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( १२० )
अष्टमी तपसज्झाय ।
( पश्चमी तप तमे करो रे प्राणी- ए राह ) अष्टमी तप तमे करो रे भवियाँ, अष्टमी गति दातार रे । अष्ट महासिद्धि एहथी पामे, जगमें जय जयकार रे ॥ अ० ॥ १ ॥ अष्टविध कर्मना मूलने कापे, अष्ट महामद संहार रे । केवल समृद्धि प्रगटे अंगे, आपे जिनपद श्रीकार रे ॥ अ० ॥२॥ वरस आठ लग अड मासे, ए तपविधि करिये रे । देववन्दन शुभ क्रिया साथे, विधिविधान आचरिये रे ॥ अ० ||३|| संवरभावे रहिये नितप्रति, ब्रह्मचर्य व्रत धारो रे । सुदेव गुरुनी श्रद्धा राखी, जिन आणा शिर धारो रे ॥ अ० ॥ ४ ॥ तप पूरण करिये उद्यापन, निज निज शक्ति अनुसार रे । तप फल पूरण पावो प्राणी, एहज तपनो सार रे ।। ५ ।। ऋषभा - दिक जिनवर केरा, कल्याणक दिन जाग रे । इण हेतु ए दिन छे आराधक, सूत्रतणे परमाण रे || अ० ॥ ६ ॥ सूरिराजेन्द्र पदने ध्यावो, मन थिर राखी ठाम रे । सूरियतीन्द्र पदभोगी थइने, लहो शिव पद अभिराम रे ॥ अ० ॥ ७ ॥ ६८. एकादशी तपचैत्यवन्दन ।
एकादशी तिथि उत्तमा, जिनवर बहु कल्याण । कर्म खपावन कीजिये, ए तप शक्ति सुजाण ॥ १ ॥ मृगशिर शुक्ल एकादशी, तप विधि लीजे धार । रुद्र मास ग्यार वर्ष में, व्रत धारन सुविचार ॥ २ ॥
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