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( १२४) ( ढाल ३, रणवंका रणमा चढिया- ए राह )
पत्नी संयुत्ते पोसह लीधो, सुव्रतसेठे अन्यदाजी । अवसर जाणी तस्कर आव्या, घरमां धन लूटे तदाजी ॥ १ ॥ शासनभक्त दैवीशक्ते, थंभाणा ते बापड़ाजी । कोलाहल सुणी कोतवाल आव्यो, भूप आगल धर्या रांकडाजी ॥२॥ पोसह पर देवजुहारी, दयावन्त लई भेटणोजी। रायने प्रणमी चोर मुकावी, सेठे कीधो पारणोजी ॥ ३ ॥ अन्य दिवस विश्वानल लाग्यो, सौरीपुरमा आकरोजी । शेठजी पोसह शमरस बेठा, लोक कहे हठ कां करोजी ॥ ४ ॥ पुण्ये हाट वखारो सेठनी, ऊगरी सहु प्रशंसा करेजी। हरखे सेठजी तप उजमगुं, प्रमदा साथे करेजी ॥ ५ ॥ पुत्रने घरनो भार भलावी, संवेगी शिरसेहरोजी । चउनाणी विजयशेखरसूरि, पासे तप व्रत आदरेजी ॥ ६ ॥ एक पट्रमासी चार चोमासी, दो सय छठ शत अट्टम करेजी । बीजां तप पण बहुश्रुत सुव्रत, मौन एकादशी व्रत धरेजो ॥७॥ एक अधम सुर मिथ्यादृष्टि, देवता मुव्रत साधुनेजी। पूर्वोपार्जित कर्म उदयसुं, अंगे वधारे व्याधिनेजी ।। ८॥ कर्मे नड़ियो पापे जडियो, 'सुर कहे जाओ औषध भणीजी । साधु न जाये रोष भराये, पाटु प्रहारे हण्यो मुनिजी ॥९॥ मुनि मन वचन काय त्रियोगे ध्यान अनल दहे कर्मनेजी । केवल पामी जिनपद रामी, सुव्रत नेम कहे श्यामनेजी ॥ १० ॥
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