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सावओ जइ वि बहुरओ होइ--यद्यपि श्रावक अनेक
आरंभ, समारंभ और परिग्रहादि आश्रववाला
होता है दुक्खाणमंतकिरिअं--तो भी वह दुःखों का अन्त (नाश) काही अचिरेण कालेण ।--स्वल्प काल में ही कर
लेगा ॥ ४१ ॥ आलोअणा बहुविहा--आलोचना बहुत प्रकार की है न य संभरिआ पडिक्कमणकाले--वह प्रतिक्रमण के
समय में नहीं याद आती, इसलिये मूलगुण-उत्तरगुणे---अणुव्रत रूप मूलगुण और सात
अणुव्रत रूप उत्तरगुण के विषय में कोई अति
चारालोचना शेष रह गई हो तो तं निंदे तं च गरिहामि ।--उसकी मैं निन्दा और गहीं
करता हूँ ॥४२॥ . तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स--केवली भगवान के
कहे हुए उस श्रावकधर्म की अन्भुडिओ मि आराहणाए--आराधना करने के लिए
____ मैं ( उद्यत ) सावधान हुआ हूँ और विरओ मि विराहणाए--श्रावकधर्म की विराधना से
निवृत्त ( अलग) होता हूँ
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