट्ठनिट्ठिअट्ठा - परमार्थ से कृतकृत्य हैं सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु- वे सिद्ध हुए सिद्धभगवान् मुझको मोक्षपद देवें ॥ ५ ॥
२५. भगवानहंसुत्तं ।
भगवान्हं, आचार्यहं, उपाध्यायहं सर्वसाधुहंभगवन्तों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को और समस्त साधुओं को मेरा वन्दन ( नमस्कार ) हो । २६. पडिक्कमणठावणासुतं ।
" इच्छाकारेण संदिसह, भगवं ! देवसिअ पडि क्कमणे ठाउं ?, इच्छं " – हे भगवन् !
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